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शास्त्रों से जानना । एक नय से ग्रहण करना वहां मिनाला भसंग होता है । जिनवाणी स्याद्वाद वाणी सप्तं नय कर वर्णनः होती है। हम जानते हैं कि हमारा शरीर जिसका नाना भकार पोषा अन्त में कामजदेगा और अन्त में यह हमको छोड़ेगा। तो इस्स यात्म कार्य लना चाहिये । अगर हम आत्म कल्याण न करें तो हम आत्मघाती हैं। आत्म कल्याण करने को नाना प्रकार से उपदेश.शास्त्र में दिया, है. और संकड़ों हजारों ग्रंथ रचे हैं। ::...:. . . . . . .. ... उपदेश नाना प्रकार का, जीवों की अवस्था माफिक होता है । एक उपदेश सर्वथा सब जीवों को नहीं हो सकता है। जैसे माता छोटे बालक को खेलने का उपदेश दती है और ज्यों.२ वड़ा होता है त्यों २ नाना प्रकार उपदेश जसं पढ़ना रोजगार मन्दिरजी में जाना ज्ञान गृहण करना होता है। अन्त में श्री गुरु उपदेश करा हैं कि सन्सार सं विरक्त हो । यदि बड़ी अवस्था का उपदेश छोटे बालक को या मोटे वालक का उपदेश.बड़े को दिया जावे तो दोनों.का जीवन विमान हो जाबै इसी तरह जैन धर्म के शाखजी चार अनुयोगों में विभक्त हैं यानी,प्रथमानयोग (६३ शालाका पुरुप कथन ) करुणानयोग ::तीन लोक कथन ) चरणानुयोग (चारित्र कथन ) और ट्रव्यानुयोग:(तत्व कथन ) शुरू २ में.प्रथमानुयोग जैसे पचपुराणजी. (जैन रामायण) मधुमन चरित्र (सुपुत्र राजा श्री कृष्णजी के.).हरिवंश पुराण (राजा श्रीकृष्णजीका वृतान्त .) श्रीपाल.चरित्र इत्यादि ग्रन्थों के जिनमें वेशठ . शलाका पुरुषों के. चारित्र की स्वाध्याय करनी चाहिये । और फिर दूसरे ग्रन्थों की। हम लोगों को सर्वथा. एक -नय से काम नहीं लेना