Book Title: Agam 07 Ang 07 Upasak Dshang Sutra Sthanakvasi
Author(s): Amolakrushi Maharaj
Publisher: Raja Bahaddurlal Sukhdevsahayji Jwalaprasadji Johari
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सप्तमांग-पाशक दशा मूत्र 48
.. संपउत्ते,से तेणट्टेणं देशणुप्पिया! एवं उच्चति- समणे भमवं. महावीरे महामाहणे॥४॥ 4. आगएणं देवाणुप्पिया ! इहं महागोवे ? केणं देवाणुप्पिया ! महागोवे? समणे भगवं.
महावीरे महागोवे ।। सेकेणटेणं देवाणुप्पिया! समणे भगवं महावीरे महागोवे?॥.एवं खलु देवाणुप्पिया ! समणे भगवं महावीरे संसाराडवीए बहवे जीवे तस्समाणे विणस्समाण खजमाणे छिजमाणे भिजमाणे लुप्पमाणे विलुप्पमाणे धम्ममएणं दंडेणं संरक्खमाणे,
संगोवेमाणे निव्वाण महावाडे साहन्थि संपावेति, से तेण?णं सदालपुत्ता! एवं वुच्चइ. कर्म की सम्पदा युक्त, इसलिये हे देवानुप्रिय ! मैंने ऐसा कहा कि श्रमण भगवंत महावीर स्वामी महमहान अर्थात परमदयाल हैं॥४०॥ फिर मौशाला मंखली पुत्र बोला-हे देवानुपिय ! यहां महा मोफ
काल) आये ये क्या? सबाल पुत्र बोला-कौन देवानुप्रिय! महा गोप? गौशाला मंखली पत्र बोला-श्रमण भगवंत महावीर स्वामी महा गोप. सद्दाल पुत्र बोला-किस कारन श्रमण भगवंत महावीर स्वामी महा गोप हैं? गोशाला मंखली पुत्र बोला-यों निश्चय, हे देवानुप्रिय! श्रमण भगवन्त यहार्य स्वामी संसार रूप अटवी में बहुत जीव त्रास पाते, विनाश पाते, क्षय होते, छेदित भेदित होते, लुप्त होत, विलुप्त होते इस प्रकार कर्म से पीडाते हुवे को धर्म रूप दंडे (लकी) कर रक्षा करते हैं, मोक्ष रूप बाडे में भरते हैं, मोक्ष स्थान प्राप्त कराते हैं, इस लिये हे सद्दाल पुत्र ! मैंने ऐसा कहा कि-श्रमण भगवंत
:48 सहालपुत्र श्रावक का सप्तम अध्ययन 48
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