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अनेकान्त/११
परमार्थ प्रतिक्रमण अधिकार का प्रारम्भ करते समय ही आचार्य बंधभाव से विरक्त करने वाले और आत्मभाव को दृढ़ करने वाले प्रतिक्रमण को करने की प्रतिज्ञा करते हैं और उस प्रतिक्रमण के पात्र कौन हैं? इसका भी प्रतिपादन करते हैं
एसो पडिक्कमण विहि पण्णत्तो जिणवरेहिं सबे हि।
संजम तव ठ्ठियाणं णिग्गांथाणं महीसिणं।। इस प्रकार यह प्रतिक्रमण विधि संयम-तप में स्थित निर्ग्रन्थ महर्षियों के लिए समस्त जिनवरों के द्वारा प्ररूपित हैं।
. इस प्रकार जिनवरों का उपदेश के दोषों से दूर करने वाला होने से मूलतः प्रतिक्रमण मय है। इसलिए अंतिम तीर्थकर भगवान महावीर के धर्म को “सपडिकम्मो धम्मो" -प्रतिक्रमण सहित धर्म कहा है। इससे रहित साधु महावीर का अनुयायी नहीं हो सकता। बारस अणुवेक्खा में कहा गया है
रतिदियं पडिकमणं पच्चक्रवाणं समादि सामइयं ।
आलोयणं पकुब्बदि जदि विजदि अप्पणो सत्ती।। इसलिए जिनवाणी में उपदेश है कि प्रतिक्रमण इत्यादि अपनी शक्ति के अनुसार रात-दिन निरन्तर करते रहना चाहिये।
इस समय अंतिम तीर्थंकर महावीर द्वारा प्ररूपित धर्म (आगम) का शासन है। इस जिन-शासन में जितने भी मूलग्रंथ हैं उनमें दोषों को दूर कर शुद्धता को प्राप्त कराने वाले उपायों को अमृत-कुम्भ माना है। अतः प्रतिक्रमण भी धर्म का मूल व अमृतकुम्भ है। इसके विपरीत समय पाहुड़ की निम्न दो गाथाएं भी विचारणीय हैं
पडिकमणं पडिसरण पडिहरणं धारणा णियत्ती य। जिंदा गरूहा सोही अट्ठविहो होहि विसकुंभो।। अपडिकरण अपडिसरण अपरिहारो अधारणा चेव ।
अणियती या अणिंदा अगरूहा सोही अमय कुंभो।। अर्थात् प्रतिक्रमण, प्रतिसरण, परिहार, धारणा, निवृत्ति, निंदा, गर्दा और शुद्धि यह आठ प्रकार का विषकुम्भ है और अप्रतिक्रमण, अप्रतिसरण, अपरिहार, असाधारणा, अनिवृत्ति, अनिंदा, अर्गहा और अशुद्धि यह आठ प्रकार का अमृत कुम्भ है।
इन गाथा द्वय में प्रतिक्रमण आदि को विषकुम्भ और अप्रतिक्रमण आदि