Book Title: Agam 28 Mool 01 Aavashyak Sutra Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni
Publisher: Padma Prakashan

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Page 317
________________ I feel sorry for any such fault commit during the day. May my fault be condoned. There are fifteen causes of severe Karmic bondage in respect of trading. It is important for a shravak to know their nature very well. But he should not enter in such trades. For details of fifteen karmadan (such trades see pp. 215 ). in case due to any lack of knowledge or inadvertently, I may have undertaken any such trade, I feel sorry for the same and shall soon wind up the same. I condemn such act. May my fault be condoned. विवेचन : श्रावक का समग्र जीवन एक साधक का जीवन है। खान-पान से लेकर व्यापार-व्यवसाय तक वह स्वयं के लिए मर्यादाएं निर्धारित करता है। सूत्र के भावार्थ में श्राव के खान-पान एवं व्यवसाय संबंधी प्रायः पूरा आचार स्पष्ट है। प्रबुद्ध श्रावक के लिए यह आवश्यक है कि वह गृहीत मर्यादाओं के प्रति पूर्णतः सचेत रहे। प्रमादवश किंचित् दोष उत्पन्न हो जाए तो उक्त पाठ के मनन- चिन्तन-आराधन से उस दोष की शुद्धि कर ले। Explanation: The entire life of Shravak is that of a spiritual practitioner. He sets limit for the articles of consumption and articles of trading. In this aphorism such articles have been clearly narrated. It is essential for the learned Shravak, to remain vigilant about such limits. In case due to any slackness any fault is committed, he should by reciting and meditating this lesson remove the effect of that fault. आठवां व्रत : अनर्थदण्ड विरमण आठमूं, अनर्थदण्ड-विरमण व्रत ते - चउविहे अणत्थादंडे पण्णत्ते, तं जहाअवज्झाणायरिए, पमायायरिए, हिंसप्पयाणे, पावकम्मोवएसे, एहवा अनर्थदण्ड सेववाना पच्चक्खाण जावज्जीवाय; दुविहं तिविहेणं, न करेमि, न कारवेमि, मणसा, वयसा, कायसा। एहवा आठवां अनर्थ-दंड- विरमण व्रत ना पंच अइयारा जाणियव्वा न समायरियव्वा, तं जहा - ते आलोउं; 1. कन्दप्पे, 2. कूक्कुइए, 3. मोहरिए, 4. संजुत्ताहिगरणे, 5. उवभोग - परिभोग अइरत्ते, जो मे देवसि अइयारो कओ तस्स मिच्छामि दुक्कडं । भावार्थ : आठवें व्रत में अनर्थ- दण्ड से निवृत्त होता हूं। अनर्थ दण्ड चार प्रकार का प्रतिपादित किया गया है, यथा-(1) अपध्यान करना अर्थात् आर्त्त और रौद्र ध्यानों में निमग्न रहना, (2) प्रमाद का आचरण करना, (3) हिंसा -प्रदान - हिंसा के निमित्तिक साधनों - जैसे तलवार, भाला, हल, ऊखल आदि उपकरण दूसरों को देना, (4) दूसरों की पाप में प्रवृत्ति हो जाए ऐसा उपदेश IVth Chp. : Pratikraman श्रावक आवश्यक सूत्र // 243 // ksksksksksksksksksksksk.

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