Book Title: Aptavani Shreni 13 Purvarddh
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Dada Bhagwan Aradhana Trust

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Page 15
________________ उपोद्घात - डॉ. नीरूबहन अमीन [ १.१] प्रकृति किस तरह बनती है? प्रकृति क्या है? अज्ञान दशा में 'मैं चंदू, मैं चंदू' करके आरोपण करके, प्रतिष्ठा कर-करके जो पुतला खड़ा किया है, वह है! इस जन्म में प्रतिष्ठा करके प्रतिष्ठित आत्मा खड़ा हो जाता है, जो अगले जन्म में फल देता है। वह प्रकृति- है और इसमें कर्ता कोई भी नहीं है। जड़ और चेतन, इन दो तत्वों के मिलने पर विशेष परिणाम खड़ा हो गया है। उस विशेष परिणाम में क्रोध-मान-माया-लोभ, ये व्यतिरेक गुण खड़े हो गए हैं। क्रोध और मान में से 'मैं' खड़ा हो गया और माया और लोभ में से 'मेरा' खड़ा हो गया है। उसी से पूरी प्रकृति खड़ी हो गई है। यह मात्र रोंग बिलीफ से ही हुआ है और रोंग बिलीफ मात्र संयोगों के दबाव से, जड़ तत्वों के दबाव से खड़ी हो गई है। जैसे कि अगर हम ट्यूब लाइट को कोन्स्टन्ट देखते रहें तो दो दिखने लगती हैं या फिर ज़रा सा आँख पर एक खास एंगल से ऊँगली का दबाव आ जाए तो एक के बजाय दो लाइटें दिखने लगती हैं! इसमें किसने क्या किया? इट जस्ट हैपन्ड। मात्र रोंग बिलीफ बैठ गई है कि ये जो दो लाइटें दिख रही हैं, वही हकीकत है ! मूलतः एक ही लाइट है, यह बात समझ में नहीं आती और फिर तो शुरू हो जाती हैं....भ्रांति की परंपराएँ... यह सबकुछ हुआ है अपने आप ही, फिर भी वापस दूसरी रोंग बिलीफ बैठ जाती है कि 'यह मैंने किया। मेरे अलावा और किसका अस्तित्व है इसे करने में?' यह जो विशेष परिणाम खड़ा हो गया है, वही यह प्रकृति है और खुद आत्मा-पुरुष, स्वयं भगवान है! अब इस सारे झंझट में मूल पुरुष को कुछ भी नहीं होता है। लोहा समुद्र किनारे पड़ा हुआ हो तो जंग लग जाता है न? इसमें यह किया किसने? समुद्र ने? लोहे ने? समुद्र यदि जंग लगा रहा होता तो वह सोने को क्यों नहीं लगाता? ये तो हैं साइन्टिफिक सरकमस्टेन्शियल 14

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