Book Title: Dharm Jain Updesh
Author(s): Dwarkaprasad Jain
Publisher: Mahavir Digambar Jain Mandir Aligarh

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Page 108
________________ ॥ स्वाध्याय ॥ प्रिय सज्जनो ! अब उन महंतो भगवान परमात्मा की. वाणी ही मुरुम . चाय के बारे में एकापचित हो सुनिए . कर धर्म मार्ग दिखाने वाली है । a? :: जिनेंद्र भगवान परमात्मा का जो धर्मोपदेश है उसको सरस्वती, सूनृत आशा, भगवत वाक्य, देव, अङ्ग, ग्रामनाथ, सूत्र प्रवचन श्रुत, जिनवाणी या जिनवाणी माता शारदादि कहते हैं। 'उम्र वाणी की araरों ने जो चार ज्ञान (मति, मति, अवधि और मनपर्यय) के धारक होते हैं लकर रचना की है। जिन पत्रों पर वह वाणी "लिखी गई है उसको शास्त्र भी आगमादि कहते हैं। उसके पढ़ने, सुनने उपदेश करने, चितवन करने तथा प्रश्न करने को स्वाध्याय कहते हैं । यह वांगी अमृत हो है । इसके पाठी हो जाने से "अमर" हो जाता है यामी जन्म मरण रहित हो है। समर होने का तीन लोक में और कोई दूसरा पाय नहीं है, जब तक इसका पठन होता है कर्मों को निर्जरा भौर पुण्य संचय होता है । उस स्थान पर सम्यगष्ठी देव देवांगना भी सुनने को जाते हैं यह शास्त्र प्रमाया है और मुझ मंदबुद्धि को भी इसका कुछ परिचय हो चुका है। तीन लोक का हात घर बैठे मालुम होता है। लौकिक और पारमार्थिक मार्ग अच्छी तरह दृश्य पड़ता है। श्री मूलाचार जी पथ में लिखा है कि जो जीव स्वाध्याय करता है वह संसार अंध कूप में नहीं पड़ता है जैसे डोरा सहित सूई नहीं खोती है। प्राचार्य उपाध्याय साधु भी मित्य स्वाभ्यां करते हैं । भी आदि पुराणजी पर्व २०श्लोक ३५ पत्र २१८ में लिखा है "बिन सूत्र सो तत्व ग्रामिन करि धाराधिये योग्य है। जिन शासन जनादि निधन कहिए भादि र अन्तं नाहीं और सूक्ष्म कहिय अंति सूक्ष्म है चरचा जा. विवे और सत्य स्वरूप का प्रकाशक है और पुरुषार्थ कहिप मोक्ष ताके उपदेश से जीधन मत हिदू है शिव कल्पि अनि प्रयक्ष है। .. S

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