Book Title: Agam 07 Ang 07 Upasak Dshang Sutra Sthanakvasi
Author(s): Amolakrushi Maharaj
Publisher: Raja Bahaddurlal Sukhdevsahayji Jwalaprasadji Johari
View full book text
________________
-
mmmmwwwmarwar
र अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिनी
तहित्ति एयमटुं विणएणं पडिसुणेति ॥ ६८ ॥ ततेणं से आणंदे समणोवासए तस्सेवमित्त जाव पुरत्ते जेटुं पुत्तं कुटंबे हुवेइ २त्ता एवं वयासी-माणं तुम्हे अज्जप्पभिई कति ममं बहुसुकजेसुय जाव आपुच्छिओवा, पडिपुच्छिओवा ममं अट्ठाए असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडेउ २. वा ॥६९॥ तएणं सेआणंदे समओवासए जेलू पुत्तं मित्तणाति आपुच्छति २, सयातो गिहातो पडिणिक्खमति २ ता वाणियगामं नगरं मझ मज्झेणं निग्गच्छइ २त्ता जेणेव कोल्लाते सन्निवेसे जेणेव मित्तनाय कुले जेणेव
पोसहसाला तेणेव उवागच्छइ २ त्ता, पोसहसालं पमज्जति २त्ता उच्चारपासवणं भूमि यह अर्थ विनय भाव से अङ्गीकार किया ॥ ६८ ॥ तब आनन्द अपणोपासक उन मित्र ज्ञातीओं के आगे बडे पुत्रको कुटम्ब का भार सुपरत कर यों कहने लगा-आज पीछे तुम मुझे किसी भी कार्य का यावत् पूछना नहीं मेरेलिये अशनादि चारों आहार निपजाना नहीं ॥ ६९ ॥ तर आणंद श्रमणोपासक-बडा पुत्र और मित्र ज्ञातीजनों को पूछकर अपने घर से निकलकर वाणिज्याग्रम के मध्य २ में होकर जहां कोल्लाक सनीवेस जहां मित्र ज्ञाती के लोगों थे जहां पौषध शाला थी तहां आया, आकर पोषध शाला का परमार्जन किया, उच्चार-बडी नीत की पाश्रवण-लघुनीतकी भूमिकाका प्रतिलेखन किया, दर्भ-घासका बिछोना विछाया,
*प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवमहायजी मालाप्रसादजी ।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org