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१. लघुमासिक प्रायश्चित्त जघन्य एक एकासना, उत्कृष्ट २७ उपवास है।
गुरुमासिक प्रायश्चित्त जघन्य एक निवी (दो एकासना), उत्कृष्ट ३. उपवास है। ३. लघुचौमासी प्रायश्चित्त जघन्य एक आयम्बिल (या एक एकासना), उत्कृष्ट १०८ उपवास है।
गुरुचौमासी प्रायश्चित्त जघन्य एक उपवास (चार एकासना), उत्कृष्ट १२० उपवास है। ५. उक्त दोषों के प्रायश्चित्तस्थानों का बारम्बार सेवन करने पर अथवा उनका सेवन लम्बे समय तक चलता
रहने पर तप-प्रायश्चित्त की सीमा बढ़ जाती है, जो कभी दीक्षाछेद तक भी बढ़ा दी जा सकती है। ६. कोई साधक बड़े दोष को गुप्त रूप में सेवन करके छिपाना चाहे और दूसरा व्यक्ति उस दोष को प्रकट कर
सिद्ध करके प्रायश्चित्त दिलवावे तो उसे दीक्षाछेद का ही प्रायश्चित्त आता है। दूसरे के द्वारा सिद्ध करने पर भी अत्यधिक झठ-कपट करके विपरीत आचरण करे अथवा उल्टा चोर कोतवाल को डांटने का काम करे किन्तु मजबूर करने पर फिर सरलता स्वीकार करके प्रायश्चित्त लेने के
लिए तैयार होवे तो उसे नई दीक्षा का प्रायश्चित्त दिया जाता है । ८. यदि उस दुराग्रह में ही रहे एवं सरलता स्वीकार करे ही नहीं तो उसे गच्छ से निकाल दिया जाता है। सूत्रों की गोपनीयता
कोई भी ज्ञान या आगम एकान्त गोपनीय नहीं होता है, किन्तु उसकी भी अपनी कोई सीमा अवश्य होती है।
मल आगमों में कहीं भी किसी भी सूत्र को गोपनीय नहीं कहा गया है। केवल इतना अवश्य कहा गया है कि योग्यताप्राप्त शिष्य को क्रम से ही सूत्र एवं उनके अर्थ परमार्थ का अध्ययन कराना चाहिए।
प्रयोग्य को या क्रम-अप्राप्त को किसी भी शास्त्र का अध्ययन नहीं करना चाहिए, क्योंकि उसे अध्ययन कराने पर अध्यापन कराने वाले को निशीथसूत्र उद्देशक १९ के अनुसार प्रायश्चित्त आता है, साथ ही योग्यताप्राप्त और विनीत शिष्यों को यथाक्रम से अध्ययन नहीं कराने पर भी उन्हें सूत्रोक्त प्रायश्चित्त पाता है।
इस प्रकार यह सहज ही स्पष्ट हो जाता है कि योग्य साधु-साध्वियों की अपेक्षा कोई भी आगम गोपनीय नहीं होता है।
आगमों में १२ अंगसूत्रों में से साध्वियों को ग्यारह अंगसूत्रों का अध्ययन करने का वर्णन आता है। साधुओं को १२ ही अंगों का अध्ययन करने का वर्णन आता है एवं श्रावकों को भी श्रुत का अध्ययन एवं श्रुत के उपधान का वर्णन पाता है। तीर्थंकरों की मौजूदगी में द्वादशांगी श्रुत ही था, शेष सूत्रों की संकलना कालांतर में हुई यह निर्विवाद है।
इस प्रकार आगम गोपनीय होते हुए भी तीर्थंकरों के समय भी अंग शास्त्रों का साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका चतुर्विध संघ अध्ययन करता था ।
चौदहपूर्वी भद्रबाहु-रचित व्यवहारसूत्र में भी प्राचारप्रकल्प के अध्ययन-अध्यापन को अत्यधिक महत्त्व दिया गया है । प्रत्येक युवक संत सती को इसका कंठस्थ होना आवश्यक कहा है, इससे इसकी अतिगोपनीयता का जो वातावरण है, वह आवश्यक प्रतीत नहीं होता है । इस प्रकार निशीथसूत्र या अन्य सूत्रों का अध्ययन भी चतुर्विध संघ में प्राचीनकाल से प्रचलित था।
कालांतर में आगमलेखन-युग एवं फिर व्याख्यालेखन-यग और अब प्रकाशनयग आया है। प्रागमों का लेखन और प्रकाशन समय-समय पर हुआ और हो रहा है । देश-विदेश में भी इनकी लिखित और प्रकाशित प्रतियों
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