Book Title: Agam 28 Mool 01 Aavashyak Sutra Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni
Publisher: Padma Prakashan

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Page 251
________________ askedkisaksale ske sleakedeoalkesakesekskskske salesale sketcalesslesha shaskale skeslesalesalesaksistestlessksksksksdesisdeskseen संकेत-पूर्वार्द्ध का अर्थ है-दो प्रहर दिन चढ़े तक। दिवस के प्रथम दो प्रहरों के लिए इसमें चारों आहारों का त्याग किया जाता है। इस प्रत्याख्यान के सात आगार हैं। छह पूर्वोक्त आगार हैं। सप्तम आगार है-महत्तरागारेणं। महत्तर का अर्थ है-आचार्य, उपाध्याय आदि संघ के प्रमुख की आज्ञा से किसी रोगी, ग्लान, वृद्ध आदि की सेवा के लिए समय से पूर्व ही प्रत्याख्यान पूर्ण कर लेना। Introduction: Poorvardh means two quarters of the day. In this pratyakhyan, consumption of articles is avoided during the first two quarters of the day. Seven digressions are allowed in it. Six are the same as earlier mentioned and the seventh is mahattaragarnum. Mahattar means Acharya, Upadhyaya or the head of the local religions organization. In case with their permission, the pratyakhyan is broken before its period is over in order to serve any patient, handicapped or extremely old person, it is not considered as a break in pratyakhyan ಈಶಣಿಲೆಗಳcಳಣಿಕಣಿಣಜಗಳಜಗಳಗಳನೆಣಿಗಳು.ಕಳಶಗಳಲ್ಲಿ निर्विकृतिक प्रत्याख्यान सूत्र विगइओ पच्चक्खामि, अन्नत्थऽणाभोगेणं, सहसा-गारेणं, लेवालेवेणं, गिहत्थसंसट्टेणं, उक्खित्त-विवेगेणं, पडुच्चमक्खिएणं, पारिठावणियागारेणं, महत्तरागारेणं, सव्वसमाहिवत्तियागारेणं, वोसिरामि। भावार्थ : मैं विगयों-विकृतियों का प्रत्याख्यान करता हूं। अनाभोग, सहसाकार, लेपालेप, गृहस्थसंसृष्ट, उत्क्षिप्तविवेक, प्रतीत्यम्रक्षित, पारिष्ठापनिक, महत्तराकार, एवं सर्वसमाधि प्रत्ययाकारइन नौ आगारों के सिवाय विकृतियों का त्याग करता हूं। Exposition: I discard articles that cause vikriti (disturbances or ill thoughts) in the body. In this pratyakhyan nine exceptions (digressions) are allowed. They are Anabhog, Sahsakar, Lepalep, Grihasth Sansrisht, Utshipt vivek, Pratityaprakshit, Parishthapanik, Mahettarakar and Sarva Samadhi Pratyakar. विवेचन : मन में विकार भावों को बढ़ाने वाले दूध, दही, घृत, गुड़, तेल आदि पदार्थों को विगय अथवा विकृति कहा जाता है। साधक आत्मिक स्वास्थ्य के लिए आहार करता है, स्वाद या दैहिक बलवृद्धि के लिए नहीं। दूध, घी आदि पदार्थों के नियमित सेवन से शारीरिक बल में वृद्धि होती है। शारीरिक सबलता बहुत बार ब्रह्मचर्य आदि नियमों के पालन में बाधा बन जाती है इसलिए साधक के लिए आवश्यक है कि वह समय-समय पर विकृतियों के त्याग से अपने मन और शरीर व स्वाद पर नियंत्रण का अंकुश लगाता रहे। आवश्यक सूत्र Sarp // 177 // 6th Chp. : Pratyakhyan gagraneparappanppparesppppages A a

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