Book Title: Agam 07 Ang 07 Upasak Dshang Sutra Sthanakvasi
Author(s): Amolakrushi Maharaj
Publisher: Raja Bahaddurlal Sukhdevsahayji Jwalaprasadji Johari
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तुमं पुव्वावरण्हकाल ( पुल्वरतवरतकाल ) समर्थसि जेजेब आसोगणिया जात्र विहरति, तणं तुम्भंएगे देवे अंतियं पाउ भविता तचेणं से देवे अंतरिक्ख पढिवणे एवं वयासी- हंभो सद्दालपुत्ता ! तंचेव सव्ब जाव पज्जुवासिस्सामि, से सेण्णूर्ण सद्दालपुत्त: ! अट्ठे समट्ठे ? हंता अस्थि ॥ १२ ॥ तं नो खलु सद्दाल पुचा । तेणं गोसाल मेखलीपुत्तं पणिहाय, एवं वृत्ते ॥ १३ ॥ तरणं तस्स मद्दाल पुस समणेण भगवया महावीरेंणं एवं वृत्त समणस्स, इमेयारून अञ्झत्थिाए जाव. समुत्था-सणं समणे भगवं महावीरे महामहाणे, उप्पण्ण जाण दंसणधरे जाव वाडी है तू जाकर यावत् अपनी आत्मा को भावता विचरता था, उस वक्त तेरे पास एक देवता ममट {डुवा, सर्व व्यतीकर कह सुनाया, यावत् सेवा भक्ति करना ऐसा कहकर वह देव-जिस दिशा से आया था, उस दिशा पीछा गया, यह अर्थ योग्य है सत्य है ? साल पुत्र बोला- हां भगवान ! मस्य हैं।॥ १२॥ इसलिये निश्चय, हे सदाय पुत्र ! उस देवताने गोशाला मंखली पुत्र का आगम दरशाया नहीं या ॥ १३॥ तब सहाल पुत्र श्रमण भगवंत- महावीर स्वामी के उक्त बचन श्रवण कर इस प्रकार अध्यवसाय यावत् उत्पन्न दुवा, यह श्रमण भगवंत महावीर ही महामहान हैं, उत्पन्न ज्ञान दर्शन के धारक हैं, तप कर्प से सम्पदा -इन को ही मात्र हुइ है, इसलिये मुझे श्रमण भगवंत महावीर स्वामी को वंदना नमस्कार करना - यावत्
*-: मनुवादक-वालाचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिमी
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-राजा बहादुर लाखा मुखदेबमहायजी ब्वालाप्रसादजी
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