Book Title: Agam 28 Mool 01 Aavashyak Sutra Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni
Publisher: Padma Prakashan

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Page 270
________________ pyaksksksksksksksksksksksksst edicatest 19 pleaksksksiksakseksiksakse akskskske alske sleelka salkesakse oksksksksksksksdesisekesalesalesale skesta salesale skestlesslege 1. Desire relating to the current life 2. Desire relating to the next life 3. Desire to live for more days in order to get appreciation 4. Desire to die early feeling disturbed by troubles 5. Desire to enjoy sexual pleasures in the next life. I feel sorry and condemn myself for the same that. I may have committed any one of the above mentioned digression during the period of samlakhana. विवेचन : जैन श्रमण का संपूर्ण जीवन साधनामय होता है। दीक्षा के प्रथम क्षण से लेकर जीवन के अंतिम क्षण तक वह ग्रहण किए गए मूलगुणों एवं उत्तरगुणों की सम्यक् आराधना में तल्लीन रहता है। जिस प्रकार एक श्रेष्ठी अपनी संचित संपत्ति की सुरक्षा एवं वृद्धि में सदैव संलग्न और सावधान रहता है वैसे ही श्रमण भी ग्रहण किए गए व्रतों की सुरक्षा और आत्मगुणों की वृद्धि में सतत संलग्न और सावधान रहता है। ग्रहण किए हुए व्रतों में किंचित् भी स्खलना होती है तो वह तत्क्षण प्रतिक्रमण, आलोचना एवं प्रायश्चित्त द्वारा उस स्खलना की शुद्धि कर लेता है। सतत आत्मशुद्धि करते हुए श्रमण अपनी आत्मा पर लगी हुई अनादिकालीन कर्म-कालिमा को धो लेता है। कर्म-कालिमा के धुलने से आत्मा के ज्ञानादि गुण स्वतः प्रकट हो जाते हैं। स्फटिक मणि की भांति साधक की आत्मा स्वच्छ और सुनिर्मल हो जाती है। ऐसी अवस्था में साधक जीवन के मोह और मृत्यु के भय से अतीत हो जाता है। चार घनघाती कर्मों का जब तक समग्रतया उन्मूलन नहीं होता, तब तक साधक निरंतर तप और ध्यान में संलग्न रहता है। साधना पथ पर चलते-चलते यदि शरीर शिथिल हो जाए, आयुष्य-कर्म संक्षिप्त रह जाए तो साधक आगमोक्त विधि-विधान से शरीर-त्याग के लिए प्रस्तुत होता है। साधारण संसारी प्राणी मृत्यु के समय भयभीत होते हैं, रोते-कल्पते हैं, मृत्यु से बचने के लिए वैद्यों-हकीमों-डॉक्टरों की शरण में जाते हैं, यथासंभव औषधादि का उपयोग करते हैं। परंतु आयुष्य-कर्म यदि पूर्ण हो चुका है तो कोई भी साधन मृत्यु से रक्षा नहीं कर सकता। मृत्यु का प्रसंग साधक के समक्ष भी उपस्थित होता है। परन्तु मृत्यु के प्रसंग पर साधक के हृदय में भय की संक्षिप्त-सी रेखा भी नहीं उभरती। क्यों? क्योंकि उसने अपने समग्र जीवन को धर्मकला से सजाया-संवारा है. भय और भय के कारणों का अन्वेषण करके उनका निरश किया है। भय के कारण ही विलीन हो जाएं तो फिर भय कैसा? साधक महोत्सव पूर्वक मरण का वरण करता है। उसका मरण, मरण नहीं, बल्कि मृत्यु-महोत्सव कहलाता है। जीवन के प्रत्येक प्रसंग पर रहने वाली प्रसन्नता, मृत्यु के क्षण में TAGRARRORNP.802. saksksksksksksdesksisterstockskskskedeodesdesakes ಶಕಗಳಷಶkಣಿಗಳಣರಣಿಗಳ षष्ठ अध्ययन : प्रत्याख्यान // 196 // Avashyak Sutra

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