Book Title: Agam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
View full book text
________________
२६
आचारांगसूत्रे वा-जलम्, खादिम वा चोप्यादिकम्, स्वादिम वा दुग्धपाकादिकम् एतच्यतु विधम् आहारजातम्, अस्य निग्रन्थस्य प्रतिज्ञया निमित्तेन कश्चित् प्रकृतिभद्रको गृहस्थः एकमेव यंकश्चन साधर्मिकं साधुं समुद्दिश्य हृदये लक्षीकृत्य अभिसन्धाय एकसाध्यर्थमिदमाहारजातं मया निपाधते इत्येवं विचार्य इत्यर्थः, 'पाणाई' प्राणिनः 'भूयाई' भूतानि, 'जीवाई' जीवान् 'सत्ताई' सत्वांश्च एतान् चतुर्विधान् परस्पर किश्चिदविभिन्नान् 'समारब्भ' समारभ्य परिताप्य, समारम्भं परितापरूपम् 'समुदिस्स' समुद्दिश्य, संरभ्मसमारम्भारम्भान् अधिकृत्य यदि आधाकर्म विदध्यादितिशेषः, एतेन सर्वेषामविशुद्धिकोटि काहार जातानां संग्रहो बोध्यः । सम्प्रति समस्तविशुद्धिकोटिकाहारजातं संग्रहीतुमाह-कीय क्रीतम् मूल्यकीतमित्यर्थः 'पामिच्चं' प्रामित्यम् पर्युदश्चन 'पैचउधार' रूपेण गृहीतम् 'अच्छिज्ज आच्छेद्यम्, अन्यस्माद् हठाद् गृहीतम्, बलादाच्छिन्नम् 'अणिसर्ट' अनिसृष्टम्, अविभक्तस्तु, तत्स्वाम्यनुज्ञा विनैव गृहीत मित्यर्थः, 'अभिडं' अम्याहृतम् गृहस्थेन साधुस्थाने उपाहृतम् आनीत पान खादिम और स्वादिम चतुर्विध आहार जात 'अस्स पडियाए' इस अमुक निर्ग्रन्थि के निमित्त से कोई प्रकृति भद्रक गृहस्थ 'एगं साहम्मियं समुदिस्स' एक साधु के लिये ही यह आहार जात में बनाता हूं ऐसा मनमें विचार कर 'पाणाई भूयाई जीवाई सत्ताई' प्राणी-भूत-जीव-सत्य इन चार प्रकारके परस्पर कुछ विभिन्न प्राणियों को सताने के उद्देश से संरम्भ, 'समारब्भ' समारम्भ और आरम्भ करता है तो उसे आधाकर्मादि दोषों से युक्त समझ कर इन अविशुद्ध आहार जात को नहीं ले, इसी प्रकार उक्त उद्देश्य से सम्पादित विशुद्ध कोटिक आहार जात को भी भावदूषित होने से नहीं लेना चाहिये-यह बतलाते हैंजैसे कि 'कीयं मूल्यक्रीत-कीमल-देकर खरोदा हुआ है 'पाभिच्चं' प्रामित्य पेंचा उधार लेकर गृहीत है और 'अच्छिज्ज आच्छेद्य-दूसरों से हठपूर्वक गृहीत है इसी प्रकार 'अणिसटुं' अनिसृष्ट-अविभक्त वस्तु-सभी स्वामी की अनुज्ञा के विनाही गृहीत है और 'अभिहडं' अन्याहूत-गृहस्थ के द्वारा उपाश्रय में साइमं वा' अशन, पान, माहिम मने स्वाभि सारे प्रश्न माह and 'अस्स पडियाए' मा अभु नियनानिमित्त । प्रकृतिला स्थै 'एगं साहम्मियं' मया । थे। साभिने 'समुहिस्स' उद्देशाने या मारत बनाछु मेवा विया२ रीन 'पाणाई, भूयाई, जीवाई, सत्ताई' प्राणु-भूत-०५-सपा या२ ५४ारना । दुध प्राशीयाने 'समारब्भ समुहिस्स' सतायवाना उदेशथी सन, सभा२-१, भने मा२ 3रे छे तो तेने આધાકર્માદિ દેષથી યુક્ત સમજીને આ અવિશુદ્ધ આહાર જાતને કે નહીં. એજ રીતે ઉક્ત ઉદ્દેશ્યથી સમ્માદિત વિશુદ્ધ આહાર જાતને પણ ભાવદૂષિત હોવાથી લેવો ન જોઈએ. ने मां छ-'कीय' जीत मत मापीर मरीस 'पामिच्,' प्राभित्य धार
श्री आया। सूत्र : ४