________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अषिजी ब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक पयत्थाहिगार जाणयस्स जं सरीरयं ववगय चुतचाबित चतदेहं जीवविप्पजढं सिजागयं वा संथारगयं वा, निसीहियागयं वा, सिद्धसिलातलगयं वा, पासित्ताणं ' कोई भणेजा-अहो! णं इमेणं सरीर समस्सएण जिणोवइटणं भावेण आवस्सए / तिपयं-आपवियं पण्णवियं परूवियं दंसियं उवदसिमं, जहा को दिटुंतो ? अयं महुकुंभे आसी, अयं घयकुंभे आसी, से तं जाणय सरीर दव्वावस्सयं // 14 // अहो शिष्य ! आवश्यक ऐसा पद व अर्थ के अधिकार जाननेवाले का चेतना से रहित प्राणों के बल को जिसने त्याग किया है वैसा, जीव रहित, शय्या पर पडा संथारे पर पडा हुवा, जिस ध्यान में काल कर गया होवे उस प्रकार के ध्यान के आकार रहा हुवा और शिला पर अनशन किया हुवा शरीर को देख कर कोई कहे कि अहो ! इस शरीर के पुद्गल समुहने तीर्थंकर के उपदिष्ट भाव से भावश्यक ऐसा पद ए कहा था, समुच्चय प्ररूपाया था, विशेष प्ररूपा था, क्रिया कर देखाया था, अलग 2 अर्थ दर्शाया अहो भगवन् ! किस दृष्टांत से ! अहो शिष्य ! जैसे यह मधु का घट था, अथवा यह घृत का घट था क्यों कि वर्तमान काल में घट विद्यमान रूप तो है परंतु मधु व घृत से रहित है इस प्रकार घट तुल्य #शरीर है परंतु मधु व घृत समान आवश्यक करनेवाला वर्तमान में विद्यमान नहीं हैं इस लिये ही उस का नाम इशरीर द्रव्यावश्यक रखा गया है // 14 // प्रश्न-अहो भगवन् ! भविय शरीर द्रव्यावश्यक काशक रामाबहादुर छाला मुखदवसहायजी-ज्वालाप्रसादजी. For Private and Personal Use Only