________________ प्रस्तावना राजप्रश्नीयसूत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन धर्म : विश्लेषण भारतीय साहित्य में 'धर्म' शब्द व्यापक रूप से व्यवहृत हग्रा है। प्राध्यात्मिक हो या दार्शनिक साहित्य, आयुर्वेदिक हो या ज्योतिषशास्त्र हो, सर्वत्र 'धर्म' शब्द के सम्बन्ध में चिन्तन किया गया है। उस सम्बन्ध में विशालकाय ग्रन्थ निर्मित हए हैं। विभिन्न व्याख्याएँ और परिभाषाएँ धर्म शब्द को लेकर लिखी गई हैं। वैदिक युग से लेकर प्राधुनिक युग तक लाखों चिन्तकों ने धर्म शब्द को अपना चिन्तन का विषय बनाया है और धर्म के नाम पर अनेक विवाद भी हुए हैं। पारस्परिक मतभेदों के कारण धर्म के विराट् सागर में विवाद के तूफान उठे हैं, तर्क-वितर्क के भंवरों ने जनमानस को विक्षब्ध किया है। तथापि धर्म के स्वरूप को जिज्ञासा प्रत्येक मानव में आज भी है। हम धर्म शब्द की विभिन्न परिभाषाओं पर चिन्तन न कर संक्षेप में ही जैन मनीषियों ने धर्म पर जो गहराई से अनुचिन्तन किया है, उसे यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं। परमार्थतः धर्म वस्तु का स्वभाव है। व्यवहारतः क्षमा, निर्लोभता, सरलता आदि सदगुणों की अपेक्षा से वह दश प्रकार का है / सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र रूप रत्नत्रय की दृष्टि से धर्म के तीन प्रकार हैं। जीवों की रक्षा करना भी धर्म है, इसलिए यह स्पष्ट है जो प्रात्मा के निज गुण हैं, वह धर्म है और जो पुद्गलों का स्वभाव है, वह आत्मा के लिए धर्म नहीं किन्तु परभाव है, विभाव है और वही अधर्म है / जो स्वभाव है, वह सदा बना रहता है और जो विभाव है वह सदा बना नहीं रहता है। पानी को गर्म करने पर भी पानी हमेशा गर्म नहीं रहता, क्योंकि पानी का स्वभाव शीतलता है / मात्र प्राग के कारण उसमें उष्णता पाती है। वैसे ही क्रोधादि भाव कर्म के कारण उत्पन्न होते हैं, वे आत्म-स्वभाव नहीं, किन्तु विभाव हैं। इसीलिए उन्हें अधर्म कहा गया है। गणधर गौतम ने भगवान् महावीर के समक्ष जिज्ञासा प्रस्तुत की-आत्मा का स्वरूप क्या है ? कषाय प्रादि ग्रात्मा का स्वरूप है या समता आदि ? समाधान में भगवान् ने कहा-समता ही प्रात्मा का स्वभाव है, न कि कषाय / समत्व को प्राप्त कर लेना ही प्रात्म-स्वरूप को प्राप्त कर लेना है। श्रमण भगवान महावीर का ही नहीं, आधुनिक युग के प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक 'फ्रायड' का भी यह मन्तव्य है-"चेत्त-जीवन और स्नायु-जीवन का स्वभाव यह है कि वह विक्षोभ और तनाव को नष्ट कर समत्व की संस्थापना करता है।" विक्षोभ, तनाव और मानसिक द्वन्द्व से ऊपर उठ कर शान्त, निर्द्वन्द्व मनःस्थिति को प्राप्त करना ही वस्तुतः धर्म है। भगवान् महावीर 1. धम्मो वत्थसहावो, खमादिभावो य दसविहो धम्मो। रयणत्तयं च धम्मो, जीवाणं रक्खणं धम्मो / 2. प्राया सामाइए। [15] For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org