Book Title: Dharm Jain Updesh
Author(s): Dwarkaprasad Jain
Publisher: Mahavir Digambar Jain Mandir Aligarh

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Page 120
________________ ( १०८ ) सङ्ग में होती कदर नहीं। परदा 'पड़ा है मोह का०॥ चाहे तो कर्म काट, तू परमात्मा बनें, अंशंसोस है कि इस पर भी करता नजर नहीं ॥ परंदी पंडा है मोह का ॥ निज सक्ति को पहिचान समझ तूच्यामत आलस में . पडे रहने से होता गुजर नहीं। परदा पडा है मोह का०॥ जिन सेवकः । संयम । తల లలల లల पांचों इन्द्रीयों, और छटे मन का दमन करना, वैराग्य भावना, बारह भावनाओं का चितवन करना, सँसारो कार्यों में विरक्तका उपजावना सो संयम है । बारह भावना ( भैयालालं कृत): . ... * चौपाई * पञ्च परम गुरु बदन करू मन वच भाव सहित उर घर ॥ बारह भावनं पावन जान । भाऊ श्रात्म गुण पहिचान ॥१॥ '. 'किर नहीं दोखे नयनों घस्त । देहादिक अरं रूप समस्त ।। थिर विन नेह कौन से कर। अथिर देख ममता परि हर ॥२॥ • अशरण तोहि शरण नहीं कोय । तीन लोक में दंग धर जोय ॥ कोई न तेरा राखन हार । कर्मन बस चेतनं निरधारं ॥३॥ अरु सँसार भावना येह । पर द्रव्यन सो सो नेह ॥ तु चेतन, वे जड़ सर्वङ्ग । 'ताते तजो परायों सङ्गः ॥४॥ जीब अकेला फिरे त्रिकाल ऊरधं मध्य भवन पाताल ॥ . दूजा कोई न तेरे साथ। सदा अकेला भने अनाथ ॥५॥ मिन सदा पुद्गल से रहें । भर्म बुद्धि से जड़ता गहे। थे रूपी पुद्गल के खंद । चिनमूरति सदा अबंध ६ ... अशुचि देख. देहादिक अंङ्ग कौन कुंवस्तु लगी तो सङ्ग। अस्थि चाम मुधिरादिक गेह । मल मूत्रनि लेख तजो स्नेह ७ ॥ श्राशय पर से कोले प्रीति । ताते बंध पड़े विपरीत ॥ पुदगल तोहि अपन यो नाहिं । चेतन, ये जड़ सव माहि ॥ ॥ .

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