Book Title: Dharm Jain Updesh
Author(s): Dwarkaprasad Jain
Publisher: Mahavir Digambar Jain Mandir Aligarh

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Page 136
________________ -1 ( १२४ ) कि सर्वोत्कृष्ट है. दोनों श्री.में अंतरंग श्री प्रधान है । अंतरंग श्री. में केवल ज्ञान प्रधान है । इसी लिम कहा है. कि वह समस्त तत्वों को, सम्पूर्ण तत्व और उसकी भूत भविष्य वर्तमान समस्त पर्यायों को जानने वाली है। इस श्री को श्री सन्मति. (अंतिम तीर्थंकर श्री महावीर स्वामी) ने प्राप्त कर लिया था, वे सर्वज्ञ थे, इसलिए उनको चंदना की. है। वे वीर भगवान केवल, सर्वश ही नहीं है, हितोपदेशो भी हैं। उन्होंने जो जगजीवों को हितक्षा-मोक्ष का मार्ग बताया है, वह (हितोपदेश ) उज्ज्वल है। उस में प्रत्यक्ष या परोक्ष किसी भी प्रमाण से बाधा नहीं आती ! त्या वीर भगवान मोहरूप तद्रा नष्ट करने वाले हैं। अर्थात वीतराग हैं। अतः सर्व ज्ञाता हितोपदेशकता वीतरागता इन तीन असाधारण गुणों को दिखाकर देवतिम तीर्थंकर श्रीमहावीर स्वामी को जिनका कि वर्तमान में तीर्थ प्रवृत्त हो रहा है नमस्कार कर मङ्गलाचरण करते हैं। : " इसी हेतु हम "विचार करते हैं कि जहां तहां जो श्री इस्तेमाल की जाती है उसका उपर्युक्त अर्थ है-पत्रों में "सिद्धिश्री' का भावार्थ सिद्धों और श्री महावीर स्वामी से है। : । नोट: *८-मातिहार्य ...... दोहा-तरू अशोक के निकट में, सिंहासन छविदार । चीन क्षत्र शिरपर लसै, भामंडल पिछवार ।।... दिव्यध्वनि मुखत खिर, पुष्पं वृष्टि सुर होय ।. हारे चौंसाठे चमर यक्ष वाजें दुमि जोयः ॥

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