Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ आचारांण सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध अप्पेगे तालुभमन्भे, अस्पेगे तालुमच्छे, अप्पेगे गलमब्भे, अप्पेगे गलमच्छे, अप्पगे गंडमम्भे, अप्पेगे गंडमच्छे, अप्पेगे कण्णमन्भे, अप्पेगे कण्णमच्छे, अप्पगे णासमन्भे, अप्पेगे णासमच्छे, अप्पेगे अज्छिमब्भे, अप्पेगे अच्छिमच्छे, अप्पेगे भमुहमन्भे, अप्पेगे भमुहमच्छे, अप्पेगे णिडालमन्भे, अप्पेगे णिडालमच्छे, अप्पेगे सोसमन्भे, अप्पेगे सीसमच्छे / अप्पेगे संपमारए, अप्पेगे उद्दवए। 15. मैं कहता हूँ (जैसे कोई किसी जन्मान्ध व्यक्ति को (मूसल-भाला आदि से) भेदे चोट करे या तलवार आदि से छेदन करे, उसे जैसी पीड़ा की अनुभूति होती है, वैसी ही पीड़ा पृथ्वीकायिक जीवों को होती है।) जैसे कोई किसी के पैर में, टखने पर, घुटने, उरु, कटि, नाभि, उदर, पार्श्व-पसली पर, पोठ, छाती, हृदय, स्तन, कंधे, भुजा, हाथ, अंगुली, नख, ग्रीवा, (गर्दन) ठुड्डी, होठ, दाँत, जीभ, तालु, गले, कपोल, कान, नाक, अाँख, भौंह, ललाट, और शिर का (शस्त्र से) भेदन छेदन करे,(तब उसे जैसी पीड़ा होती है, वैसी ही पीड़ा पृथ्वीकायिक जीवों को होती है।) जैसे कोई किसी को गहरी चोट मारकर, मूच्छित करदे, या प्राण-वियोजन ही करदे, उसे जैसी कष्टानुभूति होती है, वैसी ही पृथ्वीकायिक जीवों की वेदना समझना चाहिए। विवेचन-~पिछले सूत्रों में पृथ्वीकायिक जीवों की हिंसा का निषेध किया गया है। पृथ्वीकायिक जीवों में चेतना अव्यक्त होती है। उनमें हलन-चलन आदि क्रियाएँ भी स्पष्ट दीखती नहीं, अतः यह शंका होना स्वाभाविक है कि पृथ्वीकायिक जीव न चलता है, न बोलता है, न देखता है, न सुनता है, फिर कैसे माना जाय कि वह जीव है ? उसे भेदन-छेदन करने से कष्ट का अनुभव होता है ? इस शंका के समाधान हेतु सूत्रकार ने तीन दृष्टान्त देकर पृथ्वीकायिक जीवों की वेदना का बोध तथा अनुभूति कराने का प्रयत्न किया है / प्रथम दृष्टान्त में बताया है-कोई मनुष्य जन्म से अंधा, बधिर, मुक या पंगु है / कोई पुरुष उसका छेदन-भेदन करे तो वह उस पीड़ा को न तो वाणी से व्यक्त कर सकता है, न त्रस्त होकर चल सकता है, न अन्य चेष्टा से पीड़ा को प्रकट कर सकता है। तो क्या यह मान लिया जाय कि वह जीव नहीं है, या उसे भेदन-छेदन करने से पीड़ा नहीं होती है ? जैसे वह जन्मान्ध व्यक्ति वाणी, चक्षु, गति आदि के अभाव में भी पीड़ा का अनुभव करता है, वैसे ही पृथ्वीकायिक जीव इन्द्रिय-विकल अवस्था में पीड़ा की अनुभूति करते हैं। 1. यहाँ 'अन्ध' शब्द का अर्थ जन्म से इन्द्रिय-विकल-बहरा, मूगा, पंगु तथा अवयवहीन समझना चाहिए। -आवा० शीलांटीका 351 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org