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(१०) सम्बर पर.को.रोशन भाष । मुग्न होवे को यही उपाय 4. श्रावें नहीं नए जहां कर्म। पिछले एक प्रगटे निज धर्म ner. थिति पूर्ण है खिरखिर नाय। निर्जर भाव अधिकं अधिकाया निर्मल होय चिदानन्द श्राप । मिटे 'सहज पर सङ्ग मिलाप ti लोक, माहि तेरो कुछ नाहिं। लोक अन्य वू अन्व लसाहि ॥ यह सब पट व्यन को धाम ॥ चिन्मूरति, आत्मराम ॥११॥ दुर्लभ पर को रोकन भाव । सो तो दुलभ है सुम' रांच जी तेरे शान अनंत । सो नहीं दुर्लभ सुनो महंत २. धर्म खभांव यांप ही जान श्राप स्वभाव धर्म सोईमान। . जब वह धर्म प्रगट तोहे होइ.। तब परमात्म पद लख सोइ ॥१३॥.. यही: वारह. भावन सार । तीर्थंकर. भावें. निर्धार ... होय विरागं महानत लेय । तव भव भूमण जलांजलि देय ॥१क्षा भैया भावो. भाव अनूप । भावत होय तुरत शिव भूप ॥ सुख अनंत विलसों निशि दोश् । इम भापो स्वामी जगदीशा१५॥ ..प्रथम अथिर प्रशरण जगत, 'एक' अन्य अशुचान ॥ : श्राश्रय सम्बर . निर्जरा,, लोक वोध दुलमान ॥१६॥
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निश्चय से देखिए तो सर्व गति में दुख है । तपनि के भेद बहुत हैं तो शास्त्रजी स. मालुम करना तप दो प्रकार के होते हैं एक अंतरङ्ग दूसरा बहिरङ्ग । सर्व देश मुनि के और एक देश भावक के होते हैं । कुछ संक्षेप से मुनि के तपनि का वर्णन श्री गुर, फे स्वरूप में पाया है । तप और नेम में कुछ भेद नहीं है। जैसे किसान खेत को चाड से, होजवान डाट में होज़ के पानी की, रक्षा करता है । इसी तरह मुनि श्रावक अपने धर्म की यम नेम रूपी वाढ डाट लगाकर, रक्षा करते हैं और तप कर का को निर्जरा करते हैं यही उनका रत्न है । लोकिक कार्य भी नियम से होते देखिए तो धर्म कार्य को अवश्य यम नेम चाहिए ।