Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________ प्रयम अध्ययन : द्वितीय उद्देशक : सूत्र 16-18 13 दूसरे दृष्टान्त में किसी स्वस्थ मनुष्य की उपमा से बताया है, जैसे उसके पैर, आदि बत्तीस अवयवों का एक साथ छेदन-भेदन करते हैं, उस समय वह मनुष्य न भली प्रकार देख सकता है, न सुन सकता है, न बोल सकता है, न चल सकता है, किन्तु इससे यह तो नहीं माना जा सकता कि उसमें चेतना नहीं है या उसे कष्ट नहीं हो रहा है। इसी प्रकार पृथ्वीकायिक जीव में व्यक्त चेतना का अभाव होने पर भी उसमें प्राणों का स्पन्दन है, अनुभवचेतना विद्यमान है, अतः उसे भी कष्टानुभूति होती है। तीसरे दृष्टान्त में मूच्छित मनुष्य के साथ तुलना करते हुए बताया है कि जैसे मूच्छित मनुष्य की चेतना बाहर में लुप्त होती है, किन्तु उसकी अन्तरंग चेतना-अनुभूति लुप्त नहीं होती, उसी प्रकार स्त्यानगृद्धिनिद्रा के सतत उदय से पृथ्वीकायिक जीवों की चेतना मूच्छित व अव्यक्त रहती है / पर वे अान्तर चेतना से शून्य नहीं होते। उक्त तीनों उदाहरण पृथ्वीकायिक जीवों की सचेतनता तथा मनुष्य शरीर के समान पीड़ा की अनुभूति स्पष्ट करते हैं / भगवती सूत्र (श० 19 उ० 35) में बताया है. जैसे कोई तरुण और बलिष्ठ पुरुष किसी जरा-जीर्ण पुरुष के सिर पर दोनों हाथों से प्रहार करके उसे आहत करता है, तब वह जैसी अनिष्ट वेदना का अनुभव करता है, उससे भी अनिष्टतर वेदना का अनुभव पृथ्वीकायिक जीवों को आक्रान्त होने पर होता है। 16. एत्थ सत्थं समारंभमाणस्स इच्चेते आरंभा अपरिग्णाता भवंति / एत्थ सत्थं असमारंभमाणस्स इच्चेते आरंभा परिण्णाता भवंति / 17. तं परिणाय मेहावी व सयं पुढविसत्थं समारंभेज्जा, णेवऽण्णेहि पुढविसस्थं समारंभावेज्जा, वऽणे-पुढविसत्थं समारंभंते समणुजाणेज्जा। 18. जस्सेते पुढविकम्मसमारंभा परिण्णाता भगति से हु मुणो परिण्णायकम्मे त्ति बेमि। बिइओ उसओ समत्तो॥ 16. जो यहाँ (लोक में) पृथ्वीकायिक जीवों पर शस्त्र का सभारंभ-प्रयोग करता है, वह वास्तव में इन प्रारंभों (हिंसा सम्बन्धी प्रवृत्तियों के कटु परिणामों व जीवों की वेदना) से अनजान है। जो पृथ्वीकायिक जीवों पर शस्त्र का समारंभ/प्रयोग नहीं करता, वह वास्तव में इन प्रारंभों/हिंसा-सम्बन्धी प्रवृत्तियों का ज्ञाता है, (वही इनसे मुक्त होता है) 17. यह (पृथ्वीकायिक जोवों की अव्यक्त बेदना) जानकर बुद्धिमान मनष्य न स्वयं पृथ्वीकाय का समारंभ करे, न दूसरों से पृथ्वीकाय का समारंभ करवाए और न उसका समारंभ करने वाले का अनुमोदन करे / जिसने पृथ्वीकाय सम्बन्धी समारंभ को जान लिया अर्थात् हिमा के कटु परिणाम को जान लिया वही परिज्ञातकर्मा (हिमा का त्यागी) मुनि होता है। ----ऐसा मैं कहता हूँ। // द्वितीय उद्देशक समाप्त / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org