________________ प्रस्तुत अवतरण से यह स्पष्ट है आचारांग और निशीथ में किसी भी प्रकार का सम्बन्ध प्रतीत नहीं होता। समवायांग के 57 अध्ययन में प्राचारांग, सूत्रकृतांग, स्थानांग के 57 अध्ययन प्रतिपादित किये गये हैं। वहां पर भी निशीथ की परिगणना नहीं की गई है। प्राचारांगनियुक्ति से सर्वप्रथम हमें यह जानकारी प्राप्त होती है कि आचारांग का निशीथ के साथ सम्बन्ध है। आचारांग और पांच चलाओं की संयुक्त नियुक्ति बनाकर प्राचारांग और निशीथ में परस्पर सम्बन्ध स्थापित किया गया है। निर्यक्तिकार ने आचारांग की पांचवीं चला के रूप में निशीथ की स्थापना कर आचाराम और निशीथ दोनों अंग हैं यह सिद्ध किया है। संक्षेप में सारांश यह है कि निशीथ की रचना प्राचारांग की पांचवीं चूला के रूप में स्थापना नन्दीसूत्र के पश्चात् हुई है और नियुक्ति की रचना के पूर्व हुई है। पण्डित दलसुखभाई मालवणिया ने 'निशीथ : एक अध्ययन' ग्रन्थ में प्रस्तुत प्रश्न पर विस्तार से ऊहा-पोह किया है और उन्होंने यह विचार प्रस्तुत किया है कि 'निशीथ' किसी समय आचारांग के अन्तर्गत रहा होगा। किन्तु एक समय ऐसा भी आया कि उपलब्ध आचारांगसूत्र से निशीथ को पृथक् कर दिया गया। यह भी स्मरण रखना चाहिए कि निशीथ आचारांग की अन्तिम चला के रूप में था, मूल में नहीं / सम्भव है, कभी चला के रूप में प्राचारांग में जोड़ा गया हो और विशेष कारण उपस्थित होने पर, जो निशीथ मौलिक रूप में आचारांग का अंश नहीं था, वह एक परिशिष्ट रह गया हो जो छेद अंगबाह्य था, उसमें निशीथ को सम्मिलित कर दिया गया। अंगबाह्य में निशीथ को सम्मिलित करने से निशीथ का महत्त्व कम नहीं हुआ। यहां पर भी यह स्मरण रखना होगा कि निशीथसूत्र को प्राचारांग का अंश श्वेताम्बर परम्परा ही मानती है, दिगम्बर परम्परा नहीं। दिगम्बर परम्परा की दृष्टि से निशीथ अंगबाह्य प्रागम ग्रन्थ ही है।२ दिगम्बर परम्परा ने चौदह ग्रन्थों को अंगबाह्य माना है। उनमें छह तो आवश्यकसूत्र के अध्ययन ही हैं। इससे भी यह स्पष्ट है कि निशीथ कितना प्राचीन आगम है। श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्परा के भेद होने के पूर्व निशीथसूत्र था यह स्वतः सिद्ध होता है। आचारांगनियुक्ति में निम्न माथा आई है.--- णवबंभचेरमइओ अट्ठारसपयसहस्सिओ देओ। हवइ य सपंचचूलो बहु-बहुतरओ फ्यग्गेण // प्रस्तुत गाथा से यह स्पष्ट होता है कि पहले प्राचारांग के प्रथम स्कन्ध के नौ ब्रह्मचर्य अध्ययन ही थे। उसके पश्चात् उसमें वृद्धि हुई और वह प्रथम बहु हुआ और तदनन्तर बहुतर / प्राचारांग के आधार पर ही प्रथम चार चलाएं बनीं और उन चुलाओं को आचारांग के साथ जोड़ दिया गया। समवायांग और नन्दी इन दोनों आगमों में आचारांग का जो परिचय दिया गया है उसमें पच्चीस अध्ययन कहे गये हैं पर निशीथ को उसके साथ नहीं जोड़ा गया है। जब निशीथ को आचारांग के साथ जोड़ा गया तो वह बह से बहतर हो गया। नन्दी में कथित आगमसूची के निर्माण काल और प्राचारांगनियुक्ति की रचना के काल, इन दोनों के बीच के काल में ही निशीथ को आचारांग में जोड़ा गया है। 1. हवइ सपंचचूलो। -प्राचारांगनियुक्ति 11 2. (क) षट्खण्डागम भाग 1 पृ. 96 / (ख) कषायपाहुण भाग 1, पृ. 25 // 121 3. आचारांगनियुक्ति गाथा 11 24 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org