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ಲ್ಲಿ विवेचनः प्रस्तुत सूत्र में अवसर्पिणीकालीन चौबीस तीर्थंकर देवों का भावपूर्ण शब्दों में कीर्तन, वन्दन एवं अर्चन किया गया है। स्तुति करने वाला स्तुत्य में रहे हुए सद्गुणों का धीरेधीरे अधिकारी बन जाता है। तीर्थंकर देव आरोग्य, संबोधि, और समाधि के धाम हैं। उनकी अर्चना करने वाला इन आध्यात्मिक सद्गुणों को सहज ही प्राप्त कर लेता है।
प्रश्न उपस्थित होता है कि क्या अरिहन्त भगवान् आरोग्य आदि दे सकते हैं? जैन धर्म तो कर्म-प्रधान है। 'कडाण कम्माण न मोक्खो अत्थि' अर्थात् कृत् कर्मों के फल भोगे बिना मुक्ति नहीं होती, यह जैन धर्म का प्रमुख सिद्धान्त है। फिर भगवान् आरोग्य आदि कैसे दे सकते हैं? ___ समाधान में कह सकते हैं-घड़ा मिट्टी से बनता है। परन्तु वह अपने आप तो नहीं बनता। उसमें कुम्हार, चाक आदि भी निमित्त कारण हैं। मिट्टी और कुम्हार इन दोनों का घट-निर्माण में कार्य-कारण सहयोग है। इसी प्रकार आत्मा स्वयं अपने पराक्रम से कर्मों को जीर्ण करती है। परन्तु कर्म-निर्जरा का मार्ग तो अरिहन्तों से ही प्राप्त होता है। इसी दृष्टि से स्तुति करने वाला साधक अरिहन्तों से आरोग्य, बोधि, सिद्धि आदि की मांग करता है। - Elaboration : In the present Sutra, twenty four tirthankar of Avasarparni period have been praised, adored and worshipped with words full of natural excitement. One who appreciates them imbibes in his self slowly the good qualities that the person appreciated possesses. Tirthankars are the treasure of good health, unique knowledge and equanimity. One who worships them easily gets the spiritual virtues.
Now the question arises whether the omniscient (Arihant) can provide good health to others. According to Jainism, Karma is supreme. One cannot attain liberation without bearing the fruit of all the Karmas. This is the fundamental principle of Jainism. How the Tirthankar can provide health and the like to others ?
In reply, we can say-A pot is prepared from the earth. But it cannot get that shape itself. In its preparation there is the role of potter, the wheel and the like. They are the secondary factors. Both the earth and the potter help each other in preparation of the pot. Similarly the soul with its own effort sheds the Karmas. But the path leading to the shedding of Karma is learnt from Arihant. In this context, one who praises Arihants, seeks their blessing for gaining health, knowledge and salvation.
विधि : 'नमो अरिहंताणं' अर्थात् अरिहंतों को नमस्कार करते हुए ध्यान पूर्ण किया जाता है। फिर खड़े होकर इसी (चतुर्विंशति स्तव) सूत्र को मुखर स्वर से बोला जाता है। तत्पश्चात् आवश्यक सूत्र
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Ist Chp. : Samayik