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राग और द्वेष, ये दो दुर्दम्य बंधन हैं। अज्ञान के कारण आत्मा मन के अनुकूल वस्तुओं और व्यक्तियों पर राग करता है तथा मन के प्रतिकूल वस्तुओं और व्यक्तियों पर द्वेष भाव धारण करता है। इससे विषमता उत्पन्न होती है। विषमता ही दुख का कारण एवं संसार-भ्रमण का मूल है।
ज्ञान, दर्शन एवं आनंद, ये आत्मा के मूल स्वभाव हैं। आत्मा के मूल स्वभाव में रमण करना ही सामायिक है। व्यक्ति को जो भी सुख - दुख अथवा हानि-लाभ प्राप्त होता है, वह पूर्व कर्मों के अनुसार होता है। प्राप्त होने वाले सुख और दुख में जो व्यक्ति या वस्तु निमित्त है उस पर राग या द्वेष का भाव लाना अज्ञान है। सुख और दुख को स्वकृत जानकर व्यक्ति को समभाव का अभ्यास करना चाहिए। उसी का नाम सामायिक है।
प्रस्तुत सूत्र में साधक सामायिक (समताभाव में स्थिरता) की प्रतिज्ञा ग्रहण करते हुए संकल्प व्यक्त करता है - मैं तीन करण और तीन योग से सावद्य व्यापारों का त्याग करता हूं। काल में मैंने जो पाप किए हैं उनकी निन्दा और गर्हा करता हूं तथा उनका परित्याग करता हूं।
सावद्य का अर्थ है-पाप। हिंसा, झूठ, चोरी, दुराचार, परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ आदि अष्ठारह पापस्थान हैं। सामायिक की साधना में इन अठारह पापों का त्याग किया जाता है।
तीन करण, तीन योग : करण का अर्थ है - प्रवृत्ति । किसी भी कार्य में प्रवृत्ति तीन तरह से होती है- (1) कृत-किसी कार्य को स्वयं करना, (2) कारित - दूसरों से करवाना, एवं (3) अनुमोदित कार्य में प्रवृत्त दूसरों को अच्छा मानना ।
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योग-यह जैन पारिभाषिक शब्द है जिसका अर्थ है - मन, वचन और काय । कार्य करने का संकल्प करना मनोयोग है। कार्य संबंधी वचन का उपयोग करना वचन योग है, तथा कार्य को करना काय योग है।
प्रस्तुत सामायिक सूत्र श्रमण के लिए है। श्रमणत्व की भूमिका में प्रवेश लेते हुए साधक तीन करण और तीन योग से अठारह पापों का जीवन भर (जावज्जीवाए) के लिए त्याग करता है। इसीलिए यहां जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं पदों का उपयोग हुआ है जिनका अर्थ हैजीवन भर के लिए पाप कर्मों का तीन करण (कृत, कारित्त, अनुमोदित ) और तीन योग (मन, वचन, काय) से त्याग करता हूं।
श्रावक की सामायिक दो करण और तीन योग से होती है। श्रावक को पारिवारिक और सामाजिक दायित्वों का वहन करना होता है इसलिए सावद्य के अनुमोदन का त्याग उसके लिए संभव नहीं हो पाता है।
प्रथम अध्ययन : सामायिक
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Avashyak Sutra