Book Title: Agam 28 Mool 01 Aavashyak Sutra Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni
Publisher: Padma Prakashan

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Page 318
________________ देना। उपरोक्त चारों प्रकार के अनर्थ दण्ड का मैं जीवनभर के लिए दो करण एवं तीन योग से प्रत्याख्यान करता हू। मन, वचन एवं काय से अनर्थ दण्ड का न मैं स्वयं सेवन करूंगा एवं अन्य किसी को सेवन करने के लिए प्रेरित भी नहीं करूंगा। ___'अनर्थ दण्ड विरमण' व्रत के पांच अतिचार हैं जो ज्ञेय तो हैं पर आचरणीय नहीं हैं। वे पांच अतिचार इस प्रकार हैं-(1) काम-विकार उत्पन्न करने वाली कथा करना, (2) भाण्ड की भांति शारीरिक कुचेष्टाएं करना, (3) बिना सोचे-विचारे बोलना, (4) मर्यादा से अधिक शस्त्रों का संग्रह करना, एवं (5) उपभोग-परिभोग की वस्तुओं में अत्यधिक आसक्ति रखना। उपरोक्त दिवस संबंधी अतिचारों से यदि मेरा व्रत दूषित हुआ है तो मैं उसकी आलोचना करता हूं। मेरा वह दुष्कृत मिथ्या हो। Exposition: By accepting the eighth vow I detach myself from activity which causes unnecessary punishment (trouble) to others. It is of four types namely (1) To think perversely or to remain absorbed in state of grief or anger (2) To conduct myself in indolent manner. (3) To give such articles to others that cause violence to living beings namely sword, spade plough and the like. (4) To advise others in such a manner that he may engage in sinful acts. I withdraw myself from all the four above said activities for entire life in two forms namely doing myself and inspiring others to do it and in three ways namely mentally, orally and physically. There are five transgressions that may occur in practicing this vow of avoiding avoidable violence to others. They are as under. (1) To engage in talk that generates sexual feelings (2) To make postures like a clown (3) To speak not properly considering its consequences (4) To collect literature or scriptures more than what is essential (5) To remain extremely attached to articles of immediate consumption and those of frequent consumption. I may have committed any one of the abovementioned faults. I criticize and condemn such faults. May it be condoned. विवेचन : जिस कार्य से किसी भी प्रकार के अर्थ की सिद्धि न हो उसे अनर्थ-दण्ड कहा जाता है। कृषि, व्यापार आदि करते हुए जो पाप लगता है वह अर्थ-दण्ड है। कृषि आदि के अभाव में श्रावक के लिए जीवन-निर्वाह करना असंभव है। परन्तु कुछ कार्य ऐसे हैं जिनसे किसी भी प्रयोजन की सिद्धि नहीं होती है, जो अज्ञान, प्रमाद अथवा दिल बहलाव के लिए किए जाते हैं, वे अनर्थ-दण्ड की श्रेणी में आते हैं जो श्रावक के लिए सर्वथा त्यागने योग्य हैं। ऐसे अपध्यान, प्रमाद, हिंसा-प्रदान आदि अनर्थ-दण्ड से श्रावक को सदैव सावधान रहना चाहिए। भूलवश दोष लग जाए तो उक्त पाठ के चिन्तन द्वारा आत्म-शुद्धि कर लेनी चाहिए। चतुर्थ अध्ययन : प्रतिक्रमण // 244 // Shravak Avashyak Sutra paapaparamara parmanaparmanagapugarpaganganagarpaganganagarmagaramparas punkskskskskskskskskskskskskskskskskskskskskskskskskskskskskskskskskskskskskskskratisakaesaksesakase shesdeskskskskskskskskeup

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