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प्रथम अध्याय तस्माद्यत्नेन सद्वैद्यैरिच्छद्भिः सिद्धिमुत्तमाम् ।
ज्ञातव्य वक्ष्यते योऽयं ज्वरादीनां विनिश्चयः ॥ (मा नि. १) वह तो रही पचनिदान विपय की सरल या सामान्य ढग से की गई व्याख्या की दुरवगम्यता। यह दुरूहता आज के युग मे और भी जटिल हो जाती है। आज युग बदल गया है, प्रत्येक विपर को तर्क एव वितर्क के आधार पर प्रमाणित करने की आवश्यकता प्रतीत होती है। प्राचीन पाठशालाक्रम के अनुसार शिक्षण या पाठनविधि के द्वारा जिज्ञासु विद्यार्थियो का सतोप नही कराया जा सकता। जिज्ञासुओ मे श्रद्धा या एकनिष्ठता का भाव प्राचीनो की अपेक्षा कम होता जा रहा है । शिक्षण की आधार-शिला प्राचीन युग मे आचार-शिला थी। आज आचारशिला की दृढता न गुरु मे रह गई है और न शिष्य मे ही। आप्त प्रामाण्य का भी इस युग मे कोई महत्त्व नही रह गया है। अब तो केवल प्रत्यक्ष प्रमाण एव तर्क के आधार पर ( Reasoning ) ही सारी व्यवस्था निर्भर है-कब, क्यो और कैसे ? का युग है। अब ग्रथप्रधान पाठन-शैली को श्रद्धापूर्वक स्वीकार करना न अध्यापक के ही पक्ष मे श्रेयस्कर है और न छात्र को हो सतोपप्रद रहता है । ऐसी परिस्थिति मे 'निदानपचक' विपय की व्याख्या अधिक विपम हो जाती है । उदाहरण के लिये निम्नलिखित श्लोक को ले
हितं हयानां लवणं प्रशस्तं जलं गजानां ज्वलनं गवाञ्च । हरीतकी श्रेष्ठतमा नराणा चिकित्तिते पंकजयोनिराह ॥
(हारीत सहिता') यह एक आर्प वाक्य है। इसको स्वीकार करके आगे बढा जावे, इसका भापान्तर या शाब्दिक व्याख्या कर दी जावे और छात्र का परितोप हो जावे ऐसी अवस्था आज नही है। अब तो चाहिये इस सूत्र की तात्त्विक व्याख्या अथवा आधुनिक विज्ञान के आलोक मे इसका पर्यवेक्षण, जिसके आधार पर छात्रो या जिज्ञासुओ को सतोप कराया जा सके। वैज्ञानिक युग के नव जागरण का स्वाभाविक लक्ष्य भी यही होना चाहिये।
प्राचीन मनीपी भी इस बात को स्वीकार करते थे कि दूसरे शास्त्र जिनमे अमूर्ततत्त्वो की विवेचना शास्त्रीय तर्को के आधार पर की जाती है वे बुद्धि के विलास मात्र है, परन्तु ज्योतिष, आयुर्वेद तथा तत्रशास्त्र ये अत्यन्त व्यावहारिक ज्ञान है, इनमे पद-पद पर ज्ञाता की बुद्धि की परीक्षा होती है और पद-पद पर शास्त्र के प्रत्यय या विश्वास का भरोसा रखना पडता है
अन्यानि शास्त्राणि विनोदमानं प्रत्यक्षमात्रेऽभिनिवेशभाजाम्। चिकित्सितज्योतिमतन्त्रवादा पदे पदे प्रत्ययमाव: न्ति ॥