Book Title: Dharm Jain Updesh
Author(s): Dwarkaprasad Jain
Publisher: Mahavir Digambar Jain Mandir Aligarh

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Page 117
________________ ( १०५ ) जाहिये. क्योंकि एक वस्तु में अनक. धर्म होते हैं जैसे एक पुरुप अनेक संघसे, किसी का पिता, पुत्र,भ्राता, मामा, भानजा बहनोई शालो, वावा, नाती, पन्ती, इत्यादि होता है इसी तरह करुणा और धर्मान्नति के विचार से ज्ञानावर्णी कर्म का श्राश्रव नहीं हो सका । एक नय से सर्वथा.कार्य नहीं करना चाहिये। . . . . . . ...द्रव्य क्षेत्र कास भाव को समझकर हम लोगों, को धर्म साधन ६. धर्मोन्नति करना चाहिये । पुरुपार्थ सिद्धयुपाय में लिखा है कि वारों संध्याओं को अन्तिम दो २ घड़ियों में 'दिगाह, उल्कापात, धज्रपात, इन्द्रधनुष, सूर्य चन्द्र ग्रहण, तूफान, भूकम्प, आदि उत्पातों के समय में सिद्धान्त ग्रन्थों का पटन वर्जित है। हां स्तोत्र, थाराधना, धर्म कयादिक के ग्रन्थ पांव सके है । शुद्ध जल से हस्तपादादि प्रक्षालन कर शुद्ध स्थान में पर्यासन 'बैठकर नमस्कार पूर्वक शास्त्राध्ययन करना विनयाचार कहा जाता है। हमको उपगार करना जरूर.चाहिये जैसा जीव हो जैसी उसकी पृति हो सब बातों को समझ सोचकर करंणा भीर. धर्मवुद्धि के साथ उसके धागामी का जैसा भंती होता मालूम होवे वैसा करना चाहिये । (मगर साथ में अपने पिंगार सुधार का मुख्य ख्याल रखना आवश्यक है) देखिये व्यवहार में भी कहते हैं कि सवको एक लकड़ी से मतं हांको" जव लौकिक में भी एक नय नहीं है तो धर्म में एक नय कदापि नहीं हो सकी है. हमारा, और दूसरों का भला होय सो करना विपय कपायों को दूर रखना योग्य है.। सन्सार में नाना प्रकार जीव हैं 'जवतक दस घोस. गून्यों का पठन पाठन खूब न करलेंगी तबतक उन्नति का विचार स्वमेव ठीक २ नहीं होने की सम्भाधना. हो सकती है । इसलिये जितना पढेंगे 'शनगे उतना रहस्य बढ़ेगा पस स्वाध्याय जीवन पर्यंत तक करना चाहिये । ::. पाठको ? भीमान पंडत प्यारेलालजी अलीगढ़ निवासी महासमा स्वाध्याय प्रचार विभाग के मंत्री लिखते हैं - कुसङ्गति

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