Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ आचारांग सूत्र--प्रथम श्रुतस्कन्ध इच्चत्थं गढिए लोए, जमिण विरूवरूवेहि सत्थेहि पुढविकम्भसमारंभेणं पुढविसत्थं समारंभमाणे अण्णे अणेगरूवे पाणे विहिंसति / 14. वह साधक (संयमी) हिंसा के उक्त दुष्परिणामों को अच्छी तरह समझता हुना, आदानीय---संयम-साधना में तत्पर हो जाता है। कुछ मनुष्यों को भगवान के या अनगार मुनियों के समीप धर्म सुनकर यह ज्ञात होता है कि यह जीव-हिंसा ग्रन्थि है, यह मोह है, यह मृत्यु है और यही नरक है।' (फिर भी) जो मनुष्य सुख प्रादि के लिए जीवहिंसा में ग्रासक्त होता है, वह नाना प्रकार के शस्त्रों से पृथ्वी-सम्बन्धी हिंसा-क्रिया में संलग्न होकर पृथ्वीकायिक जोवों की हिंसा करता हैं / और तब वह न केवल पृथ्वीकायिक जीवों की हिंसा करता है, अपितु अन्य नानाप्रकार के जीवों की भी हिंसा करता है। विवेचन-चरिण में 'आदानीय' का अर्थ संयम तथा 'विनय' किया है। इस सूत्र में आये 'ग्रन्थ' आदि शब्द एक विशेष पारम्परिक अर्थ रखते हैं / साधारणत: 'ग्रन्थ' शब्द पुस्तक विशेष का सूचक है / शब्दकोष में ग्रन्थ का अर्थ 'गांठ' (ग्रन्थि) भी किया गया है जो शरीरविज्ञान एवं मनोविज्ञान में अधिक प्रयुक्त होता है। जैनसूत्रों में आया हुआ 'ग्रन्थ' शब्द इनसे भिन्न अर्थ का द्योतक है। ___ आगमों के व्याख्याकार आचार्य मलयगिरि के अनुसार—"जिसके द्वारा, जिससे तथा जिसमें बँधा जाता है वह ग्रन्थ है।" उत्तराध्ययन, आचारांग, स्थानांग, विशेषावश्यक भाष्य आदि में कपाय को ग्रन्थ या ग्रन्थि कहा है / आत्मा को बाँधने वाले कषाय या कर्म को भी ग्रन्थ कहा गया है / ग्रन्थ के दो भेद हैं----द्रव्य ग्रन्थ और भाव ग्रन्थ / द्रव्य ग्रन्थ दश प्रकार का परिग्रह है(१) क्षेत्र, (2) वास्तु, (3) धन, (4) धान्य, (5) संचय,--तृण काष्ठादि, (6) मित्र-ज्ञातिसंयोग, (7) यान-वाहन, (8) शयनासन, (9) दासी-दास और (10) कुप्य / भावग्रन्थ के 14 भेद हैं-(१) क्रोध, (2) मान, (3) माया, (4) लोभ, (5) प्रेम, (6) द्वेष, (7) मिथ्यात्व, (8) वेद, (9) अरति, (10) रति, (11) हास्य, (12) शोक, (13) भय और (14) जुगुप्सा / प्रस्तुत सूत्र में हिंसा को ग्रन्थ या ग्रन्थि कहा है, इस सन्दर्भ में प्रागम-गत उक्त सभी अर्थ या भाव इस शब्द में ध्वनित होते हैं / ये सभी भाव हिंसा के मूल कारण ही नहीं, बल्कि स्वयं भी हिसा है / अतः 'ग्रन्थ' शब्द में ये सब भाव निहित समझने चाहिए। ___ 'मोह' शब्द राग या विकारी प्रेम के अर्थ में प्रसिद्ध है। जैन आगमों में 'मोह' शब्द अनेक अर्थों में प्रयुक्त हुअा है / राग और द्वेष-दोनों ही मोह हैं / सदसद् विवेक का नाश', 1. गथिज्जइ तेग तो तम्मि व तो तं मयं गंधी--विशेषा० 1383 (अभि. गजेन्द्र 31739) 2. अभि. राजेन्द्र भाग 31793 में उदधृत 3. वृहत्कल्प उद्देशक 1 गा 10-14 4. सूत्रकृतांग श्र० 1 अ. 4 उ. 2 गा० 225. स्थानांग 3 / 4 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org