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• प्रार्थना के इन स्वरों में
[२८] तब तो तुम भगवान का स्मरण भी बहुत करते हो?"
महाराज! उसके लिए तो अभी बहुत वक्त है। बुढ़ापे में देखूगा।" युवक ने जल्दी से उत्तर दिया। साधु यह सुनकर मुस्करा दिये।
यह है मोह का खेल! साँसारिक अम्बन्धों तथा साँसारिक पदार्थों में मोह अथवा आसक्ति रखने वाला प्राणी जीवन है अंत तक भी उससे छुटकारा नहीं पा सकता। और जहाँ मोह रहता है वहाँ लोभ से भी बचा नहीं जा सकता। मनुष्य बूढ़ा हो जाता है पर लोभ बूढ़ा नहीं होता। लोभी व्यक्ति की लालसा का वर्णन कबीर ने किया है
कबिरा औधी खोपरी, कबहुँ घापै नाहि। तीन लोक की सम्पदा, कब आवै घर माहिं।।
प्रार्थना और पुरूषार्थ आत्मा के जिन चारों दुश्मनों का कवि ने अपने पद्य में उल्लेख किया है, और उन्हें मारने की शक्ति प्रार्थना के द्वारा चाही है, उन दुश्मनों का मारा जाना केवल प्रार्थना के द्वारा सम्भव नहीं है। प्रार्थना के साथ-साथ हमें पुरुषार्थ भी करना होगा। प्रार्थना करने से ही ये विकार नष्ट हो जाएँगे, यह इतना सस्ता सौदा नहीं। 'मिच्छामि दुकाई' कहने से ही पाप नहीं फ्र. जाते। हमारे मुसलमान भाई मसजिद में जाते हैं, नमाज़ पढ़ते हैं और उसके बाद 'तोबा-तोबा' कहते हुए अपने मुँह पर थप्पड़े लगाते हैं। पर क्या इससे गुनाम छूट सकते हैं? एक शायर के ही शब्दों में
जो गुनाह हो माफ तो दोजख की किसके लिए? माफ का हर बार तू लेना बहाना छोड़ दे,
ऐ दिला दुनियाँ फना इनमें लुभाना छोड़ दे। शायर ने कहा है कि- "प्रथम तो तू इस दुनिया में लुभाना छोड़ दे! और अगर ऐसा नहीं हो सकता है, तुझसे पाप हो ही जाते हैं तो माफी माँगने का बहाना छोड़!! क्योंकि तोबा करने से तथा अपने गालों पर थप्पड़ लगाने से ही अगर खुदा गुनाहों को माफ कर देता है तो फिर दोजख किसलिए और किसके लिए है?'
हमारे यहाँ भी एक दृष्टांत दिया जाता है। एक कुम्हार मिट्टी के घड़े बना बनाकर रख रहा था। एक आदमी आया और कंकर मार-मारकर घड़े फोड़ने लगा। एक-एक घड़ा वह फोड़ता और 'मिच्छामि दुकडं कह देता।
ऐसा 'मिच्छामि दाई' किस काम का? किसी को थप्पड़ मारते जाओ और क्षमा माँगते जाओ तो उससे क्या लाभ? एक बार क्रोध या आवेश में गुनाह किया जाय तो उसके लिए माफी मिल सकी है। पर बार-बार जान-बूझकर गुनाह