Book Title: Acharya Rajshekhar krut Kavyamimansa ka Aalochanatmaka Adhyayan
Author(s): Kiran Srivastav
Publisher: Ilahabad University
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उस समय कविराज वही हो सकता था, जो कवि विभिन्न भाषाओं, विभिन्न प्रबन्धों तथा विभिन्न रसों में काव्यनिर्माण में समर्थ हो। उनकी कृतियाँ उनकी कविराज उपाधि की सार्थकता को सिद्ध करती हैं।
एक प्रकार के प्रबन्ध निर्माण में प्रवीण होने पर कोई महाकवि तो हो सकता था, कविराज नहीं। किन्तु
आचार्य राजशेखर कविराज थे। वह संस्कृत, प्राकृत, पैशाची एवम् अपभ्रंश भाषाओं के प्रकाण्ड विद्वान्
थे। अपनी सर्वभाषाविचक्षणता पर उन्हें गर्व था। उनके समय में सभी भाषाएँ प्रचलित थीं और उनमें
काव्यरचना होती थी। काव्यमीमांसा के दशम अध्याय में राजाओं के कवि दरबार के चित्रण में आचार्य
राजशेखर ने राजसिंहासन के चारों ओर चार भाषाओं के कवियों के बैठने का उल्लेख किया है, जिससे
प्रतीत होता है कि तत्कालीन समाज में तथा राजसभाओं में सभी भाषाओं के कवियों को सम्मान प्राप्त था।
सभी भाषाओं के विद्वान् राजशेखर जैसे कवि तो अवश्य ही परम आदरणीय रहे होंगे। इसी कारण
आचार्य राजशेखर के परवर्ती कवि धनपाल, सोडढल और क्षेमेन्द्र आदि उनकी काव्यप्रतिभा से
अत्यधिक प्रभावित थे।
आचार्य राजशेखर वेद, वेदाङ्गों के, विभिन्न शास्त्रों तथा पुराणों के प्रकाण्ड विद्वान् थे। इसी कारण 'काव्यमीमांसा' में व्याकरणशास्त्र का, विभिन्न पुराणों का, कौटिलीय अर्थशास्त्र, मनुस्मृति,
1 "योऽन्यतरप्रबन्धे प्रवीणः स महाकविः।" "यस्तु तत्र तत्र भाषा विशेषे तेषु प्रबन्धेषु तस्मिंस्तस्मिंश्च रसे प्रवीणः, स कविराजः। ते यदि जगत्यपि कतिपये।"
काव्यमीमांसा - (पञ्चम अध्याय) 2 (क) "समाधिगुणशालिन्यः प्रसन्नपरिपक्त्रिमाः। यायावरकवेर्वाचो मुनीनामिव वृत्तयः॥"
(तिलकमञ्जरी-33, धनपाल) (ख) यायावरः प्राज्ञवरो गुणज्ञैराशंसितः सूरिसमाजवर्यैः नृत्यत्युदारं भणिते रसस्था नटीव यस्योढरसा पदश्री:।"
('उदयसुन्दरीकथा' कविवंशवर्णन, सोड्ढल)
काव्यमीमांसा - (बिहारराष्ट्रभाषा परिषद की भूमिका से) (ग) "शार्दुलक्रीडितैरेव प्रख्यातो राजशेखरः। शिखरीव परं वक्रैः सोल्लेखैरुच्चशेखरः॥"
(सुवृत्ततिलक, क्षेमेन्द्र, 3-35)