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(५२ ) यह लाख रुपये का कलाम है। हमको नंगेपन पर घृणा या निदान करना चाहिए । ज्ञान और तर से उन की यात्मा धीर ई द्रियां निर्मल और दमन हो गई हैं हम को उनके उच्च श्रादर्श भार्या पर विचार करना चाहिए। चूकि हमारी आरमो विकार सहितं और कामातुर. है .इस लिए हम अहानी, उनके शरीर की तरफ कुहटी कर लेते हैं जैसे कहावत है कि चोर सबको चोर ही समझता है इत्यादि । सुनिए छोटे वालक लड़के लड़कियां नग्न रह कर एक जगह खेलते है परंतु ज्या २ संसारी कामों का उन पर असर पड़ता जाता है और कामातुर होने को अवस्था मजर आती है फोरन उनको कपड़े पहना दिए जाते हैं। तरण अवस्या में उन्हें एक जगह खेलने भी नहीं दते । जब ससारी कामा में लगकर, शान प्राप्त होता है तो संसार को हेच समझने लगते हैं और ज्ञान द्वारा ससारी विकारों को निकालते हुए, गृहस्थ अवस्था को त्याग देते हैं यहां पूर्ण विचार करिए कि जब तक संसारो अवस्था
का चक्र न पड़ा था तब तक नंगै रहे और जव चक्र पड़ गया तो 'कपड़े पहनने लगे। मगर जव सँसारी चक्र निकल गया तो फिर कपडे छोड़ दिए अव कोन सो दुराई की बात रही। यहां ज्ञान की बात है हम विकारी कपडे पहिने हुए, इन्हीं नेत्रों से माता पिता भाई बहिन, बी.पति, पुत्र-पुत्रा, इत्यादि.को देखते हैं मगर भाषा: का विचार रखते हैं। इसलिए यह स्वतः सिद्ध हो गया कि हमको ऐसे देव गुरु का दर्शन सर्वोट उच्च भावों से करना चाहिए और . उपकचों की पूजा कर मनुष्य जीवन सफल करना आवश्यक है। सिद्धांत यह है कि आत्मा को शारीरिक धन से.और तमनुकात * पोशिश में आजाद करके बिलकुल ना करदोया जाये ताकि इस का निजरूप खन में श्रावे, वे जाहिरदारी के रस्मोरिवाज से पर रहते हैं। ऐव को क्या बात है। वे ईश्वर कुटो (यानी निज प्रात्म में लोन ) रहने वाले हैं। यदि हम अपना सा समझे तो क्या हमारी • महाभूलनहीं है? जैसा हमभाव व भृकुटी करेंगे वैसा ही हमारे लिए
बंध है यानी दर्पण में जैसा, मुख करो वैसा ही दीखंता है। जिस निय के किनारे ऐसे जैन मुनि पहुंच जाते हैं दुर्भिक्ष व मरी जाती रहती है उनके चर्णोदक वंचरण रज मस्तक पर चढ़ाने से शरीर निरोग और गुणों की खान हो जाता है। हमारा ,ऐसे जन जती