Book Title: Dharm Jain Updesh
Author(s): Dwarkaprasad Jain
Publisher: Mahavir Digambar Jain Mandir Aligarh

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Page 125
________________ ( १९३) तथा उन्मठ धाक दपमो ग्याएमी प्रतिमा का धारक : “तिन कृ यिनय भक्ति करि अन्न धन्न दैने सो पाप्रति . है। ( पमपुराण में भी यही कहा है) समदान-क्रीड़ा मैत्रत्रतादि करि जे आप समान थानतो संसार सागर के तारक धात्रक तिनि कृ श्राहारदान, श्रीयधदान, - . . . शास्त्रदान, अमैदान तया भूमिदान, सुवर्णदान, रसादिक .... ना सो समदान-यह समदान मध्यन पात्र ने प्रती आवक तिन क श्रदा पूर्वक विनय से देना । अन्वयदान-अपने वंश को रक्षा के अयि धर्मात्मा विवेकी जो पत्र ... . ताकघर का सशल द्रव्य देना और धर्म का उपदेश . . .देना। श्रर सकल कुटम्ब का योग देना पर आप सकल : सू निरवति होय मुनिवृत लेने अथवा उत्साट धावक . . के व्रत धारने । (सर्वदान भी यही है) नोट १-मुभियों के घास्त शहर के पाहर सालों में मठ मण्डप यानी वस्तिका वनवा देना सो वस्तिका दान चौथे शिक्षापत में कहा है। . . - नोट-जेच कहीं गुफा, वसलिका इत्यादि में मुनि ठहरें तय ये इस प्रकार कहते हैं "मा स्थान के निवासी हो, तुम्हारी .:. इच्छा करि है यहां हम तिट है" जाते समय इस प्रकार कहे हैं-भी स्थान के स्वामी हो, हम तुम्हारे स्थान में इतने कात विष्ठे अब गमन करे है। नोट ३-जैन घाल गुटका दूसरे भाग में दान के चार भेद करणादान, पात्रदान, समदान, और सर्वदानमौर दिल हैं। जिसका तात्पर्य ऊपर चार दान है सोई पाठसगण.कोई · शंका न करें।

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