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( १०६) 'अग्नि में ज्यों , २ लकडी डालोगे त्यो २ वाला बढ़ेगी। यह नीवरुपी राजा कुवद्धि रूपी स्त्री सहित रम है अर मृत्यू या अचानक ग्रेस्या चाहे है। मनरूपी इस्सी, सूप वन विप क्रीडा करै है। ज्ञानरूप अंकुश तें याहि वस कर, वैराग्यरूपी गज थम " विवेकी वांध है.। चिच के मेरे चंचलता धरे हैं। वासें वित्त वास करना योग्य है । चित्त कू वासि करना स्वाध्याय से होता है ? : . . .: विचारनीय बात है कि मनुष्य पीय अति दुर्लभ है इसी से भात्मकल्याण होसकता है: आज हमारे पास सर्व प्रकार की सामग्री मौजूद है धर्म अच्छी तरह साधना चाहिये वरना एक 'दिन ऐसा होगा. किन हमारे पास वह सामग्री रहेगी और सब कटम्बी व मित्रज़न न्यारे. २ होजावेंगे । इस्से संसार से विरक्त हो.धर्म साधन करना चाहिये । यह मनुष्य पर्याय रूपी रत्ल को संसार रूपी समुद्र में मत फेंको । हमको स्वाध्याय करना चाहिये । श्री भादि पुराणजी में लिखा है।
(श्लोक १९८ से २०० तक पर्व १९) ए बाह्यमांतर वारह प्रकार के तप तिन विष स्वाध्याय समान तप न पूर्व मयां न अव है न आगे होयगा । स्वाध्याय वि राति निश्चल सज़मी जिनेन्द्री होय है। स्वाध्याय करि दिमान विनय, करि मंडित समाधान रूप होय है ।
न स्वाध्यायात्पर तपः । ___अर्थात स्वाध्याय के समान कोई तप नहीं है । जबतक · स्वाध्याय होती रहती है पुण्य का संचय और पाप का प्रय .. होता रहता है। अस्पर देस माना है कि हमारे बहुत से