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बरावर कर लिए जायें तो उन सर्व बिन्दुओं को संस्था ७ तो दूर रहे.४७ अंक से भी अधिक न बढ़ेगी, तब तो उनको शंका मासे सी बाहर निकल कर न जाने कहाँ से कहाँ तक गहुंच जायगी। और फिर जिस समय उन्हें यह ज्ञात होगा कि गणित के लिए गणितज्ञ भी कोई पूर्ण गणितज्ञ नहीं किंतु सामान्य ही के दिए लवण समुद्र तो क्या, उस से लाखों करोड़ों गुणे. बड़े महासमा के.सरसों से भी शतांश सहस्रांश छोटे छोटे विधुओं को गिनती बता देना एक वैसी ही साधारण सी बात है जैसे कि किमी दीवार की ईट की गिनती बता देना..है, तब तो नहीं कहा जा सकता कि उनके चित्त को उधेड़ वुनः उनके विचारों को ट्रेन को कहाँ से कहां पहुंचा दे। ...... .
अब रही यह बात कि यदि सागर के काल की गिनती वर्षों में निकाल लेना सम्भव होता तो बड़े प्राचार्यों ने भी निकाल कर शास्त्रों में क्यों न बता दो अथवा पल्य को संख्या को बताने के लिए महान गढ़ा खोदने और वालाग्र भरने भादि का आडम्पर क्यों रचा। इसके उत्तर में निम्न लिखित.निवेदन है:- .....
आचार्यों ने तो सव कुछ निकाल कर शास्त्रों में रख दिया (जैसा कि आगे चलकर इसी लेख से आपको शांत होगा। पर जब हम ऐसे ग्रन्थों को देख पढ़े और ध्यान पूर्वक समझने का प्रयत्न करें तव हो तो जानेंगे । हमारे पवित्र और सम्पूर्ण विद्यामा के भंडार रूपं जैन ग्रन्थों में कोई बात कल्पित व मन गढन्त नहीं किंतु जो कुछ है वह सर्व बास्तविक और यथार्य: है और हर विषय को ऐसी उत्तम से उत्तम रीति से समझा दिया गया है। कि योग्य रीति से ध्यान पूर्वक समझने वाले को कुछ भी कठिनाई नहीं पड़ती। पल्यं और सागरादि का हिसाब लगा देना तो एक वात ही साधारण और छोटी सो:वांतः है. पर जैन. अन्यों में तो गणित-विद्या के अन्य विद्याओं या विषयों के समान.) बङ हो