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अनेकान्त-56/1-2
शंका- पहले तो आचार्य श्री बतला आये हैं कि मात्र सम्यादर्शन होने पर ही किसी प्रकार का बन्ध नहीं होता और यहाँ कहा जा रहा है कि महाव्रत अवस्था में भी पुण्यबन्ध होता है, सो कुछ समझ में नही आया।
समाधान- हे भाई! जहाँ आचार्यश्री ने सम्यग्दृष्टि को निर्बन्ध कहा है, वहाँ केवल वीतराग सम्यग्दृष्टि को लेकर कहा है जैसा कि 'चत्तारिविपावे..' इत्यादि गाथा से स्पष्ट है, शेष अविरत सम्यग्दृष्टि आदि के बन्ध उनके रागनुसार होता ही है क्योंकि राग ही बन्ध का कारण है।
शंका- आपने कहा सो ठीक परन्तु महाव्रतों से भी पुण्य बन्ध होता है यह कैसे? क्योंकि फिर जो बन्ध नहीं करना चाहता, वह व्रत छोड़ दे?
समाधान- हे भाई! महाव्रतों के दो रूप होते. है(1) सत्प्रवृत्तिरूप (2) निवृत्तिरूप" जैसे कि हिसा करना या किसी को भी कष्ट देना यह पाप है, अशुभ बन्ध का कारण है, किन्तु हिंसा नहीं करना अर्थात् सभी के सुखी होने की भावना करना यह सत्प्रवृत्तिरूप महाव्रत है। यह पुण्यबन्ध करने वाला है और इसी का सम्पन्न रूप किसी से भी डरने डराने रूप भयसंज्ञा से रहित स्वयं निर्णय होना यह पुण्य और पाप इन दोना से भी दूर रहने वाला है। इसी प्रकार झूठ बोलना पाप, सत्य बोलना पुण्य किन्तु सर्वथा नहीं बोलना अर्थात् मौन रहना सो पुण्य और पाप इन दोनो से भी रहित। किसी की भी बिना दी हुई वस्तु भोजन आदि में लेना सो चोरी-पाप और उसका त्याग किन्तु श्रावक के द्वारा भक्ति पूर्वक उचित रूप से दिया शुद्ध
आहार ग्रहण करना सो पुण्य और आहार संज्ञा से रहित होना सो पुण्य व पाप इन दोनो से भी रहित। व्यभिचार तो पाप तथा स्त्रीत्यागरूप ब्रह्मचर्य सो पुण्य किन्तु मैथुन संज्ञा से रहित होना यह पुण्य और पाप से रहित। इसी प्रकार परिग्रह पाप, परिग्रह त्याग पुण्य किन्तु परिग्रह संज्ञा का नहीं होना सो शुद्ध रूप इस प्रकार महाव्रतों का पूर्व प्रारम्भात्मरूप शुभ किन्तु उन्ही का ही अपर-रूप जो कि पूर्णतया उदासीनता मय एवं चारों प्रकार की सज्ञाओं से भी रहित होता है, वह शुद्ध अतः अबन्ध कर होता है।
उक्त अशुभ-शुभ का विशेषार्थ के माध्यम से आचार्य ज्ञानसागर महाराज