Book Title: Agam 07 Ang 07 Upasak Dshang Sutra Sthanakvasi
Author(s): Amolakrushi Maharaj
Publisher: Raja Bahaddurlal Sukhdevsahayji Jwalaprasadji Johari
View full book text
________________
4
-
सप्तांग-उपाशंक दशा सत्र 488
-
लियं संविल्लियग्गसौंडं कुम्भिव पाईपुण्ण चलणं, वीसतिणक्खं अल्लीणपमाण जुत्त पुच्छं, मत्तंमेहमिव गुलगुलिवं मणपवण जईगवेगं दिव्वं हत्थिरूवं वेउवेइ २ ॥ १२॥ जेणेव पोलहसालाए जेणेव कामदेवे समणोवासए तेणेव उवागच्छइ २ ता कामदेव एवं व्यासी-हंभो कामदेवा ! तहेव भगति जाव नभंजसि, ततो अज्ज अहं सोडाए गिण्हामि रत्ता पोसहसालातो णीणेमिरत्ता उद्रं वेहासं उविहामिरत्ता तिक्खेहि
दंतमुमहिं पडिच्छ मि २ त्ता अहे धरणितलंसि तिक्खुचो पाएसु लोलेमि जहाणं नम्र किये वक्र किये धनुष्य समान, संकोचित किया यंड का विभाग, काछके समान प्रतिपूर्ण पांव, बीसनरख प्रतिपूर्ण, अलीन प्रयानोपेत युक्त पूंछ, पदमस्त स अंगोपांग से सुजात भाद्रा के मंघ समान गरगुलाट शब्द से गोरव करता हुवा मन और पवन जैनी शीघ्र गतिका धारक एका दिव्य हाथीका रूप वैक्रय किया।॥ १२ ॥ उक्त प्रकार हाथी का रूपबनाकर पौषधशाला में जहां कामदेव श्रमणोपाशक था, तह
आया. आकर कामदेव श्रमणो पासक से इस प्रकार कहने लगा-भी कामदेव ! यावत् जो तं पोषधोपवासादि व्रतों का भङ्ग नहीं करेगा तो आज में तुझे इस मूंड में पकडकर पौषध शाला से बाहिर लेजाकर अंचा आकाश में फेंकदूंगा, नीचे पडनेको तीक्षण दांतों पर झेलकर दांतों से तेरे शरीर में केन्द्रकर 7
कामदव श्रावक का द्वितीय अध्ययन
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org