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को शास्त्रदान करके उनको शानी बनाएँ । इस काल में इस से
चढ़कर और कोई पुण्य कार्य नहीं । घनी धर्मात्माओं को पथ
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सुफ्त में बाँटकर अपने धन को सफल करना चाहिए ।
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: ९ -- किसी भी धर्म शास्त्रों व पुस्तकों के पत्र, धूक को नमी
से, नहीं पलटने चाहिए। और विनय से रखना चाहिए ।
१०- धर्म साधनं व स्वाध्याय समय श्रवोथन नहीं खुजाना चाहिए |
११- किसी से वाद विवाद करने का उद्देश्य जेनियाँ, को कदापि न करना चाहिए। प्रश्न पर मृदु वचन से समाधान कराना च कर देना योग्य है।
१२ -- भारतवर्षीय दिगम्बर संस्थाओं से निवेदन है कि जो
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भो पुस्तकें उनके यहां से विना मूल्य वितरण हेतु रूपों हो वो एक २ प्रति सुझे अवश्य भेजने की कृपा करें।
१३- बहुतों का ख्याल है कि रूपं गंध पुस्तकादि से अवि"नय होती हैं इस लिए हम उनको ग्रहण नहीं करते सो ऐसे भाइयों से मंत्र प्रार्थना है कि-विनय करना, न करना, हमारा ही कर्तव्य है | लाभ दुकान सर्वत्र विचारा जाता है और विचार : गीय है। हमको पेन्थों की विनय हस्त लिखित ग्रंथों के माफिक करनी चाहिए। क्योंकि ज्ञानावर्णी कर्माको आभव श्रविनय स े होता है । हस्त लिखित शानों में - ग्रंथा "निषेध हमारे देखने में याया नहीं ।
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१४- प्रगट हो कि २४ तीर्थंकर भगवान धर्म चलाने वाले होते हैं। उनके परी इस प्रकार हैं
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