Book Title: Agam 07 Ang 07 Upasak Dshang Sutra Sthanakvasi
Author(s): Amolakrushi Maharaj
Publisher: Raja Bahaddurlal Sukhdevsahayji Jwalaprasadji Johari

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Page 36
________________ वासस्स सम्म अणणूपालणया ॥ १५॥ तदाणं तरंचर्ण अतिहि समविभागस्स . है समणोवासएणं पंचअइयारा जाणियव्वा नसम्मारियव्वा तंजहा-सचित्तनिक्खेवणया,, सचित्तपेहणया, कालातिकम्मे, परउवदेसं, मच्छरिया ॥ ५६ ॥ तदाणे तरंचणं . : अपाच्छम मारणंतिय संलहणा असणाराहणाए पंच अइयारा जाणियन्वा नसमायMP रियब्बा तंजहा-इहलोगे संसण्पओगे, पस्लोग्मे संसप्पओगे, जीवियाः संसप्पओगे, ... की प्रतिलेखना नहीं करे, व खरावतरेकरे, ४ वडीनीत लघुनीत की भूमी का प्रमाले नहीं व खरावतरे। " प्रमार्जे. और पौषध उपवास का यथाविधि पालन नहीं करें ॥५५॥ तदनन्तर बारवा अतिथी-जिन के आने की तिथी का नियम नहीं ऐसे साधुओं को देने के लिये आहार आदि का संविभाग करे,, जिसके पांच अतिचार जाने परंतु आदरेने नहीं, उन के नाम-साधु को देने योग्य फासुकवस्तुः१ सचित के ऊपररखे, २४ मचित्त के नीचेरखे, २ गोचरी का काल उल्लघे विनंतिकरे, ४ आप देते योग्य हो पस्के पास . दिलावें, और ५ अन्यदातरों से मात्सर्य भाव-ईर्षा करे व दानदेते कृपणताकरे.. ॥५६॥ तदनन्तर अपश्चिम अन्तिम परणतिक सलेषना, पापकी झोसना धर्म की आराधना के पांच अतिचार, जानमा परंतु आदरना की . उन के नाम- इस लोक के मुख की इच्छा करे,२ परलोक के मुख की इच्छा करे. ज्यादा 1. जीते रहने की इच्छा करे, ४ जल्दी मरने की इच्छा करे, और ५. काम भोग-पांचों इन्द्रियों के सुख । For Personal & Private Use Only प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी चालाप्रसादजी Jain Education International www.jainelibrary.org

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