Book Title: Dharm Jain Updesh
Author(s): Dwarkaprasad Jain
Publisher: Mahavir Digambar Jain Mandir Aligarh

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Page 128
________________ ( ११६ ) अवश्य जानने योग्य है । सूत्रजी भक्तामरजी का मैं निषेध नहीं करती हूं मैं भी पाठ करती हूं मगर उसके अर्थ समझने की भी अति आवश्यकता है क्योंकि समझने से फल श्रेष्ठ और पूर्ण मिलता है । हमारी भाइयों व पिताओं से प्रार्थना है. कित्रियों को भी अवश्य धर्म लाभ पहुंचावें । विद्याभ्यास करावें । ज्ञान से लोकिक व पार्थिक सुखमाप्त होता है । गृह में अज्ञानता के कारण जो कुछ भी त्रुटियां हों वह शास्त्रज्ञांन द्वारा दूर हो सकती है। धर्म नाम आशा छोड़ना शङ्का तजना । यह जीव कर्मों से ऐसे लिप्त हैं जैसे सोना - पत्थर या. तिल - तेल । इस जीव का केवल ज्ञान, क्रोधादि जो कपाय उनकर आछादित है, इन दोषों को यथोक्त रीति से दूर करने पर वह निर्मल चिदानन्द ज्ञानमई शिवरूपी आत्मा सूर्य समान प्रगट होजाता है । . २- स्त्रीयां गृह में अथवा वसतिका में रहकर धर्म साधनं कर सकती है । श्राज कल इस पंचम काल में श्रार्जिका कम ि घडती हैं, इस लिए अपने गृह में ही बहुत कुछ धर्म साधन हो. · सकता है । इस पुस्तक के पढ़ने से भी बहुत कुछ ज्ञान प्राप्त होगा । 'भगवती श्राराधना श्लोक ८३ में लिखा है कि स्त्रीयों के महावृत मी हो सकते हैं। ३- स्त्रियों का महाव्रत । . १६ हस्त प्रमाण ९ सफेद वस्त्र अल्प मोल, पग की पड़ी सू लेय मस्तक पर्यन्त सर्व अङ्ग कूं आछादन करि और मयूरपिच्छ की धारण करतो ईय पथ करती, लज्जा है प्रधान जा, सो पुरुष मात्र में दष्टि नहीं धारती, पुरुषन ते यचनालाप नहीं करती, ' ग्रांम नगर के अति नजीक हू नहीं अति दूर हू नहीं, ऐसी वसतिको में अन्य आर्यिकानि के संघ में वसतो, एक बार बैठ मौन सहित

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