Book Title: Dharm Jain Updesh
Author(s): Dwarkaprasad Jain
Publisher: Mahavir Digambar Jain Mandir Aligarh

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Page 127
________________ इसलिये हमको . धर्भ साधन करना हमारा परम कर्तव्य है। :: इस पुस्तक में हर पुरुष व स्त्री को जो नित्य पट कम करने. चाहिये उसका कुछ संक्षेप से हाल लिखा है। आशा है कि एक चिन हो पढें व श्रवण करें। . . . ___ स्वाध्याय? समान कोई राय और कल्याणकारी वस्तु नहीं ..है। सदा उसमें लीन रहना योग्य है। . किसी से बाद विवाद नहीं करना । इस्म गुण नहीं बढ़ना है। शांतिपूर्वक धर्म माधन करो निमित्त पाकर उपदेश व समाधान मिष्ट. वचनों से करना श्रेष्ठ है। .. : माला तो करम फिर, जीभ फिर मुखं मायं । मना फिरे बजारमें, वो तो मुमरन नाय ॥॥ माला चैतनसों कहै, कहा फिराये मोय । मनुवा क्यों नहिं फेरगा, मक्त मिलावै सोय ॥२॥ आयु गले मन ना गले. इच्छाशा न गलंग :। . तृप्णा मोह सदा वढे, यासे भत्र भटकन्त ॥३॥ . ज्यों मन विपयों से रमें, त्यो हो आतम लीन । . क्षणमें सो शिव तियबरें क्यों भव भ्रमैनधीन।।2 • एक चरन जो नित पढे. तो काटे अज्ञान । पनिहारी. की.डोरिसे, सहज कटे पापागा ॥ ५॥ ... शास्त्रों के पढने व मुनने से हमको ज्ञान होगा कि. धर्म क्या है ? स्त्रियों की कैसी पर्याय है ! पतिवना शीलता कैसे चन सक्ती है । सम्यक्त क्या है स्त्री पर्याय से छुटकारा होकर किस विधि मोक्ष माप्त हो सकता है ? यह सब धर्म के स्वरूप

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