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अनेकान्त/१२
को अमृतकुम्भ कहा गया है जबकि सभी जिनेन्द्रों ने पाप को विषकुम्भ और पापों से छुड़ाने वाले को अमृतकुम्भ कहा है। प्रतिक्रमण-अप्रतिक्रमण सम्बन्धी इन गाथाओं के टीकाकारों ने उनका अर्थ स्पष्ट करते हुए प्रतिक्रमण को द्रव्य प्रतिक्रमण
और स्वर्ग का दाता मानकर विषकुम्भ तथा उससे विलक्षण अप्रतिक्रमण को अमृतकुम्भ प्रतिपादित किया है, जबकि निदंण-गर्हण युक्त जो प्रतिक्रमण है उसे भाव-प्रतिक्रमण कहा गया है। यह तथ्य मूलाचार की निम्न गाथा से स्पष्ट है :
आलोचणनिंदण गरहणादि अब्युटिओ अकरणाय।
तं भाव पडिक्कमण सेसं पुण दब दो भणियं ।। “625" अर्थात् आत्मा को स्थिर करने वाले होने से आलोचना, निदंण, गरहण आदि भाव प्रतिक्रमण हैं और अन्य समस्त द्रव्य प्रतिक्रमण हैं।
इस प्रकार समय पाहुड़ की उपर्युक्त गाथा द्वय की टीका भी विचारणीय है। कहीं-कहीं अनुवर्ती टीकाकारों ने प्रतिक्रमण को कर्तृत्व बुद्धि होने से निषेध किया है जबकि उपर्युक्त भाव प्रतिक्रमण कर्मों का कर्ता नहीं है और संवर व निर्जरा रूप होने से कर्म के कर्तृत्व का अभाव है, जैसाकि निम्न गाथा से स्पष्ट है
जाव ण पच्चक्रवाणं अघडिकमण च दब भावाणं।
कुब्बदि आदा ताव दु कत्ता सो होदि णादब्बो।। अर्थात् जब तक जीव द्रव्य-भावरूप अप्रतिक्रमण और अप्रत्याख्यान करता है तब तक वह कर्ता होता है-ऐसा जानना चाहिये? ।
___ अतः आगम के आलोक में निंदण-गरहण युक्त प्रतिक्रमण को कर्तृत्व भाव नहीं कह सकते। समय पाहुड़ में स्थान-स्थान पर कर्म के कर्ता को अज्ञानी कहा गया है और ज्ञान के कर्ता को ज्ञानी कहा गया है। अतः यह प्रतिक्रमण विधि भगवान जिनेन्द्र देव के द्वारा ज्ञानियों के लिए कही गई है, अतः यह ज्ञान भाव है। इस प्रकार यह विषकुम्भ नहीं होना चाहिये।
प्रतिक्रमण दोषों की निवृत्ति के लिए प्रतिपादित है तथा व्रत, समिति, ध्यान (धर्म, शुक्ल ध्यान) आदि समस्त दोषों का निवारण करने से प्रतिक्रमण के विविधरूप हैं। उन व्रत, नियम आदि में जो दोष लगते हैं उन्हें भी प्रतिक्रमण ही दूर करता है (अप्पडिकंतं पडिक्कमामि) अतः सम्पूर्ण रूप से दोषों का निराकरण करने वाला यह प्रतिक्रमण कैसे विषकुम्भ हो सकता है? यह विचारणीय है। जिसका मूल स्वभाव ही दोषों का निराकरण करना है वह प्रतिक्रमण कैसे विषकुम्भ हो सकता है?