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है कि उपरोक्त धातौ को दृष्टिगोचर काले सुर हमारे भावना जोकुछ शका करें यह ठीक ही हैं वास्तवमें कालके बहुत पहे.मागको.
सागर का नाम इसी लिए दिया गया है कि वह सागर अर्थात समुद्र के समान महान है। साबर के महान काल को जिस सागर (समुंद से उसका जैन ग्रन्थों में दी गई. हैं यह सागर (समुद्री भी कोई सामान्य सागर हिंद महायाग या पारिपाक महासागर श्रादि जैसा छोटा सा नहीं किंतु उसकी उपमा उसलवण सन नामक महासागर दी गई है जो एक सम हा योजन के व्यास वाने जम्बुद्धीए को गिदागिर्च दो बा. महापोरन चोड़ा और एक सहप महायोजना बलयाकार है, या इसके महत्व. को भने प्रकार समझने के लिए यो जान लीजिए कि अगरेजी विचारानुसार, आज कान को मानी हुई : सारी पृथ्वी जिसमें
रशिया, यूरूप, अफरीका अमेरिका आदि सर्व देश देशांतरं श्रीर "हिंद महासागर, पारिफक महासागर, अंटलांटिक महासागर
आदि सर्व छोटे बड़े समुद्रगर्मित हैं ऐसी बड़ी लाखों करोड़ों पश्यियाँ जिस एक हो लवण समुद्र में समा सकती हैं । ऐसे वडे सागर (समु) ले सागर के कांत को उपना दी गई। ऐसी अवस्था में हमारे सातगा की यह शंका कि सागर के. काल को वषों में गिन लेना और वह भी एक सागर को "नहीं, किंतु कोड़ा 'कोडि सांगर.. महान' काल को केवल
७६ ही-अंकों में गिन ना मानो लागर को दुल्लू सेनाप लेने को समान सर्वथा असम्भव है, आदिर यास्तव में यथाथ है। परन्तु जिस समयः ऐसे शंका करने वाले साधुगण को यह ज्ञात होगा कि इतने अधिक बड़े "लवण समुर के सम्पूर्ण जल के यदि बहुत से छोटे छोटे विंदु सरसों के दाने को
*एक महायोजन दो, सहरू कोस या लगभग सहन मौला का होता है।