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जैनसिद्धान्त में यूकि तीनलोक का खाप तया: उमः में रहने वाले पदव्य का वर्णन इतना अधिक विस्तार पूर्वका कि जिसका शत सहसास भी इस पृथ्वी तलपर अन्यत्र कहीं नहीं पाया जाता इसी लिए इसी सिटौत का गणित मांग भी और भागों को समान बहुत ही उच्च कोटिका है।
गणित विद्या के जो अंक गणित, बीज गणित, क्षेत्र गणित आदि अनेक भेद है उन में से एक अंकगणित के जैन गणांत में दो मुख्य विभाग हैं पहला लौकिक और दूसरा अलौ। किक या लोकोत्तर ! इन दो में से पहले के मान, उन्मान, अब मान, गणितमान, प्रतिमान, तत्प्रतिमानादि भेद हैं और दूसरे लोकोत्तर के द्रव्यमान; क्षेत्रमान, कालमान, और भावमान स. प्रकार भेद हैं। इन चाये भेदों में से पहिले द्रव्य लोकोतरमान के अन्तरंगत संख्या के लोकोत्तरमान और उपमालोकोत्तरमान यह दो उप भेद है न
इन दोनों में से संख्या लोकोत्तर मान के मूला तीन स्थान अर्थात् संख्यात, असल्यात, और अनंत है और विदेश २ स्थान है। तथा इसी संख्या लोकोत्तरमानको संर्वधारा, समधाराविषमधारा हतिधारा, अतिधारा बनधारा, अधनधारा, इति मात्रिक धारा, अति मांत्रिक भाग, धन मात्रिक घारा, अर्धन मात्रिक धारा, विरूप वर्गधारा, विरूप धन धारा, और द्विरूप धनाधन धाग, यह १४ धारा है। इसरे उपमा लोकोत्तर
इसी प्रकार क्षेत्र कात और भाच, लोकोत्तर मान के अनेक
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