Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 11 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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भगवतीसूत्रे चंपा नयरी, जेणेव कूणिए राया, तेणेव उवागच्छइ' निर्गत्य, वीतिभयाद् नगरात् निष्क्रम्य, पूर्वानुपूर्वीम्-अनुक्रमेण चरन् , ग्रामानुग्राम-ग्रामान्तरं द्रवन् व्यतिव्रजन्, यत्रैव-चम्गनगरी आसीत् , अथ च यत्रैव कुणिको नाम राजा आसीत् , तत्रै उपागच्छति, 'उवागच्छित्ता कूणियं रायं उपसंपज्जित्ता णं विहरइ' उपागत्य, कूणिकं राजानाम् उपसम्पद्य-माश्रित्य खलु विहरति-तिष्ठति, 'तस्थ णं से विउलभोगसमिइसमन्नागए यावि होत्था' तत्रापि खलु कूणिकराजसमीपे स अभीतिकुमारो विषुलमोगसमितिसमन्वागतश्चापि विपुला प्रचुरा या भोगसमिति-परिभोगसामग्री तया समन्वितो युक्तश्चापि अभवत् । 'तएणं से अभीयिकुमारे समणोवासए यावि होत्या' ततः खलु स अभीतिकुमारः श्रमणीपासकशापि अभत् , 'अभिगय जाब विहरइ' अभिगतजीवाजीवः प्राप्त जीवाजीव तत्वविवेको यावद् विहरति-तिष्ठति, 'उदायणमि रायरिसिमि समणुबद्धधेरे यावि होत्था' उदायने राजौ समनुबद्धवैरथापि-समनुबद्धं-सर्वथा निबद्धं वैरं जमाणे, जेणेव चंपा नयरी, जेणेव कूणिए राया तेणेव उवागच्छ।' निकलकर यह क्रमशः चलता हुआ तथा एक ग्राम से दूसरे गांव को पार करता हुआ चंपानगरी में पहूँचा और वहां कूणिक राजा से मिला। 'उवागच्छित्ता कूणियं रायं उथसंपजित्ता णं विहरई' मिलकर वह उन्हीं के सहारे से वहां रहने लगा। 'तस्थ णं से विउलभोगसमन्नागए यावि होत्था' वहाँ पर भी वह विपुल भोग सामग्री से युक्त बन गया 'तए णं से अभीयिकुमारे समणोवासए यादि होत्या' धीरे २ वह अभीतिकुमार श्रमणोपासक भी हो गया 'अभिगय जाव विहरई' जीव अजीव तत्त्व का विवेक भी उसे हो गया 'उदायणंमि रायरिसिमि समणुबद्धवेरे पावि होत्या' परन्तु राज्यप्राप्ति न होने के कारण वह चंपानयरी, जेणेव कूणिए राया वेणेव उवागच्छइ" या नजाने मशः મુસાફરી કરીને, એક ગામથી બીજા ગામને પાર કરતો તે ચંપાનગરીમાં भावी पांच्या, अन त्या शिरानन भन्यो “उवागच्छित्ता कूणिय राय उवसंपज्जित्ताण विहर" तेन भगान त त्यो तना आश्रय सन २यो. “ तत्थ ण से विउलभोगसमिइसमन्नागए यावि होत्था " त्यो ५५ ते विyaan सामीथी युत मानी गयो, “ तए ण से अभीयिकुमारे समणोवासए यावि होत्था" धीरे धीरे मलात्भिार अभशापास ५५ २४ गयी. "अभिगय जाब विहरइ" १ तत्पनी ५५ २ मनी गयो. " उदायणमि रायरिसिमि समणुषद्धवेरे यावि होत्था" ५२-तु यासि न
શ્રી ભગવતી સૂત્ર: ૧૧