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(४६ ) PRESEAR TREATER RELETECTRENT
श्रीगुरु का स्वरूपा
.. श्री गुरु महा मुनि का स्वरू। "अन्तर आत्माविषे पहिले
कुछ कह चुके हैं, थोड़ासा और कछ वर्णन करता है, वे : १४ अंतरंग पारग्रह [गिथ्यास्व, वेद (स्त्री परुप, नपंसक सें . अनुराग) राग, द्वेप, हास्य. राति अराति. शोक. भय. जुगुप्सा
क्रोध, मान, माया और लोम ] और १० वाह्य परिग्रह .[क्षेत्र. वास्तु, चांदी: सोना, धन, धान्य, दासी, दास, कूम्य मांड] से रहित होते हैं, २८ मूलगुण (५ महाव्रत, ५ समिति; ५. इद्रियों का रोकना, ६ आवश्यक,७ अवशेष)
और .८४ लाख उत्तर गुग्ण के धारक होते हैं, उनका तेरहः मकार यानी ५ महाव्रत ( अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य परिग्रहत्याग), ५ समिति (इयां, भापा, एषणा, आदान निक्षेपण, प्रतिष्ठापन ) और ३ गुप्ति ( मन, वचन काय .) का चरित्र होता है, इसलिये यह दिगम्बर जैन धर्म तेरा. पंथीं कर भी पुकारा जाता है, ऐसे गुरु जिनके किसी प्रकार
t, उनसे ही हमारा यथार्थ कल्याण हो सक्ता है उनकी स्तुति और गुणानुवाद से महापुण्य का आश्रव होता है, और पापों का नाश होता है हम अज्ञानता से वाजवक्त उनकी निन्दा कर बैठते हैं यह हमारी महा. मूल है.
सामान्य पुरुषकी निन्दा करना पाप है तो ऐसे महात्मा की : निन्दा करना क्या वन पाप म होगा ? ऐसे महा मुनि के भाव