Book Title: Dharm Jain Updesh
Author(s): Dwarkaprasad Jain
Publisher: Mahavir Digambar Jain Mandir Aligarh

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Page 88
________________ (. ७६ ). . (३)हमारी कोई चोरी न करे पस हमको भी चोरी नहीं करनी चाहिये । इत्यादि २ ... What's ill to self do it not against others." धर्म स्वभाव आप ही जान । . . . आपस्वभावधर्म सोई जान ।। ... जब वह धर्म प्रगट तोहै.होइ.. तब परमातम पद लख सोई॥ ' अथवा इस बारमा का गुण मनात दर्शन, अनत ज्ञान, अनंत वीर्य और अनंत मुख जो है वह घातिया कमी के क्षय करने पर आरम स्वभाव केवल ज्ञानादि प्रकट होता है अथवा उत्तम क्षमा, मादव, आर्जव, सत्य, शौच, संजम, तप, त्याग, अकिंचन और ब्रह्मचर्य दश लक्षणं रूप धर्म है .तथा रजत्रय (सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यगचारित्र) स्वरूप है तथा जीवन की दया रूप धर्म है ऐसे पर्याय बुद्धी शिनि के समझाने के अर्थ थाचार्यों ने धर्म शब्द कु चार प्रकार चरनन किया तोह वस्तु जो आत्मा ताका मात्र ही दश लक्षण है। सामादि दश प्रकार मामा का ही स्वशाय है.। सन्यग्दर्शनशान चारित्र हामा तै भिन्न नहीं दिया है सो हु आत्मा का ही स्वभाव है । यानी "अहिंसा पो धर्म: यह धर्म जीवं . मात्र का धर्म है जो जिनंद्र भगवान करि कहा गया है । धर्म अगदि है. स्वर .व्यञ्जन अनादि हैं। धर्म तोर्णकरा कंघल ज्ञानियों के मुख से प्रगट होता है। जैसे कमल के उत्पन्न होने का स्थान सिर्फ जल . है ऐसा भगवान जिनेंद्र..कार कहा हुआ 'धर्म ऊसको जैन धर्म कहते हैं या सनातन धर्म भी कहते हैं। जो. इस.. धर्म को धारण करता हैं उसे बांनी या प्रावक कहते हैं यदि कोई जैन कुल में उत्पन्न हो, मिथ्यात ओर कुसंगति के प्रसङ्ग से धर्मके विरुद्ध “आचरण. करेया मन. मांनी बान गावे तो सके हटांत से जैन धर्म पर. आतप नहीं.

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