________________ निशीथ का ज्ञाता हए बिना कोई भी श्रमण अपने सम्बन्धियों के यहां भिक्षा के लिए नहीं जा सकता और न वह उपाध्याय प्रादि पद के योग्य ही माना जा सकता है। धमण-मण्डली का अगुआ होने में और स्वतन्त्र विहार करने में भी निशीथ का ज्ञान आवश्यक है। क्योंकि निशीथ का ज्ञाता हुए बिना कोई साधु प्रायश्चित्त देने का अधिकारी नहीं हो सकता / इसीलिए व्यवहारसूत्र में निशीथ को एक मानदण्ड के रूप में प्रस्तुत किया गया है। छेदसूत्र दो प्रकार के हैं। कुछ छेदसूत्र अंग के अन्तर्गत आते हैं तो और कुछ छेदसूत्र अंगबाह्य के अन्तर्गत आते हैं। निशीथसूत्र अंग के अन्तर्गत है और अन्य छेदसूत्र अंगबाह्य के अन्तर्गत हैं। आचार्य देववाचक ने यद्यपि आचारांग और निशीथ के पारस्परिक सम्बन्ध का उल्लेख नहीं किया है। वहां पर तो केवल आचारांग के पच्चीस अध्ययनों का ही उल्लेख है।४ समवायांगसूत्र में प्राचारांग के नौ अध्ययन और आचारचूला के सोलह अध्ययन इस प्रकार आचारांग के पच्चीस अध्ययनों का वर्णन किया है।५ नन्दीसूत्र में निशीय का एक स्वतन्त्र कालिकसूत्र के रूप में वर्णन किया गया है। किन्तु पाचारांग के पच्चीस अध्ययनों में उसकी गणना नहीं गई की है। सम्भव है आचार्य देववाचक के सामने निशीथ प्राचारांग की ही एक चला है, इस प्रकार की धारणा न रही हो / समवायांगसूत्र में चूलिका के साथ आचारांगसूत्र के 85 उद्देशनकाल बतलाये हैं। नवाङ्गी टीकाकार आचार्य अभयदेव ने चतुर्थ आचारचूला तक की प्रस्तुत संख्यापूर्ति का संकेत किया है। वह इस प्रकार है आचारांग उद्देशन-काल आचार-चूला उद्देशन-काल namruare 19ur>>>>urx.>> rormxx202523 Form mrrrrrrrrorarrorror 0mm व्यवहारसूत्र, उद्देशक 6, सू. 2, 3 2. व्यवहारसूत्र, उद्देशक 3, सू. 3 ध्यवहारसूत्र, उद्देशक 3, सू. 1 १णवीसं अज्झयणा / -नन्दी, सूत्र 80 पायारस्स णं भगवओ सचूलियायस्स पणवीसं प्रज्झयणा पण्णत्ता, तं जहा- सत्थपरिण्णा लोग विजनो सीओसणीम सम्मत्तं / प्रावंति धुय विमोह उवहाणसुयं महपरिण्णा पिंडेसण सिज्जिरिआ भासज्झयणा य वत्थ पाएसा / उम्गहपडिमा सत्तिक्कसत्तया भावण विमुत्ति // -समवायांग, समवाय 25 नन्दीसूत्र 77 पायारस्स गं भगवओ सच लियागस्स पंचासीई उद्देसणकाला पण्णत्ता। -समवायांग, समवाय 85 वृत्ति क. तिण्हगणिपिडगाणं आयारचलियावज्जाणं सत्तावन अज्झयणा पण्णता, तं जहा-आयारे सूयगडे ठाणे / -समवायांग, समवाय 57 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org