Book Title: Agam 07 Ang 07 Upasak Dshang Sutra Sthanakvasi
Author(s): Amolakrushi Maharaj
Publisher: Raja Bahaddurlal Sukhdevsahayji Jwalaprasadji Johari

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Page 151
________________ - 8 सप्तमांग-उपाशक दश सूत्र मोक्खकंक्खिया; धम्मपिवाप्सिया, पुण्णपिवासिया, सग्गपिवासिय मोक्खपिवासिया; किणं तुब्भं देवाणुप्पिया ! धम्मेणवा पुण्णणवा, सग्गेणवा मोक्खणवा, जेणं तुमं मए सद्धिं ओर ल इ जाव भुंजमाणे णो विहरसि ॥ १६ ॥ तएणं से महासयए समणो १३९ वासय रेवईए गाहावइगीए एयमनॊ नो आढाई नो परियाणाई, अणाड्डाईजमाणा अपरियाणियामाणा तुसणीए धम्मोझाणवग्गए विहरइ ॥ १७ ॥ तएणं सा रेबई महा सयं समणोवासएणं दोच्चंपि तचंपि एवं बयासी-हंभो महासया समणोवासया ! तं चेव भणई ॥ सावि तहेव जाव अणाड्ढाईनमाणे विहरई ॥ १८ ॥ तएणं सा रेवइ धर्म के, पुण्य के, स्वर्ग के, मोक्ष के वांच्छक, धर्म के,पुण्य के, स्वर्ग के, और मोक्ष के प्यास, यदि तुम अहो । देवानुप्रिय ! मेरे साथ औदार प्रधान मनुष्य सम्बन्धी ये काम भांग भोगवत दुवे न बिचरोगे तो धर्म-14 पुण्य - स्वर्ग-मोक्ष का क्या लाभ प्राप्त कर सकोगे ? ॥ १६ ॥ तब वह महाशतक श्रावक रेवती गाथापतनी के उक्त वचन का, आदर विना किये सत्कार विना दिये मौनस्थ धर्म ध्यान ध्याता हुवा विचरने लगा।। १७ ॥ तब बह रेवती महाशतक श्रावक को दो वक्त नीन वक्त इस प्रकार बोली-भो महाशतक श्रमणोपासक! सब अपर मुजब कहा.. तो भी वे: महाशतक धर्म ध्यान ध्याते हुवा ही विचरने । महाशतक श्रावक का अष्टम अध्ययन 428 A8 -- Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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