Book Title: Dharm Jain Updesh
Author(s): Dwarkaprasad Jain
Publisher: Mahavir Digambar Jain Mandir Aligarh

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Page 119
________________ ( १०७) हम को नेत्रों से दर्शन, मुख से जिद्र गुणानुवाद स्वाध्याय करना, कानों से धर्मध्वनि सुनना हाथों से धर्न कार्य दान • करना, मन से धर्म भावनाः करना चाहिए । मेरे अंतरङ्ग यह मङ्गलोक भावना दृढ़ रहे और जीवमात्र दुख से छूटें और बुख प्राप्त करें। महिमा जिनवर वचन की, नहीं वचन वल होय । भुजवल सों सागर अगम, तिरे न तीरहिं कोय । इस असार संसार में, और न · सरन उपाय । जन्म जन्म हूजो हमें. जिनवर धर्म सहाय ॥ . . . . . . ॥ भजन ।। ( १.). करो कल्याण आतम का भरोसा है नहीं दम का । ए काया कांच की शीशी, फूल मत देख कर इसको, छिनक में फूट जावेगी चवूला जैसे शयनम का करो॥ ए धन दौलत मकां मंदिर जो त अपने बताता है, नहीं हरगिज कभी तेरे छोड़, जंजाल सब गम का करो० ॥ सुजन सुत नार पितु मादर सभी परिवार अरु बिरादर, __ खड़े सव देखते रहेंगे कूच होगा जभी दमका । करो०॥ वड़ी. अरबी ए: जंग रूपी फंसे मत मान कर इन में, - कहें चुन्नी समझ मन में सिताय ग्यान का चमका करो॥ . . * सम्पूर्ण पद ॥ परदा पड़ा है मोह का. आता नजर नहीं। चेतन नेरासरूप है तुझ को खबर नहीं ॥१॥ परदा० चारी गतिमें मारा फिर स्वार रातदिन, आपमैयाप आपको लखता मगर नहीं ॥२॥ परदा पड़ा है मोह का० तंज मन विकार, धारले. अनुभव, सुचंत हो। निज पर विचार, देख जगत राघरनहीं ॥ परदा पढा० ॥ तू व स्वरूप शिव वहां ब्रह्मरूप है। विपियों के .

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