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तुलसी प्रज्ञा TULSI PRAJÑA
Jain Vishva Bharati Institute Research Journal
अनुसंधान-त्रैमासिकी
पूर्णाङ्क-१००
संपादक परमेश्वर सोलंकी
यस सारमा
भाग-२२ : जनवरी-मार्च, १९६७ ई० : अंक-४
जैन विश्वभारती संस्थान (मान्य विश्वविद्यालय), लाडनूं-३४१३०६ Jain Vishva-Bharati Institute, Ladnun-341306,
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तुलसी प्रज्ञा : अनुसंधान त्रैमासिकी
Tulsi Prajñā-Research Quarterly पूर्णाङ्क १००
परामर्शक प्रो. बी. बी. रायनाड़े
सदस्यगण
प्रो. राय अश्विनीकुमार प्रो. आर. के. ओझा डॉ. जे. आर. भट्टाचार्य डॉ. बच्छराज दूगड़
जैन विश्वभारती संस्थान (मान्य विश्वविद्यालय ) लाडनूं ३४१ ३०६ ( राज०) भारत
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Jain Vishva-Bharati Institute Research Journal
Vol. XXII
Jan.-March, 1997
Editor
PARAMESHWAR SOLANKI
Articles for Publication must accompany with notes and reference separate from the main body.
No. 4
The views expressed and facts stated in this journal are those of the writers. It is not necessary that the INSTITUTE agree with them.
Editorial enquiries may be addressed to The Editor, Tulsi Prajñā, JVBI Research Journal, Ladnun-341 306 (INDIA),
Copyright of Articles, etc. published in this journal is reserved,
Rs. 20/
Life Membership Rs. 600/
Annual Subs. Rs. 60/Published by Dr. Parmeshwar Solanki för Jain Vishva-bharati Institute Demed University, Ladnun-341 306 and printed by him at Jain Vishva-bharati Press, Ladnun-341 306. Published on 16.3.1997
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अनुक्रमणिका/Contents
२४३-२५०
२५१-२५६
२५७ --२६६
२६७ -२७४
२७५--२८६
२८७-२९४
१. संपादकीय --जर्मन विद्वान् पीटर फुगेल का थीसिस २. कर्म बंध और जैनदर्शन
जिनेन्द्र जैन ३. उपनिषदों में कर्म का स्वरूप
आनंद प्रकाश त्रिपाठी ४. अनुत्तरोपपातिक दशा की विषयवस्तु
अतुलकुमार प्रसाद ५. आत्म-परिमाण
समणी ऋजप्रज्ञा ६. जीव की परिभाषा और अकलंक
नंदलाल जैन ७. एलोरा की जैन मूर्तियों का शिल्प शास्त्रीय वैशिष्ठय
आनंदप्रकाश श्रीवास्तव ८. काव्य के तत्त्व और परिभाषाएं
मुनि गुलाबचंद्र निर्मोही' ९. उपमा-अलंकार के स्वरूप-लक्षण
कुमारी सुनीता जोशी १०. मनोविकास की भूमिकाएं
समणी प्रसन्नप्रज्ञा ११ उपनिषद् और जैनधर्म में आत्मस्वरूप-चिंतन
हरिशंकर पाण्डेय १२. वाल्मीकि रामायण की ऊर्मिला
कुमारी ममता १३. साहित्य-सत्कार एवं ग्रंथचर्चा
परमेश्वर सोलंकी
२९५-३०२
३०३--३१०
३११-३१४
३१५-३२४
३२५-३३०
३३१-३३५
कालक्रम और इतिहास
०३-०६
१. मास और राशियों का निर्धारण
शक्तिधर शर्मा २. नवकुरुक्षेत्र निर्माण-प्रशस्ति
परमेश्वर सोलंकी
०७-१४
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१५-१८
(iv) ३. जैन मेघदूतम् के रचनाकार-आचार्य मेरुतुंग
नीलम जैन ४. शव जन तीर्थ : वटेश्वर
संदीपकुमार चतुर्वेदी प्रकीर्णकम् |
१९-२२
०३-०८
०९-१३
१५-२० २१-२४
२४-३२
149-150
१. बीस विहरमाण
मुनि गुलाबचन्द्र निर्मोही' २. किं नाग्न्य-परीषहः
प्रस्तो० परमेश्वर सोलंकी ३. जैन-बौद्ध -प्रव्रज्या ग्रहण के हेतु
निर्मला चौरड़िया ४. वन्द्यो भवेत् स कालूरामः
प्रस्तो. परमेश्वर सोलंकी ५. गणित-प्रतिभा के धनी-मुनिश्री हनुमानमलजी मुनि श्रीचंद 'कमल'
English Section 1. Cultural Strategies for Pollution Control
Suresh C. Jain 2. A Quandary for the Sociology of Health
Anand Kashyap 3. Jaina and Brahmanical Art: A Study in Mutuality
Maruti Nandan Pd. Tiwari 4. The Role of Jain Ladies
Manikammas. Kabadagi 5. Relevance of Anekanta to the Modern Times
Anil Dhar 6. Social Work Traditions in India.I
Rajaram Shastri 7 Origin of Untouchability (V)
Upendranath Roy 8. त्रैवार्षिकी लेख-सूची (लेखक अनुक्रम)
(तुलसी प्रज्ञा पूर्णांक ९० से १००) परमेश्वर सोलंकी
151-158
159-165
167-171
173-190
191-198
199-220
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सम्पादकीय
जर्मन विद्वान् पीटर फुगेल का थीसिस
'श्री श्वेतांबर तेरापंथ धर्मसंघ' की स्थापना वि. सं. १८१७ आषाढ़ पूर्णिमा को हुई । साध्वियों का तीर्थ सं. १८२१ में बना और संवत् १८५३ में मुनि हेमराज की दीक्षा के बाद इस पंथ में चतुर्मुखी प्रगति हुई ।
संवत् १८६० में आचार्य भिक्षु स्वामी के स्वर्गवास होने पर संघ में २१ साधु और २७ साध्वियां विद्यमान थीं और आज सं. २०५३ में गणाधिपति तुलसी एवं आचार्यश्री महाप्रज्ञ के आज्ञानुवर्ती साधु-१४६, साध्वियां-५४७, समण-४, समणियां-८३ और मुमुक्षु-उपासिका बहनें ४८ कुल ८२८ हैं।
___ यह संप्रदाय प्रगतिशील, वर्तमान और परंपरीण शाश्वत मूल्यों पर आधुत है । इसके आचार-विचार में पांच महावत-सत्य, अहिंसा, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह; पांच समितियां-ई (देखकर चलना), भाषा (निर्बन्ध बोलना), एषणा (शुद्ध आहार-पानी की गवेषणा); आदान निक्षेप (वस्त्र-पात्र आदि को सावधानी से रखना) और परिष्ठापन (उचित भूमि पर मल-मूत्र करना) और तीन गुप्तियांखण्ड २२, अंक ४
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मनोगुप्ति (मन को वश में रखना), वाक् गुप्ति (वचन को वश में रखना) और काय गुप्ति (काया को वश में रखना)-ये तेरह नियम परिपालनीय हैं। कहा भी है
तिम्रः सत्तमगुप्तयस्तनु मनो भाषा निमित्तोदयाः पंचेर्यादि समाश्रयाः समितयः पंचव्रतानीत्यपि । चारित्रोपहितं त्रयोदश तपं पूर्व न दृष्टं पर
राचार परमेष्टिनो जिनपते वीरान् नमामो वयम् ।। अर्थात् भगवान् महावीर को नमस्कार है जिन्होंने तेरह प्रकार के चारित्र का प्रतिपादन किया। यह तेरह प्रकार का चारित्र है-अहिंसादि पांच महाव्रत, ईर्यादि पांच समितियां और मनोगुप्ति आदि तीन गुप्तियां। _ 'तेरापंथ' के साथ ये तेरह व्रत आदि इस प्रकार प्रयोक्तव्य बने हैं कि जैन जगत् में आचार-शिथिलता के विरूद्ध यह पंथ आचार-कुशलता और विचार-दृढ़ता का प्रतीक बन गया है । यही कारण है कि पिछले वर्ष (सन् १९९४) सुदूरवर्ती जोहनेसगुसवर्ग यूनिवसिटी, मेन्स (जर्मनी) में श्वेताम्बर तेरापंथी जैनों के आचार, साधुत्व और भक्ति भावना पर एक और पीएच. डी थीसिस उपाधि के लिए स्वीकृत हुआ है।
इससे पूर्व तेरापंथ के उद्भव और विकास पर दो शोध प्रबन्ध (राइज एण्ड डवेलपमेंट ऑफ तेरापंथ' तथा 'एडवेंट एण्ड ग्रोथ ऑफ तेरापंथ जैन सेक्ट-ए कमप्रिहेन्सिव हिस्टोरिकल स्टडी') क्रमशः महर्षि दयानंद सरस्वती यूनिवर्सिटी, अजमेर और जयनारायण व्यास यूनिवर्सिटी, जोधपुर में सन् १९९० और सन् १९९१ में स्वीकृत हो चुके हैं।
इसके अलावा तेरापंथ धर्मसंघ के वर्तमान, दशम आचार्य श्री महाप्रज्ञ के साहित्य पर आधृत दो थीसिस भी पीएच. डी. उपाधि के लिए स्वीकृत होकर शोधकर्ताओं को डिग्री मिल चुकी है। वस्तुत: यह क्रम सन् १९८१ में ही शुरू हो गया था जबकि एक तेरापंथी श्रावक को आचार्य भिक्षु (संत भीखणजी) के व्यक्तित्व और कृतित्व-पर भागलपुर यूनिवर्सिटी, भागलपुर से पीएच. डी. एवार्ड हुई थी।
जर्मन विद्वान् पीटर फुगेल ने अपना रीसर्च वर्क पो. ई. डब्लू. मूलर और असोसियट प्रो. ब्रुसकेफेर के मार्गदर्शन में पूरा किया है। उसने सभी जैन-संप्रदायों का व्यापक सर्वेक्षण करके उनमें तेरापंथ की संस्थिति और उसके साधुओं की दीक्षा-शिक्षा पर प्रकाश डाला है। जैन गृहस्थों के आदर्शों की चर्चा करके साधु और गृहस्थों के आचार-विचार का विवरण दिया है और तेरापंथ में हुए सामाजिक एवं धार्मिक सुधारों का मुकम्मल लेखा-जोखा प्रस्तुत किया है ।
पीटर फुगेल ने जैनधर्म में भावना का महत्व, विदेशों में हुए जैन धर्म विषयक शोध का विवरण, जैन जगत् की आधारभूत समस्याएं, तेरापंथ की साधु-परम्परा, उसकी मर्यादाएं और सामाजिक उद्देश्य आदि सभी विषयों पर पर्याप्त प्रकाश डाला है। शोध कर्ता का मानना है कि किसी भी धर्म में भेद-प्रभेदों का बढ़ना उसमें वर्तमान जीवन्तता का लक्षण है। इस दृष्टि से उसने जैन धर्म के समाज शास्त्र और उसकी संस्कृति पर पर्याप्त ऊहापोह किया है।
तुलसी प्रज्ञा
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शोधकर्ता ने तेरापंथ के नवम आचार्य द्वारा उद्भावित और देशव्यापी आन्दोलन के रूप में प्रचारित-प्रसारित अणुव्रत-भावना की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को उजागर किया है और परंपरा-निर्वाह के स्थान पर युगप्रधान की तरह उनके द्वारा किए गए चरित्र-निर्माण के प्रयासों का विवरण दिया है। उसने धर्म और पंथ का भेद खोलकर भिक्षा देने-लेने को बंद करके भारतीय समाज में से आर्थिक असंतुलन मिटाने की बात भी कही है। आचार्य महाप्रज्ञ के शब्दों में वह कहता है कि 'अणुव्रत-आन्दोलन' के प्रवर्तक आचार्य तुलसी राजनीति से दूर हैं। उनका किसी भी दल से कोई संबंध नहीं है और न वे किसी वाद से जुड़े हैं। वे देश के किसी एक छोटे से कोने में रहते हैं परन्तु सारे देश के लाखों लोगों को प्रभावित करते हैं। ____शोध कर्ता ने तेरापंथ में स्रजित नव श्रेणी-समण-समणी की उपयोगिता प्रतिपादित की है और उसके द्वारा अणुव्रत, प्रेक्षाध्यान और जीवन विज्ञान के प्रसार की कहानी कही है। अनेकान्त इन्टरनेशनल और लाडनूं-स्थित मान्य विश्वविद्यालय की गतिविधियों पर प्रकाश डाला है।
साथ ही एम. ए. गुणसेकरे द्वारा केलीफोनिया यूनिवर्सिटी, सेनडियागो में प्रस्तुत थीसिस (१९८६) के हवाले से मुनि चंदनमल आदि के नव तेरापंथ का व्यौरा दिया है और इस संबंध में श्री सतीश कुमार, केनथ ओल्डफील्ड, एल. पी. शर्मा इत्यादि अनेक लोगों के पक्ष-विपक्ष के विचार भी उद्धृत किए हैं।
सर्वाश में जर्मन भाषा में लिखा यह शोध प्रबन्ध अधुनातन जैन जगत् के आकार-प्रकार दश-दिशा और भविष्य की संभावनाओं के बीज समेटे हुए है किन्तु शोधकर्ता ने स्वयं कोई निष्कर्ष नहीं दिए; इसलिए इस दृष्टि से और शोधकर्ताओं को आगे आना चाहिए।
-परमेश्वर सोलंकी
खण्ड २२, अंक ४
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कर्म बंध और जैन दर्शन
दृश्यमान इस विशाल विश्व पर दृष्टिपात करने से अनेक विषमतायें देखने को मिलती हैं, जिनका मूलकारण कर्म के अतिरिक्त अन्य कुछ भी युक्तिसंगत प्रतीत नहीं होता । आचारांगसूत्र' में स्पष्ट कहा है कि "कर्म से उपाधि (दुःख) का जन्म होता है" अर्थात् कर्म से ही मनुष्य सुख-दुःख प्राप्त करता है । मनुष्य इस विषमता का कारण अन्तर्रात्मा में ढूंढने की अपेक्षा बाह्य तत्व में खोजता है । यही कारण है कि उसकी आसक्ति और भी बढ़ती है । फलतः वह कर्म - बन्धन से युक्त हो जाता है ।
प्रतिकूल अथवा अनुकूल - दोनों परिस्थितियां जीवन में आती हैं । कर्म के लिए साधक अपने जीवन में अनुकूल परिस्थितियों के अवसर ढूंढते हैं, किंतु इसमें जीवन की सार्थकता नहीं कही गई है । प्रतिकूल या अनुकूल परिस्थितियों से मुक्त होकर कर्म करने वाले साधक का ही जीवन सफल व पूर्ण है । इसीलिए आगमों में यह स्वीकार किया गया है कि व्यक्ति अपने जीवन में कर्म से जितना अधिक मुक्त रह सकेगा, उतना ही कर्मफल के प्रति अनासक्त हो सकेगा और वह उसी अनुपात में मुक्ति के अधिक निकट कहा जायेगा ।
जिनेन्द्र जैन
कर्म क्या है ?
पीना,
खाना,
:
कर्म शब्द का व्युत्पतिलभ्य अर्थ है - "क्रियते इति कर्म" अर्थात जो किया जाये वह कर्म है । कर्म शब्द लोक और शास्त्र में अनेक अर्थों में प्रयुक्त हुआ है । लौकिक व्यवहार या धन्धे आदि के अर्थ में कर्म शब्द का व्यवहार होता है चलना, फिरना आदि जितनी भी क्रियाएं हैं, उन सबका नाम कर्म है । कर्म शब्द का शास्त्रीय अर्थ देखें तो भारतीय चिंतकों ने अलग-अलग रूप में कर्म की व्याख्या की है । शास्त्र रूप में व्यवहृत कर्म शब्द के लिए मीमांसा व योग आदि में उसे क्रियाकलाप कहा है । ब्राह्मण परम्परा में कर्म चारों वर्णों व चारों आश्रमों के लिए प्रयुक्त हुआ है। पुराणों में व्रत, नियम आदि धार्मिक क्रियाओं के लिए तथा न्याय दर्शन में मान्य ७ पदार्थों में तृतीय पदार्थ कर्म का उत्क्षेपणादि पांच सांकेतिक कर्मों में व्यवहार किया गया है । व्याकरण शास्त्र' में कर्ता जिसको अपनी क्रिया के द्वारा प्राप्त करना चाहता है, वह कर्म है। गणित में योग और गुणन आदि कर्म के लिए प्रयुक्त होते हैं । किंतु जैन दर्शन में कर्म एक पारिभाषिक शब्द के रूप में जाना जाता है । जैन परम्परा में कर्म पौद्गलिक अर्थात द्रव्य रूप है । कर्म आत्मा के साथ प्रवाह रूप से अनादि सम्बन्ध रखने वाला अजीव - जड़ द्रव्य कहा गया है। राग-द्वेषात्मक परिणाम अर्थात
.२.४३
खंड २२, अंक ४
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कषाय भाव कर्म कहलाता है । कार्मण जाति का पुद्गल-जड़तत्व विशेष, जो कषाय के कारण आत्मा के साथ मिल जाता है, वह द्रव्यकर्म है। इस अर्थ से कर्म के दो विभाग जैन दर्शन में प्राप्त होते हैं-भाव कर्म व द्रव्य कर्म । अमृतचंद्राचार्य ने अपनी टीका में लिखा है कि आत्मा के द्वारा प्राप्त होने से क्रिया को कर्म कहते हैं। उस क्रिया के निमित्त से परिणमन विशेष रूप है, आत्मा से भिन्न एक विजातीय तत्त्व है। जब तक आत्मा के साथ कर्म का संयोग है तब तक संसार का अस्तित्व है और संयोग के नष्ट होने पर आत्मा मुक्त हो जाता है। अर्थात् आत्मबद्ध समस्त कर्मों के नाश का नाम ही मोक्ष है। किंतु इससे विपरीत संयोग अवस्था संसार को बढ़ाने वाली है। अतः कर्म चाहे शुभ हो या अशुभ, पुण्यरूप हो या पापरूप दोनों में उसके फल की प्राप्ति कही गई है । कुन्दकुन्द के शब्दों में शुभ और अशुभ (पुण्य व पाप) दोनों ही सोने व लोहे की शृंखला रूप हैं, जो बांधती हैं, जीव को कर्मबद्ध करती हैं । अशुभ के साथ शुभ कर्म भी बंधन का कारण होने से हेय है। विभिन्न दर्शनों में कर्म को स्वीकृतिः
जैन साहित्य में कर्मवाद पर पर्याप्त विश्लेषण किया गया है, जो अपने आप में अनूठा व विलक्षण है। इस तरह का विवेचन अन्यत्र नहीं प्राप्त होता । किंतु जैनेतर चिंतन में किसी न किसी रूप में जैसे-माया, अविद्या, प्रकृति, अपूर्व, वासना, आशय, धर्माधर्म, संस्कार, दैव, भाग्य आदि शब्दों का कर्म के लिए प्रयोग हुआ है । एक मात्र चार्वाक्दर्शन ही ऐसा दर्शन है, जिसने कर्मवाद पर विश्वास नहीं किया। क्योंकि वह आत्मा के स्वतंत्र अस्तित्व को नहीं मानता । फलतः कर्म व पुनर्भव, परलोक आदि की भी स्वीकृति नहीं देता। न्यायदर्शन में राग-द्वेष और मोह द्वारा योग की प्रवृतियों से धर्म, अधर्म की उत्पत्ति कही गई है, जिन्हें संस्कार नाम दिया गया है। यही संस्कार कर्म है। जबकि वैशेषिक दर्शन में मान्य २४ गुणों में एक अदृष्ट गुण है, जो कर्म का सूचक है। लेकिन संस्कार से पृथक् करके वहां धर्म-अधर्म उसके (अदृष्ट) भेद किए गए हैं। इसी प्रकार सांख्य, मीमांसा, बौद्ध, वेदान्त आदि दार्शनिक धाराओं में जैन परम्परा से मिलते जुलते अर्थ में "कर्म" शब्द के पर्याय-समानार्थी स्वीकार किए गए हैं । सांख्य में संस्कार, मीमांसा में अपूर्व, बौद्ध में वासना का अनादि चक्र तथा वेदांत में अविद्या या माया को कर्म रूप में निर्दिष्ट किया गया है।
सभी आस्तिक दर्शनों में संसार और आत्मा का अनादिकाल से संबंध माना गया है । अनादिकाल से आत्मा कर्मो से बंधा हुआ और विकारी है। कर्मबद्ध संसारी आत्मा के साथ ही कर्म के कर्तृत्व व भोक्तृत्त्व का संबंध है, न कि कर्ममुक्त आत्मा के साथ । कर्म जब आत्मा से पृथक् हो जाता हैं तब वह पुद्गल कहलाता है। जैन दर्शन में आत्मा से सम्बद्ध पुद्गल द्रव्य कर्म है और द्रव्यकर्म युक्त आत्मा की प्रवृति भाव कर्म है । आत्मा के पुद्गल के संबंध के आधार पर तीन रूप प्राप्त होते है :
(१) शुद्ध आत्मा :-जो मुक्तावस्था में है। (२) शुद्ध पुद्गल :-जिसकी सत्ता संसार में होती है।
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तुलसी प्रज्ञा
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(३) आत्मा और पुद्गल का मिश्रण :-जो संसारी आत्मा में है। जैन दर्शन में कर्म का स्वरूपः
जैन दर्शन में 'कर्म' शब्द क्रिया वाचक नहीं है । वह एक पारिभाषिक शब्द के रूप में है। जैन मंतव्यानुसार कर्म आत्मा पर लगे हुए सूक्ष्म पोद्गलिक पदार्थ का वाचक है। बन्ध की दृष्टि से जीव और पुद्गल दोनों एकमेक हैं, किन्तु लक्षण की दृष्टि से पृथक्-पृथक् हैं । जीव अमूर्त व चेतनायुक्त" है जबकि पुद्गल मूर्त व अचेतन, है। क्योंकि जब इन्द्रियों के विषय व इन्द्रियां स्वयं मूर्तमान हैं तो उनसे उत्पन्न सुखदुःख और उसका कारण भी मूर्तमान ही होगा ।१ जीव अपने मन, वचन, काय की प्रवृतियों से कर्म-वर्गणा के पुद्गलों को आकर्षित करता है और यह योगिक प्रवृत्ति तभी होती है जब जीव के साथ कर्म बन्धा हो। जीव के साथ कर्म तभी संबद्ध होता है जब यौगिक प्रवृत्ति हो। इस तरह प्रवृत्ति से कर्म और कर्म से प्रवृत्ति की परम्परा अनादि काल से चल रही है। कर्म और प्रवृत्ति के कार्य-कारणभाव को आधार मानते हुए पुद्गल परमाणुओं के कर्म को द्रव्यकर्म व राग-द्वेषात्मक प्रवृत्तियों को भाव कर्म कहा है ।१२
अकर्म में भी कर्म कहा गया है। अर्थात् अकर्म या शुद्धोपयोग में अवस्थित होने का अर्थ निकम्मापन नहीं है, बल्कि वहां अकर्म में कर्म की प्रतिष्ठा है । जीवन्मुक्त का स्थान सर्वोपरि है। जीवन्मुक्त निकम्मापन इसलिए नहीं है कि वहां न कर्तृत्व का अहंकार है और न ही कर्मफल की आसक्ति। इसीलिए अकर्म कर्म का बन्धन नहीं होता। जो जीव पहले से ही कर्मों से बन्धा है वही जीव नये कर्मों को बांधता है ।" शुभ और अशुभ कर्मों के बन्ध की चर्चा भगवती सूत्र में की गई है । वहां कहा गया है कि-मोहकर्म का उदय होने पर जीव राग-द्वेष में परिणत होता है और अशुभ कर्मो का बन्ध करता है। मोहरहित जो वीतराग जीव हैं वे योग के कारण शुभ कर्म का बन्धन करते हैं । संयत, संयतासंयत व असंयत ये सभी जीव कर्म बन्धक कहे गये हैं । अर्थात् जो सकर्म आत्मा हैं वे ही कर्म बांधती है। अकर्म आत्मा के बन्धन नहीं कहा गया है । इस दृष्टि से यह पूर्णसत्य है कि बद्ध जीव ही बन्धता है, अबद्ध नहीं बन्धता है । कर्म-बन्ध के कारण
जीव और कर्म के अनादिकालीन बन्धन को देखकर यह जिज्ञासा सहज उत्पन्न हो जाती हैं कि जीव के कर्म बन्ध का कारण क्या है ? इसका उत्तर जैनागम प्रज्ञापनासूत्र में इस प्रकार दिया गया है कि :--ज्ञानावरणीय कर्म के तीव्र उदय से दर्शनावरणीय कर्म का तीव्र उदय होता है। दर्शनावरणीय कर्म के तीव्र उदय से दर्शनमोह का उदय होता है। दर्शनमोह के तीव्र उदय से मिथ्यात्व का उदय होता है। तथा मिथ्यात्व के उदय से जीव अष्टकर्मों को बांधता है। ___ स्थानांग", सूत्रकृतांग" व तत्त्वार्थ सूत्र में कर्मबंध के पांच कारणों
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का उल्लेख किया है-(१) मिथ्यात्व, (२) अविरति, (३) प्रमाद, (४) कषाय, (५) योग। इन्हें ही आस्रवद्वार कहा जाता है। अर्थात् कर्मों का आगमन इनके द्वारा होता है इसलिए ये आस्रवद्वार कहे गये हैं। समवायांग", स्थानांगरे, प्रज्ञापनासूत्र' में कषायों को कर्मबंध का कारण कहा गया है। वहा पर राग-द्वेष रूप कषाय में क्रमशः माया-लोभ तथा क्रोध-मान का समावेश किया गया है । इस प्रकार कर्मबंध के मूलकारण (हेतु) उक्त पांचों को ही जैनागम में स्वीकार किया गया है। कर्म-बन्ध
"बन्ध" का सामान्य अर्थ है-संश्लेष, अनेक पदार्थों का एकीभाव, आकृष्ट करना, जोड़ना आदि। इस अर्थ के आधार पर कर्मबंध के तीन बिन्दु प्राप्त होते हैं :(१) जीव-बन्ध:-जीव की पर्यायभूत रागादि प्रवृत्तियां, जो उसे संसार के
साथ बांधती हैं। (२) अजीव-बन्ध :--परमाणु ओं में पाए जाने वाले स्निग्ध व रूक्ष स्पर्श आदि
जो परमाणु-स्कन्ध बनाते हैं। (३) उभय-बन्ध :-जीव के प्रदेशों के साथ होने वाला कर्म-परमाणुओं का
सम्बन्ध । उक्त तीनों बिन्दुओं में से जीव और अजीव-इन दोनों के मिश्रित बन्ध के विवेचन से कम-बन्ध की प्रक्रिया स्पष्ट की जा सकेगी। अत: उभय बंध को समझना आवश्यक होगा, इससे ही कर्म परमाणुओं का सम्बन्ध जीव के प्रदेशों के साथ होने को जाना जा सकता है । जैन दर्शन में आत्मा और कर्म का संश्लेष, एकीभाव होना ही बंध कहा गया है। सकामी आत्मा (सकषायी आत्मा) कर्म के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है । अर्थात् योग विशेष के निमित्त से सम्पूर्ण कर्म-प्रकृतियां आत्मा के प्रत्येक प्रदेशों पर अवस्थित होती हैं. यही कर्मबंध कहा जाता है। आत्मा और कर्म का जो परस्पर संबंध है, वही बंध है । पूज्यपाद् ने मिथ्यादर्शन आदि के द्वारा आत्मा के योग विशेष से अनन्तानंत पुद्गलों का उपश्लेष होने को बंध कहा है।" कर्म प्रदेशों का आत्मप्रदेशों में एकक्षेत्रावगाह हो जाना बन्ध है ।२८ कर्म पुद्गलों के ग्रहण को बंध कहा गया है ।२९ अर्थात् जीव के द्वारा कर्म पुद्गलों का ग्रहण क्षीर-नीर की भांति जो परस्पर आश्लेष होता है, उसे बंध कहा जाता है। अतः संक्षेप में कहा जा सकता है कि कर्मपुद्गलों का आदान एवं आत्म-प्रदेशों के साथ एकमेक हो जाना बन्ध है।
इसी प्रकार जीव के साथ कर्मबन्ध कैसे होता है ? इसके लिए बन्ध के ४ भेद जैनदर्शन में किए गए हैं :
(१) प्रकृति बंध-कर्मों का स्वभाव । (२) स्थिति बंध--जीव के साथ कर्म के सम्बन्ध की कालावधि । (३) अनुभाग बंध--- कर्मपुद्गलों में फल प्रदान करने वाली शक्ति विशेष । (४) प्रदेश बंध"-कर्मपुद्गलों का परिमाण या मात्रा।
तुमसी प्रक्षा
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१. प्रकृति का अर्थ है-स्वभाव । सामान्य रूप से ग्रहण किए हुए कर्म पुद्गलों
का जो स्वभाव होता है, उसे प्रकृतिबंध कहते हैं ।" आत्मा से सम्बन्ध होने वाले कर्मों में किस कर्म का क्या स्वभाव है ? यह आत्मा के किस गुण को प्रभावित करेगा ? इस प्रकार का निर्धारण होना, प्रकृतिबंध है। प्रत्येक कर्मस्कंध की अपनी-अपनी प्रकृति होती है। जैसे नीम का स्वभाव हैकड़वापन। वैसे ही अर्थ की अवगति न होने देना ज्ञानावरण का स्वभाव है। जीव की प्रवृत्ति द्वारा आकृष्ट एवं कषाय द्वारा आबद्ध समस्त कर्मवर्गणाएं स्वभावतः एकरूप होती हैं और जीव भी इन्हें एक साथ ग्रहण करता है। परन्तु जीव के द्वारा 'गृहीत' होने के बाद ही उनमें भिन्नभिन्न स्वभावों का निर्माण होता है। अतः कुछ कर्मस्कंध ज्ञान और दर्शन
को आवृत्त करते हैं तो कुछ दृष्टि एवं आचरण को मूढ़ बनाते हैं। २. कोन कर्म कितने समय तक आत्मा से सम्बद्ध रहेगा ? किस अवधि के बाद वह अपना फल देगा ? ऐसी व्यवस्था का नाम स्थितिबंध है । आत्मा और कर्मपुद्गलों का एकीभाव निश्चित समयावधि के लिए होता है। उस कालखण्ड के बाद उन्हें अवश्य ही विमुक्त होना पड़ता है। काल की यह निश्चितता स्थिति बंध कहलाती है । "कालावरधारणं स्थितिः" ।" स्थिति बंध कषायों की तीव्रता एवं मन्दता पर आधत है। कर्म करते समय जीव की कषायें जिस वेग से तीव्र होती हैं, अशुभ कर्मों की स्थिति उतनी ही सुदीर्घ होती हैं। जबकि कषाय की मंदता, मंदतर स्थिति वाली होगी तो शुभ कर्मों की स्थिति उतनी ही अधिक होती है । अतः शुभ कर्मों की तीव्रता होने पर अशुभ कर्मों का स्थिति बंध अल्प व अल्पतर होता है। कषाय की अनुदयावस्था में स्थिति बंध नहीं होता, क्योंकि उस समय कर्मों
को संश्लिष्ट करने वाले स्नेह का अभाव हो जाता है। ३. कर्म पुद्गलों में फल प्रदान करने वाली शक्ति विशेष का नाम अनुभाग बंध है। अनुभाग, अनुभव और फल-ये सब एकार्थवाची हैं। अतः कर्मों के विपाक को अनुभाग बंध कहा है । यद्यपि कर्म जड़ है तो भी पथ्य एवं अपथ्य आहार की तरह उनमें जीवों की क्रियाओं के अनुसार फल देने की शक्ति प्राप्त हो जाती है। यह अवश्य है कि तीव्र परिणामों से बंधे हुए कर्म का विपाक तीव्र, मंद परिणामों से बंधे हुए कर्म का विपाक मंद होता है। कर्ता के परिणाम स्वयं ही कर्म शुभ-अशुभ, मन्दतातीव्रता आदि के नियामक हैं। अतः कार्मण स्कंधों में जीव से संश्लिष्ट होते ही स्वाभाविक रूप से शक्ति का जो आपादन होता है वही अनुभागबंध है। ४. कर्म वर्गणा का आत्म-प्रदेशों के साथ सम्बन्ध होना प्रदेश बंध है। जिस
समय प्रदेश बंध होता है, उसके साथ-साथ ही शेष तीनों बंध हो जाते हैं। कर्मों के दल संचय को प्रदेशबंध कहा है-"दलसंचयः प्रदेश:"।" इस सम्पूर्ण लोक में पुद्गलास्तिकाय की सत्ता है। इनसे रहित कोई स्थान नहीं
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है । अतः एक अभिन्न क्षेत्र में (उन्हीं आकाश प्रदेशों पर ) अवस्थित, कर्म के योग्य द्रव्य को यह जीव अपने ही हेतुओं के द्वारा सब आत्मप्रदेशों में बांधता । इसका उल्लेख गोम्मटसार" व पंचसंग्रह" में इसी प्रकार किया गया है ।
प्रदेशबन्ध का कारण है— योग । यदि कोई जीव संज्ञी है और समस्त पर्याप्तियों से युक्त है तथा उस काल में कर्म प्रकृतियों का बन्ध करता है तो तीव्र योग की अवस्था में प्रदेश बन्ध सर्वाधिक होता है । जैसे दसवें गुणस्थान में । इसके विपरीत यदि वह उक्त शर्तों को कम धारण करता है तो प्रदेश बन्ध में अन्तर आ जाता है ।
इस प्रकार संक्षेप में यह चतुविध कर्म - बन्ध - प्रक्रिया जैन दर्शन के वैशिष्ट्य की
सूचक है ।
सन्दर्भ :
१. " कम्मुणा उवाही जायइ" -- आयारो १।३।१।१९
२. उत्क्षेपणापक्षेणाकुंचनप्रसारणगमनानि पंच कर्माणि - नैयायिकों ने द्रव्यादि सात पदार्थों में तीसरे कर्म पदार्थ के पांच भेद किए हैं। इन्हें ही कर्म शब्द से अभिहित किया है ।
३. कर्तुरीप्सितमं कर्म - अष्टाध्यायी ( पाणिनि ) १/४ /७९
४. (क) रूपाणि: पुदगलाः -- तत्वार्थसूत्र, ५०४
(ख) स्पर्शरसगन्धवर्णवान पुदगल:- - जैन सिद्धान्त दीपिका, ४१
५. प्रवचनसार, टीका, २।२५
६. कृत्स्नकर्मक्षयो मोक्ष : तत्वार्थसूत्र १०/३
७. कर्म विपाक -- हिंदी प्रस्तावना - पं. सुखलाल संघवी की,
८. न्यायभाष्य --- १।१।२ तथा अन्यत्र
९. प्रशस्तपादभाष्य - पृ. ४७ ( चौखम्बा प्रकाशन, १९३० ) १०. द्रव्यसंग्रह - गाथा २
११. पंचास्तिकाय — गाथा, १४१
१२. कर्म प्रकृति - नेमिचंद्राचार्य विरचित
१३. प्रज्ञापना —२३।१।२९२
१४. भगवती सूत्र ९
१५. विपाकसूत्र (व्यावर प्रकाशन) की प्रस्तावना, पृ. २५
१६. प्रज्ञापनासूत्र - २३।१।२८९
१७. जैनदर्शन के आठ कर्म ये हैं: - ज्ञानावरणीय, दर्शनवरणीय, मोहनीय,
अंतराय, नाम, गोत्र, आयुष्य व वेदनीय
(क) उत्तराध्ययन ३३।२-३,
(ख) स्थानांग ८ । ३ । ५७६
२४८
पृ. २३
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(ग) प्रज्ञापना २३४१
(घ) भगवती, ५९ १८. स्थानांग-४१८ १९. समवायांग, समवाय ५ २०. तत्वार्थसूत्र ८।१ २१. समवायांग, समवाय २ २२. स्थानांग २।३ २३. प्रज्ञापना २३ २४. प्रवचनसार-९५ २५. सकषायत्वाज्जीवः कर्मणी योग्यान्पुदगलानादत्ते--८२ सम्बन्ध :-८।३
तत्वार्थ- सूत्र, ८।२-३ २६. षडदर्शनसमुच्चय (हरिभद्रसूरि) ५१ २७. सर्वार्थसिद्धि, ८२ २८. तत्वार्थराजवातिक (अकलंक) ११४ २९. कर्मपुदगलादानं बन्ध :-जैन सिद्धांत दीपिका ४६ ३०. (क) तत्वार्थसूत्र ८।४ (ख) जैन सिद्धांत दीपिका ४७ ३१. सामान्योपात्तकर्मणां स्वभावः प्रकृति-जैन सिद्धांत दीपिका ४८ ३२. वही ४.९ ३३. वहीं ४।१० ३४. वही ४।११ ३५. गोम्मटसार-कर्मकाण्ड, गाथा १८५ ३६. पंचसंग्रह २८४
- (डा. जिनेन्द्र जैन)
असिस्टेंट प्रोफेसर जैन विश्व भारती संस्थान
लाडनूं.
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उपनिषदों में कर्म का स्वरूप न आनन्दप्रकाश त्रिपाठी 'रत्नेश'
वैदिक साहित्य का अंतिम भाग उपनिषद् है। अतः इसका नाम वेदान्त भी है। उपनिषदों में आत्मज्ञान, मोक्षज्ञान और ब्रह्मज्ञान की प्रधानता होने के कारण उनको आत्मविद्या, मोक्षविद्या और ब्रह्मविद्या भी कहा गया है। ये वस्तुतः अध्यात्म विद्या के मानसरोवर माने गये हैं जिनसे भिन्न-भिन्न ज्ञान विज्ञान की नदियां निकलती हैं। इन्हें यदि अध्यात्म का अक्षुण्ण भंडार कहा जाय तो अतिशयोक्ति नहीं । आस्मानंद की प्राप्ति आत्मज्ञान से संभव है। आत्मज्ञान से ही भव-बन्धन का विनाश संभव है। अतः जन्म और मरण के चक्र से छुटकारा पाकर आत्मानन्द की प्राप्ति ही उपनिषदों का प्रतिपाद्य विषय है ।
'उपनिषद्' शब्द का व्युत्पतिपरक अर्थ उप (निकट) नि (नीचे, निष्ठापूर्वक) और सद् (बैठना) से नीचे निकट बैठना या नीचे निष्ठापूर्वक बैठना है। शिष्यगण गुरु से गुप्त विद्या सीखने के लिए उसके निकट बैठते थे। वनों में स्थापित आश्रमों के शांत वातावरण में उपनिषदों के विचारक उन समस्याओं पर चितन किया करते थे जिनमें उनकी बहुत ही गहरी रुचि थी और वे अपना ज्ञान अपने निकट उपस्थित योग्य शिष्यों को दिया करते थे। इससे यह स्पष्ट होता है कि आध्यात्मिक शिक्षा को आत्मसात् करने के लिए हमारी प्रवृत्ति भी आध्यात्मिक होनी चाहिए।
चूंकि उपनिषदों में मोक्ष का प्रतिपादन है इसीलिए आचार्य शंकर उपनिषद् का अर्थ मोक्षविद्या या ब्रह्मविद्या करते हैं। तैत्तिरीय उपनिषद् के अपने भाष्य में वे कहते हैं कि 'उपनिपन्नं वा अस्याम् परं श्रेय इति ।' इस व्युत्पत्ति के अनुसार उपनिषद् का अर्थ ब्रह्मज्ञान है जिसके द्वारा अज्ञान से मुक्ति मिलती है । इन सबके आधार पर प्रो० कीथ 'द रिलजिन एण्ड फिलासफी ऑव द वेद एण्ड द उपनिषद्स' में इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि उपनिषदें हमें आध्यात्मिक अन्तर्दृष्टि और दार्शनिक तर्क प्रणाली दोनों प्रदान करती हैं।
उपनिषदों के शाब्दिक अर्थ के पश्चात् यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि उपनिषदों की संख्या कितनी है। इसके सम्बन्ध में बड़ा विवाद है। कुछ लोगों के अनुसार इसकी संख्या २०० से भी अधिक है। वैसे भारतीय परम्परा में एक सौ आठ उपनिषदों का उल्लेख मिलता है। पर अधिकांश विद्वानों के अनुसार ग्यारह उपनिषद् प्राचीन एवं प्रामाणिक हैं जो इस प्रकार हैं - ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुण्डक, माण्डूक्य, तैत्तिरीय, ऐतरेय, छान्द्रोग्य, श्वेताश्वतर एवं वृहदारण्यक । उनकी प्रामाणिकता
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इसलिए भी मान्य है क्योंकि शंकराचार्य ने इन पर भाष्य लिखा है । __भारतीय ग्रन्थों में उपनिषदों का अपना वैशिष्ट्य है। इसका प्रभाव न केवल भारतीय चिन्तकों, विद्वानों, विचक्षण पुरुषों पर पड़ा अपितु पाश्चात्य विद्वानों पर भी इसका प्रभाव पड़ा। प्रसिद्ध निराशावादी दार्शनिक शापेनहावर अपनी मेज पर हमेशा उपनिषदों की लैटिन प्रति रखता था तथा सोने से पूर्व उसी में से प्रार्थनाएं किया करता था । प्रो० पाल डायसन ने उपनिषदों की महिमा का गुणगान करते हुए कहा है कि जैसी शांतिमयी विद्या मैंने उपनिषदों में पायी, वैसी और कहीं देखने को नहीं मिली। मैक्समूलर ने तो अपने जीवन के उत्कर्ष का श्रेय उपनिषदों को दिया है। कहते हैं दारा शिकोह ने उपनिषदों से प्रभावित होकर संस्कृत पढ़ना प्रारम्भ किया था और फारसी में उपनिषदों का अनुवाद किया। उसने सच्चाई को स्वीकार करते हुए कहा है कि आत्माविद्या के बहुत से ग्रन्थ मैंने पढ़े हैं पर परमात्मा की खोज की प्यास केवल उपनिषदें ही बुझा पाई। इससे ही शाश्वत शांति और सच्चे आनंद की प्राप्ति होती है। इन विद्वानों के विचारों की प्रस्तुति का यहां आशय उपनिषदों की प्रशस्ति करना नहीं अपितु इस सच्चाई को प्रतिपादित करना है कि अध्यात्म विद्या के इन उत्कृष्ट ग्रन्थों का प्रभाव अनायास ही विद्वानों पर नहीं पड़ा है।
उपनिषदों का शाब्दिक अर्थ, संख्या, प्रतिपाद्य विषय और वैशिष्ट्य के सिंहावलोकन के पश्चात् अब प्रश्न यह उठता है कि उपनिषदों में कर्म का क्या स्वरूप है ? इसकी विस्तार से विवीक्षा करने के पूर्व यहां यह कहना प्रासंगिक होगा कि चूंकि उपनिषद् आत्मविद्या, मोक्षविद्या, ब्रह्मविद्या है अतः इनका लक्ष्य आत्मा मोक्ष एवं ब्रह्म का प्रकृष्टता से प्रतिपादन करना।
कर्म और पुनर्जन्म की यत्र-तत्र स्वीकृति तो मिलती है पर इनका सूक्ष्म विवेचन नहीं मिलता है। इसका यह आशय नहीं कि उपनिषद् कर्म-सिद्धान्त से वंचित हैं। उपनिषद् के संदर्भ में कर्म की परिभाषा करते हुए यह कहा जा सकता है कि जब तक हम अहं को मिटाते नहीं और दिव्य मूलाधार में स्थित नहीं हो जाते, तब तक हम संसार नाम के अनंत घटनाक्रम से बंधे रहते हैं। इस घटना-जगत् को जो तत्त्व शासित करता है वही कर्म है। कर्म का नियम व्यक्ति के लिए कोई बाह्य वस्तु नहीं है । निर्णायक बाहर नहीं भीतर है । सृजन कर्मों का ही परिणाम है । ऐतरेय उपनिषद् के अनुसार सम्पूर्ण प्राणियों के कर्मफल रूप उपादान के अधिष्ठान भूत चारों लोकों अम्भ (धुलोक), मरीच (अन्तरिक्ष), पर (पृथ्वी) और आप (जल) की रचना हुई।' अर्थात् उपरिलोक, पृथ्वीलोक तथा निम्नलोक सबका सृजन कर्म नियम की व्यवस्था के कारण ही है।
प्रश्नोपनिषद् में चन्द्रलोक और सूर्यलोक के साथ दक्षिण मार्ग और उत्तर मार्ग का उल्लेख मिलता है। इस उपनिषद् के अनुसार जो लोग किसी कामनावश कर्म मार्ग का अवलम्बन करते हैं वे चन्द्रलोक पर ही विजय पाते हैं और संसार में आवागमन बनाये रखते हैं। ये लोग दक्षिण मार्ग से चन्द्रलोक की यात्रा करते हैं पर जो तप, ब्रह्मचर्य, श्रद्धा और विद्या द्वारा आत्मा की खोज करते हुए उत्तर मार्ग द्वारा सूर्यलोक २५२
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को प्राप्त करते हैं, वे फिर कभी नहीं लौटते मुक्त हो जाते हैं। बृहदारण्यक उपनिषद् कहा गया है कि कर्म अज्ञानी और सकाम पुरुषों के लिए ही है । इसी उपनिषद् में आगे कहा गया है 'कर्मणा पितृलोकः, विद्यया देवलोकः " अर्थात् कर्म से पितृलोक और विद्या से देवलोक की प्राप्ति होती है । प्रश्नोपनिषद् का चन्द्रलोक मुण्डकोपनिषद् में भी उद्धृत है। यहां कहा गया है 'इमं लोकं हीनतरं व विशान्ती " अर्थात् चन्द्रलोक से इसमें या इससे भी हीनलोक में प्रवेश करते हैं । प्रश्नोपनिषद् में ही यह उल्लेख भी है कि 'पुण्येन पुण्यम् लोकं नयति पापेन पापमुभयाभ्यामेव मनुष्यलोकम्" अर्थात् पुण्य कर्म से पुण्यलोक ( उपरिलोक) की प्राप्ति होती है और पापकर्म से पापलोक ( निम्नलोक ) की ओर उभय कर्मों से मनुष्य लोक की प्राप्ति होती है। श्वेताश्वतर उपनिषद् में कर्म का उल्लेख इस रूप में हुआ है
गुणान्वयो यः फलकर्म कर्त्ता,
कृतस्य तस्यैव स चोपभोक्ता ।
स विश्वरूपस्त्रिगुण स्त्रिवत्र्मा,
प्राणाधिपः संचरति स्वकर्मभिः ॥ १०
अर्थात् जो गुणों से सम्बद्ध, फलप्रद कर्म का कर्त्ता और उस किये हुए कर्म का उपभोग करने वाला है, वह विभिन्न रूपों वाला, त्रिगुणमय, तीन मार्गों (धर्म, अधर्म, (ज्ञान) से गमन करने वाला, प्राणों का अधिष्ठाता अपने कर्मों के अनुसार गमन करता है । यहीं पर आगे कहा गया है
संकल्पन स्पर्शनदृष्टि मोहे
साम्बुवृष्ट्या चात्माविवृद्धि जन्म । कर्मानुगान्यनुक्रमेण देही,
स्थानेषु रूपाण्यभिसंप्रपद्यते ॥
अर्थात् जिस प्रकार अन्न और जल के सेवन से शरीर की वृद्धि होती है वैसे ही संकल्प, स्पर्श, दर्शन और मोह से यह देही क्रमशः विभिन्न योनियों में जाकर उन कर्मों के अनुसार रूप धारण करता है । वृहदारण्यक उपनिषद् में भी कहा गया है कि कर्मफल में आसक्त हुआ पुरुष अपने कर्म को प्राप्त होता है ।"
आत्मा पहले के जीवन
विभिन्न उपनिषदों में कर्म के प्राप्त इस स्वरूप से यह स्पष्ट होता है कि उपनिषदों में पुनर्जन्म की मान्यता कर्म के परिणाम के रूप में स्वीकार है । वृहदारण्यक उपनिषद् के अनुसार जिस प्रकार मनुष्य इस संसार में पहले पहने हुए कपड़ों को उतार कर नये कपड़े पहन लेता है, उसी प्रकार मनुष्य की के अपने कर्मों के अनुरूप नये शरीरों को धारण करती है विष्णुस्मृति" और भगवद् गीता" में भी इस सच्चाई को स्वीकार किया गया है। उपनिषदों में मनुष्य के मरने और जन्म लेने के अनेक उदाहरणों से स्पष्ट किया गया है । जिस प्रकार जोंक जब घास की लम्बी पत्ती के अन्तिम सिरे पर पहुंच जाती है तो वह सहारे के लिए कोई और स्थान खोज लेती है और फिर अपने को उसकी ओर खींचती है उसी प्रकार यह जीवात्मा इस शरीर के अंत पर पहुंच कर सहारे के लिए कोई
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और को खोज लेती है और अपने को उसकी ओर खींचती है। जिस प्रकार सुनार सोने के एक टुकड़े को लेकर उसे कोई और नवीन तथा अधिक सुन्दर आकृति दे देता है, उसी प्रकार यह जीवात्मा इस शरीर को समय-समय पर अनेक आकृति में परिवर्तित करता है।
पुनर्जन्म के इन प्रकरणों से यह स्पष्ट होता है कि आत्मा वर्तमान शरीर को छोड़ने से पहले अपने भावी शरीर को खोज लेती है । आत्मा इस अर्थ में सृजनशील है कि वह शरीर का सृजन करती है। शरीर को जब भी वह बदलती है तो एक नवीन रूप में। इस प्रकार मनुष्य जब तक सच्चा ज्ञान प्राप्त नहीं कर लेता तब तक पुनर्जन्म ही उसकी नियति है। सुन्दर चरित्र वालों को सुन्दर जन्म और कुत्सित चरित्र वालों को कुत्सित जन्म मिलते हैं ।
यहां प्रश्न यह उठता है कि कर्म का फल स्वत: मिलता है या किसी की प्रेरणा से ? केनोपनिषद् में इसका उत्तर देते हुए कहा गया है कि जिस प्रकार सेवक की सेवा से स्वामी की बुद्धि पर संस्कार पड़ जाता है, उसी प्रकार यात्रादि कर्म से सर्वत्र ईश्वर की बुद्धि के संस्कार युक्त हो जाने से फिर उस कर्म के नष्ट हो जाने पर भी जैसे सेवक को स्वामी से वैसे ही कर्ता को ईश्वर से फल मिल जाता है। अतः उपनिषदों में सम्पूर्ण जीवों की बुद्धि, कर्म और फल के विभाग का साक्षी सर्वान्तर्यामी, सर्वत्र ईश्वर को माना गया है जो साक्षात् अपरोक्ष ब्रह्म है ।
इस प्रकार ब्रह्मविद्या प्रधान उपनिषदों में कर्म को अज्ञान रूप ज्ञान का विरोधी रूप तथा अन्धकार रूप स्वीकार किया गया है। अपराविद्या रूप यह कर्म पराविद्या के होने पर सदा-सदा के लिए समाप्त हो जाता है। उपनिषदों का चरम लक्ष्य आत्मा, मोक्ष एवं ब्रह्म को प्रतिपादित करना है, इसके लिए कर्मों का निराकरण अत्यावश्यक है। मुक्त आत्मा पर कर्मों का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। मुक्त आत्मा के कम चाहे अच्छे हों या बुरे, उस पर कोई प्रभाव नहीं डालते ।“ ईशावास्योपनिषद् में कहा गया है कि
यस्मिन्-सर्वाणि भूतान्यात्मवाभूद्विजानतः।
तत्र को मोहः कः शोक एकत्वमनुपश्यतः ।। अर्थात् जिस समय ज्ञानी पुरुष के लिए सब भूत आत्मा ही हो गये, उस समय एकत्व देखने वाले उस विद्वान् को क्या शोक और क्या मोह हो सकता है। ब्रह्मविद्या से कर्मचाञ्चल्य सुसंयत और चित्त अन्तर्मुखी होता है । कैवल्य उपनिषद् के अनुसार कर्म से, प्रजा के, धन से नहीं अपितु त्याग से हो किन्हीं-किन्हीं ने अमरत्व को प्राप्त किया है । मुण्डको उपनिषद् के अनुसार
भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः।
क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावरे ।।२२ अर्थात् जीव के हृदय की ग्रन्थियां खुल जाती हैं, उसके सभी सन्देह छिन्नभिन्न हो जाते हैं, उसके सभी कर्म फलों का नाश हो जाता है जब वह परात्पर ब्रह्म का दर्शन करता है। उपनिषदों में कर्म मुक्त आत्मा के स्वरूप का चित्रण इस
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प्रकार हुआ है ।
अश्व जिस प्रकार अपनी अमाल को झाड़ता है, मुक्त आत्मा उसी प्रकार अपने पाप को झाड़ फेंकती है । चन्द्रमा जिस प्रकार ग्रहण के बाद राहु के पंजे से पूरापुरा बाहर आ जाता है, उसी प्रकार मुक्त आत्मा अपने को मृत्यु के बंधन से स्वतंत्र कर लेती है। जिस प्रकार सरकडे की डंडी आग में उसके कर्म नष्ट हो जाते हैं। जिस प्रकार जल कमल की पत्ती पर नहीं ठहरता उसी प्रकार कर्म उससे चिपकते नहीं हैं ।" मुण्डकोपनिषद् में कहा गया है
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भस्म हो जाती है, उसी प्रकार
यथा नद्यः स्यन्दमाना समुद्रेऽस्तं, गच्छन्ति नामरूपं विहाय ।
तथा विद्वान्नामरुपद्विमुक्तः, परात्परं पुरुषमुपैति दिव्यम् ॥ "
अर्थात् जिस प्रकार नदियां बहती हुई अपने नाम और रूप को छोड़कर समुद्र में लीन हो जाती है, उसी प्रकार विद्वान् नाम और रूप से मुक्त होकर पर से भी पर दिव्य से भी दिव्य पुरुष को प्राप्त हो जाता है। ईशा उपनिषद् कहती है कि विद्या से ही अमृत प्राप्त होता है ।" महाभारत में भी इसी तथ्य को प्रतिपादित करते हुए कहा गया है कि
कर्मणा बध्यते जन्तुविद्यया च विमुच्यते ।
तस्मात्कर्म न कुर्वन्ति यतयः पारदर्शिनः ॥ *
अर्थात् जीव कर्म से बंधता है और आत्मज्ञान से मुक्त हो जाता है इसलिए पारदर्शी यतिजन कभी कर्म नहीं करते । श्वेताश्वर उपनिषद् में भी इसी सत्य का प्रतिपादन हुआ है
एक हंसो भवनस्य मध्ये,
स एवाग्निः सलिले सन्निविष्टः । तमेव विदित्वा विमृत्युमेति,
नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय ॥
अर्थात् इस त्रिलोकी के मध्य में स्थित एक ही हंस (परमात्मा) है । उसी को • जानकर पुरुष मृत्यु के पार हो जाता है । मोक्ष के लिए और कोई मार्ग नहीं है । कर्मविहीन मुक्त आत्मा की स्थिति का चित्रण इस प्रकार हुआ है
१. सत्यं ज्ञानमनंतं ब्रह्म
(तै. उप. २1१1१ )
२. प्रज्ञानं ब्रह्म
(ऐ. उप. ५।३)
३. विज्ञानमानंद ब्रह्म
( वू. उप. ३।९।२८ ) नियम संसार में लागू
उपनिषदों के सन्दर्भ में अंत में यह स्पष्ट है कि कर्म का है, जहां हमारे कर्म हमें कालाधीन जगत् के उच्चतर या निम्नतर स्थानों पर ले जाते हैं । जब हम शाश्वत सत्य ब्रह्म या आत्मा का ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं, तो कर्मों का हम पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता । आत्मज्ञानी पर कर्म का कोई दाग नहीं पड़ता । अस्तु इस अवस्था को उपनिषदों में तत्त्वमसि सर्व खलु इदं ब्रह्म तथा अयमात्मा ब्रह्म कहा गया है, जहां रंचमात्र भी कर्म का असर नहीं है ।
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सन्दर्भ: १. उपनिषदों की भूमिका-डॉ० राधाकृष्णन पृ १५ २. मुक्तिका उपनिषद् में कहा गया है कि एक सौ आठ उपनिषदों के अध्ययन से मुक्त
प्राप्त की जा सकती है। ३. भारतीय दर्शन-डॉ० बी. एन. सिंह ४. सर्वप्राणि कर्मफलो पादानधिष्ठान भूतांश्चतुरो लोकान् सृष्टा । ५. प्रश्नोपनिषद्, मंत्र ९-१० ६. अज्ञस्य कामिन: कर्माणीति व. उप. १।४।१७ ७. वृह. उप. ११५।१६ ८. मुण्डको. उप. १।२।१० ९. प्रश्नो. उप. ३७ १०. श्वेता. उप. ५७ ११. श्वेता. उप. ५।११ १२. तदेव सक्तः सह कर्मणा वृ. उप. ४१४६ १३. वृह. उप. ४।४।३-५ १४. विष्णुस्मृति २०५० १५. भगवद्गीता ३॥२२ १६. छान्दोग्य उप. श१०७, कौषतिकी उप. ११२ १७. केनोपनिषद् खण्ड ३ १८. 'कर्मणो विद्याविरोधित्वातु' ई. वा. शा. का. १९. वृहदा. उप. ४।४।२२ २०. ईशा. उप. मंत्र ७ २१. 'न कर्मणा न प्रजया न धनेन त्यागेनके अमृतत्वमानशुः' कैवल्य उप. २ २२. मुण्डको. उप. २।२।८ २३. छान्दो. उप. ८.१३ २४. छान्दो. उप. ४११४१३ २५. मुण्डको उप. ३१२१८ २६. विद्ययामृतमश्नुते ईशा. ११ २७. महाभारत शान्ति पर्व २८. श्वेता. उप. ६।६।१६
-(डॉ. आनंद प्रकाश त्रिपाठी 'रत्नेश')
असिस्टेंट प्रोफेसर जैन विश्व भारती संस्थान, लाडनूं.
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'अनुत्तरोपपातिक' की विषय-वस्तु
अतुलकुमारप्रसाद सिंह
जैन आगम दो भागों में विभक्त है-अंग प्रविष्ट और अंग बाह्य । प्रथम विभागअंग प्रविष्ट में बारह अंग हैं। उनमें अनुत्तरोपपातिकदशा नौवा अंग है । स्थानांग सूत्र में वर्णित दस दशाओं में इसका स्थान चौथा है । यथा “दस दसाओ पण्णत्ताओ, तं जहा कम्मविभागदसाओ, उवासगदसाओ, अंतगडदसाओ, अणुत्तरोववाइयदसाओ, आयारदसाओ, पण्हावागरणदसाओ, बन्धदसाओ, दोगिद्धिदसाओ, दीहदसाओ, संखेवियदसाओ।'
'अनुत्तरोपपातिकदशा' पद अनुत्तर+उपपात+दशा इन तीन शब्दों के समूह से बना है । इसका अर्थ है-अनुत्तर विमान में उत्पन्न होने वालों की अवस्था या अनुत्तर विमान में उत्पन्न होने वाले दस लोगों का वर्णन या दस अध्ययन। जैनदर्शन के अनुसार पुरुषाकार लोक के नीचे भाग में सात नरक अवस्थित हैं । मध्यभाग में जंबूद्वीप, धातकी खण्ड, पुष्करार्धद्वीप, लवण, कालोदधिः पुष्करोदधि आदि द्वीप-समुद्र और मानुषोत्तर आदि पर्वत हैं । इनमें मनुष्य और तिथंच रहते हैं । ऊर्ध्वलोक में वैमानिक देवताओं का वासस्थान है जो अपने-अपने विमानों में रहते हैं। वैमानिकों के सौधर्म से लेकर अच्युत विमान तक बारह स्वर्ग हैं जो एक दूसरे के ऊपर अवस्थित हैं । लोक के ग्रीवास्थान में नौ ग्रेवेयक विमान हैं। इनके ऊपर बाइसवें से छब्बीसवें तक विजय, जयन्त, वैजयन्त, अपराजित और सर्वार्थसिद्धि ये पांच अनुत्तर विमान माने गये हैं। इसके ऊपर सिद्धशिला है । अनुत्तरोपपातिक में इन्हीं अनुत्तर विमानों में उत्पन्न होने वालों का वर्णन है।
स्थानांग सूत्र में अनुतरोपपातिदशा के दस अध्ययनों का उल्लेख है ।' अणत्तरोववातियदसाणं दस अज्झयणा पण्णत्ता, तं जहा"इसिदासे य धणणे य, सुणक्खत्ते कातिय ति य । संठाणे सालिभद्दे य, आणंदे तेतली ति य ।। दसण्णभद्दे अतिमुत्ते, एमेते दस आहिया ॥
अर्थात् अनुत्तरोपपातिकदशा में दस अध्ययन हैं-ऋषिदास, धन्य, सुनक्षत्र, कार्तिक, संस्थान, शालिभद्र, आनंद, तेतली, दशार्णभद्र और अतिमुक्तक ।
'समवायांग' में दस अध्ययनों की सूचना है पर इनके नाम नहीं दिये गये हैं। समवायांग में कहा है'---से णं अंगठ्ठाय नवमे अंगे, एगे सुयक्खंधे दस अज्झयणा, तिन्नि वग्गा, दस उद्देसणकाला, दस समुद्देसणकाला...'। अर्थात् नवमें अंग में एक श्रुतस्कन्ध, दस अध्ययन, तीन वर्ग, दस उद्देसणकाल, दस समुद्देसणकाल......हैं।
'मन्बी सूत्र' में अनुत्तरोपपातिक दशा का परिचय देते हुए कहा गया है
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"सेणं अंगठ्ठायाए नवमे अंगे, एगे सुअक्खंधे, तिण्णि वग्गा, तिणि उद्दसणकाला, तिण्णिसमुद्देसण काला....." __अर्थात् नौवें अंग में एक श्रुतस्कन्ध, तीन वर्ग, तीन उद्देसणकाल, तीन समुद्देसणकाल......"हैं।
दिगम्बर-परंपरा के ग्रन्थों राज-वातिक, धवला, जयधवला तथा अंग प्रज्ञप्ति में भी अनुसरोपपातिक से संबंधित निर्देश प्राप्त होते हैं । राजवातिक में इसके दस अध्ययनों का उल्लेख इस प्रकार है- "अनुत्तरोपपातिका:-ऋषिदास धन्य-सुनक्षत्रकार्तिक-नन्द-नन्दन-शालिभद्र-अभय-वारिषेण-चिलातपुत्ता इत्येते दश वर्धमान तीर्थंकरतीर्थे । धवला में भी उपरोक्त वर्णन ही है । इसमें केवल कार्तिक के स्थान पर कातिकेय तथा नन्द के स्थान पर आनन्द नाम प्राप्त होता है । जयधवला में किसी विशेष नाम का उल्लेख प्राप्त नहीं होता है । अंग प्रज्ञप्ति में नामों के क्रम में अन्तर है । इसमें दस नाम इस प्रकार हैं -- ऋषिदास, शालिभद्र, सुनक्षत्र, अभय, धन्य, वारिषेण, नंदन, नंद, चिलातपुत्र और कार्तिक ।
घवला में अनुत्तरोपपातिकदशा का परिचय देते हुए इसकी पद संख्या ९२४४००० बतलायी गयी है । - अणुत्तरोववादियदसाणाम अंग वाणउदि लक्खचौयाल-सहस्स-पदेहिं ९२४४००० एक्केक्कम्हि य तित्थेदारूणे बहुविहोवसग्गे सहिऊण वाडिहेरं लद्धण अणुत्तर-विभाणं गदे दस-दस वण्णे दि । अर्थात् अनुत्तरोपपातिक दशा नामक अंग बानवे लाख चबालस हजार पदों द्वारा एक-एक तीर्थ में नाना प्रकार के दारुण उपसर्गों को सहकर और प्रतिहार्य अर्थात् अतिशय विशेषों को प्राप्त करके पांच अनुत्तर विमानों में गये हुए दस-दस अनुत्तरोपपातिकों का वर्णन करता है। जयधवला टीका' में भी पदों की संख्या उतनी ही कही गयी है । पद संख्या के विषय में नन्दीसूत्र में कहा है - "संखेज्जाइं पय सहस्साई पयग्गेण" । अर्थात् इस सूत्र में संख्येय हजार पद हैं । नन्दीसूत्र के विवरणकार मलयगिरि के अनुसार 'पदसहस्राणि पदसहस्राष्टाधिक-षट् चत्वारिंशत् लक्षप्रमाणानि वेदितव्यानि" अर्थात् छयालीस लाख और आठ हजार पद हैं।" समवायांग में वर्णित "संखेज्जाइं पयसयसहस्साई पयग्गेणं" का भी अर्थ विवरणकार अभयदेव सूरि ने संख्येय अर्थात् छयालीस लाख आठ हजार पद किया है । इसके अभिप्राय को स्पष्ट करते हए नन्दी सूत्र के टीकाकार कहते हैं-"पद परिमाणं च पूर्वस्मात् अंगात उत्तरस्मिन् उत्तरस्मिन, अंगे द्विगुणमवज्ञेयम्' अर्थात् प्रथम अंग की पद संख्या प्रत्येक अगले अंग में दो गुणा हो जाती है यानी आचारांग में अठारह हजार पद हैं तो सूत्र कृतांग में छत्तीस हजार, स्थानांग में बहत्तर हजार, समवायांग में एक लाख चवालीस हजार, भगवती में दो लाख अट्ठासी हजार, ज्ञाताधर्म कथा में पांच लाख छिहत्तर हजार, उपासकदशा में ग्यारह लाख बावन हजारः अन्तकृतदशा में तेईस लाख चार हजार तथा अनुत्तरोपपातिक दशा में छियालीस लाख आठ हजार पद हैं । परन्तु समवायांग में वर्णनक्रम में भगवती सूत्र की पदों की संख्या चौरासी हजार ही उल्लिखित है । वस्तुत: ये परम्परागत मान्यताएं हैं। वर्तमान में अनुत्तरोपपातिक में उपरोक्त संख्या में अक्षर भी नहीं हैं।
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अनुत्तरोपपातिकदशा का वर्तमान स्वरूप
वर्तमान में जो अनुत्तरोपपातिकदशा उपलब्ध है वह देवद्धिगणिक्षमाश्रमण की अध्यक्षता में संपन्न बल्लभी की तृतीय वाचना (लगभग ५ वीं सदी) में संग्रहित है। इस संस्करण में तीन वर्गों में कुल ३३ अध्ययन हैं । प्रथम वर्ग में दस अध्ययन हैजालि, मयालि, उपयालि, पुरुषसेन, वारिषेण, दीर्घदन्त, लष्टदन्त, वेहल्ल, वेहायस और अभय ।
द्वितीय वर्ग में तेरह अध्ययन हैं - दीर्घदन्त, महासेन, लष्टदन्त, गूढ़दन्त, शुद्धदन्त, हल्ल, द्रुम, द्रमसेन, महाद्र मसेन, सिंह, सिंहसेन महासिंहसेन और पुण्यसेन ।
तृतीय वर्ग के दस अध्ययन हैं-धन्यकुमार, सुनक्षत्र, ऋषिदास, पेल्लक, सामपुत्र, चन्द्रिक, पृष्टिमातृक. पेढालपुत्र, पोष्टिल्ल तथा वेहल्ल ।
इसमें प्रथम और द्वितीय वर्ग के सभी तेईस अध्ययन मगध सम्राट् श्रेणिक के तेईस राजकुमारों से संबंधित हैं । इसमें प्रथम वर्ग में वेहल्ल और वेहायस की माता का नाम चेलना, अभयकुमार की माता का नाम नन्दा देवी तथा शेष बीस की माता का नाम धारिणी देवी है । तृतीय वर्ग के सभी दस अध्ययन भद्रा सार्थवाही के पुत्रों से संबंधित है । पर यहां उनके जन्म-नगरों में अन्तर है । धन्यकुमार और सुनक्षत्र का जन्मनगर काकन्दी, ऋषिदास, पेल्लक एवं वेहल्ल कुमार का राजगुह, रामपुत्र और चन्द्रिकुमार का साकेत, पृष्टिमातृक और पेढालपुत्र का वाणिज्यग्राम एवं पोष्टिल्ल का जन्मनगर हस्तिनापुर है। इससे यह ज्ञात होता है कि भद्रा एक महिला का नाम नहीं बल्कि इस नाम की कई महिलायें रही होंगी या फिर एक ही भद्रा सार्थवाही का कई नगरों में व्यवसाय रहा होगा, जहां वह बारी-बारी से रहती होंगी।
समीक्षा :-स्थानांग में उल्लिखित दस नामों में से मात्र तीन माम ऋषिदास, धन्य और सुनक्षत्र वर्तमान में तृतीय वर्ग में हैं। ये तीनों नाम राजवातिक, धवला और अंगप्रज्ञप्ति में भी प्राप्त होते हैं। राजवातिक आदि दिगम्बर-परम्परा के ग्रन्थों में उपलब्ध दो और अध्ययन-वारिषेण और अभय वर्तमान में उपलब्ध अनुत्तरोपपातिकदशा के प्रथम वर्ग में उपलब्ध है। इससे यह स्पष्ट है कि स्थानांग की अपेक्षा वर्तमान में उपलब्ध अनुत्तरोपपातिकदशा का प्रथम एवं द्वितीय वर्ग पूरा एवं तृतीय वर्ग के सात अध्ययन प्रक्षिप्त हैं तथा दिगम्बर-परम्परा के ग्रंथों की अपेक्षा प्रथम वर्ग के अभय और वारिषेण नामक अध्ययन को छोड़कर शेष आठ अध्ययन, द्वितीय वर्ग संपूर्ण एवं तृतीय के ऋषिदास, सुनक्षत्र और धन्य, अध्ययन को छोड़कर शेष सात अध्ययन प्रक्षिप्त हैं। स्थानांग सूत्र के वृत्तिकार अभयदेवसूरि स्थानांग में वर्णित शेष नाम प्रस्तुत सूत्र की किसी अन्य वाचना में उपलब्ध होने की संभावना व्यक्त करते हैं, प्रस्तुत वाचना की अपेक्षा से नहीं । “तदेवमिहापि वाचनान्तरापेक्षया-अध्ययन विभाग उक्तो न पुनरुपलभ्यमान वाचनापेक्षयेति'१५ समवायांग और नन्दी-सूत्र में जहां अनुत्तरोपपातिक का परिचय है, वहां इस सूत्र की वाचना परिमित अर्थात्-- अनेक बतलायी गयी है । संभव है कि इसके पूर्व की आर्य स्कंदिल की माथुरी वाचना या नागार्जुन की बल्लभी वाचना के समय ये पाठ रहे हों, परन्तु कालान्तर में इनमें परिवर्तन हुआ।।
जहां तक वल्लभी वाचना में उपलब्ध पाठ का प्रश्न है, यह नन्दी में प्राप्त होता
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है । परन्तु नन्दी में इस विषय में एक श्रुत-स्कन्ध, तीन वर्ग तथा तीन उद्देसणकाल तो कहा गया है, पर इसके अध्ययनों की संख्या व नाम का कोई उल्लेख नहीं है । इसी विषय में समवायांग सूत्र में प्रस्तुत बंग के एक श्रुतस्कन्ध, दस अध्ययन, तीन वर्ग तथा दस उद्देसणकाल कहा गया है । अध्ययन का नाम यहां भी नहीं है। समवायांग के वृत्तिकार इस संबंध में लिखते हैं "इह तु दश्यते दश-इति अत्र अभिप्रायो न ज्ञायते इति ।" अर्थात् इस भेद का हेतु ज्ञात नहीं है। ऐसा लगता है कि वल्लभी वाचना के पहले तक स्थानांग का ही पाठ उपलब्ध था और बाद में समवायांग में
धन कर इसका दस उहे सणकाल किया गया परन्त नन्दी की रचना तक इसका वर्तमान स्वरूप स्थिर हो गया था। नन्दी में उपलब्ध तीन वर्ग और तीन उद्देसणकाल से युक्त अनुत्तरोपपातिकदशा वल्लभी वाचका (देवद्धिगणि) के समय में अस्तित्व में आ गयी थी।
स्थानांग में उल्लिखित 'अतिमुक्तक' नामक अध्ययन वर्तमान में आठवें अंग अन्तकृद्दशा के षष्ठ वर्ग का पन्द्रहवां अध्ययन है। इसी प्रकार दिगम्बर-परम्परा के ग्रंथों में प्राप्त वारिषेण नामक अध्ययन वर्तमान में अन्तकृद्दशा के चौथे वर्ग का पांचवा अध्ययन है । वर्तमान में उपलब्ध अनुत्तरोपपातिकदशा के तृतीय वर्ग के पांचवे अध्ययन में रामपुत्र का उल्लेख है, जिसकी गणना स्थानांग एवं तत्वार्थराजवातिक में आठवें अंग अन्तकृद्दशा के चौथे अध्ययन के रूप में की गयी है । रामपुत्र का नाम निर्देश हमें सूत्रकृतांग ऋषिभाषित" एवं पालित्रिपिटक साहित्य में मिलता है। स्थानांग" के अनुसार द्विगृद्विदशा के एक अध्ययन का नाम भी रामपुत्र है । सूत्रकृतांग में रामपुत्र का उल्लेख अर्हत्-प्रवचन में एक सम्मानित अर्हत् ऋषि के रूप में किया गया है। यहां इनका उल्लेख असित देवल, नमि, नारायण, बाहुक, द्वैपायन, पाराशर आदि के साथ हुआ है और इन्हें निर्ग्रन्थ प्रवचन में मान्य (इहसम्मत्ता) कहा गया है और यह बताया गया है कि इन्होंने आहार आदि का सेवन करते हुए मुक्ति प्राप्त की। ऋषिभाषित में भी रामपुत्र का उल्लेख अहंत् ऋषि के रूप में किया गया है। पालि त्रिपिटक के अनुसार इनका पूरा नाम उद्दक रामपुत्र था । ये आयु में बुद्ध से बड़े थे। प्रारम्भ में बुद्ध ने इनसे ध्यान साधना की शिक्षा ली थी, किन्तु जब बुद्ध ज्ञान प्राप्त करने के बाद इनको उपदेश देने जाने को तत्पर हुए, तो उन्हें ज्ञात हुआ कि इनकी मृत्यु हो चुकी है । इस ग्रन्थ से यह भी पता चलता है कि इनकी योग-साधना की अपनी विशिष्ट पद्धति थी और पर्याप्त संख्या में इनकी शिष्य सम्पदा थी । बुद्ध का इनके प्रति समादर का भाव था । ऐसा लगता है कि अनुत्तरोपपातिक की रचना तक इनकी कथा प्रसिद्ध रहने के कारण इन्हें इसमें संकलित कर लिया गया ।
वर्तमान में उपलब्ध अनुत्तरोपपातिकदशा के प्रथम वर्ग के जालि, मयालि, उपयालि, पुरुषसेन और वारिषेण नामक अध्ययन भी अन्तकृद्दशा के चौथे वर्ग का पांचवां अध्ययन है । अन्तर सिर्फ इतना है कि अन्तकृद्दशा में इनके पिता वसुदेव, माता धारिणी, नगर, द्वारिका एवं दीक्षा गुरु के रूप में बाइसवें तीर्थकर अरिष्टनेमि का नाम उल्लिखित है । इसी प्रकार प्रथम वर्ग में वेहल्ल और द्वितीय वर्ग में हल्ल
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नामक अध्ययन है । इनकी कथा विस्तार से निरयावली आवश्यक-चूणि," आवश्यक वृत्ति, (हरिभद्र)" भगवती वृत्ति (अभयदेव)" तथा आवश्यक में बणित है। ये दोनों राजा श्रेणिक की चेलना रानी से उत्पन्न पुत्र थे। चेलना वैशाली के राजा चेटक की पुत्री थी। हल्ल और वेहल्ल को चेटक ने एक हाथी और सोने का हार उपहार में दिया जिसे उसके बड़े भाई कुणिक (अजातशत्रु) ने मांगा । इन दोनों ने हाथी और हार कुणिक को देने से इनकार कर दिया और अपने नाना चेटक के पास वैशाली चले आये । इस पर चेटक और कुणिक में भयंकर युद्ध हुआ। भगवती सूत्र में इन दो महायुद्धों---महाशिलाकण्टक सग्राम और रथ-मुसल संग्राम का वर्णन है । इसमें कुणिक की विजय हुई।" पर अनुत्तरोपपातिक में चेलना के दो पुत्रों का नाम वेहल्ल और वेहायस दिया गया है तथा हल्लकुमार का परिचय द्वितीय वर्ग में धारिणी देवी और श्रेणिक के पुत्र के रूप में दिया गया है।
अनुत्तरोपपातिकदशा के प्रथम वर्ग का सातवां अध्ययन और द्वितीय वर्ग का तीसरा अध्ययन लष्टदन्त नामक हैं। दोनों की माता धारिणी और पिता सम्राट श्रेणिक हैं । सम्भव है कि लष्टदन्त नामक दो राजकुमार रहे हों या श्रेणिक की बहुत सी रानियों में से धारिणी नाम की दो पत्नियां हों और दोनों के पुत्र का नाम लष्टदन्त रहा हो । तीसरा मत भाषा संबंधी है । प्राकृत के एक शब्द के संस्कृत में कई उच्चारण होते हैं। जैसे प्राकृत "कय" का संस्कृत में “कज", "कच" या "कृत" तथा "कइ" का संस्कृत "कपि", "कवि" आदि हो सकता है। एक नाम लष्ट दन्त तथा दूसरा राष्ट्रदान्त रहा हो तथा प्राकृत में र और ल में अभेद के कारण दोनों "लट्ठदन्त" हो गये हों। अधिक संभावना इस बात की है कि विभिन्न मुनियों द्वारा वाचना में अपनी याददाश्त से पाठ का वाचन करने के कारण प्रमादवश एक ही अध्ययन दो बार संकलित हो गया है ।
प्रस्तुत अंग के प्रथम वर्ग में अभयकुमार का केवल नाम निर्देश कर दिया गया है। परन्तु अभयकुमार के विषय में छठे अंग, ज्ञाताधर्मकथा के प्रथम अध्ययन और अन्य ग्रन्थों में विस्तार से वर्णन प्राप्त होता है। ___अभयकुमार प्रबल प्रतिभा का धनी था। जैन और बौद्ध दोनों परम्परा उसे अपना अनुयायी मानती हैं । जैन आगम साहित्य के अनुसार वह भगवान महावीर के पास आहती दीक्षा स्वीकार करता है और त्रिपिटक साहित्य के अनुसार भगवान बुद्ध के पास दीक्षित होता है। जैन साहित्य के अनुसार अभयकुमार श्रेणिक की नन्दा रानी का पुत्र था ।
ज्ञाताधर्मकथा में वर्णित है कि अभयकुमार साम, दाम, दण्ड, भेद, उपप्रदान और व्यापार नीति में निष्णात थे । ईहा, अपोह, मार्गणा, गवेषणा और अर्थशास्त्र में कुशल थे। वे चारों प्रकार की बुद्धियों के धनी थे। वे श्रेणिक राजा के प्रत्येक कार्य के लिए सच्चे परामर्शक थे । वे राज्यधुरा को धारणा करने वाले थे। वे राज्य (शासन) राष्ट्र (देश), कोष, कोठार (अन्नभण्डार), सेना वाहन, नगर और अन्तःपुर की अच्छी तरह देखभाल करते थे।३४ खण्ड २२, अंक ४
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अभयकुमार श्रेणिक राजा के मनोनीत मंत्री थे। वे जटिल से जटिल समस्याओं को अपनी कुशाग्र बुद्धि से सुलझा देते थे। उन्होंने मेघकुमार की माता धारिणी" और कुणिक की माता चेलना का दोहद अपनी कुशाग्रबुद्धि से संपन्न किया। उन्होंने अपने पिता श्रेणिक का विवाह चेलना से संपन्न कराया था। उनके बुद्धि के चमत्कार की अनेक घटनाएं जैन साहित्य में उल्लिखित हैं । उज्जयिनी के राजा चण्डप्रद्योत द्वारा श्रेणिक के लिए उत्पन्न विकट राजनैतिक संकट को अभयकुमार ने दूर किया था। धर्मरत्न प्रकरण" के अभयकुमार कथा नामक अध्ययन में वर्णित है,कि द्रमुक लकड़हारे द्वारा प्रवज्या ग्रहण करने पर लोगों ने उसका मजाक उड़ाया। जब अभयकुमार को यह बात मालूम हुई तब उसने सार्वजनिक स्थान पर एक-एक करोड़ स्वर्णमुद्राओं के तीन ढेर लगवाकर यह घोषणा करवायी कि जो आजीवन स्त्री, अग्नि और सचित्त जल का त्याग करे वह इन मुद्राओं को ले सकता है। कोई आगे नहीं आया । तब उन्होंने द्रुमक मुनि के उपहास के लिए उन आलोचकों की भर्त्सना की। तब वे लोग द्रुमक मुनि के महान तप से प्रभावित हुए । अभयकुमार ने आईक कुमार को धर्मोपकरण उपहार में दिये । जिससे प्रभावित होकर वह मुनि बना।" अभयकुमार के संपर्क से ही राजगृह का कसायी काल शौकरिक का पुत्र सुलसकुमार भगवान का परम भक्त बना।" भगवान महावीर के मुख से अन्तिम मोक्षगामी राजा के रूप में उदयन का नाम सुनकर अभयकुमार चिंतित हो गया कि यदि मैं राजा बन गया तो मोक्ष नहीं जा सकूँगा। इसलिए कुमारावस्था में ही दीक्षा ग्रहण करने की अनुमति पिता से मांगी। पिता ने कहा कि जिस दिन मैं क्रुद्ध होकर तुम्हें मुंह न दिखाने को कहूं, उस दिन तुम दीक्षा ग्रहण कर लेना । एक दिन रानी चेलना के चरित्र पर संदेह कर राजा ने अभयकुमार को चेलना का महल जला देने का आदेश दिया। अभयकुमार ने रानी और बहुमूल्य वस्तुओं को महल से निकालकर उसके महल में आग लगा दी । उधर भगवान महावीर से पूछने पर राजा को पता चला कि चेलना पूर्ण पतिव्रता है तो पश्चात्ताप करता हुआ महल में लोटा। रास्ते में अभयकुमार मिला । पूछने पर उसने महल में आग लगाने की बात कही । इस पर क्रोधित होकर राजा ने उसे कभी मुंह न दिखाने को कहा । इसी बात की प्रतीक्षा में रहने वाले अभयकुमार ने उसी दिन दीक्षा ग्रहण कर ली।
बौद्ध साहित्य में भी अभय राजकुमार का वर्णन प्राप्त होता है। बौद्ध साहित्य में अभय का पिता श्रेणिक तथा माता उज्जयिनी की गणिका पद्मावती है। अभयराजकुमार ने अपनी प्रकृष्ट प्रतिभा से सीमा विवाद को सुलझाया था। जिससे प्रसन्न होकर बिम्बसार ने एक सुन्दर नर्तकी उसे उपहार में प्रदान की। मज्झिम निकाय के अभय कुमार सुत्त प्रकरण में निगण्ठ नायपुत्त (महावीर) के कहने पर उसका बुद्ध से शास्त्रार्थ का प्रसंग उल्लिखित है।" संयुत्तनिकाय में भी अभयकुमार का बुद्ध से साक्षात्कार होने का उल्लेख है । वह बुद्ध से पुरणकाश्यप के मत से संबंधित एक प्रश्न करता है ।५ धम्मपद अट्ठकथा के अनुसार जब अभयकुमार नर्तकी की मृत्यु से दुःखित होकर बुद्ध के पास गया और बुद्ध ने धर्मोपदेश दिया, तब उसे श्रोतापत्ति फल
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प्राप्त हुआ।" थेरगाथा अट्ठकथा के अनुसार उसे श्रोतापत्तिफल तब प्रप्त हुआ जब बुद्ध ने तालच्छिगुलुपम सुत्त का उपदेश दिया ।" पिता बिम्बसार की मृत्यु से दुःखी होकर उसने बुद्ध के पास प्रव्रज्या ग्रहण की।" इस प्रकार अभयराजकुमार की कथा भी जैनबौद्ध दोनों- साहित्य में प्रचुर मात्रा में प्राप्त होती है । परन्तु स्थानांग वाली सूची में यह नाम नहीं है । प्रस्तुत अंग में यह कथा लोक प्रसिद्ध होने के कारण बाद में समाहित कर ली गयी।
उपर्युक्त विवरणों से इस निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है कि वर्तमान में उपलब्ध अनुत्तरोपपातिक दशा की विषय-वस्तु नन्दी सूत्र की रचना के कुछ समय पूर्व तक अस्तित्व में आ गयी थी। संभवतः अन्तिम वल्लभी वाचना के पूर्व अनुत्तरोपपातिक में पूर्व की विषयवस्तु को हटा दिया गया, पर स्थानांग में उसके संकेत सुरक्षित बचे रह गये। बाद में नयी विषय-वस्तु को जोड़ दिया गया जिससे कुछ अध्ययन अन्तकृद्दशा के समान हो गये। ___सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि श्वेताम्बर-परम्परा के आगम स्थानांग और दिगम्बर-परम्परा के ग्रन्थ राजवातिक (७ वीं-८ वीं सदी), धवला (९ वीं सदी) एवं अंगप्रज्ञप्ति में इसके अध्ययनों के संबंध में लगभग एकरूपता है । इससे यही लगता है कि दिगम्बर-श्वेताम्बर भेद के पहले से चले आ रहे परम्परागत पाठ 'स्थानांग' तक समान रहे जो दिगम्बर-परम्परा को भी मान्य थे। पर वल्लभी वाचना (देवद्धिगणि) के समय इसमें बदलाव आ गया और श्वेताम्बर-परम्परा में नवीन पाठ को समाहित कर लिया गया।
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संदर्भ सूची १. स्थानांग सूत्र, मुनि मधुकर, स्थान-१०, सूत्र-११०, पृ० ७२७, २. वही सूत्र ११४ ३. समवायांग सूत्र, वही-सूत्र ५४५ पृ० १८६ ४. नंदीसूत्र, वही सूत्र ५४ पृ० १८५ ५. तत्वार्थ राजवार्तिक, सं० महेन्द्र कुमार जैन, पृ० ७३ ६. षट्खण्डागम जीवस्थान पृ० १०५ सं० डा० हीरालाल जैन ७. अंगपण्णत्ति-५५ ८. षट्खण्डागम, जीवस्थान, पृ० १०५, सं० डा. हीरालाल जैन
९. कषायपाहुड, खंड १, सूत्र ७५ पृ० ९३ १०. नन्दी सूत्र, मुनि मधुकर पृ० १८५ ११. अनुत्तरोपपातिकदशाः एक अध्ययन पं० बेचरदास जी दोशी, पृ० ५ १२. वही १३. नन्दी टीका पृ० २२९ १४. समवायांग, मुनि मधुकर सूत्र ५२९, पृ० १७९ १५. स्थानांग सूत्र वृत्ति (अभयदेव) द्वितीय खंड, पत्र ४८२ १६. नन्दी सूत्र, मुनि मधुकर, सूत्र ५४ पृ० १८५ १७. समवायांग सूत्र, वही, सूत्र ५४, पृ० १८५ १८. समवायांग वृत्ति, पृ० ११४ ।। १९. क-स्थानांग सूत्र, मुनि मधुकर, स्थान १०, सूत्र ११३, पृ० ७२७
ख-तत्वार्थराजवार्तिक, प्रथम अध्याय, पृ०७३ २०. सूत्रकृतांग, १/३/४/२,३, २१. ऋषिभाषित, अध्ययन २३ २२. जातक, खण्ड-१, पृ० ६६, ८१, सं० फोन्सवाले, २३. स्थानांग सूत्र, मुनि मधुकर, स्थान १० सूत्र-११८, पृ० ७२८ २४. सूत्रकृतांग १/३/४/२,३ २५. निरयावली १/१, २६. आवश्यक चूणि 11 पृ० १७१ २७. आवश्यक वृत्ति (हरिभद्र) पृ० ६७९ २८. भगवती वृत्ति (अभयदेव) पृ० ३१६ २९. आवश्यक, पृ० २७ ३०. व्यवहार सूत्र, भाष्य, १०-५३६ ३१. भगवती, शतक-७ ३२. अनुत्तरोपपातिक, मुनि मधुकर परिशिष्ट टिप्पण, पृ० ६२ ३३. ज्ञाताधर्मकथा १११, निरयावली २३, अनुत्तरोपपातिक १११ ३४. ज्ञाताधर्मकथा १११,
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३५. भरतेश्वर बाहुबली वृत्ति, पत्र ३८
३६. ज्ञाताधर्मकथा, १1१
३७. निरयावली १
३८. क- आवश्यक चूर्णि उत्तरार्थ पत्र १५९, १६३
ख- त्रिषष्ठिशलाका पुरुष चरित्र १०-११-१२४ से २९३
३९. धर्मरत्न प्रकरण, अभयकुमार कथा १।३०
४०. क- सूत्र कृतांग, नियुक्ति टीका, २२६ १३६'
ख - त्रिषष्टि १०।७। १७७-१७९
४१. योगशास्त्र, स्वोपज्ञ वृत्ति, १1३०, पृ० ९१ - ९१-९५, हेमचन्द्र,
४२. भरतेश्वर बाहुवली, वृत्ति पत्र - ३८-४०
४३. धम्मपद, अट्ठकथा १३१४
४४. मज्झिमनिकाय, अभयराजकुमार प्रकरण- ७६ ४५. संयुक्त निकाय, अभय सुत्त ४४।६।६
४६. धम्मपद अट्ठकथा १३।४
४७. थेरगाथा अट्ठकथा १२५८
४८. क - थेरगाथा २६
ख- थेरगाथा अट्ठकथा, खण्ड-१, पृ० ८३-८४
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-अतुलकुमारप्रसाद सिंह शोध-छात्र संस्कृतविद्या, धर्मविज्ञान संकाय काशी हिन्दू विश्वविद्यालय वाराणसी - २२१००५
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आत्म-परिमाण
समणी ऋजुप्रज्ञा
आत्म तत्त्व भारतीय दार्शनिकों के चिन्तन का केन्द्र बिन्दु रहा है । दर्शन जगत् में आत्मा का स्वरूप जितना अधिक चर्चा का विषय बना, उतना ही अधिक आत्मा का परिमाण क्या है यह विषय भी । आत्म-परिमाण के विषय में तीन मत प्रचलित रहे हैं
१. आत्मा अणु-परिमाण वाला है। २. आत्मा विभु-परिमाण वाला है । ३. आत्मा देह-परिमाण वाला है ।
कुछ दार्शनिक जिनमें रामानुज, मध्व, बल्लभ और निम्बार्क' मुख्य हैं, आत्मा को अणुपरिमाण युक्त स्वीकार करते हैं। न्याय-वैशेषिक' सांख्य-योग' तथा शाङ्कर वेदान्त आदि दार्शनिक सम्प्रदाय आत्मा को विभु-परिमाण वाला सिद्ध करते हैं। जैन दर्शन आत्मा को शरीर-परिमाण वाला अर्थात् मध्यम-परिमाणयुक्त स्वीकार करता है।' उपनिषदों में आत्मा को व्यापक' अणु और शरीर प्रमाण बताया गया है। क्या आत्मा अणु-परिमाण वाला है ?
आत्मा को अणु-परिमाण मानने वाले आचार्यों का मत है कि आत्मा अतहृदय में चावल या जौ के दाने के बराबर है । डॉ० राधाकृष्णन् ने भी आत्मा को अणुरूप मानते हुए लिखा है-आत्मा बाल के हजारवें भाग के बराबर है और हृदय में निवास करता है । आचार्य रामानुज ने कहा है-अणु-परिमाण वाला जीव ज्ञान गुण के द्वारा सम्पूर्ण शरीर में होने वाली सुखादि संवेदन रूप क्रिया का अनुभव करता है। जिस प्रकार दीपक की शिखा छोटी होते हुए भी संकोच-विस्तार गुण वाली होने से समस्त पदार्थों को प्रकाशित करती है, इसी प्रकार आत्मा ज्ञान गुण के द्वारा शरीर में होने वाली क्रियाओं को जान लेता है।" अणु रूप आत्मा अलात चक्र के समान पूरे शरीर में तीव्र गति से घूमकर सुख दुःखादि का अनुभव कर लेता है। अत: आत्मा अणु रूप ही है।
इस प्रकार अणुपरिमाण वादियों का तर्क है कि यदि आत्मा का अणु-परिमाण न मानकर व्यापक माना जाए तो आत्मा परलोक गमन न कर सकेगी। इसी प्रकार देह-परिमाण आत्मा मानने पर आत्मा को अनित्य मानना पड़ेगा। इन दोषों के कारण आत्मा को वट-बीज की तरह अणु-परिमाण मानना ही उचित है। अणु-परिमाण की समीक्षा
आत्मा को अणु-परिमाण मानने वालों की समीक्षा करते हुए जैन दार्शनिकों ने
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लिखा है कि आत्मा को अणुरूप मानने का कोई औचित्य नहीं है। उनका मत है कि यदि आत्मा को अणु-परिमाण माना जाये तो शरीर के जिस भाग में आत्मा रहेगा उसी भाग में होने वाली संवेदना का अनुभव कर सकेगा और सम्पूर्ण शरीर में होने वाली संवेदनाओं का अनुभव उसे न हो सकेगा।" यदि यह कहें कि अणुरूप आत्मा अलातचक्र के समान पूरे शरीर में तीव्र गति से घूमकर समस्त शरीर में सुख दुःखादि का अनुभव कर लेता है तो ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि चक्कर लगाते हुए आत्मा जिस समय, जिस अंग में पहुंचेगा उस समय उसी अंग की संवेदना का अनुभव कर सकेगा । इसके अलावा उस समय वही अंग सचेतन रहेगा और शेष अंग अचेतन हो जायेंगे। ___ यदि आत्मा का अणु आकार माना जाए तो भिन्न इन्द्रियों से प्राप्त होने वाला ज्ञान एक ही समय में नहीं हो सकेगा लेकिन नींबू देखकर रसना इन्द्रिय में विकार उत्पन्न होना सिद्ध करता है कि युगपद् दो-तीन इन्द्रियों का ज्ञान होता है। अत: आत्मा अणु-परिमाण नहीं है । . स्वामी कार्तिकेय ने अणु परिमाण की समीक्षा में कहा है कि 'आत्मा को अणुरूप मानने पर आत्मा निरंश हो जायेगी और ऐसा होने पर दो अंशों के पूर्वोत्तर में संबंध न होने के कारण कोई भी कार्य सिद्ध न हो सकेगा।" इसलिए आत्मा को अणु रूप मानना व्यर्थ है । कर्मोदय से प्राप्त शरीर के बराबर ही आत्मा का आकार होता है, यही मानना उचित है। क्या आत्मा विभु-परिमाण वाला है ?
न्याय-वैशेषिक,सांख्य-योग, शांकर वेदान्त आदि दार्शनिक आत्मा को विभुपरिमाण वाला सिद्ध करते हैं। गीता में भी आत्मा को व्यापक कहा गया है
तस्मादात्मा महानेव नवाणु नोपि मध्यमः ।
आकाशवत् सर्वगतो निरंश: श्रुति सम्मतः ॥" आत्मा को विभु-परिमाण मानने वाले दार्शनिकों ने आत्मा के विभु-परिमाण को सिद्ध करने के लिए अनेक युक्तियां प्रस्तुत की हैं : १. आत्मा को व्यापक मानने वाले न्याय वैशेषिकों की युक्ति है कि अदृष्ट सर्वव्यापी है और वह आत्मा का गुण है । गुण गुणी से पृथक् नहीं होता, अतः अदृष्ट के
सर्वव्यापी सिद्ध होने से आत्मा का भी सर्वव्यापकत्व सिद्ध होता है।" २. स्याद्वादमंजरी में आचार्य मल्लिषेण ने न्याय-वैशेषिकों की ओर से शंका उठाते हुए लिखा है-कि भिन्न देशों में प्रयुक्त मंत्रादि का आकर्षण, उच्चाटन आदि प्रभाव सैकड़ों योजन की दूरी पर भी देखा जाता है । मंत्रों का दूर देश में प्रभाव
आत्मा के विभुत्व की सिद्धि करता है ।" ३. आत्मा के विभुत्व की सिद्धि में उनका एक तर्क यह भी है कि आत्मा आकाश की तरह अमूर्त व नित्य द्रव्य है। आकाश व्यापक है । अतः अमूर्त व नित्य आत्मा भी आकाश की तरह व्यापक है।
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४. आत्मा का विभु-परिमाण न मानने पर आत्मा का समस्त परमाणुओं के साथ संयोग न हो सकेगा और संयोगाभाव के कारण शरीर-निर्माण के लिए अपेक्षित परमाणुओं का आकर्षण न हो सकेगा। आकर्षण न होने के कारण शरीराभव हो जायेगा और सभी को मोक्ष की प्राप्ति हो जायेगी । इस प्रकार संसार का ही अभाव हो जायेगा । अत: आत्मा को विभु-परिमाण ही मानना चाहिए । ५. आत्मा को देह-परिमाण मानने पर शरीर के खण्डन से आत्मा के खण्डित होने की
आपत्ति भी आयेगी। ६. यदि आत्मा को शरीर-परिमाण मानें तो वह शरीर में प्रवेश ही नहीं कर सकता, क्योंकि परिमाणविशिष्ट एक समान मूर्त पदार्थ, दूसरे मूर्त पदार्थ में प्रविष्ट नहीं हो
सकेगा।" ७. आत्मा को शरीर-परिमाण मानने पर आत्मा में सावयवत्व व कार्यत्व की आपत्ति
आयेगी। अतः आत्मा को व्यापक मानना ही उचित है। ८. आत्मा को व्यापक सिद्ध करने के लिए यह भी तर्क दिया जाता है कि जिस
प्रकार आकाश के गुणों की सर्वत्र उपलब्धि होती है, उसी प्रकार आत्मा के गुणों की सर्वत्र उपलब्धि होती है।
इन उपरोक्त तर्कों के आधार पर यह निष्कर्ष निकलता है कि आत्मा विभपरिमाण वाला है। विभु-परिमाण की समीक्षा
__ न्याय-वैशेषिक आदि दार्शनिकों ने आत्मा को व्यापक सिद्ध करने के लिए जो अनेक युक्तियां दीं वे सभी तर्क की कसौटी पर खरी नहीं उतरती : १. इन दार्शनिकों ने अदृष्ट को आत्मा का गुण माना और उस गुण को व्यापक बताकर आत्मा को व्यापक सिद्धकिया । लेकिन आचार्य मल्लिषेण कहते हैं कि अदृष्ट के सर्वव्यापी होने में कोई प्रमाण नहीं है तथा अदृष्ट को मानने से ईश्वर
के कर्तृत्व पर आघात होता है ।२२ २. भिन्न-भिन्न देशों में मंत्रादि का प्रभाव भी आत्मा के व्यापकत्व को सिद्ध नहीं करता क्योंकि आकर्षण, उच्चाटन आदि गुण मंत्र के नहीं हैं । ये गुण मंत्र आदि के अधिष्ठातृ देवताओं के हैं। मंत्र के अधिष्ठाता देव ही आकर्षण, उच्चाटन आदि से प्रभावित स्थान में स्वयं जाते हैं। ३. आत्मा को अमूर्त व नित्य होने से आकाश की तरह व्यापक कहना भी उचित नहीं ., क्योंकि यह कोई व्याप्ति-नियम नहीं कि जो नित्य हो वह व्यापक भी हो । परमाणु
आदि नित्य है पर व्यापक नहीं । इसी प्रकार आत्मा के अमूर्त होने के कारण उसे व्यापक कहना ठीक नहीं क्योंकि परमाणुओं के रूपादि गुण अमूर्त और नित्य होते हुए भी व्यापक नहीं हैं।" ४. न्याय-वैशेषिक चिन्तकों का यह कहना है कि आत्मा को व्यापक न मानने से
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परमाणुओं के साथ उसका सम्बन्ध न हान से वह अपने शरीर के लिए परमाणुओं को एकत्र नहीं कर सकेगा और शरीर के अभाव में सभी आत्माओं का मोक्ष मानना पड़ेगा। यह कथन भी ठीक नहीं है क्योंकि यह कोई निश्चित नियम नहीं है कि संयुक्त होने पर ही आकर्षण होता है। चुम्बक लोहे के साथ संयुक्त नहीं होता है फिर भी लोहे को आकर्षित कर लेता है । इसी प्रकार आत्मा का परमाणु के साथ संयोग न होने पर भी वह अपने शरीर के योग्य परमाणुओं को आकर्षित
कर सकता है।५ ५. आत्मा में कथंचित् रूप से सावयवत्व और कार्यत्व मानने से भी कोई हानि नहीं होती। क्योंकि आत्मा असंख्यात प्रदेश वाला है ।" इस दृष्टि से आत्मा सावयव है । एक अविभागी परमाणु जितने क्षेत्र में ठहरता है उसे प्रदेश कहते हैं।" आचार्य मल्लिषेण कार्यत्व की परिभाषा करते हुए कहते हैं कि पूर्व आकार को छोड़कर दूसरा आकार धारण करना ही कार्यत्व है।८ आत्मा का स्मृति आदि क्षणों में जो मैं अनुभव कर रहा हूं, रूप पर्याय को छोड़कर स्मरण कर रहा हूं. वह रूप अवस्थान्तर को प्राप्त करना ही कार्यत्व है। अतः आत्मा में सावयवत्व
व कार्यत्व होने में कोई आपत्ति नहीं है। ६. आकाश का गुण शब्द बताकर उसके आधार पर आत्मा को व्यापक सिद्ध करना
भी उचित नहीं। क्योंकि शब्द आकाश का गुण नहीं हैं। वह तो पुद्गल है, इसलिए उसकी सर्वत्र उपलब्धि से आकाश को व्यापक मानना व्यर्थ है तथा इसके
आधार पर आत्मा को व्यापक सिद्ध करना अतार्किक है।" ७. आत्मा को व्यापक मानने से एक आपत्ति यह भी आयेगी कि सभी आत्माओं के शुभ-अशुभ कर्मों का मिश्रण हो जाएगा। अतः एक के दुःखी होने से सभी दुःखी
और एक के सुखी होने से सभी सुखी हो जायेंगे।" ८. आत्मा को व्यापक मानने पर यह दोष भी आता है कि सभी व्यापक आत्माओं
को स्वर्ग, नरक आदि समस्त पर्यायों का एक साथ अनुभव होने लगेगा।" ९. आत्मा को व्यापक मानने से उसे संसार का कर्ता मानना होगा क्योंकि ईश्वर की भांति आत्मा भी व्यापक है। इसलिए दोनों परस्पर दूध-पानी की तरह
मिल जायेंगे और दोनों ही सृष्टि के कर्ता होंगे या दोनों ही नहीं होंगे।" १०. शरीर-प्रमाण मानने पर शरीर के नाश होने से आत्मा का भी छेद हो जायेगा।
नैयायिकों के इस तर्क को समाधान देते हुए जैन दार्शनिकों का कहना है कि आत्मा का भी कथंचित् छेद मानने में कोई दोष नहीं है। यदि ऐसा न माना जाए तो कटे हुए अंग में कम्पन क्रिया की उपलब्धि नहीं होनी चाहिए । कटे हुए शरीर के भाग के आत्मप्रदेश पुन: पहले वाले आत्मप्रदेशों में आकर मिल जाते हैं। इस बात को कमल की नाल का उदाहरण देकर मल्लिषेण ने समझाया है।५ आत्मा को देहपरिमाण मानने पर आत्मा में पुनर्जन्म और मोक्षादि का अभाव भी नहीं आता है । इसलिए आत्मा को देह-परिमाण ही मानना चाहिए। मुक्त जीव भी अन्तिम
शरीर के आकार के ही होते हैं और वे उसी आकार में विद्यमान रहते हैं। २७०
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आत्मा का देह-परिमाणत्व
उपनिषदों में आत्मा को देह-परिमाण निरूपित किया गया है। वहां कहा गया है कि आत्मा नख से शिख तक व्याप्त है। जैन दर्शन में भी आत्मा को शरीर-परिमाण प्रतिपादित किया है ।६३ देह-परिमाण कहने का तात्पर्य यह है कि आत्मा को अपने संचित कर्म के अनुसार जितना छोटा-बड़ा शरीर मिलता है उस पूरे शरीर में व्याप्त होकर वह रहता है। शरीर का कोई भी अंश ऐसा नहीं होता है जहां जीव न हो। देह-परिमाणत्व स्थापित करने के लिए निम्न तर्क दिए जा सकते
१. गुण-गुणी को अभिन्नता से देह-परिमाण की सिद्धि आत्मा को देह-परिमाण सिद्ध करते हुए कहा गया है
यत्रैव यो दृष्ट गुणः स तत्र. कुम्भादिवन्निष्प्रतिपक्षमेतद् ।
तथापि देहात् बहिरात्मतत्त्वमतत्त्ववादोपहता पतन्ति ॥ आचार्य मल्लीषण ने स्पष्ट लिखा है कि आत्मा मध्यम परिमाण वाला है क्योंकि उसके ज्ञानादि गुण शरीर में दृष्टिगोचर होते हैं, शरीर के बाहर नहीं । जिसके गुण जहां पर होते हैं वह वस्तु भी वहीं होती है, जैसे घट के रूप रंगादि जहां होते हैं वहीं पर घट होता है। इसी प्रकार चैतन्य पूरे शरीर में आत्मा के गुण रहते हैं इसलिए सिद्ध है कि आत्मा पूरे शरीर में व्याप्त है।" २. सुख-दुःख की संवेदना शरीर में होने से देह-परिमाण की सिद्धि ___आत्मा को देह-परिमाण मानने का एक कारण यह है कि शरीर के किसी भी भाग में होने वाली वेदना की अनुभूति आत्मा को होती है । ८ मैं सुखी हं, दुःखी हूं, ये प्रतीतियां शरीर में ही दृष्टिगोचर होती हैं । अतः सुख-दुःख का प्रभाव आत्मा के साथ ही शरीर पर पड़ने से सिद्ध है कि आत्मा देह-परिमाण है ।३९ ३. संकोच-विकोच शक्ति के कारण देह-परिमाण को सिद्धि
___ आत्मा का शरीर परिमाण होने का मुख्य कारण उसमें पायी जाने वाली संकोचविस्तार की शक्ति है। यही कारण है कि जीव, प्रदेश, धर्म, अधर्म और लोकाकाश के बराबर होते हुए भी कांजित शरीर में व्याप्त होकर अर्थात् यदि शरीर छोटा होता है तो अपने प्रदेशों का संकोच कर लेता है और यदि शरीर बड़ा होता है तो अपने प्रदेशों को फैलाकर उसमें व्याप्त हो जाता है।
___ असंख्यात प्रदेशी अनन्तानन्त जीव लोक के असंख्यातवें भाग में किस प्रकार रहता है ? इस प्रश्न के उत्तर में बताया गया है कि आत्मा में दीपक की तरह संकोचविस्तार शक्ति पायी जाती है । " आत्मा अपने कर्म के अनुसार जब हाथी की योनि छोड़कर चींटी के शरीर में प्रवेश करता है तो अपनी संकोच शक्ति के कारण अपने प्रदेशों को संकुचित करके उसमें रहता है और चींटी का जीव मरकर जब हाथी का शरीर पाता है तो जल में तेल की बूंद की तरह फैलकर सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त हो
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जाता है । यदि शरीर के अनुसार आत्मा संकोच-विस्तार न करे तो बचपन की आत्मा दूसरी और युवावस्था की दूसरी माननी होगी और ऐसा मानने से बचपन की स्मृति युवावस्था में नहीं होनी चाहिए। लेकिन बचपन की स्मृति युवावस्था में होती है इसलिए सिद्ध है कि आत्मा देह-परिमाण है ।४२ ४. प्रत्यक्ष प्रमाण से देह-परिमाण की सिद्धि
आचार्य प्रभाचन्द्र का कहना है कि प्रत्यक्ष प्रमाण से अपने-अपने शरीर में ही सुखादि स्वभाव वाले आत्मा की प्रतीति सभी को होती है। दूसरे के शरीर में और अन्तराल में उसकी प्रतीति नहीं होती है। इसलिए आत्मा को व्यापक मानना ठीक नहीं। यदि ऐसा न माना जाए तो सभी सर्वज्ञ बन जाएंगे क्योंकि सभी को सर्वत्र अपनी आत्मा की प्रतीति होती है। इसके अतिरिक्त विभु आत्मवाद में भोजनादि व्यवहार में संकर (मिश्रण) दोष भी आता है। क्योंकि आत्मा व्यापक है इसलिए एक खायेगा तो सबको उसका रसास्वादन होगा। जो किसी को भी मान्य नहीं है, इसलिए आत्मा व्यापक नहीं अपितु देह-परिमाण है। ५. अनुमान प्रमाण से देह-परिमाण की सिद्धि
___ अनुमान प्रमाण से भी सिद्ध होता है कि आत्मा व्यापक नहीं अपितु देह-परिमाण है जैसा कि कहा है-'आत्मा व्यापक एवं अणुरूप नहीं है क्योंकि वह चेतन है, जो व्यापक या अणुरूप होते हैं वे चेतन नहीं होते हैं, जैसे आकाश एवं परमाणु ।" इस अनुमान से भी आत्मा का शरीर-परिमाणत्व सिद्ध है । नय चक्र में भी सप्तसमुद्घात के सिवाय आत्मा को देह-परिमाण माना गया है । ५ केवली समुद्घात की अपेक्षा से आत्मा का आकार
सिद्धान्त-चक्रवर्ती नेमिचन्द्राचार्य ने गोम्मटसार, जीवकांड में समुद्घात के स्वरूप का विवेचन किया है। समुद्घात के सात भेदों में केवली समुद्घात भी एक भेद है। केवली समुद्घात में आत्मा चौदह रज्जु चौड़े तीन लोकों में व्याप्त हो जाता है। इसलिए समुद्घात की अपेक्षा आत्मा व्यापक है। लेकिन यह कभी-कभी होता है इसलिए आत्मा को कथंचित् व्यापक मानना तो संभव है, लेकिन सर्वथा नहीं।
जैन दर्शन में आत्मा को कथंचित् सर्वव्यापी माना गया है। आत्मा ज्ञानस्वरूप होने से ज्ञान प्रमाण है और ज्ञान समस्त ज्ञेय पदार्थों को जानने से ज्ञेय प्रमाण है तथा ज्ञेय समस्त लोकालोक है इसलिए ज्ञान सर्वगत है । ज्ञान के सर्वगत सिद्ध होने से आत्मा का सर्वव्यापकत्व सिद्ध होता है । प्रवचनसार में कहा है
आदा णाणपमाणं णाणं णेयप्पमाणमुद्दिठं । __णेयं लोयालोयं तम्हा णाणं तु सव्वगयं ॥ कर्ममल रहित केवली भगवान अपने अव्याबाध केवलज्ञान से लोक और अलोक को जानते हैं । इसलिए वे सर्वगत हैं ।
___ जैन दार्शनिकों ने देह-परिमाण और व्यापकता का समन्वय अनेकान्तात्मकता की दृष्टि से किया है। यहां केवलज्ञान की दृष्टि से आत्मा को व्यापक और आत्म प्रदेश की दृष्टि से अव्यापक अर्थात् शरीर-परिमाण माना गया है।
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उपाध्याय यशोविजय जी ने आत्मा की लोकपरमित प्रदेश में व्याप्त होने की शक्ति के कारण उसे विभु कहा है और आवरण
कारण उसे देहपरिमाण माना
है
निष्कर्ष के रूप में इतना ही कहा जा सकता है कि आत्मा को केवल अणुरूप मानने से शरीर में होने वाली सुख-दुःख की संवेदना न हो पाने व आत्मा को व्यापक मानने से परलोक का ही अभाव हो जाने के कारण आत्मा को देह - परिमाण मानना ही उचित है ।
संदर्भ संकेत
१. ब्र० सू० २.३.१३.१९
२. विभवान्महानाकाशस्तथा चात्मा वै० सू० ७.१.२२
३. सां० सू० १।४९
४. शाङ्कर भाष्य पृ. ५०७, कठो० १.१.२२
५. तत्वार्थ सूत्र ५.१.१५.१६
६. श्वेताश्वर उप. २।११२
७. यथा ब्रीहियवो वा "बृहदारण्यक उप., ३१८१८ ८. छान्दोग्य उप., ३।१४ | ३ मुण्डक उप., १११६ ९. भारतीय दर्शन ( डॉ. राधाकृष्णन् ) भाग २, पृ. ६९२
१०. वही, पृ. ६९३, ब्रह्मसूत्र रामानुज भाष्य, २।३।२४-६ ११. तत्त्वार्थ श्लोकवार्तिक पृ. ४०९
१२. प्रमेयरत्नमाला, पृ. २९५
१३. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, २३५
१४. गीता २२०
१५. तर्क भाषा पृ. १४९
१६. स्याद्वादमंजरी पृ. ६८
१७. पंचदशी ६।८६
१८. स्याद्वादमंजरी पृ. ७० १९. वही, पृ. ७४
२०. वही, पृ. ७३
२१. वही, पृ. ६९ : अदृष्टस्य सर्वगतत्वसाधने प्रमाणाभावात् ।
२२ . वही, पृ. ६९
२३. वही, पृ. ६८
२४. न्याय कुमुदचंद पृ. २६४
२५. स्याद्वादमंजरी पृ. ७०
२६. तत्वार्थ सूत्र५।८ २७. तत्त्वार्थ वार्तिक पृ. ४४९
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२८. स्याद्वादमंजरी, पृ. ७२ कार्यत्वम्
२९. वही, पृ. ७२ ३०. प्रमेयकमलमार्तण्ड पृ. ५६९ ३१. स्याद्वादमंजरी का. ९
३२. विश्व तत्त्व प्रकाश पृ. १९७
३३. स्याद्वादमंजरी पृ. ७० ३४. तत्त्वार्थवार्तिक ५।१६।४-६
: द्वव्यस्य हि पूर्वाकारपरित्यागेनोत्तराकारपरिणामः
३५. स्याद्वादमंजरी, का. ९
३६. तर्क भाषा पृ. १५३ : देहमात्र परिच्छिन्नो मध्यमो जिनसम्मतः ।
३७. स्याद्वादमंजरी, पृ. ६७
३८. तर्कभाषा पृ० ५२
३९. आत्मरहस्य, पृ. ६७
४०. सर्वार्थसिद्धि, ५३८; तत्वार्थवार्तिक, ५२८४
४१. तत्त्वार्थं सूत्र, ५।१६
४२. तत्त्वार्थ श्लोकवार्तिक पृ० ४०९
४३. न्यायकुमुदचन्द्र, पृ. २६१ ४४. प्रमेयरत्नमाला, पृ. २९२ ४५. नयचक्र गा. १२१ ४६. तत्त्वार्थवार्तिक १।२०।१२
४७. सर्वार्थसिद्धि, ५८
४८. प्रवचनसार,
४९. द्रव्यसंग्रह. गा. १०
५०. तुलना कीजिए—– अणु गुरुदेहप्रमाण उपसंहारप्रसर्पतः चेतयिता । असमुद्घातात् व्यवहारात् निश्चयनयतः असंख्यदेशो वा ।।
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- समणी ऋजुप्रज्ञा प्रवक्ता, जैन दर्शन जैन विश्व भारती संस्थान
लाडनूं-३४१३०६
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जीव की परिभाषा और अकलंक
जैन न्याय, प्रमाणवाद एवं अनेकान्तवाद के प्रकाशक भट्ट अकलंक का नाम सुनते
बताया गया है ।
ही न्याय और सिद्धांत के विद्वानों को महान गौरव का अनुभव होता है । यद्यपि सिमोवा जिले में प्राप्त दसवीं सदी के एक शिलालेख में उनका नाम पाया गया है, फिर भी यह दुर्भाग्य की बात है कि उनका प्रामाणिक जीवन चरित्र हमें उपलब्ध नहीं है और हम प्रभाचन्द्र के कथाकोष, मल्लिषेण- प्रशस्ति एवं राजावली कथा से ही उनके जीवन की कतिपय घटनाओं का विवरण पाते हैं । उनकी प्रशंसा में श्रवणबेलगोला में अनेक अभिलेख हैं । ६७ वें अभिलेख में साहसतुंग को उनका संरक्षक इनका जीवन काल ७२० ७८० ई० माना जाता है। इनके जीवन काल में महाराज दंतिदुर्ग साहसतुंग ( ७२५ - ७५७), अकालवर्ष शुभतुंग (७५७-७३), गोविन्द द्वितीय ( ७७३-७९) एवं ध्रुव ( ७७९-९३) नामक चार राजाओं ने राष्ट्रकूट क्षेत्र (महाराष्ट्र, गुजरात, राजस्थान और दक्षिण में आंध्र, कर्नाटक ) में प्रभावी राज्य किया । इसी काल में राजस्थान - गुजरात में आचार्य हरिभद्र ( ७००-७० ई०), उत्तर प्रदेश के कन्नोज और बंगाल के आचार्यं वप्पभट्टि ( ७४३ - ८३८ ई० ) और बदनावर, मध्यप्रदेश में आचार्य जिनसेन प्रथम ने जिनधर्म प्रभावना एवं साहित्य सृजन किया। हरिभद्र और जिनसेन तो उनके विषय में जानते थे, पर संभवत: वप्पभट्टि इनसे अपरिचित रहें होंगे । अकलंक का युग शास्त्रार्थी युग था । प्रायः आचार्यों का बौद्धों से शास्त्रार्थं होता था । वप्पभट्टि ने ६ महीने तक चले शास्त्रार्थ में बौद्ध विद्वान् वर्धनकुंजर को हराया था । हरिभद्र ने भी महाराज सूर्यपाल की सभा में बौद्धों को हराया । अकलंक ने भी साहसतुंग के समय में बौद्धों को हराया। उन्होंने उड़ीसा में शास्त्रार्थ का डंका बजाया था । अकलंक के ४ मौलिक और २ टीका ग्रन्थ प्रसिद्ध हैं । मौलिक ग्रंथों में प्रमाण नय और निक्षेपों की विषद चर्चा है । यह ऐसी उच्च स्तरीय एवं तर्कशास्त्रीय चर्चा है कि इसी के कारण “प्रमाणमकलंकस्य " की उक्ति प्रसिद्ध हुई है । यह हर्ष की बात है कि इन सभी मौलिक ग्रन्थ सटिप्पण प्रकाशित हो चुके हैं। इनके टीकाग्रन्थों ( १ ) समंतभद्रकी आप्त मीमांसा पर अष्टशती - ८०० श्लोक प्रमाण टीका एवं (२) उमास्वामी के तत्वार्थ सूत्र पर राजवार्तिक टीका हैं। इनमें अकलंक की तर्कशैली, प्रश्नोत्तर शैली और अनेकांतवाद - आधारित निरूपण शैली मनोहारी है। जैन न्याय के तो वे जनक हैं । विचारों के विकास की दृष्टि से, ऐसा प्रतीत होता है कि अकलंक ने टीका ग्रन्थ पहले और मौलिक ग्रंथ बाद में लिखे होंगे ! उदाहरणार्थ, राजवार्तिक में प्रत्यक्ष के दो भेद
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नहीं हैं, वे लघीयस्त्रय में हैं । हम यहां केवल राजवार्तिक में वर्णित जीव की परिभाषा पर विचार करेंगे ।
राजवार्तिक उमास्वामी के तत्त्वार्थसूत्र की टीका है । इसमें गद्यात्मक रूप में सर्वार्थसिद्धि टीका के अधिकांश वाक्यों को स्वतंत्र रूप में नये रचे वार्तिक के रूप में प्रस्तुत कर उनकी व्याख्या की है। संभवतः यह नैयायिक विद्वान उद्योतकर के न्याय वार्तिक का अनुकरण है । तत्वार्थसूत्र के अनेक प्रकरणों में आगमिक परंपरा अनुमोदित हुई है, (कर्मबन्ध के पांच हेतु, प्रत्यक्ष के दो भेद, अनुयोग द्वार आदि), अतः अकलंक ने भी अपनी टीका में प्रायः उसका अनुसरण किया है।
जीब शब्द
राजवार्तिक में तत्त्वार्थसूत्र के विषयों के अनुसार सात तत्त्वों का भाष्य रूप में तार्किक एवं अनेकांती विवरण है। मनोरंजक बात यह है कि उमास्वामी के मूलसूत्रों में "आत्मा" शब्द का प्रयोग नहीं है, वहां प्रत्येक स्थल पर " जीव" शब्द ही प्रयुक्त हुआ है । यह भी ११ स्थलों पर आया है। इनमें केवल २-३ स्थानों पर ही जीव की परिभाषा दी गई है । इससे अनेक बातें ध्वनित होती हैं। प्रथम, उमास्वामी के युग तक जैनों में आत्मा शब्द लोकप्रिय नहीं हो पाया होगा । इस शब्द की स्थिति ठीक उसी प्रकार की लगती है जैसे उत्तरवर्ती काल में "अस्तिकाय" के लिये " द्रव्य" शब्द का समाहार हुआ या "पर्याय" के लिये "विशेष" शब्द का प्रचलन हुआ । लगता है कि टीकाकारों के युग में, कम से कम दक्षिण में "आत्मा" शब्द प्रचलन में था । फलतः जैसे दार्शनिक शब्दावली की समकक्षता के स्थापन की प्रक्रिया में प्रत्यक्ष को इन्द्रिय ( एवं अनिद्रिय) के रूप में भी माना गया, परमाणु को व्यवहार रूप में भी माना गया, उसी प्रकार, अन्य दर्शनों के साथ तुलना की दृष्टि से जीव के लिये "आत्मा" से अभिहित करने की प्रक्रिया प्रारम्भ हुई ।
परिभाषा के प्रारंभिक रूप
जैन दर्शन में जीव शब्द जिस घृणा और भर्त्सना से वर्णित किया गया है, उसे देखकर जहां आचार्य की सूक्ष्म निरीक्षण शक्ति का आभास होता है, वहीं उनकी अतिशयोक्ति अलंकार एवं वीभत्स रस में प्रवीणता भी प्रकट होती है । ये वर्णन आज के मनोवैज्ञानिक प्रचार तंत्र को भी मात करते हैं ।
सर्वाधिक प्राचीन पुस्तक - आचारांग में जीव के वाचक ४ शब्द हैं-प्राण, भूत, जीव एवं सत्व । भगवतीसूत्र और शीलांकाचार्य ने इनके जो अर्थ किये हैं, वे नीच सारणी - १ में दिये गये हैं । भगवती ने इनमें २/१ में २ शब्द और जोड़े हैं और बाद मैं जीव के २३ पर्यायवाची बताये हैं । इनमें "आत्मा" भी एक पर्यायवाची है । इसका अर्थ निरंतर संसार भ्रमण - स्वभावी बताया गया है (अभयदेव सूरि ) । फलत: जीव का प्रारंभिक अर्थ तो संसारी जीव ही रहा है । अन्य दर्शनों से "आत्मा" शब्द के समाहरण पर भी उसका प्रारंभिक जैन अर्थ संसारी जीव ही रहा है, उसका अन्य अर्थ (शुद्ध जीव, जीव- कर्म आदि) उत्तरवर्ती विकास है ।
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सारणी १ जीव-वाचक प्राचीन शब्दों के अर्थ भगवती
शीलांक १.प्राण दस प्राणों से युक्त
२-४ इन्द्रीय जीव (स) २. भूत कालिक अस्तित्व
एकेंद्रिय वनस्पति (स्थावर) ३. जीव आयुष्यकर्म एवं प्राणयुक्त पंचेद्रिय (त्रस) ४. सत्व कर्म-संबंध से विषादी
एकेंद्रिय पृथ्वी आदि चार (स्थावर) ६. विज्ञ खाद्य-रसों का ज्ञाता ६. वेद सुख-दुख संवेदी ७. आत्मा सतत संसार-भ्रमणी
चतुर्वेदी का विचार है कि मानव के प्रारम्भिक वैचारिक विकास के प्रथम चरण में वह क्रियाकांडी एवं सामान्य बुद्धिवादी था। वह इहलौकिक जीवन को ही परमार्थ मानता था । वह वस्तुतः चार्वाक था । अपने विकास के द्वितीय चरण में मानव चिंतनशील, बुद्धिवादी, कल्पनाप्रवीण एवं प्रतिभावान् बना। इस चरण में उसने आत्मवाद एवं उससे सहचरित अनेक सिद्धांतों की बौद्धिक कल्पना की जिससे वह न केवल हिंसात्मक क्रियाकांडों से ही मुक्ति पा सका, अपितु अध्यात्मवाद के साये में उसने जीवन को अनन्त सुखमय बनाने का महान आशावादी उद्देश्य और लक्ष्य भी पाया। अपने बुद्धिवाद से उसने सामान्य-अर्थी सतत-विहारी आत्मा शब्द का ही अमूर्तीकरण नहीं किया, अपितु अनेक भौतिक प्रक्रमों एवं वस्तुओं (प्राण, इन्द्रिय, मन आदि) का भी अध्यात्मीकरण किया। इस प्रक्रिया में जीवन की घटनाओं की व्याख्या सामान्य जन के लिये दूरवबोध हो गई। जल, थल व नभ आदि के अध्यात्मीकरण ने ऋषिमुनियों को जो भी प्रतिष्ठा दिलाई हो, पर सामान्य जन तो परेशानी में ही पड़ा। वह आत्मवादी बने या जीववादी ? आत्मवादी बनने में अनन्त सुख एवं आयु थी, जीववादी बनने में सांत सुख एवं सीमित आयु थी। एक ओर कल्पना जगत का आनंद था, दूसरी ओर व्यावहारिक जगत की आपदायें थीं। श्रमण-संस्कृति एवं उपनिषदों के उपदेष्टा साधु जीवन की श्रेष्ठता की चर्चा कर उसे उत्सर्ग मार्ग बताते थे, अपवादी तो बेचारा "जीव" माना गया। बहुसंख्यकों की यह अप्रतिष्ठा धर्मज्ञ ही कर सकते थे। यह स्थिति अब तक बनी हुई है। इससे आत्मवाद मौलिक सिद्धांत हो गया। जैनों में तो आत्मप्रवाद नाम से एक स्वतन्त्र पूर्वागम ही माना जाता है, यद्यपि इसके नाम से प्रकट है कि यह एक विषमवादी प्रकरण रहा है। इसीलिये कबीर को भी अपने समय में यह कहना पड़ा कि मैं बाजार में भाषण दे रहा हूं पर श्रोता गण नदारद हैं । क्यों ? अब मानवबुद्धि इसका उत्तर दे सकती है। अध्यात्मवादी, मान्यताओं की कोटि व्यावहारिक जगत की विरोधी दिशा में जाती है। इनके बीच समन्वय कम दिखता है । अतः सामान्य जन "जीव" बने रहने में, साधु बनने की अपेक्षा, अधिक आनन्द मानता है । वह सोचता है कि सांसारिक कष्ट तो हलुए में किशमिस के समान हैं जो उसके आनन्द को ही बढ़ाते हैं । सत्यभक्त ने बताया है कि संसार में शारीरिक और मानसिक दुःखों की संख्या १०८ है और मूलतः ८ प्रकार के सुखों (जीवन, विद्या,
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प्रेम, विषय, महत्वाकांक्षा आदि) के उपभेद ७२ हैं। लेकिन संख्या कुछ भी हो, परिमाण की दृष्टि से संसार में सुख की मात्रा दुख से कई गुनी अधिक है । नहीं तो, "जीवणं पियं" क्यों मानता ? फलतः संसार की दुखमयता की धारणा तर्कसंगत विचार चाहती है । यह नकारात्मक प्रवृत्ति, निवृत्ति मार्ग में, निषेधात्मक आचारवाद है। यदि हम संसार को सांत और सुखमय मानें, तो हमारी प्रवृत्ति सकारात्मक एवं सुख को बढ़ाने की होगी। इस मान्यता से जैनों के मूल उद्देश्य का भी को विरोध नहीं होगा क्योंकि अनन्त सुख सांत सुख का वहिर्वेशन मात्र है :
__ संसारी जीव (कर्म) आत्मा-अनंत सुख (मोक्ष)
दुखमयता की धारणा ने हमें यथास्थितिवादी बनाये रखा है। यही कारण है कि हम संसार को सदैव दुखमय बनाकर रखे हुए हैं और व्यक्तिवादिता का पल्लवन कर रहे हैं । न्यायाचार्य ने ठीक ही कहा है कि हम संसार की ४ गतियों में से मनुष्य और पशु गति को तो प्रत्यक्ष ही देखते हैं। इनकी निंदा भी करते हैं । पर, फिर भी उन्हीं में पुनः उत्पन्न होना चाहते हैं। यह कितने आश्चर्य की बात है ? परिभाषा के विविध रूप
जैनाचार्यों ने संसारी जीव की इस सामान्य बुद्धि पर सूक्ष्मता से विचार किया और अनेकांत-प्रतिष्ठापन युग में द्रव्य-भाव, व्यवहार-निश्चय, अंतरवाह्य, आत्मभूतअनात्मभूत आदि की धारणाएं प्रस्तुत कर बताया कि प्रत्येक वस्तु के अनेक रूप होते हैं । उसका स्वरूप सापेक्ष दृष्टि से ही जाना जा सकता है । सम्पूर्ण स्वरूप तो सर्वज्ञ ही जानता है, पर भाषा की सीमाओं के कारण वह भी कहा नहीं जा सका । वह अवक्तव्य ही होता है । इसीलिये जीव की परिभाषाएं अनेक रूप और शब्दावली में पाई जाती हैं । इस आधार पर जीव और आत्मा सह-सम्बन्धित हो गए हैं। जीव को आत्मा की एक दशा मान लिया गया। जब जीव को देहबद्ध रूप में माना जाता है, तब उसकी परिभाषा ऐसी होती है जो आत्मा पर लागू नहीं भी हो। जब उसे देहमुक्त रूप में माना जाता है, तब वह आत्मा हो जाता है और परिभाषा अधिक मूलभूत हो जाती है। अनेक आचार्य एक ही वस्तु की भिन्न-भिन्न परिभाषाओं को विभ्रमण मानते हैं और वे जीव और आत्मा की परिभाषाओं को मिश्रित रूप में प्रस्तुत करते हैं जिनमें मूर्त और अमूर्त या द्रव्य और भाव - दोनों प्रकार के लक्षण समाहित होते हैं । जैन लक्षणाचली में जैन शास्त्रों से जीव की परिभाषा के ५२ सन्दर्भ दिये हैं।
जीव की परिभाषा के संदर्भ में यह सचमुच आश्चर्य की बात है कि शास्त्रों में जीवों के संबंध में विवरण तो पर्याप्त है, पर्यायवाची भी अनेक बताए गए हैं, पर इसकी परिभाषा कुछ ही ग्रन्थों में पाई जाती है । भगवती और प्रज्ञापना में जीव के पांच रूप बताए गए हैं :
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शरीर या भौतिक रूप : १. नारकीय, कर्म, शरीर २. शरीर, अवगाहन, योनि,
श्वासोच्छवास, आहार, प्रविचार, भाषा, जन्म
मरण, आयु ज्ञानात्मक रूप : १. दर्शन, ज्ञान, उपयोग २. इन्द्रीय, उपयोग, संज्ञा/मन संवेग/मनोभावी रूप : १. लेश्या, दृष्टि, संज्ञा २. कसाय, लेश्या, सम्यक्त्व क्रियात्मक रूप : १. योग
२. योग, संयम संवेदनात्मक/अनुभूति : ---- २. सुख-दुख, शीत-उष्ण, वेदना आदि
"जीव पर्याय/परिणाम" के रूप में ये एकीकृत रूप "जीव" (सदेह आत्मा) के ही हो सकते है । प्रारम्भ में मार्गणा स्थानों को भी “जीव स्थान" ही कहा जाता था। उन्हें भी इन ५ रूपों में वर्गीकृत किया जा सकता है ।
इस प्रकार, प्रारम्भ में जीव का स्वरूप पंच रूप था। सभी रूपों की समकक्ष मान्यता रही है । उमास्वामी ने तत्वार्थ सूत्र में प्रायः इन सभी (शरीरादि, मनोभाव, उपयोग योग एवं वेदना) रूपों के माध्यम से जीव का ही वर्णन किया है। लेकिन जब जीववाद, आत्मवाद में परिवद्धित हुआ, तब इनमें से उपयोगात्मक परिभाषा मुख्य हो गयी और अन्य परिभाषाएं द्वितीय कोटि में चली गईं। आत्मा (शुभ या शुद्ध ?) स्वामी हो गया और जीव बेचारा दास हो गया ।
आगमोत्तर काल के शास्त्रों में प्राप्त जीव की परिभाषाओं को तीन वर्गों में विभाजित किया जा सकता है :
१. जीव शब्द पर आधारित परिभाषाएं प्राण, आयु आदि मनोभाव ।
२. जीव के ज्ञानात्मक/आध्यात्मिक स्वरूप पर आधारित परिभाषाएं-ज्ञान, दर्शन, सुख-दुख, वीर्य, उपयोग और । .. ३. जीव के भौतिक एवं आध्यात्मिक स्वरूप पर आधारित परिभाषाएं या मिश्र परिभाषाएं-प्राण और उपयोग।
इन परिभाषाओं का ऐतिहासिक अध्ययन करने पर ज्ञात होता है कि जीव की प्रारम्भिक परिभाषा प्राणधारण (द्रव्य प्राण) और आयुष्य ग्रहण से संबंधित रही होगी । प्राण शब्द का सामान्य अर्थ श्वासोच्छवास होता है, पर जैनों का अर्थ अन्य तन्त्रों की तुलना में व्यापक है। उसके अन्तर्गत बल, इन्द्रीय, आयु और श्वासोच्छवास समाहित होते है । ये सभी पोद्गलिक हैं तथा आयु और नामकर्म के रूप है। फलत: जीव की यह प्रारम्भिक परिभाषा भौतिक दृष्टि को निरूपित करती है। यह आचारांग सूत्रकृत, स्थानांग, प्रज्ञापना, कार्तिकेयानुप्रेक्षा, धवला-१ तथा कुंदकुंद के प्रवचनसार एवं पंचास्तिकाय में पाई जाती है। आजीवक सम्प्रदाय भी जीव को परमाणुमय, वृत्ताकार या अष्टफलकीय आकृति वाला एवं नीले रंग का मानता था। धवला, भगवती एवं पंचास्तिकाय में जीव के १७-२३ नाम बताये गये हैं जिनमें अधिकांश जीव के भौतिक स्वरूप को परिलक्षित करते हैं । श्वेताम्बर आगमों में जन्तु, जन्म,
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शरीरी आदि पद आते हैं जो धवला और कुंदकंद के नामों में नहीं है। इससे प्रकट होता है कि श्वेताम्बरों की तुलना में दिगम्बर अधिक अमूर्त आत्मवादी हैं। यह आत्मवाद भौतिकवाद का उत्तरवर्ती रूप लगता है । भाव प्राणों की धारणा से जीव के लक्षणों में कुछ व्यापकता आई है।
उक्त भौतिक परिभाषाओं के अतिरिक्त जीव की भावात्मक या मनोभावात्मक परिभाषा भी है जिसमें कर्म-जन्य ४ भाव-औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक तथा औदयिक एवं कर्म-निरपेक्ष पांचवां पारिणामिक भाव-कुल ५ भाग समाहित हैं । यद्यपि अनुयोगद्वार में ६ नामों के अन्तर्गत ६ भाव बताए हैं पर वहां उन्हें जीव का असाधारण लक्षण नहीं कहा है । सम्भवतः यह उमास्वामी का योगदान है कि उन्होंने जीव को मनोभावात्मक विशेषताओं से भी लक्षित किया। भाव शब्द के अनेक अर्थ होते हैं -पर्याय, परिणाम, वर्तमान स्थिति आदि । पर जीव लक्षण के सम्बन्ध में चित विकार का मनोवैज्ञानिक अर्थ अधिक उपयुक्त लगता है । फलतः जीव वह हैं जिसमें कर्म एवं कर्मोदय के कारण अनेक प्रकार के मनोभाव भी पाए जाते हैं। यह मनोभावी परिभाषा तत्वार्थ सूत्र के टीकाकारों के अतिरिक्त धवला तथा कुंदकुंद के कुछ ग्रन्थों में पाई जाती है । "उपयोग जीव का लक्षण है" की प्रश्नावली में यह बताया गया है कि भौतिक लक्षण अनात्भूत या सहकारी लक्षण है, प्रमुख या आत्मभूत लक्षण नहीं हैं। इस भौतिक परिभाषा में जीव के भौतिक/भावात्मक तत्व (शरीर, योनि, अवगाहन आदि) तथा क्रियाएं (योग) एवं कर्म-जन्य मनोभाव समाहित होते हैं। फलतः यह परिभाषा मात्र भाव प्राणी पर लागू नहीं होती। अध्यात्मवादी उपयोगात्मक परिभाषा
जीव की दूसरी परिभाषा संवेदनशीलता से संबंधित है। संभवतः आचार्यों की यह मान्यता है कि उपरोक्त भौतिक एवं भावात्मक परिभाषा जीव की मौलिक संवेदनशीलता के कारण ही है । इसको शास्त्रों में अनेक रूपों में व्यक्त किया गया है। हमें उमास्वामी के प्रति कृतज्ञ होना चाहिये कि उन्होंने इस कोटि की अनेक परंपरागत परिभाषाओं को एकीकृत कर उसे "उपयोग" पद के अन्तर्गत समाहित कर दिया । ऐसा प्रतीत होता है कि उन्होंने उत्तराध्ययन की परिभाषा को अपना आधार बनाया होगा। इस कोटि की विविध परिभाषाओं के अध्ययन से पता चलता है कि ये अनेक रूपों में व्यक्त की गई हैं : १. उपयोग लक्षण २. चेतना लक्षण ३. चेतना एवं उपयोग लक्षण ४. ज्ञान स्वभाव ५. ज्ञान-दर्शन स्वभाव ६. सुख-दुख ज्ञान उपयोग स्वभाव ७. ज्ञान-दर्शन सुख-दुख, तप, चरित्र, वीर्य स्वभाव और ८. भाव प्राण घारण स्वभाव । कुन्दकुन्द ने प्रवचनसार में चेतना और उपयोग दोनों को जीव का लक्षण बताया है। इससे यह अनुमान लगता है कि एक समय ऐसा था जब इन दोनों शब्दों में अर्थभेद रहा होगा । वस्तुतः चेतना सामान्य गुण है जिसकी अभिव्यक्ति का रूप उपयोग है। यह ज्ञान, दर्शन, सुखानुभूति, वीर्यानुभूति या आन्तरिक ऊर्जानुभूति आदि अनेक रूपों में होती है। पूज्यपाद भी जीव की अनेक प्रकार की चेतना मानते हैं एवं आत्मा को
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उपयोगमय मानते हैं । इस प्रकार चेतना के अनेक क्षमतात्मक और क्रियात्मक रूपों का पता चलता है।
पूज्यपाद और अकलंक- दोनों ने ही चेतना के अनेक प्रकारों की चर्चा की है एवं उत्तराध्ययन के व्यापक लक्षणों को एक ही शब्द से कह दिया है। फिर भी, उमास्वामी उपयोग या चेतना को केवल ज्ञान दर्शनात्मक ही मानते हैं क्योंकि सूत्र २.८ में उन्होंने इसका स्पष्ट उल्लेख किया है । यह मान्यता प्रवचनसार, भगवती के समान ग्रंथों के अनुरूप भी है । संभवतः उनकी यह मान्यता हो कि सुख-दुख आदि की अनुभूति ज्ञानदर्शन या संवेदनशीलता पर ही आधारित है । सभी प्रकार की अनुभूतियों का मूल आधार चैतन्य है। इसलिये सभी एक ही पद में समाहित हो जाते हैं। इस प्रकार अध्यात्मवादी जीव आत्मा की परिभाषा को निम्न रूप में व्यक्त किया जा सकता है:
चैतन्य उपयोग=भावप्राण-ज्ञान-दर्शनादि= जीव/आत्मा
सामान्यत: "उपयोग" शब्द की तुलना में चेतना शब्द की परिभाषा कम मिलती है । तथापि धवला-१ (पेज १४६) के अनुसार चैतन्य शब्द संवेदनशीलता का निरूपक है । इसी के कारण ज्ञान और दर्शन आदि की प्रवृत्तियां या अनुभूतियां होती हैं । अतः कार्य में कारण का उपचार कर ज्ञान-दर्शनादि को ही चैतन्य मान लिया जाता है । प्रारम्भ में "चेतना" शब्द से केवल प्रत्यक्ष पदार्थ का ग्रहण प्रतिभासन या संवेदन का अर्थ लिया जाता था पर बाद में इसे कालिक विषयों के संवेदन के व्यापक अर्थ में लिया जाने लगा । इस प्रकार "चेतना" भी "चार्वाक" से "अध्यात्मवादी" हो गयी। यह विचार-विकास का एक अच्छा उदाहरण है।
जैन लक्षणावली (पेज २७४) में चैतन्य के लक्षण के १-२ संदर्भो की तुलना में उपयोग के २८ संदर्भ दिये गये है। सभी में चैतन्य के वाह्य और आभ्यान्तर निमित्तों से होने वाले जीव के परिणामों का उपयोग कहा गया है । इसके अन्तर्गत उपयोग रूप भावेन्द्रीय भी समाहित हो जाती है। अनेक परिभाषाओं में उप+योग (क्रिया) के रूप में व्युत्पत्ति परक अर्थ भी दिया गया है जिससे इसकी क्रियात्मकता एवं परिणात्मकता व्यक्त होती है। इससे ज्ञान-दर्शनादि का निकटतम संयोजन ही उपयोग होता है । इसी को अकलंक और पूज्यपाद ने "चैतन्यान्वयी परिणाम" कहा है । इस प्रकार, उपयोग संवेदनशीलता की अभिव्यक्ति के विभिन्न रूपों को माना जाता है। इस परिभाषा से एक तथ्य तो प्रकट होता ही है कि उपयोग भी अंशतः भौतिक हैं क्योंकि यह सदेह जीव में ही होता है । सिद्ध या शुद्ध आत्मा तो उपयोगातीत प्रतीत होती है। यहां यह भी ध्यान रखना चाहिये कि जीव की परिभाषाओं के रूपों में जितनी विविधता है, उतनी उपयोग के स्वरूपों में नहीं पाई जाती । इससे जीव की परिभाषा की सापेक्ष जटिलता प्रकट होती है। परिभाषा का मिश्रित रूप
जीव की तीसरी कोटि की परिभाषा भौतिक एवं ज्ञानात्मक परिभाषाओं का मिश्रित रूप है । यह जीव की व्यावहारिक परिभाषा है । इस परिभाषा में जहां एक ओर
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जीव को कुन्दकुन्द रूपरस आदि रहित गुणातीत के रूप में बताते हैं, वहीं वे कर्म संबंध से उसे मूर्तिक (अनिर्दिष्ट संस्थान) भी बताते हैं । जीव के अनेक नामों में ८०% नाम मूर्तिकता के प्रतीक हैं और केवल २०% अमूर्तिकता के । वे चेतना के ३ रूप करते हैं-ज्ञान, कर्म और कर्मफल तथा उसके विस्तार में जीव के मूर्तिक और अमूर्तिक रूप को व्यक्त करते हैं। जीव की इस मिश्र परिभाषा में किचित विरोध सा लगता है। इसलिये अनेकांत पर आधारित व्यवहार-निश्चयवाद या द्रव्य-भाववाद का आश्रय लेना स्वाभाविक ही है । मूर्तिकता संबंधी सारे लक्षण व्यवहारी या सामान्य जनों के अनुभव में आते हैं। उनमें से अधिकांश वैज्ञानिकतः प्रयोग समर्थित भी हैं । कुन्दकुन्द का कथन है कि व्यावहरिक लक्षण अजीत्र कर्मों के कारण है जिन्हे हमने जीव के ही लक्षण मान लिये हैं । इसलिये व्यवहार भाषा के समान इनके बिना सामान्य जन सूक्ष्म तत्त्व को (शुद्ध आत्मा) कैसे समझेगा? लेकिन जहां कुन्दकुन्द एक अच्छे वैज्ञानिक की भांति अपने अनुभूत कथनों को सुधारने की बात कहते हैं, वहीं वे व्यवहार को "अभूतार्थ" कहकर उसको अमान्य करने क संकेत देते हैं। वे स्थूल, कर्म मलीन जीव के वर्णन से प्रारम्भ कर सूक्ष्म आत्मा की ओर जाते हैं और उसके स्वरूप को सामान्य जन की बुद्धि के बाहर तथा मनोहारी बना देते हैं। भला, अभूतार्थ या असत्य से सत्य की ओर कैसे पहुंचा जा सकता है ? संसारी जीवों को यह बात पसंद नहीं आई और कुन्दकुन्द एक हजार वर्ष तक सुप्त या लुप्त ही पड़े रहे । यह स्पष्ट है कि जीव की यह मिश्र परिभाषा दिगम्बरों द्वारा लुप्त रूप से मान्य कुछ प्राचीन ग्रन्थों से मेल खाती है। यह परिभाषा "जीव" और "आत्मा" को पर्यायवाची मानने के प्राचीन युग से प्रचलित रही है। उत्तरवर्ती आचार्यों ने केवल विरोधी से लगने वाले लक्षणों की दो कोटियां बनाकर व्यवहारी जीव को परेशान कर दिया । अकलंक के राजवातिक में जीव की परिभाषा
तत्वार्थ सूत्र में जीव शब्द का ही उपयोग है और उसी की मिश्र परिभाषा ही अनेक सूत्रों के माध्यम से प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में (२.१, २.७, २८, २-५३, ६.१, ८.१-३९) में दी गई है जो प्राचीन ग्रन्थों के अनुरूप है। उनके प्रथम टीकाकार पूज्यपाद तो शुद्ध अध्यात्मवादी लगते हैं (यद्यपि उन्होंने भी ८.२ में जीव का व्युत्पत्तिपरक अर्थ किया है (क्योंकि उन्होंने पहले ही तत्त्वनिर्देशक सत्र १.४ में "चेतनालक्षणो जीवः" कहकर “उपयोगो लक्षणं' में भी उसे अनुसरित किया है । इसके विपर्यास में अकलंक ने प्राण धारण रूप व्युत्पत्तिपरक अर्थ के साथ चैतन्य लक्षणी जीव बताया हैं। तथापि लघीयस्तरय और सिद्धि विनिश्चय में उनके चैतन्य लक्षणी जीव की परिभाषा से ऐसा लगता है कि वे अपने जीवन के उत्तरकाल में आत्मवादी अधिक हो गये होंगे क्योंकि ये रचनाएं टीकाग्रन्थों के बाद की हैं । यही नहीं, सूत्र २.८ में उन्होंने जीव का अस्तित्व भी मिथ्यादर्शन आदि कारणों से उत्पन्न नर-नारकादि पर्यायों तथा उच्च ज्ञानियों द्वारा प्रत्यक्षता के तर्कों से सिद्ध किया है । साथ ही उपयोग के तदात्मकत्व, अस्थिरत्व एवं सम्बन्ध के आधार पर जीव लक्षण को मान्य करने वाले मतों का खंडन कर उपयोग का आत्मभूत लक्षणत्व सिद्ध किया है । उन्होंने "अहं-प्रत्यय, संशय, विपर्यय और
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अध्यवसाय के आधार पर भी जीव का अस्तित्व सिद्ध किया है । अकलंक की जीव की परिभाषा पूज्यपाद एवं वाचक उमास्वामी से व्यापक भी है क्योंकि उन्होंने चैतन्य को ज्ञान-दर्शन आदि के साथ सुख-दुख वीर्य आदि के रूप में भी माना है।
___ इस प्रकार यह स्पष्ट है कि अकलंक जीववादी भी हैं और आत्मवादी भी हैं । इसलिये उन्होंने इस प्रश्न का भी उत्तर दिया है कि आत्मा जीव कैसे हो जाता है ? उनका कथन है कि आत्मा में विशेष सामर्थ्य होती है कि वह कर्मों से सम्बद्ध होकर जीव रूप धारण कर ले । उसमें यह सामर्थ्य उसके अनादिकाल से कर्मबद्ध होने के कारण आता है । इस प्रकार आत्मा अनादि काल से जीव मूर्तिक ही है। इसलिये उसका कर्म से प्रभावित होना स्वाभाविक ही है । इसे ठीक औषधियों या मदिरा आदि से जीव के चैतन्य के अभिभूत होने के समान समझना चाहिये । इस अनादि सम्बन्ध की धारणा से अकलंक-जैसे तार्किक ने भी इस मूलभूत प्रश्न का उत्तर नहीं दिया कि शुद्ध आत्मा सर्वप्रथम कैसे जीव बना होगा ? यह प्रश्न आत्मवाद की धारणा पर बड़ा भारी प्रश्नचिह्न लगाता है । इसका उल्लेख जैनी ने भी अपनी पुस्तक में किया है। तत्वतः शुद्ध आत्मा तो जन्म-मरण रहित है और उसका संसारिक रूप ही असंभव है । अतः संसार में जीव ही हैं, कर्मबद्ध जीव ही हैं। उनका ही वर्णन शास्त्रों में अधिकांश पाया जाता है। उनके नैतिक उत्थान, सुख-संवर्द्धन की दिशा एवं निष्कामकर्मता की विधियां वहां बतायी गई हैं । फलस्वरूप अकलंक ने जीव को अनेक जगह आत्मा का समानार्थी माना है, पर उनका आत्मवाद भी मनोवैज्ञानिक भित्ति पर स्थित है जो हमारे जीववाद में आशावाद के दीप को प्रज्ज्वलित किये रहता है। बीसवीं सदी और अकलंक
__ अकलंक आठवीं सदी के विद्वान थे। जीववाद संबंधी धारणाओं पर पिछले तीन सौ वर्षों में पर्याप्त अनुसंधान हुए हैं और अनेक तत्कालीन मान्यताएं पुष्ट हुई हैं तथा कुछ परिवर्द्धन के छोर पर हैं। लेकिन आत्मा संबंधी मान्यताएं अभी भी विज्ञान के क्षेत्र से बाहर बनी हुई हैं।
अनेक लेखक, जिनमें वैज्ञानिक भी सम्मिलित हैं, आजकल भौतिकी एवं परामनोविज्ञान सम्बन्धी पूर्वोक्ति, दूरदृष्टि, अलौकिक कारणवाद आदि के अन्वेषणों के आधार पर “पदार्थ पर मन के प्रभाव" की चर्चा करते हुए चेतना या संवेदनशीलता का स्वरूप बताकर आत्मवाद को परोक्ष वैज्ञानिक समर्थन देने में अनेक उद्धारण प्रस्तुत करते हैं । वे यह भी बताते हैं कि आत्मावाद और इससे सहचर्य सिद्धांत दुखमय संसारिक जीवन में आशावाद, उच्चतर लक्ष्य के लिये यत्न, सर्व जीव संभाव एवं सहयोग की वृत्ति का मनोवैज्ञानिकतः पल्लवन करते हैं । इसके विपर्यास में वे यह भी बताते हैं कि चेतना और मन समानार्थी से रहे हैं (जिसे आत्मा भी कहा जा सकता है।) पश्चिमी विचारक तो मन और आत्मा को समानार्थी ही मानते रहे हैं । अब मन के अनेक रूप सामने आए हैं -चेतन, अवचेतन, अचेतन । चेतना के भी अनेक रूप सामने आए हैं --(१) अन्तरज्ञानात्मक या लोकोत्तर (२) आनुभविक या लौकिक एवं (३) स्व-चेतना । चेतना की परिभाषा क्या है, यह बहुत स्पष्ट तो नहीं है, लेकिन
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अनेक लोग इसे मस्तिष्क की शरीर क्रियात्मक मशीन का एक उत्पाद मानते हैं । वे इसे संवेदन और अनुभूति का आधार मानते हैं। टार्ट के समान प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक चेतना को एक विशेष प्रकार की मनोवैज्ञानिक ऊर्जा मानते हैं जो मन और मस्तिष्क को अपनी क्रियाओं के लिये सक्रिय करती है । यह एक जैविक कम्प्यूटर है जिसकी कार्यक्षमता अनेक दृश्य (अनुभूति, शरीर क्रियाएं, शिक्षा, संस्कृति) और अदृश्य ( कर्म आदि) कारकों पर निर्भर करती है । मस्तिष्क के विशिष्ट केन्द्रों के समान चेतना की भी अनेक विभक्त अवस्थाएं होती हैं जो विशिष्ट गुणों के निरूपक होती हैं। योगी और वैज्ञानिक तथा विद्यार्थी ओर सामान्य जन की चेतना की अवस्थाएं भिन्न-भिन्न होती हैं । हमारे मस्तिष्क की क्रियाएं / दशाएं चेतना की इन अवस्थाओं की प्रतीक हैं । आज के वैज्ञानिक मानते हैं कि सामान्य चेतना द्वि-रूपणी होती है - भौतिक और मानसिक, मूर्त और अमूर्त | इसका मूर्त रूप हमारी सामान्य जीवन क्रियाओं का निरूपक है और मानसिक रूप ज्ञान दर्शन के गुणों का प्रतीक है । यह स्पष्ट है कि ये दोनों रूप अविनाभावी - से लगते हैं। आज की ये वैज्ञानिक मान्यताएं अभी तक तो चेतना या आत्मा की अमूर्तता पुष्ट नहीं कर पाई हैं पर वे इसी दिशा की ओर अभिमुख हो रही हैं, ऐसा लगता है । इस तरह आज का विज्ञान अकलंक के बुद्धिवादी युग की धारणाओं को प्रयोगवाद का स्वरूप देता दिखता है ।
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सहायक पाठ्यसामग्री १. वर्णी, जिनेन्द्रः जैनेन्द्र सिद्धांत कोश २-३, भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली, १९४३ २. वाचक, उमास्वातिः तत्वार्थसूत्र, पार्श्वनाथ विद्याश्रम, काशी, १९७६ ३. तथैवः सभाष्य तत्वार्थाद्धिगमसूत्र, राजचन्द्र आश्रम, अगास, १९३२ ४. आचार्य, पूज्यपादः सवार्थसिद्धि, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, १९७१ ५. जैन, एन. एल. : साइंटिफिक कंटेंट्स इन प्राकृत केन्नस, पा. विद्यापीठ,
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डॉ. नंदलालजैन निदेशक, जैन केन्द्र
रीवां (म० प०)
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एलोरा की जैनमूर्तियों का शिल्पशास्त्रीय वैशिष्ट्य
आनन्दप्रकाश श्रीवास्तव
राष्ट्रीय महत्त्व का स्मारक एलोरा महाराष्ट्र प्रांत के औरंगाबाद जिले में स्थित है। एलोरा के एक विश्वप्रसिद्ध कलाकेन्द्र के रूप में विकसित होने की पृष्ठभूमि में शासकीय समर्थन की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। यहां कलचुरि, वाकाटक, चालुक्य, राष्ट्रकूट एवं देवगिरि के यादवों के संरक्षण में छठी से तेरहवी शती ई० के मध्य कुल ३४ गुफाएं उत्कीर्ण हुईं, जिनमें राष्ट्रकूटों के समय ( सातवीं से दसवीं शती ई०) का निर्माण सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। सभी प्रमुख भारतीय धर्मो ( ब्राह्मण - बौद्ध-जैन ) की यह कला-त्रिवेणी बहुत अनोखी उतरी है। बौद्धधर्म की गुफाओं ( संख्या १ से १२) के साथ सटी ब्राह्मणधर्म की गुफाएं ( संख्या १३ से २९) और उसके बाद जैनधर्म की गुफाएं (संख्या ३० से ३४ ) हैं । इनके एक साथ होने के को यहां तुलनात्मक विवेचन का स्पष्ट आधार मिल जाता है।"
कारण दर्शकों एवं शोध प्रज्ञों
जैन गुफाओं (गुफा क्रम संख्या ३० से ३४ ) एवं मूर्तियों का निर्माण तथा चित्रां
ये कलावशेष दिगंबर- परम्परा ३० ), इन्द्रसभा ( गुफा संख्या मूर्तिशिल्प की दृष्टि से सर्वा
कन मुख्यतः ९वीं से ११वीं शती ई० के मध्य हुआ है । से संबद्ध हैं । जैन गुफाओं में छोटा कैलास ( गुफा संख्या ३२) व जगन्नाथ - सभा ( गुफा संख्या ३३) स्थापत्य और धिक महत्त्वपूर्ण हैं | इन्द्रसभा के ऊपरी तल में इन्द्र तथा अम्बिका की भव्य प्रतिमा बरबस आकृष्ट करती हैं। इसके अतिरिक्त पार्श्वनाथ, बाहुबली, महावीर आदि जैन तीर्थंकरों की प्रतिमाएं उत्कृष्ट हैं। यहां का जैन भित्तिचित्र, भित्ति चित्रकला के इतिहास में एक अनमोल कड़ी है। एलोरा के जैन मन्दिर इन्द्रसभा में नवीं और दसवीं शती ई० में तीर्थंकर मूर्तियों को बनवाने वाले सोहिल ब्रह्मचारी और नागवर्मा के नाम भी अंकित हैं । एलोरा की जंन गुफाओं में जैनों के सर्वोच्च आराध्यदेव तीर्थकरों (या जिनों) का अंकन हुआ है । २४ जिनों में से आदिनाथ ( प्रथम ), शांतिनाथ ( १६वें), पार्श्वनाथ ( २३वें) एवं महावीर (२४वें) की सर्वाधिक मूर्तियां हैं । साथ ही ऋषभनाथ के पुत्र बाहुबली गोम्मटेश्वर यक्ष और यक्षियों की भी पर्याप्त आकृतियां हैं। यहां उल्लेखनीय है कि दक्षिण भारत में गोम्मटेश्वर की मूर्तियां विशेष लोकप्रिय थीं और एलोरा में उनकी सर्वाधिक मूर्तियां बनीं। एलोरा में बाहुबली की कुल १७ मूर्तियां हैं! किसी भी पुरास्थल पर पायी जाने वाली मूर्तियों की संख्या की दृष्टि से ये सर्वाधिक हैं । २४ तीर्थंकरों का सामूहिक अंकन भी उत्कीर्ण है । जिनों में सात सर्पफणों के छत्र वाले पार्श्वनाथ की मूनियां सर्वाधिक लोकप्रिय थीं । एलोरा की जैन मूर्तियों में
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छत्र सिंहासन, उपासकों, प्रभामण्डल जैसे प्रातिहायों, लांछनों एवं शासन देवताओं का अंकन हुआ है।
एलोरा की जैन गुफाओं का निर्माण अधिकतर राष्ट्रकूट नृपतियों के राज्यकाल में हुआ है । देवगिरि से प्राप्त अभिलेखों से यह पता चलता है कि राष्ट्रकूटों के बाद एलोरा की गुफाओं के निर्माण में देवगिरि के यादवों ने भी अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की, जिनका शासनकाल दसवीं शती ई० तक रहा। इन्हीं के समय में एलोरा की अधिकांश जैन गुफाएं खोदी गई । एलोरा की जैन मूर्तियां अधिकतर उन्नत उकेरी में हैं ।
एलोरा की जैन मूर्तियों में तीर्थंकरों के वक्षस्थल पर 'श्रीवत्स' के अंकन की परिपाटी उत्तर भारत के समान प्रचलित नहीं थी । समकालीन पूर्वी चालुक्यों की जैनमूर्तियों में भी यह चिह्न नहीं मिलता। साथ ही अष्ट महाप्रातिहार्यों में से सभी का अंकन भी यहां नहीं हुआ है । केवल त्रिछत्र, अशोकवृक्ष सिंहासन, प्रभामण्डल, चांवरधरसेवक एवं मालाधरों का ही नियमित अंकन हुआ है । शासन देवताओं में कुबेर या सर्वानुभूति यक्ष तथा चक्रेश्वरी, अम्बिका एवं सिद्धायिका यक्षियां सर्वाधिक लोकप्रिय थीं ।" जिनों के साथ यक्ष-यक्षियों का सिंहासन छोरों पर नियमित अंकन हुआ है । दिगम्बर- परम्परा में महापुराण की रचना राष्ट्रकूट शासक अमोघवर्ष प्रथम ( लगभग ८१९ से ८८१ ई०) एवं कृष्ण द्वितीय ( लगभग ८८० - ९१४ ई०) के शासन काल एवं क्षेत्र में हुई, अतः महापुराण की कलापरक सामग्री का स्पष्टतः समकालीन राष्ट्रकूट कलाकेन्द्र एलोरा ( ओरंगाबाद, महाराष्ट्र ) की जैन गुफाओं ( गुफा संख्या ३० से ३४ ) की मूर्तियों का शास्त्रीय और साहित्यिक पृष्ठभूमि की दृष्टि से विशेष महत्त्व है । ज्ञातव्य है कि महापुराण एवं एलोरा की जैन गुफाएं समकालीन ( ९वीं - १०वीं शती ई० ) और दिगम्बर- परम्परा से सम्बद्ध हैं, जिससे महापुराण की कलापरक सामग्री से एलोरा की जैन गुफाओं की मूर्तियों की दृष्टि से तुलना का महत्त्व और भी बढ़ जाता है ।" जैन पुराणों में महापुराण सर्वाधिक लोकप्रिय था जो आदिपुराण और उत्तरपुराण इन दो खण्डों में विभक्त है । आदिपुराण की रचना जिनसेन ने लगभग नवीं शती ई० के मध्य और उत्तरपुराण की रचना उनके शिष्य गुणभद्र ने नवीं शती ई० के अंत या दसवीं शती ई० के प्रारम्भ में की थी । कलापरक अध्ययन की दृष्टि से आदिपुराण एवं उत्तरपुराण अर्थात् महापुराण ( दिगम्बर - परम्परा ) की सामग्री का विशेष महत्त्व है क्योंकि उनका रचनाकाल ( ९वीं - १०वीं शती ई०) तीर्थकरों सहित अन्य शलाकापुरुषों (जैन देवकुल के २४ तीर्थंकरों तथा १२ चक्रवर्ती, ९ ९ नारायण और ९ प्रतिनारायण सहित कुल तिरसठ ) तथा जैन देवों के स्वरूप या लक्षण निर्धारण का काल था । इन ग्रन्थों की रचना के बाद ही श्वेताम्बर और दिगम्बर- परम्परा में विभिन्न शिल्पशास्त्रीय ग्रन्थों की रचना हुई, जिनमें जैन आराध्यदेवों के प्रतिमालक्षण का विस्तारपूर्वक निरूपण किया गया । एलोरा में २३ वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ और गहन साधना के प्रतीक ऋषभनाथ के पुत्र बाहुबली की सर्वाधिक मूर्तियां उकेरी गईं हैं। एलोरा की बाहुबली मूर्तियों में उनके शरीर से लिपटी
बलभद्र,
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माधवी एवं सर्प, वृश्चिक, छिपकली तथा मृग जैसे जीव-जन्तुओं का शरीर पर या समीप ही विचरण करते हुए और पार्श्वनाथ की मूर्तियों में शंबर (कमठ या मेघमाली) के विस्तृत उपसर्गों के अंकन स्पष्टतः महापुराण के विवरणों से निर्दिष्ट
महापुराण में २४ तीर्थंकरों में ऋषभनाथ को सर्वाधिक महत्त्व दिया गया, जिनके बाद पार्श्वनाथ और तत्पश्चात् नेमिनाथ और महावीर का विस्तारपूर्वक उल्लेख हुआ है। अन्य तीर्थंकरों की चर्चा संक्षेप में की गयी है। तीर्थंकरों के सन्दर्भ में मुख्यतः पंचकल्याणकों (च्यवन, जन्म दीक्षा, कैवल्य और निर्वाण) एवं ऋषभनाथ, पार्श्वनाथ, नेमिनाथ और महावीर के सन्दर्भ में उनके जीवन की कुछ विशिष्ट घटनाओं का भी विस्तारपूर्वक उल्लेख हुआ है।
उत्तरभारत में ऋषभनाथ की सर्वाधिक स्वतंत्र मूर्तियां बनीं। ऋषभनाथ के बाद क्रमशः पार्श्वनाथ, महावीर और नेमिनाथ की मूर्तियां उकेरी गयीं किंतु दक्षिण भारत में पार्श्वनाथ की सर्वाधिक मूर्तियां उत्कीर्ण की गयीं। एलोरा जैसे पुरास्थल में पार्श्वनाथ की कुल ३१ मूर्तियां मिली हैं, जिनमें ९ ध्यानमुद्रा में शेष कायोत्सर्ग मुद्रा में हैं ।१ दक्षिणभारत में पार्श्वनाथ की तुलना में ऋषभनाथ की मूर्तियां नगण्य हैं। ऋषभनाथ से संबंधित, स्वतंत्र आदिपुराण की रचना की पृष्ठभूमि में एलोरा में ऋषभनाथ की केवल पांच मूर्तियों का मिलना सर्वथा आश्चर्यजनक है। दूसरी ओर पार्श्वनाथ की एलोरा में ३० से अधिक स्वतंत्र मूर्तियां देखी जा सकती हैं।१२ एलोरा की गुफा ३३ की पार्श्वनाथ की मूर्ति (११वीं शती ई०) में बायीं ओर मेघमाली के उपसर्ग भी चित्रित हैं । दाहिने पार्श्व में छत्रधारिणी पद्मावती है । १३
एलोरा में पार्श्वनाथ के बाद महावीर की ही सर्वाधिक मूर्तियां हैं, जिनके कुल १२ उदाहरण मिले हैं। एलोरा की जैन गुफाओं (३०,३१,३२,३३,३४) में भी महावीर की कई मूर्तियां (९वीं-११वीं शती ई०) हैं। इनमें महावीर ध्यानमुद्रा में विराजमान हैं और उनके यक्ष-यक्षी के रूप में गजारूढ़ सर्वानुभूति एवं सिंहवाहना अम्बिका निरूपित है। पार्श्वनाथ, महावीर और ऋषभनाथ के अतिरिक्त अजितनाथ, सुपार्श्वनाथ और नेमिनाथ की भी एक से तीन मूर्तियां देखी जा सकती हैं। एलोरा की तीर्थंकर मूर्तियो में केवल पार्श्वनाथ के साथ शंबर द्वारा उपस्थित किये गये विभिन्न उपसर्गों का विस्तृत अंकन मिलता है। महावीर के साथ पारम्परिक यक्ष-यक्षी मातंग व सिद्धायिका के स्थान पर नेमिनाथ के यक्ष-यक्षी कुबेर (या सर्वानुभूति) और अंबिका निरूपित हैं, जो स्पष्टतः पश्चिम भारत के श्वेताम्बर मूर्ति परम्परा का प्रभाव है जहां लगभग सभी तीर्थंकरों के साथ यक्ष-यक्षों के रूप में कुबेर और अंबिका ही आमूर्तित हैं।५
एलोरा एवं ९वीं-१०वीं शती ई० की दिगम्बर-परम्परा की अन्यत्र की तीथंकर मूर्तियों में महापुराण के उल्लेख के अनुरूप सिंहासन, प्रभामण्डल, त्रिछत्र, चैत्यवृक्ष (या अशोकवृक्ष), देवदुन्दुभि, सुरपुष्पवृष्टि, दिव्यध्वनि, चामरधारी सेवक जैसे अष्ट प्रातिहार्यों को दिखाया गया है। आदिपुराण में तीर्थंकर मूर्तियों में दिखाये जाने वाले अष्ट-प्रातिहार्यों का सर्वाधिक विस्तारपूर्वक उल्लेख हुआ है। एलोरा की पार्श्वनाथ
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की कायोत्सर्ग मूर्तियों में किसी प्रातिहार्य का न दिखाया जाना शिल्पी की सूझ का सूचक एवं उत्तरपुराण के विवरणों के सर्वथा अनुरूप हैं। दूसरी ओर पार्श्वनाथ की ध्यानस्थ मूर्तियों में प्रातिहार्यों का अंकन मिलता है क्योंकि ध्यानस्थ मूर्तियां उनके तीर्थकर पद प्राप्त करने के उपरान्त की स्थिति को अभिव्यक्त करती हैं। एलोरा की कायोत्सर्ग मूर्तियों में पार्श्वनाथ की तपस्या में उपस्थित किये गये तरह-तरह के उपसों का प्रसंग दिखाया गया है। ये उपसर्ग स्पष्टत: कैवल्य प्राप्ति के पूर्व की स्थिति का अंकन हैं। इसी कारण पार्श्वनाथ की उपसर्ग मूर्तियों में अष्टप्रातिहार्यों को नहीं दिखाया गया है। इस संदर्भ में एक और उल्लेखनीय बात एलोरा की जैन गुफाओं में पाश्वनाथ की उपसर्ग मूर्तियों के एक नियत स्थान पर उत्कीर्णन से संबंधित है। पार्श्वनाथ की सभी उपसर्ग मूर्तियां कठिन तपश्चर्या में लीन बाहुबली की मूर्ति के सामने उत्कीर्ण हैं। स्मरणीय है कि पार्श्व जहां शबर के विभिन्न उपसगों को, शांत भाव से विचलित हुए बिना सहते रहे वहीं बाहुबली भी अपनी साधना में इस सीमा तक रमे कि शरीर से लिपटी माधवी और शरीर पर सर्प, वृश्चिक जैसे जन्तुओं की उपस्थिति से वे सर्वथा अप्रभावित और ध्यानमग्न रहे। यहां यह भी उल्लेख्य है कि राष्ट्रकूट शिल्पी ने पार्श्वनाथ की उपसर्ग और बाहुबली की साधनारत मूर्तियों के आमने-सामने उत्कीर्णन की परम्परा को पूर्ववर्ती चालुक्य कला से प्राप्त किया था, जिसके उदाहरण बादामी की गुफा सं० ४ और अयहोल की जेन गुफा (लगभग ६वीं शती ई०) में देखी जा सकते हैं।
एलोरा की जैन गुफाओं में तीन प्रमुख जैन यक्षियों-चक्रेश्वरी, अंबिका एवं पद्मावती तथा कुबेर यक्ष की स्वतंत्र एवं जिन संयुक्त मूर्तियां उत्कीर्ण हैं। चक्रेश्वरी की चार, आठ और बारह हाथों वाली कुल चार मूर्तियां गुफा सं० ३० और ३२ में उकेरी हैं। इनमें परम्परानुरूप गरुड़वाहना चक्रेश्वरी के दो या अधिक हाथों में चक्र तथा शेष में पद्म, गदा और वज्र जैसे आयुध हैं। द्वादशभुज चक्रेश्वरी की एक मूर्ति एलोरा की गुफा-३० में है । गरुड़वाहना चक्रेश्वरी की पांच अवशिष्ट दाहिनी भुजाओं में पद्म, चक्र, शंख एवं गदा है। यक्षी की केवल एक वामभुजा सुरक्षित है, जिसमें खड्ग है।" सर्वाधिक मूर्तियां अम्बिका की बनीं, जिनमें अम्बिका सर्वदा द्विभुजा एवं दिगम्बर-परम्परा के अनुरूप सिंहवाहना हैं, अबिका के एक हाथ में आग्रलुम्बि व दूसरे में पुत्र है। पार्श्वनाथ की पद्मावती यक्षी की केवल एक स्वतंत्र मूर्ति मिली है जो गुफा संख्या ३२ में है। कुक्कुट-सर्प वाहन वाली अष्टभुजा यक्षी के अवशिष्ट करों में पद्म, मूसल, खड्ग, खेटक व धनुष स्पष्ट है। अंविका के समान ही एलोरा में कुबेर या सर्वानुभूति की भी सर्वाधिक मूर्तियां हैं, जिनमें श्वेताम्बर स्थलों की भांति, गजारूढ़ यक्ष को द्विभुज एवं पात्र (या फल) एवं धन के थैले से युक्त दिखाया गया है।
एलोरा में यक्षों, नागों, गंधर्वो, किन्नरों आदि का भी रूपायन हुआ है। एलोरा की जैन गुफाओं में लक्ष्मी और पार्श्वनाथ की मूर्तियों में नागराज धरणेन्द्र के शिल्पांकन के अतिरिक्त इक्षुधनु और पुष्पशर से युक्त कामदेव की भी एक मूर्ति
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मिली है ।
एवं बाहुबली के युद्ध और बाहुबली जो एलोरा की जैन गुफाओं की
सर्प एवं मृग आदि
आदिपुराण में ऋषभनाथ के पुत्रों की कठिन तपश्चर्या का विस्तृत उल्लेख बाहुबली मूर्तियों के निरूपण की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। एलोरा में पार्श्वनाथ के बाद सर्वाधिक स्वतंत्र मूर्तियां (लगभग २० ) बाहुबली की हीं बनीं जिनमें आदिपुराण के विवरण के अनुरूप बाहुबली कायोत्सर्ग में तपश्चर्या में तल्लीन और शरीर से लिपटी लता - वल्लरियों एवं समीप ही निश्चिन्त भाव से विचरण करते वन्य जीव-जन्तुओं की आकृतियों सहित दिखाया गया है, जो बाहुबली की गहन साधना के सूचक हैं | आदिपुराण में समवसरण की परिकल्पना के समान ही गज एवं सिंह तथा मयूर - सर्प जैसे परस्पर शत्रुभाव वाले वन्य जीव-जन्तु को बाहुबली के समीप निश्चिन्त भाव से स्थित बताया गया है । सिंहनी द्वारा महिष के शिशु को अपने शिशु के समान स्तनपान कराने का उल्लेख भी ध्यातव्य है ।" ये संदर्भ साधना और त्यागमय आध्यात्मिक वातावरण में पारस्परिक वैरभाव की समाप्ति और समभाव की स्थिति के सहज वातावरण को उपस्थित करते हैं। आदिपुराण में बाहुबली के पाश्र्व में उनकी बहनों ब्राह्मी एवं सुन्दरी के स्थान पर दो विद्याधरियों का उल्लेख हुआ है, जिन्होंने साधनारत बाहुबली के शरीर से लिपटी माधवी को हटाया था ।" आदिपुराण के उपर्युक्त वर्णन की पृष्ठभूमि में ही एलोरा की बाहुबली मूर्तियों में दोनों पार्श्वो में दो विद्याधरियों को बाहुबली के शरीर से लिपटी लतावल्लरियों को हटाते हुएदिखाया गया है । आदिपुराण की इस परम्परा का पालन देवगढ़, खजुराहो, बिल्हरी तथा कई अन्य दिगम्बर स्थलों की १०वीं से १२वीं शती ई० की बाहुबली मूर्तियों में भी हुआ
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एलोरा की पार्श्वनाथ एवं बाहुबली मूर्तियों में क्रमश: पद्मावती एवं विद्याधरियों के निरूपण में वस्त्राभूषणों एवं केशसज्जा का वैविध्य ध्यातव्य है साथ ही ifant यक्षी, आलिंगनबद्ध स्त्री-पुरुष युगलों एवं चामरधारी सेवकों के अंकन में भी वस्त्राभूषण विविधतापूर्ण और चित्ताकर्षक हैं। एलोरा की जैन गुफा संख्या ३० में शिव की नटेश मूर्तियों के समान कुछ नृत्यरत मूर्तियां भी उकेरी हैं। एक उदाहरण दो पुरुष आकृतियों को शिव आकृति के समान एक पैर उठाकर अत्यन्त गतिशील रूप में नृत्यरत दिखाया गया है। ये नृत्य मुख्यतः विभिन्न अप्सराओं (नर्तकी) एवं इन्द्र द्वारा किये गये थे । जैन पुराणों में शिव के स्थान पर इन्द्र द्वारा विभिन्न नृत्यों का किया जाना ध्यातव्य है । कई नृत्य लोकशैली के नृत्य प्रतीत होते हैं ।
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सन्दर्भ :
१. भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण विभाग के भूतपूर्व महानिदेशक श्री जे० पी० जोशी के समाचार पत्रों में प्रकाशित १२ फरवरी १९९० की सूचना के अनुसार एलोरा में २८ और गुफाओं की खोज की गई है परन्तु १९९३ ई० में एलोरा की यात्रा में मुझे यह ज्ञात हुआ कि वहां पर कुछ अन्य गुफाएं अवश्य हैं, जिनमें सफाई के कार्य चल रहे हैं । अधिकांशतः गुफाओं में महेशमूर्तियां ही हैं । नयी दृष्टि से विचारणीय होगा कि एलोरा में महेश सम्प्रदाय तो विकसित नहीं हो रहा था । १९९४ ई० में पुन: यात्रा करने पर मैंने पाया कि एलोरा में ईसापूर्व दूसरी सदी से पांचवीं सदी ईसवी तक के दो हजार साल पुराने शहर के अवशेष भी हैं।
एक प्राचीन
कला तीर्थं
२. हरिनन्दन ठाकुर, 'चित्रों का भंडार अभी अलभ्य', 'भारत का एलोरा', आज (साप्ताहिक विशेषांक ), ४ सितम्बर, १९६०, पृ० १३, १४ ३. एलोरा गुफाओं के परिचय सूचना पट्ट से उद्धृत; विस्तार के लिए द्रष्टव्य आर० एस० गुप्ते तथा बी० डी० महाजन, अजता, एलोरा एण्ड औरंगाबाद केव्स, बम्बई, १९६२, पृ० २१८-२४
४. मारुतिनन्दन प्रसाद तिवारी,
'इमेजेजेज आव बाहुबली इन एलोरा' एलोरा केव्स स्कल्पचर्स ऐण्ड आर्किटेक्चर, ( रतन परिमू), नई दिल्ली, १९८८ ५. विस्तार के लिए द्रष्टव्य आर० एस० गुप्ते तथा बी० डी० महाजन, पूर्व निर्दिष्ट पृ० २१८-२४; मारुतिनन्दन प्रसाद तिवारी, जैन प्रतिमाविज्ञान, वाराणसी, १९८१, पृ० १३५, १४४, १६२,२३०,२४३
६. आनन्द प्रकाश श्रीवास्तव, एलोरा की ब्राह्मणदेव प्रतिमाएं इलाहाबाद, १८८८,
पृ० ८
७. मारुतिनन्दन प्रसाद तिवारी, जैन प्रतिमा विज्ञान, वाराणसी, १९८१, पृ० १७२,२३०
८. मारुतिनन्दन प्रसाद तिवारी, 'इमेजज आव बाहुबली इन एलोरा', एलोरा केम्सस्कल्पचस ऐण्ड आर्किटेक्चर, ( रतन परिमू), नई दिल्ली, १९८८
९. कुमुदगिरि, जैन महापुराण कलापरक अध्ययन, वाराणसी, १९८५, पृ० २५४
१०. कुमुद गिरि, पूर्वनिर्दिष्ट, पृ० ४
११. मारुतिनन्दन प्रसाद तिवारी,
पार्श्वनाथ इमेजेज इन एलोरा', सेमिनार प्रोसिडिंग, दिल्ली, १९८०, प्रो० के० के० दासगुप्ता केमेमोरेशन वाल्यूम, कल्याण सुमन हेतु प्रकाशनार्थ स्वीकृत
१२. मारुतिनन्दन, 'जैन महापुराण की कलापरक सामग्री', संस्कृति - संधान, खण्ड ६, १९९३, वाराणसी, पृ० ३८,३९
१३. मारुतिनन्दन प्रसाद तिवारी, जैन प्रतिमा विज्ञान, वाराणसी, १९८१, पृ० १३५
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१४. आर०एस० गुप्ते तथा बी०डी० महाजन, पूर्वनिर्दिष्ट, पृ० १२८-२२३ १५. मारुतिनन्दन प्रसाद तिवारी, जैन प्रतिमा विज्ञान, वाराणसी, १९८१,
पृ० १५९ १६. मारुतिनन्दन प्रसाद तिवारी, 'पार्श्वनाथ इमेजेज इन एलोरा', सेमिनार
प्रोसिडिंग, दिल्ली, १९९०, प्रो० के० के० दास गुप्ता केमेमोरेशन वाल्यूम, कल्याणसुमन, हेतु प्रकाशनार्थ स्वीकृत; जैन महापुराण की कला परकसामग्री,
संस्कृति संधान, वाराणसी, खण्ड ६, १९९३, पृ० ४० १७. मारुतिनन्दन प्रसाद तिवारी, जैन प्रतिमा विज्ञान, वाराणसी, १८८१,
पृ० १७ १८. आदिपुरारण, ३६, १६४-१७६ १९. आदिपुराण, ३६, १८२ २०. मारुतिनन्दन प्रसाद तिवारी, ‘इमेजेज आव बाहुबली इन एलोरा', पूर्व
निर्दिष्ट २१. मारुतिनन्दन, 'जैन महापुराण की कलापरक सामग्री', संस्कृति-संधान, खण्ड ६,
१९९३, वाराणसी, पृ० ४४
-डॉ० आनंदप्रकाश श्रीवास्तव कला इतिहास विभाग, कला संकाय काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी-२२१००५
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काव्य के तत्त्व और परिभाषाएं मुनि गुलाबचन्द्र 'निर्मोही'
काव्य क्या है ? इस विषय पर विद्वानों ने भिन्न-भिन्न मत प्रकट किये हैं । आज तक काव्य की कोई एक ऐसी परिभाषा नहीं बन सकी जिसके सम्बन्ध में यह कहा जा सके कि इस परिभाषा के अनन्तर अब और परिभाषाएं नहीं बनाई जाएंगी । काव्य इतनी विशाल और विचित्र वस्तु है कि इसको एक-दो वाक्यों की परिभाषा में बांध देना बहुत कठिन है । काव्य के स्वरूप के सम्बन्ध में भारतीय और पाश्चात्य विद्वानों की कैसी-कैसी धारणाएं हैं इस बात को स्पष्ट करने के लिये नीचे काव्य की कुछ मुख्य-मुख्य परिभाषाएं दी जाती हैं । पहले हम भारतीय विद्वानों के द्वारा दी गई परिभाषाओं का उल्लेख करते हैं ।
" वे शब्द और अर्थ जो दोष रहित हों, माधुर्य आदि गुणों से युक्त हों और जिनमें कहीं-कहीं चाहे अलंकार न भी हों, काव्य कहलाते हैं । '
„१
कहना न होगा कि इस परिभाषा को समझने के लिये होते हैं ? दोष क्या होते हैं ? अलंकार किन्हें कहा जाता है ? चित होना आवश्यक है । इसलिये साधारण व्यक्ति की समझ तरह नहीं आ सकती ।
साहित्य-दर्पण के लेखक आचार्य विश्वनाथ ने काव्य की परिभाषा इस प्रकार
दी है
"जिस वाक्य में पाठक या श्रोता के हृदय में रस-संचार करने की शक्ति हो, उसे काव्य कहा जायेगा ।"
माधुर्य आदि गुण क्या इत्यादि बातों से परिमें यह परिभाषा अच्छी
रस से अभिप्राय है— शृङ्गार, करुण, वीर आदि रस । जिस वाक्य को पढ़कर करुण आदि रस से हमारा हृदय द्रवित हो जाए वह वाक्य काव्य बन जाएगा ।
संस्कृत के एक और प्रसिद्ध आलोचक तथा कवि हैं— पंडितराज जगन्नाथ । उन्होंने काव्य को इस रूप में समझा है-
"वह शब्द काव्य कहलाता है जो रमणीय अर्थ को बतलाने वाला हो ।" रमणीय का अर्थ है हृदय में आनन्द का उदय करने वाला ।
संस्कृत के कुछ साहित्य - शास्त्रियों के अनुसार रस ही काव्य की आत्मा है । उसके अभाव में छन्दोबद्ध कविता भी काव्य नहीं है अथवा एक निकृष्ट श्रेणी
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के काव्य का उदाहरण है। कभी-कभी इस रस शब्द का प्रयोग विषय अथवा अभिव्यक्तिकरण की मधुरता के अर्थ में भी होता है। परन्तु ऊपर मानव-हृदय के जिन भावों को काव्य का वास्तविक स्वरूप माना गया है उनसे हम रस को नितान्त भिन्न भी नहीं मान सकते हैं।
.. पाश्चात्य विद्वानों ने काव्य की निम्नलिखित परिभाषाएं दी हैं-वेबस्टर अपने प्रसिद्ध अंग्रेजी कोष में काव्य की व्याख्या यों करते हैं
"उपयुक्त भाषा में सुन्दर या उच्च विचार, कल्पना और भाव को प्रकट करना काव्य है। भाषा लयात्मक साधारणतया छन्दोबद्ध होनी चाहिये। उसमें यह विशेषता होनी चाहिये कि वह पाठकों के हृदय में भाव और कल्पना का उद्रेक कर सके ।
चेम्बर्स कहते हैं- “मधुर शब्दों में भाव-प्रसूत और कल्पना-प्रसूत विचारों को प्रकट करने की कला को काव्य कहते हैं।"५
___ एच० डल्ब्यू फलर और एफ० जी० फॉलर ने संक्षिप्त आक्सफोर्ड कोष में काव्य की व्याख्या इस प्रकार की है.---
“उत्तम विचार या भाव को छन्दोबद्ध रूप में उत्तम रूप से प्रकट करना काव्य कहलाता है।"
ये तो कोषकारों की परिभाषाएं हुईं। अब कुछ पाश्चात्य कवियों और आलोचकों द्वारा की गई परिभाषाओं का संकेत किया जाता है।
प्रोफेसर शर्य अपने 'आस्पेक्टस आफ पोइट्री' नामक ग्रन्थ में लिखते हैं-सहृदयों में जीवन की झांकी जिन उच्च विचारों और भव्य भावों को जागृत करती है उनको सुन्दर स्वरूप और सरस भाषा में व्यक्त करना ही काव्य है। गद्य या पद्य किसी में भी इसकी रचना हो सकती है। शेली कहते हैं- "कल्पना को प्रकट करना सामान्य रूप से काव्य कहलाता है ।"" शेक्सपियर भी काव्य में शेली को तरह कल्पना की प्रधानता मानते हैं। जॉनसन कहते हैं - "काव्य छन्दोबद्ध रचना है और यह वह कला है जो कल्पना से बुद्धि की सहायता से आनन्द को सत्य से मिलाती है।"
प्रसिद्ध समालोचक ड्राइडन कहते हैं—“आनन्दप्रद रीति से शिक्षा देना काव्य का साधारण उद्देश्य है । दर्शन शास्त्र भी शिक्षा देने का काम करता है। पर वह यह काम उपदेश के बल पर करता है जो प्रिय नहीं लगता।"
प्रसिद्ध कवि वर्डस्वर्थ ने काव्य की परिभाषा यों दी है"काव्य शान्ति के समय में स्मरण किये हुये प्रबल मनोवेगों का स्वच्छन्द प्रवाह
इन परिभाषाओं की सूची में वृद्धि की जा सकती है, पर उससे काव्य की परिभाषा समझने में कोई अतिरिक्त लाभ होगा, ऐसी आशा नहीं है। ऊपर जो परिभाषाएं उद्धृत की गई हैं, उनसे "काव्य क्या है ?" यह चाहे स्पष्ट नहीं हुआ हो, पर यह अवश्य स्पष्ट हो गया कि काव्य को किसी परिभाषा के बन्धन में बांधना बहुत कठिन है। सबने अपने दृष्टिकोण से काव्य के स्वप्न को देखा है। कोषकार,
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कवि और समालोचक काव्य की एक परिभाषा करने में सहमत नहीं हैं। स्वर्गीय द्विजेन्द्रलाल राय ने "काव्य क्या है ?" इसे एक और तरीके से समझाया है । वे कहते हैं कि "काव्य क्या है ?" यह न कहकर "काव्य क्या नहीं है ?" यह कहकर इसका स्वरूप विज्ञान आदि से पृथक् करके कुछ-कुछ समझा जा सकता है।
विज्ञान से काव्य पृथक् है। विज्ञान की भित्ति बुद्धि है और काव्य की भित्ति अनुभूति है। विज्ञान का जन्म-स्थान मस्तिष्क है और काव्य की जन्मभूमि हृदय है। वर्डस्वर्थ की "Poets Epitaph" नामक कविता में इन दो पंक्तियों को
Who would botanise
Over his mather's grave ? १२ उद्धृत करके द्विजेन्द्रलाल ने बताया है कि काव्य के पवित्र राज्य में वैज्ञानिकों के प्रवेश का निषेध है।
कहना न होगा कि काव्य की यह परिभाषा नकारात्मक है। पर यह नकारात्मक व्याख्या इस तथ्य को मानकर की गई है कि काव्य की कोई ऐसी परिभाषा हो ही नहीं सकती जिसमें काव्य के स्वरूप की वास्तविक झलक मिल जाए । किसी महापुरुष का अन्य प्रकरण में कहा हुआ यह वचन-“यदि न पूछो तो मैं जानता हूं, यदि पूछो तो मैं नहीं जानता"-काव्य की परिभाषा के ऊपर भी पूर्ण रूप से घटित होता है । तो फिर काव्य के स्वरूप का हमें परिचय कैसे मिले ? अतः अच्छा होगा कि यदि इन सब परिभाषाओं का समन्वय करके यह देखें कि काव्य की परिभाषा करने वाले भिन्न-भिन्न विचारक किन-किन तत्त्वों को काव्य का घटक अवयव मानते हैं। सब परिभाषाओं का मन्थन करने से चार तत्त्व हमारे हाथ लगते हैं जिनका थोड़े या बहुत अंशों में प्रायः सभी लक्षणकारों ने उल्लेख किया है। वे चार तत्त्व हैं
१. भावतत्त्व, २. कल्पना तत्त्व, ३. बुद्धि तत्त्व और ४. शैली तत्त्व ।
साधारणतया हम कह सकते हैं कि जिस रचना में जीवन की वास्तविकता को छूने वाले तथ्यों, अनुभूतियों, समस्याओं, विचारों आदि का भावना और कल्पना के आधार पर अनुकूल भाषा में सुसंगत रूप से वर्णन किया जाए-वह काव्य है । भाव तत्त्व
ऊपर जो चार तत्त्व बतलाए गए हैं उनमें भाव और कल्पना के तत्त्व को प्रमुखता प्रदान की जाती है । बुद्धि का तत्त्व काव्य में गौण रहता है। वह तो परस्पर विरोधी बातों में केवल संगति बैठाने का कार्य करता है। शंली तत्त्व में भाषा, अलंकार आदि आ जाते हैं। इन चार तत्त्वों में से किसी रचना में किसी तत्त्व की प्रधानता रहती है और किसी में किसी की। उच्चकोटि के काव्य वे माने जाते हैं
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जिनमें भाव तत्त्व का अर्थात् अनुभूतियों का वर्णन रहता है और दूसरे तस्व सहायक बनकर भावतत्त्व का साथ देते हैं। इस तथ्य को स्पष्ट करने के लिये महाकवि कालिदास की रचना से एक उदाहरण प्रस्तुत किया जा सकता है। शकुन्तला ससुराल जाते समय अपने शोक-विह्वल पिता कण्व को प्रणाम करती हुई कहती है-"पिताजी ! तपस्या से आपका शरीर पहले ही कृश हो रहा है, अब मेरे लिये शोक न करें।" पिता उत्तर में कहते हैं --"बेटी ! कुटिया के द्वार पर खड़ी होकर तुम पक्षियों के लिये जो धान फेंकती रही हो, उनमें से कुछ धान जब अंकुरित हो उठेंगे और मैं उनको देखा करूंगा तब मेरा यह शोक किस प्रकार दूर हो सकेगा ?"
कन्या को पहले पहल ससुराल भेजते समय माता-पिता की जो दशा हुआ करती है, कण्व की यह उक्ति उसी दशा की अनुभूति कराती है। विवाह के बाद पहली बार कन्या के ससुराल चले जाने पर उसके हाथ से काढ़े हुए चौकी पर बिछे कढ़ाईपोश या मेज़ पर बिछे मेजपोश जिस प्रकार बार-बार उसकी कुछ दिनों तक याद दिलाते हैं उसी प्रकार शकुन्तला के हाथ से छितराए हुए धानों में से कोई-कोई धान अंकुरित होकर संसार की ममता से दूर तपस्वी कण्व को भी बेटी के वियोग में शोकाकुल करेंगे। कौन माता-पिता ऐसे हैं जिनकी अनुभूति कण्व की इस अनुभूति से नहीं मिलती ? काव्य वही है जिसमें हृदय को छू लेने वाली बात कही गई हो।
___यहां एक बात और समझने की है कि अनुभूति या भाव उदात्त हो। मानव को ऊंचा उठाने वाले हों। काव्य उस चीज को नहीं छूता जो कुत्सित है। काव्य का उद्देश्य मानव को पशुत्व से ऊपर उठाना है। इसीलिये महाकवियों ने आहार और शारीरिक क्रियाओं का वर्णन अपने काव्य में नहीं के बराबर किया है। पाशविक प्रवृत्तियों वाले लोग जिन बातों को बहुत रस ले-लेकर सुनते और सुनाते हैं, कवि लोग उन्हें छोड़कर आगे बढ़ जाते हैं। एक लेखक का कहना है कि विषय-वासना की तृप्ति करने में ही आनन्द होता तो मनुष्य की अपेक्षा पशु अधिक सुखी होते पर असल बात यह है कि मनुष्य का आनन्द उसकी आत्मा में निहित है, मांस में नहीं। आदमी का ध्यान यदि सारे दिन मांसल प्रसन्नता की प्राप्ति के उपायों में ही लगा रहेगा तो वह संसार में रहने के अयोग्य हो जाएगा। किसी भी ललित कला का यह उद्देश्य नहीं कि वह जीवन की कुत्सितता को लेकर आगे बढ़ें। जो भव्य है, सुन्दर है, मीठी अनुभूतियों का संचार करने वाला है, उसी का वर्णन करना काव्यकला, चित्रकला आदि कलाओं का ध्येय है । इसका अर्थ यह नहीं कि शृंगार रस का वर्णन त्याज्य है । अपनी सीमा में रहने वाला शृंगार रस काव्योपयुक्त बन सकता है। वह विष तभी बनता है जब अपनी सीमा का अतिक्रमण कर दे। कल्पना-तत्त्व
कल्पना का अर्थ है अनुभूति के प्रकाशन में सहायता देना। कभी-कभी कवि कल्पना को इतनी अधिक प्रधानता दे देता है कि भाव गौण हो जाता है। ऐसी कल्पना हृदय में रस संचार नहीं करती । संस्कृत के एक कवि ने किसी राजा के यश का वर्णन
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करते हुए कहा-"राजन् ! आपके यश की धवलिमा को चारों तरफ फैलता देखकर मुझे आशंका हो गई कि इस धवलता से कहीं मेरी प्रियतमा के बाल भी धवल (सफेद) न हो जाएं। इसमें कल्पना को इतना तान दिया गया है कि हंसी आने के अतिरिक्त राजा के पौरुष के सम्बन्ध में हृदय में किसी प्रकार के भाव की उत्पत्ति नहीं होती। यहां कल्पना भाव को सहरा देने नहीं आई, बल्कि अपना ही खिलवाड़ दिखाने आई है। जिस प्रकार घोड़ा सवार को फेंककर कभी-कभी अकेला ही दौड़ता चला जाता है, उसी प्रकार ऊपर के उदाहरण में भी कल्पना भाव को फेंककर आगे निकल गई है। इस प्रकार की कल्पना को "कहा" कहा जाता है। ऊहात्मक काव्य में वह शक्ति नहीं होती जो हृदय में किसी प्रकार की हिलोर पैदा कर सके। बुद्धि-तत्त्व
___ काव्य में बुद्धि-तत्त्व कल्पना की तरह भाव को सहारा देने के लिये गौण रूप से रहता है। उसका प्रयोग स्वतंत्र रूप से काव्य में नहीं किया जाता। दर्शनशास्त्र में तर्क या बुद्धि के आधार पर बाल की खाल निकाली जाती है किन्तु काव्य में तो कई बार बुद्धि की अवहेलना कर दी जाती है। इसीलिये 'सेक्शपीयर' ने कवि और उन्मत्त को एक कोटि में रखा है । जो लोग तार्किक हैं, उन्हें प्रायः काव्य पसन्द नहीं आता क्योंकि काव्य में हृदय पक्ष की ही प्रधानता रहती है न कि मस्तिष्क पक्ष की। कोई भी महाकवि बुद्धिमत्ता का चमत्कार दिखाने के लिये काव्य लिखने में प्रवृत्त नहीं होता पर इसका यह अर्थ नहीं कि काव्य में बुद्धि तत्त्व का प्रवेश ही निषिद्ध है। भावों के प्रकाशन में कभी-कभी असंगति रह जाती है। कवि को सदा इस बात का ध्यान रहता है कि मैं कोई ऐसी बात न कह दूं जिसे पढ़ या सुनकर लोग कहें-"यह कैसे हो सकता है ?" इस विचार से वह अपनी बात को इस ढंग से कहता है जिससे उसकी बात बुद्धिसंगत हो जाए । बुद्धि का काव्य में इतना ही स्थान है । इस तथ्य को अधिक स्पष्ट करने के लिये यहां एक उदाहरण प्रस्तुत किया जाता है। कालिदास के 'मेघदूत' काव्य में एक विरही यक्ष मेघ के द्वारा अपनी प्रियतमा को संदेश भेजता है । संदेश में वह मेघ से अपने विरह की बहुत-सी बातें कहता है। सारा 'मेघदूत' काव्य विरहजन्य पीड़ा की मधुर अनुभूतियों से भरा पड़ा है। काव्य के अन्त में प्रश्न पैदा होता है कि यक्ष के संदेश के उत्तर में मेघ ने क्या कहा ? जिसे संदेश ले जाने के लिये कहा जाये, वह हां या ना कुछ तो कहता ही है। अब यदि कालिदास मेघ से कुछ उत्तर दिलवाते हैं तो बुद्धि आपत्ति करती है। मेघ कैसे बोल सकता है ? विरह में व्याकुल हुआ मनुष्य तो चाहे जिस किसी जड़ या चेतन को ज्ञानवान प्राणी की तरह सम्बोधित कर सकता है, पर जड़ वस्तु उत्तर कैसे दे सकती है ? सीता के चुराये जाने पर राम खगों, मृगों, मधुकरों आदि से सीता का पता पूछते फिरते हैं, उसी तरह यक्ष भी मेघ से पूछ सकता है, पर मेघ उत्तर कैसे दे सकता है ? इस कठिनाई को दूर करने के लिये कालिदास बुद्धि का सहारा लेते हैं। वे यक्ष से ही मेघों को कहलवा देते हैं-हे मेघ ! तुम प्रार्थना करने पर चातकों को बिना शब्द किये ही-बिना बोले ही हां या ना कहे बिना ही-जल दे दिया करते हो, क्योंकि किसी काम को खण्ड २२, अंक ४
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करके दिखा देना ही सज्जन लोगों का उत्तर हुआ करता है, शब्द से वे उत्तर नहीं दिया करते । इसलिये मैं तुम्हारे चुप रहने से यह नहीं समझता कि तुम मेरे संदेश को ले जाने में अस्वीकृति दिखा रहे हो । १७
कालिदास ने कितने चातुर्य से अपनी बात को बुद्धिसंगत से कुछ बुलवाया भी नहीं और अपनी बात भी नहीं बिगड़ने दी । का यही उपयोग है ।
शैली तत्त्व
काव्य का चौथा तत्त्व शैली है । शैली में वे सब बातें आ जाती हैं जो किसी भावाभिव्यक्ति के लिये आवश्यक होती हैं । हम अपने भावों को भाषा के द्वारा व्यक्त करते हैं, इसलिये शैली में मुख्य बात भाषा की रहती है । अलंकार भी शैली के अन्तर्गत ही है। विचार या भाव काव्य की आत्मा है और भाषा उसका शरीर है । भाषा भाव को मूर्तिमान करती है अतः भाषा और भाव का परस्पर गहन सम्बन्ध है । शृंगार रस के वर्णन में भाषा में कोमलता रहती है और वीर रस के वर्णन में उसमें कठोरता (समस्त तथा द्वित्व पदावली ) आ जाती है । भाव तभी जागृत होते हैं जब उनके अनुकूल भाषा का प्रयोग किया जाता है । बड़े-बड़े कवियों की भाषा में यही गुण विद्यमान रहता है। वे जानते हैं कि किस शब्द का प्रयोग किस स्थान पर करना है । यदि कोई कृष्ण-भक्त मनुष्य किसी दुर्धर्ष अत्याचारी के हाथ से छुटकारा पाना चाहता है तो उसके लिये " हे गोपिकारमण ! हे वृन्दावन बिहारी !!" आदि कहकर पुकारने की अपेक्षा " हे मुरारि ! हे कंस निकन्दन !!" आदि सम्बोधनों से • पुकारना अधिक उपयुक्त होता है । क्योंकि कृष्ण के द्वारा कंस आदि का मारा जाना देखकर उसे अपनी रक्षा की आशा होती है न कि उनका वृन्दावन में गोपियों के साथ विहार करना देखकर । महाकवि जब वर्षा की नन्हीं-नन्हीं बूंदों के बरसने का वर्णन करते हैं तो उनकी पदावली से ध्वनित होने लगता है मानो सचमुच वर्षा की बूंदें पड़ने का धीमा-धीमा शब्द हो रहा है । जब मूसलाधार वर्षा के पड़ने का वर्णन करते हैं तब भाषा बदल जाती है। जहां पर एक क्षुद्र नदी का वर्णन करना है, वहां मृदुध्वनि शब्दों का प्रयोग करना चाहिये । किन्तु जहां समुद्र का वर्णन करना है वहां भाषा में भी मेघ गर्जन चाहिये । अंग्रेजी के कवि पोप ने अपने समालोचना विषयक निबन्ध (Essay on Criticism) में लिखा है कि कविता में इतना ही पर्याप्त नहीं कि किसी प्रकार के कर्णकटु शब्दों का प्रयोग किया जाये, प्रत्युत यह आवश्यक हैं कि ऐसे शब्दों का प्रयोग किया जाये जिनके उच्चारण मात्र से अर्थ ध्वनित हो जाए ।
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बना दिया । मेघ काव्य में बुद्धितत्त्व
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संदर्भ सूची १. तददोषौ शब्दार्थी सगुणावनलंकृती पुनः क्वापि ।
--काव्यप्रकाश २. वाक्यं रसात्मकं काव्यम् ।
___ --साहित्यदर्पण ३. रमणीयार्थप्रतिपादकः शब्द: काव्यम् ।
-रसगंगाधर 8. A type of discourse which achieves its effects by rhythm, sound
patterns and imagery. Most characteristically, the poetic form evokes emotions or sensations, but it may also serve to convay
loftiness of tone or to lend force to ideas. 4. Poetry is the art of expressing in melodious words the thoughts
which are the creations of feeling and imagination $. Elevated expression of e'eveted thoughts or feelings in metrical
form. 1. Poetry in general sense may be defind as the expression of the imagimation.
हडसन-An introduction of the study of literature---page 64 5. the lovatic, the lover and the poet, are of imagination all ___compect (Shekspear). & Poetry is metrical composition. It is the art of writing pleasure with truth by colling imagination to the help of reason.
THA- An introduction to the study of literature-page 64 १०. To instruct delightfully is the general and of all poetry.
Philosophy instructs but it performs its work by precepts, which is not delightful,
(समीक्षाशास्त्र पृष्ठ ६२ से उद्धृत) ११. 'काव्य के रूप में'-पृ. १९ १२. अपनी मां की समाधि पर बैठकर वनस्पति शास्त्र का कौन अध्ययन करेगा ? १३. If not asked I know, if you do I know not. हडसन-An intro
duction to the study of literature---page 63 १४. अपयास्यति मे शोकः कथं नु वत्से त्वयाचरितपूर्वम् । उटजद्वारविरूढं नीवारवलिं विलोकयतः ।।
-[अभिज्ञानशाकुन्तलम् ४२३] १५. साहित्य मीमांसा, पृ० ८८ पर उद्धृत । १६. वर्षाकाल में मेघ बिना गरजे ही बरसा करता है
गर्जति शरदि, न वर्षति, बर्षति वर्षासु निः स्वनो मेघः । नीचो वदति न कुरुते न वदति सुजनः करोत्येव ।।
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१७. कालिदास का श्लोक यह है
कच्चित्सौम्य व्यवसितमिदं बन्धुकृत्यं त्वया मे । प्रत्यादेशान्न खलु भवतो धीरतां कल्पयामि ॥ निः शब्दोऽपि प्रदिशसि जलं याचितश्चातकेभ्यः । प्रत्युक्तं हि प्रणयिषु सतामीप्सितार्थक्रियेव ॥
-उत्तरमेघ:-५४ -(मुनि गुलाबचन्द्र निर्मोही')
अग्रगण्य मुनि श्री श्वेताम्बर जैन तेरापंथ महासंघ
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उपमा-अलंकार के स्वरूप-लक्षण
कुमारी सुनीता जोशी
प्रस्फुट और सुन्दर साम्य को उपमा कहते हैं । इस अलंकार के चार अङ्ग होते हैं
१. उपमेय-वर्ण्य विषय को उपमेय कहा जाता है ।
२. उपमान-वर्ण्य विषय की जिस अप्रस्तुत वस्तु से समानता दिखायी जाती है उसे उपमान कहते हैं।
३. साधारण धर्म-उपमेय एवं उपमान दोनों में रहने वाली विशेषता को साधारण धर्म कहते हैं।
४. उपमावाचक-शब्द जिनसे उपमेय की उपमा, उपमान से दी जाती है यथा-इव, सदृश, यथा, तुल्य इत्यादि ।
लक्षण में 'प्रस्फुट' पद इसलिए रखा गया है जिससे गम्य साम्य वाले रूपक आदि अलङ्कारों से उपमा का भेद हो सके। 'सुन्दर' पद से तात्पर्य है--चमत्कार को उत्पन्न करने वाला । 'गौरिव गवयः' (गो के समान नील गाय है) इस वाक्य में कोई चमत्कार नहीं है इसलिए यहां पर उपमा नहीं हो सकती। 'साम्य' का तात्पर्य है-- समानता। यह समानता तीन प्रकार की होती है-१. क्रियागत, २. गुणगत, ३. उभयपत। काव्यशास्त्रियों द्वारा प्रस्तुत स्वरूप १. भरत
'नाट्यशास्त्र' के सोलहवें अध्याय में भरत मुनि ने अलङ्गारों का विवेचन प्रस्तुत किया है जिसमें सर्वप्रथम उपमा, दीपक, यमक और रूपक इन चार अलङ्कारों का प्रतिपादन है। उपमा अलङ्कार को उन्होंने सर्वप्रथम स्थान देते हुए उसे समस्त अलङ्कारों का मूल माना है । उन्होंने उपमा को परिभाषित करते हुए कहा है-'जहां काव्य रचना में सादृश्य के आधार पर एक वस्तु की उपमा दूसरी वस्तु से दी जाती है वहां उपमा अलङ्कार होता है । वह उपमा गुण और आकृति पर आश्रित होती है।' भरत ने 'उपमेय' अथवा 'उपमान' की एकता अथवा अनेकता के अनुसार उपमा की चार स्थितियों का वर्णन किया है । एक से एक की, अनेक से एक की, एक से अनेक की एवं अनेक से अनेक की उपमा दी जाती है। इस परिभाषा में यास्क द्वारा निर्दिष्ट और गार्ग्य कृत उपमा लक्षण का प्रभाव होने से किञ्चित् नवीनता द्रष्टव्य है। बण्ड २२, बंक ४
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२. भामह
भरत के पश्चात् भामह ने अलङ्कारों का काव्यशास्त्रीय ढंग से विवेचन किया है । उन्होंने चालीस अलङ्कारों का निरूपण किया है। उनकी परिभाषा में कहा गया है'जहां देशकाल, क्रिया आदि की दृष्टि से विरुद्ध उपमान के साथ उपमेय की गुणविशेष के कारण समानता दिखायी जाय वहां उपमालंकार होता है ।" उनके अनुसार किसी भी वस्तु का दूसरी वस्तु के साथ साम्य कवि कल्पित ही हुआ करता है; वास्तविक नहीं । उन्होंने कहा कि किसी भी वस्तु या पदार्थ का सभी के साथ सादृश्य असम्भव है, इसलिए किञ्चित् साम्य होने पर भी उपमा की स्थिति को स्वीकार करना चाहिए ।
३. दण्डी
भामह के पश्चात् दूसरे प्रसिद्ध आचार्य में काव्यालङ्कारों का विशद् विवेचन किया है । सम्प्रदाय का समर्थक है तथापि उसमें गुण और है । दण्डी ने उपमा का लक्षण करते हुए लिखा है-जहां दो वस्तुओं में अर्थात् उपमान और उपमेय में किसी भी रूप में कुछ समानता का भाव प्रकट होता हो तो वहां उपमालङ्कार होता है । उनके अनुसार उपमान और उपमेय में साम्य की प्रतीति ही उपमा है ।
दण्डी हैं । दण्डी ने 'काव्यादर्श' यथापि 'काव्यादर्श' अंशतः रीति अलङ्कारों का निरूपण किया गया
आचार्य भरत ने उपमा की परिभाषा में 'यत् किञ्चित्' शब्द का प्रयोग किया था साथ ही किञ्चित् सदृशी उपमा की सत्ता स्वीकार की थी । दण्डी की उपमाधारणा भी भरत की 'उपमा' से ही अनुप्राणित प्रतीत होती है ।
४. उद्भट
अलङ्कार शास्त्र की परम्परा में दण्डी के पश्चात् उद्भट को महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है । उद्भट ने अपने काव्यालङ्कार सारसंग्रह' में अपने पूर्ववर्ती आचार्यों के कुछ अलङ्कारों का परिष्कृत रूप में विस्तार पूर्वक विवेचन किया है तथा कुछ- अलङ्कारों के नवीन लक्षण प्रस्तुत किये हैं ।
उद्भट ने उपमान और उपमेय के मनोहरी साधर्म्य को उपमा कहा । भामह ने जहां उपमान और उपमेय का साम्य, उपमा का लक्षण माना था वहां उद्भट ने 'साधर्म्य' शब्द का प्रयोग किया। भरत ने इसके स्थान पर 'सादृश्य' शब्द का प्रयोग किया था । उद्भट ने साधर्म्य के साथ ही 'चेतोहारी' विशेषण का प्रयोग भी
किया है ।
५. वामन
आचार्य वामन उद्भट के समकालीन आचार्य हैं । सूत्र शैली में लिखा गया ग्रन्थ है । उन्होंने इस ग्रन्थ में अलङ्कारों का महत्त्व स्वीकार किया है जिनके मूल में अलंकारों को उपमा प्रपञ्च सिद्ध करना चाहते हैं ।
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इनका 'काव्यालङ्कारसूत्र' (अर्थालङ्कारों में ) उन्हीं सादृश्य हो । वामन सभी उन्होंने उपमा-लक्षण प्रस्तुत
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करते हुए लिखा है कि उपमान के साथ उपमेय के गुण का साम्य प्रतिपादित करना ही उपमालङ्कार है।' वामन ने अपने ग्रन्थ के द्वितीय अध्याय में उपमा को मूल अलङ्कार मानते हुए समस्त अर्थालङ्कारों को उपमा के ही अन्तर्गत स्वीकार किया है। ६. रुद्रट
आचार्य रुद्रट का 'काव्यालङ्कार' काव्यशास्त्र का अत्यन्त प्रौढ़ एवं सशक्त ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ में उन्होंने अर्थालङ्कारों को वास्तव, औपम्य अतिशय तथा श्लेष चार वर्गों में विभाजित कर उपमालङ्कार को औपम्य वर्ग का अलंकार माना है। उपमालङ्कार का लक्षण रुद्रट ने अपने पूर्वाचार्यों की भांति ही प्रस्तुत किया है। उनके अनुसार उपमान और उपमेय दोनों में समान 'गुण' अथवा साधारण धर्म का सद्भाव होना ही उपमालङ्कार है ।" उन्होंने साधारण धर्म के सद्भाव को उपमा का आवश्यक अंग माना है। ७. कुन्तक
आचार्य कुन्तक भारतीय काव्यशास्त्र में वक्रोक्ति प्रस्थान के प्रवर्तक माने जाते हैं। अलङ्कारवादी न होने पर भी उन्होंने अलङ्कारों का विस्तृत विवेचन किया है, आचार्य कुन्तक ने उपमा अलंकार का लक्षण इस प्रकार प्रस्तुत किया है
___ 'वर्ण्य वस्तु के स्वभाव की मनोहारिता की सिद्धि के लिए उत्कृष्ट मनोहरता वाली किसी भी वस्तु के साथ उसकी तुलना करना ही उपमालङ्कार है। इससे स्पष्ट होता है कि उनके अनुसार उपमा की सार्थकता वर्ण्य के सौन्दर्य आदि के प्रभाव की वृद्धि में है। ८. भोजराज
भोजराज की साहित्यिक क्षेत्र में 'सरस्वती-कंठाभरण' तथा 'शृंगारप्रकाश' नामक ये दो विशालकाय कृतियां उपलब्ध हैं। उन्होंने अलङ्कारों के शब्दगत, अर्थगत तथा उभयगत तीन वर्ग स्वीकार कर उपमा अलङ्कार को उभयालङ्कार माना है । उपमालङ्कार के स्वरूप के सम्बन्ध में उन्होंने पूर्ववर्ती आचार्यों की उपमा-धारणा को ही स्वीकार किया है। भोजराज ने दो पदार्थों के बीच अवयव सामान्य को उपमा में आवश्यक माना है । उसकी उपमा का स्वरूप 'अग्निपुराण' की उपमा के स्वरूप से मिलता है। ९. अग्निपुराणकार
अग्निपुराण को भारतीय विद्या का विश्वकोश माना जाता है। अग्निपुराण के ३४४ वें अध्याय में अर्थालङ्कारों का निरूपण इस प्रकार किया गया है
स्वरूपमथ सादृश्यमुत्प्रेक्षातिशयावपि ।
विभावना विरोधश्चहेतुश्च सममष्टधा ।। - इसमें अर्थालङ्कारों का महत्त्व बतलाते हुए अलङ्कारहीन काव्य को विधवा के सदृश कहा गया है।" अग्निपुराण में उपमा का लक्षण इस प्रकार दिया है-- वण २२, बंक ४
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'लोक में किञ्चित् सारूप्य के आधार पर एक वस्तु की दूसरी वस्तु के साथ तुलना करना ही उपमालङ्कार है।" दण्डी के सादृश्य के स्थान पर अग्निपुराण में 'सारूप्य' शब्द प्रयुक्त हुआ है। इस प्रकार दो वस्तुओं में रूपगत समानता 'अग्निपुराण' में आवश्यक मानी गयी है। १०. मम्मट
आचार्य मम्मट संस्कृत काव्यशास्त्र के गौरवपूर्ण स्तम्भ हैं। उनके ग्रन्थ 'काव्यप्रकाश' का अलङ्कार साहित्य में विशिष्ट स्थान है। मम्मट ने काव्यप्रकाश के दसवें उल्लास में अर्थालङ्कारों का विवेचन किया है। सर्वप्रथम उपमालङ्कार का लक्षण बताते हुए उन्होंने लिखा है कि 'उपमान तथा उपमेय का भेद होने पर उपमान और उपमेय दोनों के गुण, क्रिया आदि धर्म की समानता का वर्णन उपमालङ्कार
मम्मट के अनुसार उपमा में अन्य अलङ्कारों की अपेक्षा अधिक सुकुमारता है और यह रूपक, उत्प्रेक्षा इत्यादि साधर्म्य मूलक अलंकारों का मूल है। इस प्रकार उपमान तथा उपमेय का समान धर्म के साथ सम्बन्ध वर्णन ही उपमालङ्कार है। यद्यपि उपमा की परिभाषा में उपमान और उपमेय का ग्रहण नहीं है तथापि 'साधर्म्य' शब्द के द्वारा उनका आक्षेप हो जाता है। काव्यप्रकाश के अनेक टीकाकार इस 'साधर्म्य' को सादृश्य से भिन्न मानते हैं। मम्मट के अनुसार जहां भिन्न-भिन्न उपमान और उपमेय के साधर्म्य का चमत्कारजन्य वर्णन होता है वहां उपमालङ्कार माना जाता है । ११. राजानक रूय्यक
आचार्य मम्मट के पश्चात् राजानक रूय्यक का 'अलङ्कारसर्वस्व' नामक ग्रन्थ उपलब्ध होता है। यह अलङ्कारशास्त्र पर लिखित एक प्रामाणिक ग्रंथ है जिसमें अलङ्कारों का प्रौढ़ एवं वैज्ञानिक विवेचन है। रूय्यक ने 'अलङ्कारसर्वस्व' में ७५ अर्थालङ्कारों का वर्णन किया है जिसमें सर्वप्रथम उपमा को परिभाषित करते हुए लिखा है-'उपमान और उपमेय का समानधर्म के साथ इस प्रकार से संबंध होना जिसमें भेद और अभेद में साम्य हो उपमालङ्कार कहलाता है ।" रुय्यक ने इसे स्पष्ट करते हुए लिखा है कि साधर्म्य में तीन भेद होते हैं-पहला वह जिसमें भेद प्रधान होता है जैसे-व्यतिरेक आदि में। दूसरा वह जिसमें अभेद प्रधान होता है जैसेरूपक आदि में। तीसरा वह जिसमें भेद और अभेद दोनों ही समान होते हैं जैसे-उपमा में। रुय्यक भी उपमा को समस्त अर्थालङ्कारों का मूल स्वीकार करते हैं। १२. जयदेव
जयदेव ने 'चन्द्रालोक' नामक अत्यंत लोकप्रिय तथा महत्त्वपूर्ण काव्यशास्त्रीय ग्रंथ की रचना की। यह ग्रंथ दस मयूखों में विभक्त है। इसके पांचवें मयूख में इन्होंने अलङ्कारों का विस्तृत निरूपण करते हुए उपमा को इस प्रकार परिभाषित किया
__ तुलसी प्रज्ञा
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है-- 'जहां उपमान और उपमेय की समान शोभा प्रकाशित हो वहां उपमालद्वार होता है। उनके इसी ग्रंथ 'चन्द्रालोक' के अलङ्कारविषयक पञ्चम मयूख को अप्पय्यदीक्षित ने कुछ परिवर्धित करके 'कुवलयानन्द' नामक ग्रन्थ की रचना की है। १३. विद्यानाथ
जयदेव के पश्चात् विद्यानाथ प्रणीत 'प्रतापरुद्रयशोभूषण' नामक ग्रंथ उपलब्ध होता है । अलङ्कारों के वर्णन में यद्यपि उन्होंने रूय्यक का अनुसरण किया है तथापि काव्यप्रकाशकार भी उनका आदर्श रहा लगता है। उन्होंने उपमालङ्कार को परिभाषित करते हुए लिखा है- 'जहां स्वतःसिद्ध अर्थात् स्वयं से भिन्न संमत (योग्य) जन्य (अवर्ण्य, उपमान) के साथ किसी धर्म के कारण एक ही बार वाच्यरूप में साम्य का प्रतिपादन किया जाय वहां उपमालकार होता है । १४. विश्वनाथ
__विश्वनाथ प्रणीत 'साहित्यदर्पण' संस्कृत काव्यशास्त्र का अनुपम ग्रंथ है । शब्दलङ्कारों का निरूपण करने के पश्चात् अर्थालङ्कारों में विश्वनाथ ने सर्वप्रथम उपमा का निरूपण करते हुए लिखा है कि 'एक ही वाक्य में दो पदार्थों के वैधर्म्य रहित वाच्य सादृश्य को उपमालङ्कार कहते हैं । विश्वनाथ ने अर्थालङ्कारों के निरूपण में उपमा को सादृश्यमूलक अलङ्कारों का प्राणभूत (उपजीव्य) माना है। १५. अप्पयदीक्षित
अप्पयदीक्षित के अलङ्कारशास्त्र पर तीन ग्रंथ-कुवलयानन्द, चित्रमीमांसा, वृतिवातिक प्रसिद्ध हैं। इनके ग्रंथ कुवलयानंद का अलङ्कारशास्त्र के इतिहास में महत्त्वपूर्ण स्थान है। उन्होंने उपमा का लक्षण प्रस्तुत करते हुए लिखा है--'जहां दो वस्तुओं अर्थात् उपमान और उपमेय की समानता से दो वस्तुओं के सादृश्य पर आधारित चमत्कार पाया जाय वहां उपमालङ्कार होता है।
उपमा को विस्तृत करते हुए दीक्षितजी ने लिखा है-- यत्रोपमानोपमेययोः सहृदयहृदयाह्लादकत्वेन चारुसादृश्यमुद्भुततयोल्लसति व्यङ्गय्मर्यादा विनास्पष्टं प्रकाशते तत्रोपमालङ्कारः। अर्थात् ऐसा काव्य जिसमें उपमेय और उपमान की सुन्दरता की समानता सहृदय भावुकों के हृदय को प्रसन्न करती है और उपमान तथा उपमेय की चमत्कारपूर्ण समानता प्रस्फुटित होती है वह उपमालङ्कार होता है । १६. पंडितराज जगन्नाथ
___पंडितराज जगन्नाथ संस्कृत काव्यशास्त्र के प्रौढ़ आचार्य हैं। इनका ग्रंथ 'रसगंगाधर' काव्यशास्त्र का एक प्रामाणिक ग्रंथ है। यह ग्रंथ दो आननों में विभक्त है । उपमा अलङ्कार को जगन्नाथ ने इस प्रकार परिभाषित किया है ।
'साद श्यं सून्दरम.........."उपमालङकृति ।' उन्होंने सादृश्य के चमत्कारी होने को ही उपमालङ्कार माना है। उनके अनुसार वाक्य के अर्थ को सुशोभित करने वाला सुन्दर सादृश्य ही उपमा है । इस प्रकार विभिन्न आचार्यों ने उपमा के स्वरूप को विभिन्न लक्षणों के साथ प्रस्तुत किया है।
खण्ड २२, पंक४
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संवर्म-संकेत १. प्रस्फुटं सुन्दरं साम्यमुपमेत्यभिधीयते ।'
-दण्डी २. उपमा दीपकं चैव रूपकं यमकं तथा। काव्यस्यैते हलङ्काराश्चत्वारः परिकीर्तिता ॥
-भरत ना० शा० १६१४० ३. यत्किञ्चितकाव्यबन्धेषु सादृश्येनोपमीयते । उपमा नाम सा ज्ञेया गुणाकृतिसमाश्रया ॥
-भरत, ना० शा० १६६१ ४. एकस्यैकेन सा कार्या ह्यनेकेनाथवा पुनः । ___ अनेकस्य तथैकेन बहूनां बहुभिस्तथा ।।
-भरत, ना० शा० १६।६२ ५. विरुद्धेनोपमानेन देशकालक्रियादिभिः । उपमेयस्य यत्साम्यं गुणलेशेन सोपमा ।
-भामह, काव्यालं० २०३० ६. यथाकथञ्चित् सादृश्यं यत्रोद्भूतं प्रतीयते । उपमा नाम सा तस्याः प्रपञ्चोऽयं निदर्श्यते ॥
__दण्डी, काव्यादर्श, २०१४ ७. यच्चेतोहारि साधर्म्यमुपमानोपमेययोः। मिथोविभिन्नकालादिशब्दयोरुपमा तु तत् ॥
-उद्भट, काव्यालं० सार सं० ११३२ ८. तथा.........."शब्दवैचित्यगर्भयमुपमैवप्रपञ्चिता।।
-वामन, काव्यालं० सू० ४।३।१ ९. उपमानेनोपमेयस्य गुणलेशतः साम्यमुपमा ।
-वामन, काव्यालं० सू० वृत्ति, ४,२,१ १०. उभयो समानमेकं गुणादि सिद्धं भवेद्यथैकत्र । अर्थेऽन्यत्र तथा तत्साध्यत इति सोपमा त्रेधा ।
-रुद्रट, काव्यालं०, १४ ११. विवक्षितपरिस्पन्दमनोहारित्वसिद्धये । वस्तुनः केनचित् साम्यं तदुत्कर्षवतोपमा ॥
-कुन्तक, वक्रोक्तिजी० ३।३० १२. प्रसिद्धरनुरोधेन यः परस्परमर्थयोः । भूयोऽवयवसामान्ययोगः सेहोपमा मता ॥
-भोज, सरस्वतीकण्ठा० ४।५ ३०८
तुलसी प्रशा
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१३. मलङ्करणमर्थानामर्थालङ्कार इष्यते ।
तं बिना शब्दसौन्दर्यमपि नास्तिमनोहरम् ॥ अर्थालंकाररहिता विधवेव सरस्वती ॥ १४. किञ्चिदादाय सारूप्यं लोकयात्रा प्रवर्त्तते । समासेनासमासेन सा द्विधा प्रतियोगिनः ॥
- अग्निपु०, अध्याय, ३४४
१५. साधर्म्यमुपमा भेदे । उपमानोपमेययोरेव न तु कार्यकारणादिकयोः साधर्म्य भवतीति तयोरेव समानेन धर्मेण सम्बन्ध उपमा ।
- मम्मट, काव्यप्रकाश, १०।१२५
१६. उपमानोपमेययोः साधर्म्ये भेदाभेदतुल्यत्वे उपमा । - राजानक रूय्यक, अलं ० सर्वस्व सू० १२ पृ० ८०
१७. उपमा यत्र सादृश्यलक्ष्मीरुल्लसति द्वयोः । हृदये खेलतोरूच्चैस्तन्वङ्गीस्तनयोरिव ॥
- अग्निपु० १.१
१८. स्वत: सिद्ध न भिन्नेन संमतेन च धर्मतः । साम्यमन्येन वर्ण्यस्य काव्यं चेदेकदोपमा ॥
- विद्यानाथ, प्रतापरुद्रीय १९. साम्यंवाच्यमवैधर्म्य वाक्यैक्य उपमा द्वयोः ।
खण्ड २२, अंक ४
— जयदेव, चन्द्रालोक, ५।११
२०. उपमा यत्र सादृश्यलक्ष्मीरुल्लसतिद्वयोः । हंसीव कृष्ण ! ते कीर्तिः स्वर्गङ्गभवगाहते ॥
- साहि० दर्प०,
१०।१४
- अप्पयदीक्षित, कुवलयानन्द श्लोक सं० ६
- ( डॉ० ( कु० ) सुनीता जोशी H-१४९ हल्दी पो०आ० - हल्दी
पिन कोड नं० - २६३१४६ जिला - ऊधमसिंहनगर
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मनोविकास की भूमिकाएं
समणी प्रसन्नप्रज्ञा
हर प्राणी सुख एवं शान्ति की इच्छा करता है, दुःख व अशान्ति कभी किसी को प्रिय नहीं होती।' बन्धन सबसे बड़ा दुःख है । मुक्ति सबसे बड़ा सुख । ऐकान्तिक व आत्यन्तिक सुख का ही अपर नाम है मुक्ति । जब चेतना आवृत्त होती है तब उसके संज्ञान के साधन मन और इन्द्रिय होते हैं और जब उसका आवरण हट जाता है तब उसके संज्ञान का साधन होती है -चेतना । इसलिए चेतना को जानना अथवा चेतना को मन व इन्द्रियों से ऊपर उठा लेना ही मुक्ति है । गुरुदेव गणाधिपति श्रीतुलसी के शब्दों में यह समाधि है।
हमारी अशान्ति एवं दुःख का मूल कारण है-चंचलता । और चंचलता मन का विषय है । मानवीय देह में मन का महत्त्वपूर्ण स्थान है। मन को ही बंधन एवं मोक्ष का कारण माना गया है
'मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः ।
बंधाय विषयासंगि, मोक्षे निविषयं स्मृतम् ॥' वास्तव में 'मन' एक बहुचर्चित शब्द है । किसी ने इसे चेतना का पर्याय माना है तो किसी मे जड़ व पुदगल । किसी ने इसकी उपस्थिति को वरदान मानकर इसकी प्रशंसा की है तो किसी ने इसे अभिशाप मानते हुए इसे लोभी, लालची और चोर कहा है । आचार्य महाप्रज्ञजी कहते हैं-'वस्तुतः कोई भी भौगोलिक राज्य इतना बड़ा नहीं है जितना मनोराज्य है । कोई भी यान इतना द्रुतगामी नहीं है जितना मनोयान । कोई भी शस्त्र इतना संहारक नहीं है जितना मनःशस्त्र है और कोई भी शास्त्र इतना तारक नहीं है जितना मनःशास्त्र है।"
__ मन एकान्ततः न बुरा है न अच्छा। वह मारक शस्त्र है तो तारक शास्त्र भी है। यह आत्मा और इन्द्रियों के बीच सम्पर्क साधता है । इन्द्रियों का कार्य विषयों का ग्रहण होता है परन्तु ग्रहीत विषयों पर निर्णय व निर्धारण मन करता है। वह उन्हें किस रूप में निर्धारित करे, इसके लिए मन स्वतन्त्र भी नहीं है। वह माध्यम मात्र है। इसीलिये स्वामी राम ने भी माना है कि मन एक प्रमुख माध्यम है, अन्तर्जगत् व बहिर्जगत के बीच । इसके बिना साध् संभव नहीं। सभी साधन इसी मन की गतिविधि, शुद्धि और एकाग्रता पर निर्भर करते हैं।' अर्थात् इन्द्रियां और शरीर साधना के प्रमुख स्रोत हैं पर ये साधना में उपयोगी तभी हो सकते हैं जब मन नियंत्रित हो।
बंर २२, अंक ४
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मन क्या है ?
भगवान महावीर ने कहा - 'मणिज्जमाणे मणे । " मन से मनन अथवा जिससे मनन होता है वह मन है । पश्चिम के भौतिकवादी व भारत के चार्वाक, मन की सत्ता स्वीकार ही नहीं करते । किन्तु उपनिषदों में मन की बड़ी महत्ता है । शिव संकल्पोपनिषद् में कहा है कि ब्रह्मा से परे हरि हैं और उससे परे मन । वह मेरा मन शिव संकल्पवाला हो
परात् परतरो ब्रह्मा तत्परात् परतो हरिः । तत्परात् परतोऽधीशस्तन्मेमनः शिवसंकल्पमस्तु ॥
'मनोनुशासनम्' गणाधिपति श्री तुलसी का एक महान् योगपरक ग्रंथ है । उसमें कहा गया है— 'इन्द्रियसापेक्षं सर्वार्थग्राहि त्रैकालिकं संज्ञानं मनः ।" अर्थात् जो इन्द्रियों द्वारा गृहीत विषयों में प्रवृत्त होता है, शब्दरूपादि विषयों को जानता है तथा भूत, भविष्य और वर्तमान - तीनों का संकलनात्मक ज्ञान करता रहता है वह मन है । अथवा जो चेतना बाहर की ओर जाती है, उसका प्रवाहात्मक अस्तित्व ही मन है ।" यूं भी कहा जा सकता है कि मन चेतना जीव की वह अवस्था है जो बाहरी वातावरण और प्रवृत्तियों से प्रभावित होती है ।" आधुनिक मनोविज्ञान में मन को चेतना का ही पर्याय माना गया है । फ्रायड मन की तुलना हिमखंड से करता है जबकि युंग ने उसकी तुलना महासागर से की है ।
मन का स्वरूप मन के कार्यों से आसानी से समझा जा सकता है । मन के तीन कार्य हैं--स्मृति, चिंतन व कल्पना । मन अतीत की स्मृति, वर्तमान का चिंतन व व भविष्य की कल्पना करने में निमग्न रहता है जिससे उसका स्वरूप हर समय चंचल बना रहता है । चंचलता की प्रवृत्ति ही मन है और चंचलता का निरोध करना मन से ऊपर उठना है ।
मन का स्थान
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मन के स्थान के बारे में भी अनेक मत हैं । कुछ आचार्य मन को शरीर व्यापी मानते हैं । कुछ लोग मन का स्थान हृदय से नीचे बतलाते हैं । वर्तमान शरीर शास्त्री मन का स्थान मस्तिष्क निर्धारित करते हैं । वास्तव में मन समूचे शरीर में ही ब्याप्त होता है क्योंकि यह संज्ञान का साधन है और संज्ञान के स्नायुओं का जाल हमारे पूरे शरीर में फैला हुआ है ।
'मनोनुशासनम्' के भाष्यकार आचार्य महाप्रज्ञजी कहते हैं - 'साधना की समग्र पद्धति जिस मंदिर की परिक्रमा करती है— उसका देवता है मन । उसकी सिद्धि सबकी सिद्धि और उसकी असिद्धि सबकी असिद्धि होती है ।' 'ज्ञानार्णवः' के रचयिता आचार्य शुभचन्द्र का भी यही मत है । "
उत्तराध्ययन सूत्र में केशी गौतम से पूछते हैं—गोतम ! यह साहसिक भयंकर अश्व दौड़ रहा है और तुम उस पर आरूढ हो, वह तुम्हें उन्मार्ग में कैसे नहीं ले जाता है ? तब गौतम कहते हैं - 'मणो साहसीओ ।" अर्थात् यह दुष्ट अश्व है— मन, जिसे मैं अपने अधीन रखता हूं । धर्मशिक्षा के द्वारा वह उत्तम जाति का अश्व हो गया है ।
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'तुलसी प्रज्ञा
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मन का विकास
मन की तीन अवस्थाएं होती हैं-विक्षेप, एकान और अमन । योग की भाषा में अवधान, एकाग्रता व ध्यान । इन तीन अवस्थाओं की मान्यता है जो मनोविज्ञान में भी-अटेन्शन, कान्सट्रेशन और मेडीटेशन के रूप में स्वीकृत हैं। मन का विकास इन अवस्थाओं से गुजरकर क्रमशः होता है।
___'मनोनुशासनम्' में मूढ़, विक्षिप्त, यातायात श्लिष्ट, सुलीन और निरूद्ध-के रूप में मनोविकास की भूमिकाएं बताई गई हैं। 'पातंजलयोग' में क्षिप्त, मूढ़, विक्षिप्त, एकाग्र और निरूद्ध-यह क्रम दिया गया है। हेमचन्द्राचार्य ने विक्षिप्त, यातायात, श्लिष्ट और सुलीन तथा स्वामी विवेकानन्द ने क्षिप्त, मूढ़, विक्षिप्त और एकाग्रचार स्तर बताएं हैं जबकि मनोविज्ञान में इड्, ईगो और सुपर ईगो-तीन ही भूमिकाएं मान ली गई हैं। १. मूढ-बाहरी दुनियां में लगे हुए मन की अवस्था मूढ होती है। उसमें द्वेष
और आसक्ति का वेग अत्यन्त प्रबल रहता है। तभी तो कहते हैं—'दृष्टिचारित्रमोहपरिव्याप्तं मूढम् ।" योगदर्शन में यह चित्त की द्वितीय भूमिका है । विवेकानंद भी इसे दूसरी अवस्था के रूप में तमोगुणात्मक कहते हैं । चित् की इस अवस्था में अज्ञान, अधर्म आदि रहते हैं। २. विक्षिप्त-'इतस्ततो विचरणशीलं विक्षिप्तम् ।"५ इस अवस्था में सत्त्वगुण आ जाने से मनुष्य की प्रवृत्ति धर्म, ज्ञान, वैराग्य आदि में होती है पर रजोगुण उसे विक्षिप्त करता रहता है जैसे जमे हुए कूड़े को कुरेदने पर दुर्गन्ध फूट पड़ती है
वैसे ही यह अवस्था है। ३. यातायात-जिस अवस्था में मन कभी बाहर व कभी भीतर भ्रमण करता है
वह यातायात अवस्था है। 'कदाचिदन्तः कदाचिद् बहिविहारि यातायातम् ।। विक्षिप्तावस्था की अपेक्षा इसमें एकाग्रता बढती है पर वह चिरकालीन नहीं
होती। ४. श्लिष्ट- 'स्थिरंश्लिष्टम्" इसमें ध्याता का ध्येय के साथ श्लेष तो हो जाता है
पर एकात्मकता नहीं हो पाती है। स्थिर होने के कारण आनन्दमय बना हुआ चित्त श्लिष्ट कहलाता है। ५. सुलीन-सुलीन का तात्पर्य है-सम्यक् प्रकार से लीन होना। अर्थात् श्लिष्ट
अवस्था शिखर पर पहुंच जाती है । 'सुस्थिरं सुलीनं । १८ हेमचन्द्र ने भी कहा है -~~'सुलीनमतिनिश्चलम् । ६. निरुद्ध-'निरालम्बनं केवलमात्मपरिण तिः निरुद्धम् । अर्थात् जब मन बाह्यालम्बनों से शून्य होकर केवल आत्मपरिणत हो जाता है तब उसे निरुद्धावस्था कहते हैं। 'विरामप्रत्ययाभ्यासपूर्वः संस्कारशेषोऽन्यः२१ जब चित्त का स्थायी निरोध हो जाता है तब वह अवस्था निरुद्धभूमि कहलाती है।
इस प्रकार विकास के क्रम में मन की प्रथम दो अवस्थाएं निम्नस्तर, तीसरी मध्यमस्तर व अग्रिम उच्चस्तर की अवस्थाएं कही जा सकती हैं।
सन २२, बंक ४
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संदम: १. आयारो १३१२२ सव्वेसि पाणाणं..."" २. 'शुद्धचैतन्यानुभवः समाधिः' मनोनुशासनम् ४।२७ ३. मैत्रायण्युपनिषद् ६:३३ ४. चित्त और मन, जैन विश्व भारती, लाडनूं ५. भारतीय मनोविज्ञान, पृ. १५८ ६. भगवती सूत्र, १३।१२६ ७. जैन दर्शन मनन व मीमांसा, पृ. ५१३ ८. मनोनुशासनम्, पृ. ३, सू० २ ९. चित्त और मन, पृ. १ १०. मनोनुशासनम् पृ. २५ ११. पातञ्जल योगदर्शन सू. २, पृ. ६ १२. ज्ञानार्णवः, पृ. २२२, श्लोक ६ _ 'मनोरोधं भवेद्रद्धं विश्वमेव शरीरिभिः ।
प्रायोऽसंवृत्तचित्तानां शेषरोधाऽप्यपार्थकः । १३. उत्तरज्झयणाणि २३१५८ १४. मनोनुशासनम् सू. २ १५. वही, सू. ४ १६. वही, सू. ५ १७. मनोनुशासनम् सू. ८ १८. वही, सू. ९ १९. योगशास्त्र, पृ. २८३,१२।३ २०. मनोनुशासनम्, सू. १३ २१. पातञ्जलयोगदर्शन सू. १६१८
-समणी प्रसन्नप्रज्ञा द्वारा गौतमज्ञानशाला, लाडनूं
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उपनिषद् और जैनदर्शन में आत्मस्वरूप-चिन्तन
हरिशंकर पाण्डेय
भारतीय दर्शन का आधार विन्दु है-'आत्मा' । सबने इसके अस्तित्व को स्वीकार किया है। उपनिषदों में इसे सर्वज्ञ एवं सर्वव्यापक तत्व के रूप में स्वीकार किया गया है। गीताकार ने इसे अलिप्त, अच्छेद्य एवं सर्वप्रकाशक कहा है। न्यायसूत्र के रचयिता गौतम की दृष्टि में इच्छा, द्वेष, सुख-दुःख और ज्ञान का आश्रय आत्मा है । वैशेषिककार ने इच्छा, प्रयत्न प्राण जीवनादि को आत्मा का लिङ्ग माना है।' सांख्य दर्शन आत्मा के लिए पुरुष शब्द का विनियोग करता है तथा उसे त्रिगुणादि से भिन्न द्रष्टा और अकर्ता मानता है। वह असंग है तथा सुषुप्ति आदि अवस्थाओं का साक्षी है । ' मीमांसकों के अनुसार ज्ञानादि क्रिया-सम्पन्न तथा क्रिया से अलग मस्तित्व रखनेवाला आत्मा है। सदानन्द ने वेदान्तसार में आत्मा को नित्य, शुद्ध, बुद्ध, मुक्त, सत्यस्वभाववान् तथा सर्वव्यापक तत्त्व के रूप में स्वीकार किया है।' बौद्ध दार्शनिकों के अनुसार आत्मा नाम की कोई वस्तु नहीं है। किन्तु जनदर्शन में आत्मा चैतन्य लक्षणवाला तथा रत्नत्रय स्वरूप है।।
आत्मन् शब्द अनेक धातुओं से व्युत्पन्न होता है। महर्षि यास्क ने भ्वादिगणीय 'अत सातत्यगमने एवं स्वादिगणीय 'आप्ल व्याप्ती धातु से इसे निष्पन्न माना है-आत्मा अततेर्वा आप्तेर्वा । अर्थात् आत्मा सतत गतिमान् एवं सर्वव्यापक होता है। अदादिगणीय 'अन प्राणने धातु से भी वह निष्पन्न माना गया है.---'अनिति प्राणान् धारयतीति आत्मा'९३ अर्थात् जो प्राणों को धारण करे वह आत्मा है। आचार्य शंकर ने कठोपनिषद्-भाष्य में लिङ्गपुराण के श्लोक को उधृत किया है जिसमें चार प्रकार से आत्मा शब्द की व्युत्पत्ति मानी गई है-~
यच्चाप्नोति यदादत्ते यच्चात्ति विषयान्निह ।
यच्चास्य संततो भावस्तस्मादात्मेति कीर्त्यते ॥ अर्थात् यह सबको व्याप्त करता है, ग्रहण करता है, इस लोक में विषयों को भोगता है तथा इसका सर्वदा सद्भाव है, इसलिए यह आत्मा कहलाता है। यहां पर 'आप्ल व्याप्तो', आङ् उपसगं पूर्व क 'दान् दाने (दाने), अद भक्षणे एवं अत-सातत्यगमने आदिचार धातुओं से आत्मा शब्द को निष्पन्न माना गया है। वायुपुराण में भी यत्किञ्चित् अन्तर के साथ आत्मा का व्युत्पत्तिपरक यही श्लोक उपलब्ध होता है :
यदाप्नोति यदादत्ते यच्चास्ति विषयं प्रति । यच्चास्ति सततं भावस्तस्मादात्मा निरुच्यते ॥
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अति सततं गच्छति व्याप्नोति वा आत्मा" अर्थात् जो सर्वव्यापी हो वह आत्मा है । हलायुधकार ने जाग्रदादि सभी अवस्थाओं में व्याप्त होनेवाले को आत्मा कहा है - अतति सन्ततभावेन जाग्रदादि सर्वावस्थासु अनुवर्तते ।" देहेन्द्रियादिकं सवं परार्थमतति व्याप्नोति अधितिष्ठति इत्यात्मा” अर्थात् देहेन्द्रियादि सभी पदार्थों में विद्यमान रहता है वह आत्मा है । अत्यते लभ्यते मुक्तैरित्यात्मा" अर्थात् जो मुक्त पुरुषों के द्वारा प्राप्त किया जाता है वह आत्मा है ।
जैन वाङ्मय में उत्तराध्ययन सूत्र के टीकाकार ने लिखा है- 'अतति - सन्ततं गच्छति शुद्धिसंक्लेशात्मक परिणामान्तराणीत्यात्मा" अर्थात् जो विविध भावों में परिणत होती है वह आत्मा है । समयसार के टीकाकार ने 'आत्मा' शब्द को अत् धातु से व्युत्पन्न माना है- दर्शन ज्ञान चारित्राणि अतति इति आत्मा" अर्थात् दर्शन, ज्ञान एवं चारित्र को सदा प्राप्त हो वह आत्मा है । द्रव्यसंग्रह के टीकाकार ने 'आत्मा' शब्द का विस्तार से विवेचन किया है-अतधातुः सातत्यगमनेऽर्थे वर्त्तते । गमन शब्दे - नात्र ज्ञानं भण्यते 'सर्वे गत्यर्था ज्ञानार्था इति वचनात्', तेन कारणेन यथासंभवं ज्ञानसुखादिगुणेषु समन्तात् अतति वर्तते यः स आत्मा भण्यते । अथवा शुभाशुभमनोवचनकायव्यापारैर्यथासंभवं तीव्र मन्दादि रूपेण आ समन्तादतति वर्त्तते यः स आत्मा । अथवा उत्पादव्ययध्रौव्य रासमन्तादतति वर्त्तते य: स आत्मा" अर्थात् अत धातु का प्रयोग गमन अर्थ में होता है। यहां पर गमन शब्द का अर्थ ज्ञान होता है क्योंकि सभी गत्यर्थक धातुएं ज्ञानार्थक होती हैं । इस कारण से ज्ञान सुखादि गुणों में सम्यक् रूप से विद्यमान रहता है वह आत्मा है । अथवा शुभ-अशुभ रूप जो मन, वचन और काय के व्यापार हैं उन्हें सम्पादित कर यथासंभव तीव्र मन्दादि रूप से जो वर्तता है वह आत्मा है, अथवा उत्पाद व्यय और ध्रौव्य इन तीनों द्वारा जो पूर्ण रूप से विद्यमान रहता है वह आत्मा है ।
आत्मा के पर्याय - उपनिषदों एवं जैन शास्त्रों में आत्मा के अनेक पर्यायों का उल्लेख मिलता है । छान्दोग्योपनिषद् में आत्मा शब्द के लिए सुतेजा, वैश्वानर (५.१२.१) विश्वरूप (५.१३.१), सत्य (६.८.७, ६.९.४), मन ( ७.३.१ ) चित्त ( ७.५.२), ब्रह्म, अमृत (८.१४.१) आदि शब्दों का विनियोग किया गया है । बृहदारण्यकोपनिषद में ब्रह्म ( २.४.६, १९), पुरुष ( २.५.१४ ), आकाश ( ३.२.१३ ), अन्तर्यामी, अमृत (३.७.३), प्राज्ञ ( ४.३.२१) अविनाशी ( ४.५.१४), तैत्तिरीयोपनिषद् में आकाश (१.७.१, २.२.१) योग ( २. ४.१ ) आनन्द ( २.५.१), श्वेताश्वरोपनिषद् में अनन्त, विश्वरूप, अकर्ता (१.९) सर्वव्यापी (१.१६), आदि शब्दों का प्रयोग आत्मा के लिए किया गया है ।
जैन वाङ्मय में भी आत्मवाची अनेक शब्दों का निर्देश मिलता है । भगवती सूत्र में जीव, प्राण, भूत, सत्त्व, विज्ञ, वेद, चेता, जेता, आत्मा, पुद्गल, मानव, कर्ता, विकर्ता, जंतु, योनि, स्वयंभू आदि अनेक आत्मवाचक शब्दों का उल्लेख मिलता है । टीकाग्रंथों में जीव, प्राण, सत्त्व शरीरभृत और आत्मा आदि शब्दों को एकार्थक स्वीकार किया गया गया है । धवला में आत्मा के अनेक नामों का उल्लेख है । १४ जीव, कर्ता, वक्ता, प्राणी, भोक्ता, पुद्गल, वेत्ता, विष्णु, स्वयंभू, शरीरी, मानव, सक्ता,
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तुलसी प्रशा
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जन्तु, मानी, मायावी, योग सहित, क्षेत्रज्ञ आदि । महापुराण में जीव, प्राणी, जन्तु, क्षेत्रज्ञ, पुरुष, पुमान्, आत्मा, अन्तरात्मा, ज्ञ और ज्ञानी को एकार्थक माना गया है ।" आत्मविद्या का अधिकारी कौन है ? इस विषय पर उपनिषद् और जैन-दर्शन की समान मान्यताएं हैं। केवल शब्दों का अन्तर या वैभिन्न्य है । एक मार्मिक श्लोक उद्धत है :
विद्या ह वै ब्राह्मणमाजगाम गोपाय मा शेवधिष्टेऽहमस्मि ।
असूयकायानृजवे शठाय मा मा ब्रूया वीर्यवती तथा स्याम् ॥ यमेव विद्याः श्रुतमप्रमत्तं मेधाविनं ब्रह्मचर्योपपन्नम् ।
अर्थात् विद्या ब्राह्मण के पास आई और बोली- मैं तुम्हारी हूं। तुम मेरी रक्षा करो । ईर्ष्यालु, अऋजु तथा असंयमी व्यक्ति को मुझे मत देना । यदि तुम ऐसा करोगे तो शक्तिशालिनी बनूंगी, मुझमें ओज प्रस्फुटित होगा । जो विद्या के प्रति जागरूक हो । अप्रमत्त मेधावी, ब्रह्मचर्य सम्पन्न और सम्यक् रूप से शिष्यत्व ग्रहण कर चुका हो। उसी को इस आत्मविद्या का उपदेश करना ।
उपनिषदों में अनेक स्थलों पर आत्मविद्या के अधिकारी का निर्देश प्राप्त होता है । एकनिष्ठता, अनन्य श्रद्धा, सतत जागरूकता और संसारिक विषयों के प्रति अनासक्ति आत्मविद्या के अधिकारी के लिए अनिवार्य है । यह तथ्य नचिकेता के प्रसंग से स्पष्ट हो जाता है जो यमराज के द्वारा प्रदत्त हजारों प्रलोभनों एवं अलभ्य भोगों के प्रति अनाकृष्ट और निर्विण्ण होकर अपने प्राप्तव्य के प्रति सदा जागरूक रहता है । वह कहता है
अस्मा इमाम् उपसन्नाय सम्यक्
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परीक्ष्य दद्यात् वैष्णवीमात्मनिष्ठाम् ॥
न वित्तेन तर्पणीयो मनुष्यो
लप्स्यामहे वित्तमद्राक्ष्म चेत्त्वा । जीविष्यामो यावदीशिष्य सित्वं
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वरस्तु मे वरणीयः स एव ॥
खण्ड २२, अंक ४
अर्थात् मनुष्य को धन तृप्त नहीं किया जा सकता । अब यदि आपको देख लिया है तो धन पा ही लेंगे। जब तक आप शासन करेंगे तब तक हम जीवित रहेंगे, किन्तु हमारा प्रार्थनीय वर तो वही है । अन्त में यमराज को भी उसकी निष्ठा, सत्यधारणा की प्रशंसा करनी पड़ी
नैषा तर्केण मतिरापनेया
प्रोक्तान्येनैव सुज्ञानाय प्रेष्ठ । यां त्वा सत्यधृतिर्बतासि
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त्वादुङ्नो भूयान्नचिकेतः प्रष्टा ॥
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अर्थात् हे प्रियतम ! सम्यक् ज्ञान के लिए शुष्क तार्किक से भिन्न शास्त्रज्ञ आचार्य द्वारा कही हुई बुद्धि, जिसे कि तूं प्राप्त हुआ है, तर्कद्वारा प्राप्त होने योग्य नहीं है । अहा ! तू बड़ा ही सत्यधारणा वाला है । हे नचिकेता ! हमें तुम्हारे समान प्रश्न करनेवाला प्राप्त हो । मुण्डकोपनिषद् का ऋषि आत्म विद्या के अधिकारी का स्पष्ट वर्णन क
तस्मै स विद्वानुपसन्नाय सम्यक्
प्रशान्तचित्ताय शमान्विताय ।" येनाक्षरं पुरुषं वेद सत्यं
प्रोवाच तां तत्त्वतो बह्मविद्याम् ।। अर्थात् विद्वान् गुरु अपने समीप आये हुए उस पूर्णतया शान्तचित्त एवं जितेन्द्रिय शिष्य को उस ब्रह्मविद्या का तत्त्वत: उपदेश करे जिससे उस सत्य और अक्षर पुरुष का ज्ञान होता है । तात्पर्य यह है कि ब्रह्मविद्या या आत्मविद्या का अधिकारी वही हो सकता है जो प्रशान्तचित्त और जितेन्द्रिय हो।
आत्मविद्या के लिए 'चित्तविशुद्धि' परमावश्यक है.---इस तथ्य को सबने स्वीकार किया है । उपनिषदों में इस सत्य की बार-बार उद्घोषणा की गई है
ज्ञान प्रसादेन विशुद्धसत्वः
ततस्तु तं पश्यते निष्कलं ध्यायमानः । गीताकार ने भी इस तथ्य को ओर निर्देश किया है -----
___ योगयुक्तो विशुद्धात्मा विजितात्मा जितेन्द्रियः ।
सर्वभूतात्मभूतात्मा कुर्वन्नपि न लिप्यते ।।" वेदान्तसार के प्रणेता सदानन्द ने अधिकारी के स्वरूप पर विस्तार से प्रकाश डाला है :-अधिकारी तु विधिवदधीतवेदवेदाङ्गत्वेना पाततोऽधिगताखिलवेदार्थोऽस्मिन् जन्मनि जन्मान्तरे वा काम्यनिषिद्धवर्जनपुरस्सरं नित्यनैमित्तिकप्रायश्चित्तोपासनानुष्ठानेन निर्गतनिखिल कल्मषतया नितान्तनिर्मलस्वान्तः साधनचतुष्टय सम्पन्नः प्रमाता । अर्थात् जिस पुरुष वेदों और वेदाङ्गों का सम्यक अध्ययन कर सम्पूर्ण वेदार्थ का ज्ञान प्राप्त कर लिया, इस जन्म अथवा जन्मान्तर में काम्य, निषिद्ध कर्मों का त्याग करते हए नित्य नैमित्तिक कर्म तथा प्रायश्चित और उपासना के अनुष्ठान से समस्त कल्मषों को समाप्त कर अपने अन्तःकरण को नितान्त निर्मल बना लिया है तथा साधन चतुष्टय-१. नित्य-अनित्त वस्तु का विवेक, २. भौतिक एवं स्वर्गिक सुखों के भोग से विरक्ति, ३. शम, दम, उपरति, तितिक्षा, श्रद्धा और समाधान (समाधि) आदि छः सम्पतियों से युक्त तथा ४. मोक्ष की इच्छा से सम्पन्न व्यक्ति ही आत्मविद्या का अधिकारी हो सकता है। सदानन्द भगवती श्रुति का एक श्लोक उधृत करते हैं जो अधिकारी के स्वरूप पर प्रकाश डालता है :
प्रशान्तचित्ताय जितेन्द्रियाय च प्रहीणदोषाय यथोक्त कारिणे । गुणान्वितायानुगताय सर्वदा प्रदेयमेतत्सततं मुमुक्षवे ॥
तुलसी प्रशा
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अर्थात् जिसका मन शांत है, जो जितेन्द्रिय है, जिसके दोष समाप्त हो चुके है, जो गुरु और शास्त्रानुसार क्रियारत रहता है, जो निरभिमान तथा आचार्यानुगत हो वही इस विद्या का अधिकारी है-उसी को आत्मविद्या प्रदान करनी चाहिए। गीताकार गोविन्द ने इस विषय में बिस्तार से चर्चा की है :
बुद्धया विशुद्धया युक्तो धृत्याऽऽत्मानं नियम्य च । शब्दादीविषयांस्त्यक्त्वा रागद्वेषो व्युदस्य च ॥ विविक्तसेवी लघ्वाशी यतवाक्कायमान सः । ध्यान योगपरो नित्यं वैराग्यं समुपाश्रितः ।। अहंकारं बलं दपं कामं क्रोधं परिग्रहम् । विमुच्य निर्ममो शान्तः ब्रह्मभूयाय कल्पते ॥ ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा न शोचति न कांक्षति ।
समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्ति लभते पराम् ॥" अर्थात आत्मविद्या के अधिकारी में निम्नलिखित गुणों का होना आवश्यक हैविशुद्ध बुद्धि संयुक्त, आत्मा में अनुरक्त, अन्तःकरण को वश में करने वाला, इन्द्रियादि के विषयों से उपरत, राग-द्वेष से विरत, एकान्तवासी, अल्पभोजी, मन-वाणी और शरीर को जीतने वाला, लोक-परलोक के सभी भोगों से नित्य-अचल वैराग्य से युक्त, ध्यान निरत, अहङ्कार, बल क्रोधादि दुर्गुणों का सर्वथा परित्याग, अपरिग्रही, ममत्व का परित्याग, अन्तःकरण की स्थिरता, सच्चिदानन्द में लीन, प्रसन्नहृदय, शोकरहित, आकांक्षा रहित, समदर्शी आदि ।
उपर्युक्त मान्यता के अनुसार ही आगमों में अनेक स्थलों पर आत्मविद्या के अधिकारी के स्वरूप पर प्रकाश डाला गया है। संयमी, महाव्रती, समदर्शी, आत्मरत, रागादि से उपरत, अहिंसा सम्पन्न व्यक्ति ही आत्मसाधना का अधिकारी हो सकता है। अर्थात् उत्कृष्ट आत्मजिज्ञासा से सम्पन्न मुनि ही साधना पथ (आत्मप्राप्ति-पथ) का यात्री हो सकता है। मुण्डकोपनिषद् का ऋषि जिज्ञासा करता है
'कस्मिन्नु भगवो विज्ञाते सर्वमिदं विज्ञातं भवतीति" । आचारांग का साधक भी इसी जिज्ञासा से अपनी यात्रा शुरु करता है-'के अहं आसी ? के वा इओ चुओ पेच्चा भविस्सामि ?" तात्पर्यत: यह कहा जा सकता है कि साधना का प्रथम सोपान आत्मजिज्ञासा ही है। महाभाव नचिकेता की यात्रा भी यहीं से प्रारंभ होती है। वह यमराज से कहता है :--
येयं प्रेते विचिकित्सा मनुष्ये
___ऽस्तीत्येके नायमस्तीति चैके । एतद्विद्यामनुशिष्टस्त्वयाहं
वराणामेष वरस्तृतीयः ॥" अर्थात् मरे हुए मनुष्य के विषय में जो यह सन्देह है कि कोई तो कहते हैं 'रहता है और कोई कहते हैं 'नहीं रहता है'-आपसे शिक्षित हुआ मैं जान सकू। मेरे वरों में यह तीसरा वर है।
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आत्मा जिज्ञासा के साथ अविच्छिन्न श्रद्धा की अनिवार्यता स्वीकृत है। श्रद्धासम्पन्न पुरुष ही ज्ञान का अधिकारी हो सकता है - इस तथ्य को सबने स्वीकार किया है । उपनिषद्, गीता एवं जैन आगमों में अनेक ऐसे प्रसंग उपलब्ध हैं जिनमें 'श्रद्धावान्' ही ज्ञान का अधिकारी होता है। यह घोषणा उद्घष्ट है-प्रब्रूहि त्वं श्रद्धदानाय मह्यम् ।
मुण्डकोपनिषद् में श्रद्धावान् के साथ आत्मविद्या के अधिकारी के अन्य गुणों का निर्देश किया गया है
क्रियावन्तः श्रोत्रिया ब्रह्मनिष्ठाः
स्वयं जुह्वत एकषि श्रद्धयन्तः । तेषामेवैषां ब्रह्मविद्यां वदेत
शिरोव्रतं विधिवास्तु चीर्णम् ॥ अर्थात् जो अधिकारी क्रियावान, श्रोत्रिय, ब्रह्मनिष्ठ और स्वयं एकर्षि नामक अग्नि में श्रद्धापूर्वक हवन करने वाले हैं तथा जिन्होंने विधिपूर्वक शिरोव्रत का अनुष्ठान किया है उन्हीं को ब्रह्मविद्या कहनी चाहिए। गीताकार गोविन्द की उक्ति भी इसमें प्रमाण है
श्रद्धावान् लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः ।
ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति ॥" अर्थात् तत्पर, संयतेन्द्रिय और श्रद्धावान् ही ज्ञान को प्राप्त करता है । ज्ञान प्राप्ति के बाद वह शीघ्र ही परम शान्ति को प्राप्त कर लेता है।
जैन दार्शनिकों ने अनेक स्थलों पर श्रद्धावान् की महनीयता को स्वीकार किया है । आचारांग का ऋषि साधकों को सतर्क करता है
जाए सखाए निक्खते
तमेव अणुपालिया। विजहित्तु विसोत्तियं
सट्ठी आणाए मेहावी ॥२ अर्थात् श्रद्धावान् आगम के उपदेश के अनुसार मेधावी होता है। आत्मविद्या का अधिकारी होता है। दर्शन पाहुडकार ने स्पष्ट शब्दों में स्वीकार किया है-सद्दहमाणस्स सम्मत्तं अर्थात् श्रद्धावान् को ही सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है ।
विद्या-प्राप्ति के लिए अप्रमतत्ता और तन्मयता अधिकारी के दो गुण स्वीकार किए जाते हैं। प्रमादहीन व्यक्ति ही उच्च-विद्या का अधिकारी होता है । श्वेताश्वरोपनिषद् का ऋषि आत्म-विद्या के साधक के लिए प्रमाद रहित होकर मन को नियंत्रित करने का निर्देश देता है। मुण्डकोपनिषद् में इस तथ्य को एक रूपक के माध्यम से स्पष्ट किया गया है
प्रणवो धनुः शरो ह्यात्मा ब्रह्म तल्लक्ष्यमुच्यते । अप्रमत्तेन वेद्धव्यं शरवत्तन्मयो भवेत् ॥
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अर्थात् प्रणव धनु है, सोपाधिक आत्मा बाण है और ब्रह्म (परमात्मा) उसका लक्ष्य है । उसको सावधानतापूर्वक (अप्रमत्त होकर) वेधन करना चाहिए और बाण के समान तन्मय हो जाना चाहिए। यहां पर अप्रमत्तता और तन्मयता दोनों की ओर निर्देश किया गया है।
आचारांगकार ने लिखा है :
वीरेहिं एवं अभिभूय दिनै संजतेहिं सया जतेहिं सया अप्पमत्तहिं ।
अर्थात् सदैव अप्रमत्त रहने वाले जितेन्द्रिय वीर पुरुषों ने चित्त के समग्र द्वन्द्वों को जीतकर परम सत्य का साक्षात्कार किया है। आगे ऋषि कहता है-धीर व्यक्ति को क्षणभर भी प्रमाद नहीं करना चाहिए-धीरे मुहुत्तमपि णो पमायए" क्योंकि प्रमत्त को सब तरह से भय रहता है अप्रमत्त को कभी भय नहीं होता है :--सव्वतो पमत्तस्स भयं सव्वतो अप्पमत्तस्स नत्थि भयं"८ अर्थात् प्रमादी को सब जगह भय होता है अप्रमादी को कोई भय नहीं होता है। इसलिए आत्म-साधक को कभी भी प्रमाद नहीं करना चाहिए-'उट्ठिए नो पमायए। ____ आचारांग सूत्र में निर्दिष्ट है कि आत्मदर्शी, (आ. सूत्र ३.३६), आत्मनिग्रही (३.६४), सत्यान्वेषी (३-६६), द्रष्टा (३.८७), शरीर के प्रति अनासक्त (४.२८), अनिदानी (४.२८) काम भोगों में उदासीन (३.४७), समता धर्म में निरत (३.५५) कामनामुक्त (३.६५) तितिक्ष (२.११४) विषय विरक्त (४.६), मेधावी (२.२७) ज्ञानी (३.५६) साधक (२.७८) धीरपुरुष (२.११) संयमी (२.३५) अलोभी (२.३६) सम्यग्दर्शी (२.५३) तत्त्वदर्शी (२.११८) अपरिग्रही (२.५७) धर्मकथी (२.१७४), कुशल (२.१८२) आदि गुणों से सम्पन्न व्यक्ति ही आत्मविद्या का अधिकारी हो सकता
--(अगले अंक में समाप्य)
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पारटिप्पण:
१. बृहदारण्यक उपनिषद् २.५.९, श्वेताश्वर उपनिषद् ६.११ २. गीता २.२३-२५, १२.३२-३३ ३. न्यायसूत्र १.१.९ ४. वैशेषिक सूत्र ३.२.४ ५. सांख्यकारिका १९ ६. सांख्यसूत्र प्रवचनभाष्य १.१५.१४८ ७. श्लोकवार्तिक, आत्मवाद; १२० ८. वेदान्तसार, पृ. १४९ ९. संस्कृत धातु-कोष पृ. ६ १०. तत्रव पृ. ९ ११. निरुक्त (यास्ककृत) ३.१५ १२. संस्कृत धातु कोष पृ. ६ १३. कठोपनिषद २.१.१ के शंकरकृत भाष्य में उधृत, लिङ्गपुराण--१.७०.९६ १४. वायुपुराण, पूर्वार्ध ७५.३२ १५. भारतीय दर्शन परिभाषा कोष पृ. ४२ १६. हलायुध कोश, पृ. १४९ १७. प्रस्थान रत्नाकर, पृ. १७३ १८. प्रमेय रत्नावली १.७ १९. उत्तराध्ययन शान्त्याचार्य टीका, पत्र ५२ २०. समयसार, आत्मख्यात टीका श्लोक ८ २१. द्रव्यसंग्रह गाथा ५७ पर ब्रह्मदेव कृत संस्कृत टीका २२. भगवती सूत्र २०१७ २३. सूत्रकृताङ्ग चूणि, १, पृ. ३१, नवीन कर्मग्रन्थ टीका पृ. २ और ११२ २४. धवला १११,२,८१,८२।११८-११९ २५. महापुराण २४.१०३ २६. मुक्तिकोपनिषद् १, ५१-५२ २७. कठोपनिषद् १.१.२७ २८. तत्रैव १.२.९ २९. मुण्डकोपनिषद् १.२.१३ ३०. तत्रव ३.१.८ ३१. गीता ५.७ ३२. वेदान्तसार, पृ. २४ (व्याख्याकार श्री बदरीनाथ शुक्ल, मोतीलाल
वनारसीदास १९७९) ३३. तत्रैव पृ. ६९
३४. गीता १८, ५१-५४ ३२२
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३५. मुण्डकोपनिषद् १.१.३ ३६. आचारांग सूत्र १, १.१.२ ३७. कठोपनिषद् १.१.२० ३८. तत्रैव १.१३ ३९. मुण्डकोपनिषद् ३.२.१० ४०. गीता ४.३९ ४१. आचारांग सूत्र ११३६ ४२. तत्रव ३८० ४३. दर्शन पाहुड़ ४४. श्वेताश्वरोपनिषद् २.९ ४५. मुण्डकोपनिषद् २.४ ४६. आचारांग सूत्र १.६८ ४७. तत्रैव २.११ ४८. तत्रैव ३.७५ ४९. तत्रव ५.२३
-डॉ.हरिशंकर पाण्डेय
सहायक आचार्य प्राकृत भाषा एवं साहित्य जैन विश्वभारती संस्थान,
लाडनूं-३४१३०६
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समीक्षा:
वाल्मीकि रामायण की ऊर्मिला
कुमारी ममता
आदिकवि वाल्मीकि की लेखनी से जिस अनुपम काव्य की सर्जना हुई है, वह संपूर्ण संस्कृत वाङ्मय में अनन्य और अप्रतिम है । सचमुच इस काव्य की रचना उत्कृष्ट है। यहां सब कुछ सौन्दर्य एवं प्रेम में पगा हुआ है । यह एक अनूठी कृति है, जिसमें सभी एक लक्ष्य की ओर गतिमान् हैं । उस लक्ष्य में सत्य, शिव और सुन्दर का पर्यवसान है, तथा मानवता की सार्थकता है।
पात्रों के चरित्र-चित्रण में कवि सिद्धहस्त हैं। राम-सीता, रावण, कैकेयी, भरत इत्यादि प्रमुख पात्र शबरी, मन्थरा, शूर्पनखा, बाली, सुग्रीव आदि गौण पात्र एवम् वानर, भालु, गिद्ध आदि अन्य पात्र - इस तरह तीन कोटि में अपने पात्रों को विभाजित कर उनका संयोजन एवं उपस्थापन कवि ने किया है। कवि ने इस काव्य जगत् के पात्रों का न केवल बाह्य हाव-भाव अपितु उनके राग-द्वेष, हर्ष-विषाद, प्रसन्नता-क्रोध, दयालुता, उदारता तथा सहानुभूति आदि विविध मनोवृत्तियों के चित्रण में भी अपनी चातुरी दिखाई है ।
यही नहीं, रामायण के महिला पात्रों में परस्पर विरोधी प्रवत्तियों के पात्रों का भी हृदयग्राही वर्णन है । जानकी और शूर्पणखा, कौशल्या और कैकयी-ऐसे ही पात्र हैं। अहल्या, अनसूया, शबरी, स्वयंप्रभा, तारा, मन्दोदरी आदि आपस में बहुत कुछ साम्य रखती हैं । सुमित्रा, त्रिजटा आदि का चरित्र दूसरे प्रकार का है।
वस्तुतः रामायण का केन्द्र सुन्दर काण्ड है और उसमें त्रिजटा का स्वप्न उसका सौन्दर्य है किन्तु एक कमी बहुत खलती है । वह है ऊर्मिला को विवाहोपरांत सर्वथा भुला दिया जाना । क्रोञ्च दम्पती के वियोग को देखकर जो कवि करुणा से भर जाता है वही वाल्मीकि ऊर्मिला को सर्वथा-सर्वदा भूल बैठा
"मा निषादप्रतिष्ठास्त्वमगमः शाश्वतीः समाः ।
यत् क्रौञ्चमिथुनादेकमवधीः काममोहितम् ॥'
उदारचेता और सहृदय कवि के हृदय का करुण उद्गार पतिवियुक्ता ऊर्मिला के लिये क्यों नहीं रोता ? क्यों अनस्पर्श रह जाता है ऊर्मिला का चरित्र, महर्षि वाल्मीकि की लेखनी से । यह प्रश्न हमारे मानस को झकझोरता है । कालिदास का यक्ष प्रमादवश कुबेर के शाप से शापित हो, एक वर्ष के लिए अपनी पत्नी से वियुक्त होकर विरह के आठ-आठ आंसू बहाता हुआ दिखाई पड़ता है। उसकी विरह दशा कालिदास
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के शब्दों में मृत्यु की सीमा को स्पर्श करने लगती है, लेकिन वाल्मीकि की ऊर्मिला का तो कोई प्रमाद भी नहीं है न कोई शाप ही है ।
यद्यपि यह सत्य है कि महर्षि वाल्मीकि को मुख्यतः राम और सीता का चरित्र-चित्रण ही अभिप्रेत था परन्तु काव्यापूर्ति तथा कथा विस्तार के लिए उन्होंने कई पात्रों का रोचक और मनोहर वर्णन किया है किन्तु ऊर्मिला का तो उसके पिता जनक के द्वारा नाम निर्देश कराकर ही उनकी वाणी मूक हो जाती है ।
दूसरी ओर वाल्मीकि, पति संग के लिये सीता से कहलवाते हैं कि यह तो मात्र चौदह वर्ष की बात है' पतिव्रता स्त्री तो सैकड़ों-हजारों वर्षों तक असहनीय वेदना को भी सह सकती है याद उसका पति उसके साथ हो
"
' एवं वर्ष सहस्राणि शतं वापि त्वया सह ।
व्यतिक्रमं न पेतस्यामि स्वर्गोऽपि हि न मे मतः ।। "
राम के पुनः समझाने पर सीता उनके लिए कटूक्ति का प्रयोग करती है । राम को कापुरुष तक कह डालती है
" किं त्वामन्यत वैदेहः पिता मिथिलाधिपः ।
देती है
राम जामात्तरं प्राप्य स्त्रियं पुरुष विग्रहम् ॥
इतना होने पर भी जब राम नहीं मानते है तो वह आत्म हत्या की धमकी
"यदि मां दुखितामेव वनं नेतुं न चेच्छसि ।
विषमग्नि जलं वाहमास्थास्ये मृत्युकारणात् ।।'
"यदि आप इस प्रकार दुःख में पड़ी हुई मुझ सेविका को अपने साथ वन में ले जाना नहीं चाहते तो मैं मृत्यु के लिए विष खा लूंगी, आग में कूद पडूंगी, अथवा जल में कूद जाऊंगी।"
इस तरह पति के चरणों को ही सर्वस्व मानने वाली सर्वस्व समर्पिता सीता जो प्रतिपल पति का संग चाहने वाली है, वह भी भूल जाती है कि ऊर्मिला के पति लक्ष्मण भी राम के साथ वन जा रहे हैं तब ऊर्मिला पति से अलग होकर पातिव्रत्य धर्म का निर्वाह और पति के वियोग में जीवन धारण कैसे कर पाएगी ?
अपने कर्तृव के प्रति प्रतिपल सचेष्ट रहने वाले राम भी इस व्यक्तित्व के प्रति उपेक्षा का भाव ही प्रदर्शित करते हैं, जबकि स्वयं उन्होंने ही अपने अनुज लक्ष्मण को अपने साथ वन में चलने की अनुमति दी है। साथ ही वे यह भी जानते हैं कि पतिव्रता स्त्री पति के वियोग में जीवन धारण नहीं कर सकती, जैसा कि उन्होंने स्वयं स्वीकार किया है
" पतिहीना तु या नारी न सा सक्ष्यति जीवितुम् । काममेवंविधं राम त्वया मम निर्दशितम् ।। "
इस तरह तो राम पर यह आरोप लग जाता है कि वह अनुज हित को चाहने वाले नहीं थे, इतना ही नहीं वाल्मीकि का यह पात्र अपने उस पति के द्वारा भी उपेक्षित है जिसके लिए वह पातिव्रत्य धर्म का निर्वाह करती है । पत्नी से अलग होकर
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चौदह वर्ष के लिए वन में जाने वाले लक्ष्मण ने अपनी पत्नी को सूचित करना भी उचित नहीं समझा, न ही बन जाने के पश्चात् चौदह वर्ष तक कोई संदेश ही प्रेषित किया।
राम की विरह-व्यथा भी अपनी पत्नी के प्रति लक्ष्मण को व्यथित नहीं कर सकी, न ही राम से संदेश प्रेषण की सीख ही उन्होंने ली। इस तरह लक्ष्मण पर भी यह आरोप है कि भ्रातृप्रेम एवं अग्रज भ्राता के प्रति कत्तंव्य-निर्वाह में वे भले ही सफल रहे हों, परन्तु एक कुशल पति नहीं बन पाए।
महाकवि भास भी इस मत से सहमत हैं कि पत्नी से दूर स्थित पति के मुख से उसका स्मरण मात्र भी होता है तो वह पत्नी के लिए अति सुखकर होता है । वासवदत्ता लता मण्डप में छुपी हुई जब उदयन के मुख ये बसन्तक से वार्तालाप के प्रसंग में अपनी प्रशंसा सुनती है तो कृतार्थ हो जाती है और कह उठती है
"भवतु-भवतु । दत्तं वेतनमस्य परिखेदस्य । अहो अज्ञातापासोऽप्यत्र बहुगुणः सम्पद्यते ।"६
कवियों की परम्परा एक मत से यह स्वीकार करती है कि वियोगावस्था में राजसी सुख भोग अत्यन्त दुखकर हो जाते हैं । भौतिक वस्तुओं की तो बात ही अलग है, वहां तो प्रकृति की स्वाभाविकता भी कष्ट पहुंचाने लगती है। शीतल चांदनी में भी दाहकता की प्रतीति होने लगती है । वन-गमन में प्रसंग में राजसी सुख भोग और वन की असह्य वेदना दोनों एक साथ उपस्थित होते हैं तो सीता उनमें से राजसी सुखभोग का त्याग कर वन की असह्य वेदना को स्वीकार करती है और कहती है कि
प्रसादाने विमान वहायसगतेन वा।।
सर्वापस्थागता भतु : पादच्छाया विशिष्यते ॥ महाकवि कालिदास भी इस तथ्य से परिचित हैं कि विरहिणी स्त्री के लिए सुख-भोग के सारे उपस्कर दुःखकर हो जाते हैं, इसी कारण यक्ष की यक्षिणी आभूषणादि का परित्याग तो कर ही देती है, साथ ही पुष्प की माला भी त्याग देती है ।
"आये वद्धा विरहदिवसे या शिखा दाम हित्वा । शापस्यान्ते विगलित शुचा तां भयोद्वेष्टनीयाम् । स्पर्शक्लिष्टामयमित नखेनासकृत्सारयन्ती,
गण्डाभोगात्कठिन विषमानेकवेणीं करेण ॥' लेकिन वाल्मीकि की ऊर्मिला को राजसी सुख भोग के बीच ही अपने विरह के दिन काटने होते हैं। कैसे सहा होगा उसने महलों में रहकर विरह की इस एकान्त व्यथा को ? विरह-व्यथा को और तीव्र कर देने वाले इन सुख-भोगों का त्याग भी तो वह नहीं कर सकती थी ? कहां जाएगी वह अयोध्या का राजप्रासाद त्याग कर और उसका यह त्याग भी क्या उचित होगा ? क्या पातिव्रत्य धर्म के अनुकूल होगा ? ऊर्मिला की जो विरह-व्यथा पाठकगण को भी सहज ही द्रवित कर देती है उससे कवि कैसे मुख मोड़ लेता है ? यह अत्यन्त आश्चर्य का विषय है ? मिला इतनी सरल हृदया है कि वेदना की ऊर्मि को मन में दबाये हुए कभी कुछ नहीं कहती, सदैव मौन
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रहना ही श्रेयस्कर समझती है। सबके द्वारा उपेक्षित होने पर भी कभी किसी के लिए सरल शब्दों में भी उलाहना नहीं देती । जिसके प्रति उसका सर्वस्व समर्पित था, उसकी घोर उपेक्षा के हलाहल को भी नीलकण्ठ की तरह शांत होकर पी जाती है, बदले में कोई प्रतिदान नहीं चाहती, प्रकारांतर से अपने पति लक्ष्मण के द्वारा उसका स्मरण और उनका एक पत्नीव्रतो होना ऊर्मिला के लिए मृत्यु के मुख में गये हुए व्यक्ति के लिए जीवनदान के समान है । शूर्पनखा के प्रसंग में लक्ष्मण ने इस बात को स्वीकार किया है कि वे विवाहित हैं, और उनकी एक पत्नी है, इसलिए वे दूसरी शादी नहीं कर सकते। उपसंहार ____ यद्यपि आदिकवि वाल्मीकि पर यह आरोप नहीं लगाया जा सकता कि भारतीय समाज में स्वीकृत पारिवारिक व्यवस्था एवं सम्बन्धों की मर्यादा से वे अपरिचित थे । अथवा सन्देश प्रेषण एवं विरहणियों की मनोदशा से अनभिज्ञ थे, फिर भी पतिवियुक्ता, विरहव्यथिता ऊर्मिला के प्रति उदासीनता एवं उपेक्षा का मेरी दृष्टि में एक ही कारण हो सकता है कि कवि इस भय से ग्रसित था कि यदि ऊर्मिला के त्याग-तपस्या का वर्णन किया गया तो उसका धवल चरित्र सीता के समतुल्य उठ खड़ा होगा और यह प्रश्न उपस्थित हो जाएगा कि मुख्य नायिका कौन सीता या ऊर्मिला ? जो शायद कवि को अभीप्सित नहीं था । अतः कवि ने ऊर्मिला के प्रति मौन रहना हो उचित समझा।
अथवा किष्किन्धा काण्ड के अन्त में महद्वनगुफा में रामदूत-हनुमान्, अंगद, जाम्बवान् आदि की प्राणरक्षा करने वाली एकांत साधिका स्वयंप्रभा की तरह मिला का चरित्र भी पारिवारिक मर्यादा से बंधा एक संदेश है जो वाल्मीकि ने प्रस्तुत किया है । स्वयंप्रभा की खोज हनुमान् ने कर ली इसलिए उसका वर्णन हो गया किन्तु ऊर्मिला की खोज करने वाला कोई पात्र कवि ने नहीं धुना। यदि ऊर्मिला से भी कोई उसकी साधना के लिए प्रश्न करता तो संभवतः वह भी स्वयंप्रभा की तरह उत्तर देती
"चरन्त्या मम धर्मेण न कार्यमिह केनचित्" कि मुझे अपने धर्मपालन में किसी से कोई सहानुभूति अथवा सहाय्य नहीं चाहिए।
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संदर्भ सूची १. वा. रा. वा. का २०१५ २. वा. रा. अयो. का. २७२. ३. वा. रा. अयो. का. ३०१३ ४. वा. रा. अयो. का. २९।२१ ५. वा. रा. अयो. का. २९।५ ६. स्वप्नवासवदत्तम्/चतुर्थ अङ्क ७. वा. रा. अयो. का. २७४९ ५. उ. मे. श्लोक ३२
(ममता कुमारी)
शोध छात्रा संस्कृत विभाग, कला सवाय का. हि. वि. वि. वाराणसी-५
सर २२, मंक ४
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पुस्तक-समीक्षा
साहित्य-सत्कार एवं ग्रन्थ-चर्चा
१. श्री हजारीमल बांठिया अभिनंदन ग्रन्थ; पृष्ठ ६१६ (दो सौ से अधिक रंगीन चित्रों सहित) प्रकाशक --- श्री हजारीमल बांठिया सम्मान समारोह समिति, साकेत कॉलोनी, अलीगढ़ --- २०२००१, संपादक --- डॉ. गिर्राज किशोर अग्रवाल । मूल्य ११००/- रुपये।
प्रस्तुत अभिनंदन ग्रन्थ, शुभकामनाएं, संस्मरण, पत्रों के प्रकाश में, व्यक्ति एक संस्थाएं अनेक, बांठिया रचित साहित्य और बांठिया फाउण्डेशन---शीर्षकों से छह खण्डों में विभक्त है। श्रीयुत हजारीमलजी को उनके ७२वें वर्ष प्रवेश पर भेंट हुआ यह अभिनंदन ग्रन्थ, देश-विदेश से प्राप्त हुई ७० शुभकामनाओं और ७० ही संस्थाओं से उनके जुड़े होने के विवरण से महत्त्वपूर्ण बन गया है। यह बांठियाजी के विराट व्यक्तित्व का परिचायक है।
अभिनंदन ग्रन्थ में, बांठियाजी द्वारा लिखित सम्पूर्ण प्रकाशित साहित्य पुनः एक साथ मुद्रित कर दिया गया है। धार्मिक साहित्य, पूर्वज और महापुरुष, विविध रचनाएं, बाल साहित्य तथा मुनि जिनविजय और डॉ० तैस्सितोरी विषयक उनका लेखन-सब बहुत उपयोगी संग्रह है।
बांठिया फाउण्डेशन- शीर्षक खण्ड में बांठिया-वंश के संबंध में दुर्लभ जानकारी एकत्र हो गई है । इस खण्ड में जय तुलसी फाउण्डेशन के निदेशक श्री पन्नालाल बांठिया द्वारा प्रस्तुत बांठिया-वंश में हुई दीक्षाओं का विवरण है और प्रथम हिन्दी वाणिज्य पुस्तक लेखक कस्तूरमल बांठिया, स्वाधीनता संग्राम के अप्रतिम योद्धा अमर शहीद अमरचन्द बांठिया (ग्वालियर), लेश्या कोश, क्रिया कोश आदि के संपादक मोहनलाल बांठिया आदि के प्रेरणादाई जीवन चरित्र प्रकाशित हुए हैं।
पत्रों के प्रकाश में ---खण्ड, जो इस अभिनंदन ग्रंथ का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण खण्ड है, उसमें मुनि कांतिसागर, मुनिराज विद्या विजय, देवीलाल सागर, ब्रिजलाल बियाणी, राजा महेन्द्र प्रताप, जगजीवन राम, सुचेता कृपलानी, इन्दिरा गांधी, राजीव गांधी, ब्रजेन्द्रनाथ शर्मा, नैनान अब्राह्म, जी. डी. तपासे, के. के. सिन्हा, ब. दा. जत्ती, कृष्णदत्त वाजपेयी, रघुवीरसिंह सीतामऊ, काका हाथरसी, विश्वंभरनाथ उपाध्याय और इटली आदि से प्राप्त सभी पत्र बहुत आत्मीय और प्रभावोत्पादक हैं ।
वस्तुतः अभिनंदन ग्रंथ के संपादक ने उसे प्राप्त सामग्री का पूर्ण सदुपयोग किया है और इस बहाने बहुत कुछ प्रकाशित कर संरक्षित कर दिया है। यद्यपि इस ग्रंथ की कीमत ग्यारह सौ रुपये रखी गई है किन्तु इसे हर पुस्तकालय में पहुंचाने का सदुपयोग
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होना चाहिए ।
२. जिनस्तोत्र संग्रह - गणिनी आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी, प्रकाशक- दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान, हस्तिनापुर (मेरठ) प्रथम संस्करण, १९९२, पृष्ठ ५३२, मूल्य --- ६४ रुपये ।
वीरज्ञानोदय ग्रंथमाला में आर्ष मार्ग का पोषण करनेवाले विविध भाषाओं के लघु- बृहत् ग्रंथों का प्रकाशन होता रहा है । प्रस्तुत प्रकाशन इस ग्रंथमाला का १३५वां पुष्प है जो आर्यिकारत्न ज्ञानमती माताजी द्वारा संकलित उपयोगी जिन स्तोत्रों का संग्रह है । संग्रह में यथास्थान स्तोत्रों का हिन्दी पद्यानुवाद भी दे दिया गया है ।
प्रथम खण्ड में णमोकार मन्त्र के साथ पूर्व आचार्यों द्वारा रचित २१ स्तोत्र दिए गए हैं । द्वितीय खण्ड में ४४ स्तुतियां हैं जो सभी ज्ञानमती माताजी की रचनाएं हैं । तृतीय खण्ड में जिन सहस्र नाम, तीस चौबीसी और श्री तीर्थंकर स्तवन है । चौथे खण्ड में कल्याणकल्प तरु स्तोत्र है जिसका हिन्दी पद्यानुवाद भी दे दिया गया है । पांचवें खण्ड में पात्र केसरि स्तोत्र, गणधर बलय मंत्र, निषीथिका वंदना और ऋषिमण्डल स्तोत्र दिया गया है और छठे खण्ड में वैराग्य - भावना और समाधिमरण पाठ मुद्रित हुआ है ।
ग्रंथ की प्रस्तुति और प्रकाशन बहुत आकर्षक है और यह संग्रह ग्रंथ साधुजन, विद्वज्जन और सामान्य साधक - सभी के लिए परम उपयोगी बन पड़ा है । ३. द्रव्य संग्रह - ( आचार्य नेमिचन्द्र ), दोहानुवाद-मुनि समता सागर, प्रथम संस्करण - १९९६, प्रकाशक 'विजय कुमार मनीष कुमार' आदि चार फर्मे, पिण्डरई, पृष्ठ ७४ । मूल्य नहीं दिया गया ।
आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती ने प्रस्तुत ग्रंथ की ५८वीं गाथा के अनुसार गागर में सागर भरकर द्रव्य संग्रह कह दिया; किन्तु उनकी कही ५७ गाथाओं में जिस प्रकार भगवान् जिन तीर्थंकर द्वारा वर्णन किए जीव-अजीव द्रव्य का खुलासा हुआ है। उसे समझना आसान नहीं है । दोहानुवादकर्ता मुनि समता सागर ने स्वयं स्वीकार किया है कि ब्रह्मदेव सूरि कृत संस्कृत टीका का अनेकों बार स्वाध्याय करके उन्होंने इस ग्रंथ को हृदयंगम किया है और अपने पूज्य गुरुवर आचार्य विद्यासागर के दो बार किए गए पद्यानुवाद से अनुप्राणित होकर उन्होंने ये दोहे लिखे हैं ।
दोहे सरल, सुगम और सुन्दर बन पड़े हैं । कुछ उदाहरण देखिए जीव भोक्तृत्व - फलभोगे व्यवहार से सुख-दुःख कर्मन रूप | निश्चय से चिदभाव ही भोगे आत्म अनूप ॥ मोक्ष तत्त्व - सर्व कर्म क्षयकार जो भाव, भाव वह मोक्ष । तथा सर्वथा आत्मा से पृथक् कर्म द्रव मोक्ष ॥ सम्यग्ज्ञान - संशय विभ्रम मोह बिन स्वपर स्वरूप बताय । सो साकार अनेक विध सम्यक् ज्ञान कहाय ॥ चारित्र - दूर अशुभ से, शुभ लगे यह जिन कहे चरित्र ।
समिति गुप्ति व्रत रूप नय कह व्यवहार पवित्र ।।
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साधु-नित्य शुद्ध चारित्र जो साधे शिवभग रूप ।
साधु वे दृग ज्ञान से भरे नमूं सुख कूप ॥ भारतीय चिन्तन परंपरा में अद्वैत, द्वैत, वैत, पंच अथवा नव और पच्चीस तत्त्वों की मान्यता में जैन दर्शन द्रव्य के छह प्रकार मानता है
जीवाजीवप्रभेद से कहे गये छः द्रव्य ।
काल बिना पांचों रहे अस्तिकाय हे भव्य ।। अर्थात् जीव-अजीव भेद से द्रव्य छह प्रकार का है और काल द्रव्य को छोडकर शेष पांच द्रव्य अस्तिकाय हैं। काल द्रव्य एक प्रदेशी है किन्तु शेष पांचों-संख्यात, असंख्यात और अनन्त प्रदेशी हैं। आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा, मोक्ष और पाप-पुण्य, जीव-अजीव के विशेष भेद हैं ।
जैन दर्शन के अनुसार छह द्रव्यों में केवल पुद्गल ही एक ऐसा द्रव्य है जिसमें मिलने अथवा पृथक् होने की क्रिया होती है। यह पुद्गल शब्द, बन्ध, सौम्य, स्थोल्य, संस्थान, भेद, तप, छाया, आतप और उद्योत पर्याय से दस रूपों में प्रकट होता है। अर्थात् जैन दर्शन में पदार्थ स्कन्ध, स्कन्धदेश, स्कन्धप्रदेश और परमाणु में बंट सकता है। धर्म और अधर्म द्रव्य पुद्गलों की गति और ठहराव को संभव बनाते हैं जबकि आकाश सभी पदार्थों को स्थान देता है। वस्तुतः यह विषय बहुत जटिल है। इस दृष्टि से द्रव्य संग्रह की विस्तृत व्याख्या और आधुनिक विज्ञान निष्कर्षों से उसकी तुलना की जानी चाहिए। एलीमेंट और कम्पाउण्ड, रेडियो एक्टिविटी, इलेक्ट्रोन, मोलेक्यूज, एटम् आदि से जैन पुद्गलवाद और आधुनिक परमाणुवन्द की समीक्षा होने से यह विषय अधिक स्पष्ट होगा और जैन दर्शन की प्रामाणिकता सर्वविदित हो सकेगी। ४. शीला मंजूषा, संकलन कर्तृ-आर्यिका विशालमती एवं आर्यिका विज्ञानमती
माताजी, प्रकाशक-जयंती प्रसाद जैन, चमनलाल जैन, ज्ञान गंगा प्रकाशन, २०४ प्रकाश चेम्बर, दरियागंज, देहली, द्वितीयावृत्ति-२३.७.१९९६, मूल्य २१ रुपये।
'शील मञ्षा ' की उक्ति है कि शील सौख्यकर, प्रमोदजनक, कुलप्रशंसक, सारभूत गुण, लक्ष्मीदाता, शुभकर, यशः कर और भव तरण का प्रमुख साधन है। इसलिए भव्य जनो ! तीनों प्रकार के शील का पालन करो। डॉ. चेतन प्रकाश पाटनी का कहना है कि एक श्रावक के अनुरोध पर पूज्य आर्यिका विशालमती माताजी ने शील मञ्जूषा का प्रणयन किया है। इस मञ्जूषा में मनुष्य को जगाने और अन्तर्यात्रा पर ले जाने का पाथेय बन्द है। जीवात्मा अपने शील को पाने के लिए क्या करे और क्या न करे ? इसी का विवेचन इस कृति में है।
क्षुद्रता का परित्याग और ब्रह्मचर्य का पालन-इन विषयों का विशद् विवेचन यहां उपलब्ध है। मंजूषा के प्रथम अध्याय में ब्रह्मचर्य का स्वरूप, दूसरे में विवाह का प्रयोजन, तीसरे में संतान को संस्कारित करने के उपाय, चौथे में मैथुन का स्वरूप, पांचवें में मैथुन के दुष्परिणाम, सातवें में ब्रह्मचर्य रक्षा के उपाय और आठवें अध्याय में शील रक्षा में तत्पर प्रसिद्ध पुरुष एवं नारी रत्नों का परिचय दिया गया है।
सर्वांश में पुस्तक संग्रहणीय एवं पठनीय है। भौतिकता की चकाचौंध से कर्तव्य
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विमुख हो रहे युवक-युवतियों के लिए यह पाथेय निस्संदेह कल्याणकारक है और शील मंजूषा के रूप में उन्हें यह आर्यिकाजी का उदात्त अवदान है। ५. खामोश लम्हे-सुषमा बद, संपादक-तेजराज जैन, ३-४-३०८/७ परवरिश बाग, लिंगमपल्ली, कांचीगुड़ा, हैदराबाद-५०००२७, प्रथम संस्करण-१९९७, मूल्य-५०/रुपये ।
खामोश लम्हे, सुषमा बैद की कविताओं का संग्रह है। संपादक के शब्दों में यह कृति संयोग-वियोग के बीच व्यतीत भावों की एक सुन्दर और सुखद यात्रा है जिसे कवि ने मधुर अभिव्यक्ति प्रदान कर दी है । 'भावांकुर' के पश्चात् दो वर्ष के अन्तराल में प्रकाशित सुषमाजी का यह दूसरा कविता संग्रह है। वे अपने आत्मकथन में कहती हैं कि एक गृहिणी अपनी पारिवारिक जिम्मेवारियों को पूर्णतया निभाते हुए भी कछ समय सजनात्मक और रचनात्मक कार्यों के लिए निकाल सकती है।
सचमुच सुषमाजी ने भावांकुर के भक्ति गीतों से आगे बढ़कर खामोश लम्हों में कुछ चिन्तन-मनन किया है और उनकी कवि-मति का सद्प्रकाश उजागर हआ है
कवि-मति की बन सखी-सहेली, हर पल रहती है आसपास ।
महकाती मन के मंदिर को, फैलाती 'सुषमा' सद् प्रकाश ।।
महामहिम राष्ट्रपति डॉ. शंकरदयाल शर्मा के शब्दों में वह जितना सुन्दर लिखती है, उससे बेहतर गाती हैं और एक समीक्षक के शब्दों में भी उनकी प्रवत्ति गीत्यात्मक है किन्तु अभी उनके पास शब्द भण्डार की कमी है इसलिए उनका कविमन सुख-दु:ख के गहन अनुभव पर चुपके-चुपके रोता है और आहिस्ता-आहिस्ता दिल से दिल मिलाने की बात करता है
गम अश्रुओं की निर्भरणी में, दर्दे-दिल वह घोता है ।
जब लगती दिल को ठेस 'सुषमा', मन काव्य-स्रजन में खोता है ।।
आशा है, उनके भावांकर और फूटेंगे और ख़ामोश लम्हे उन्हें वाचाल बनाते रहेंगे। ६. सपर्या -महाश्रमण मुदितकुमार, प्रकाशक-सुरेन्द्र कुमार सुखाणी, सुखाणी मोहल्ला, बीकानेर, प्रथम संस्करण---१९९६ ।
प्रस्तुत लघु कलेवर काव्य संग्रह में महाश्रमण मुदितकुमार की १७ कविताएं हैं। ये कविताएं लोकप्रिय लयबद्ध गीतों के तर्ज पर लिखी गई हैं किन्तु स्वाभाविक गीतों की तरह गेय बन गई हैं । कुछ उदाहरण देखिए
१. जिसका जीवन सद्गुण-भाण्डागार है।
महापुरुष कहलाने का उस मानव को अधिकार है। नमन उसको हमारा बारम्बार है। २. संन्यासी का वेश लिया पर ग्रन्थि-विमोचन किया नहीं ।
औरों को उपदेश दिया पर स्वयं आचरण किया नहीं। आदर्शों पर चलना प्रभु से प्यार है ॥
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३. सत्संगत की महिमा अपरम्पार है।
हर मानव के लिए खुले ये संतजनों के द्वार हैं।
सन्तपुरुष का हर प्राणी से प्यार है । ४. औरों के कहने से कोई, बनता नहीं महान् ।
मैं कैसा हूं इसका सच्चा, व्यक्ति स्वयं प्रमाण ॥ मुझे तो करना निज कल्याण ।
मुझे तो करना जन कल्याण ॥ ५. श्रेष्ठ बालक वह सुगुण का जो अमित भण्डार है ।
मस्त अपने आपमें जिसका पठन से प्यार है ।।
ज्ञान के अनुरूप जिसके, उच्च स्वच्छ विचार हैं । इन्हें देखकर लगता है, महाश्रमण काव्य-स्रजन पथ के पथिक बनेंगे।
-परमेश्वर सोलंकी
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कालक्रम और इतिहास
१. मास और राशियों का निर्धारण
-शक्तिधर शर्मा २. नव कुरुक्षेत्र निर्माण-प्रशस्ति ।
-परमेश्वर सोलंकी ३. "जैन मेघदूतम्" के रचनाकार : आचार्य मेरुतुंग
-नीलम जैन ४. शैव जैन तीर्थ : बटेश्वर
--सन्दीप कुमार चतुर्वेदी
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खगोलविद्याः
मास और राशियों के निर्धारण
ग्रीनविच के ज्योतिषज्ञों ने भारतीय फलित ज्योतिष के ऊपर आक्षेप करते हुए यह तर्क उपस्थित किया है कि फलितशास्त्र में १२ ही राशि क्यों मानी गई है ? जबकि एक और नक्षत्रपुंज तेरहवीं राशि बन सकता है। इस प्रश्न का एक उत्तर यह है कि इस तथाकथित राशि - नागधारी नक्षत्रपुंज में तारे बिलकुल मंद प्रकाश हैं, अत: यह राशि नहीं कही जा सकती। इस उक्ति का विवेचन प्रो. प्रियव्रत ने मार्त्तण्ड पंचांग में कर दिया है । प्रस्तुत लेख में प्रो. शक्तिधर शर्मा ने यह स्पष्ट किया है कि वस्तुतः राशि चक्र से सम विभाग ही बनेंगे, विषम नहीं । अर्थात् १३ वां विभाग अथवा राशि बनने की कोई संभावना ही नहीं है । न कोई इसका सैद्धांतिक आधार ही है । अतः ऐसा प्रश्न उठाना और आक्षेप करना ही बेबुनियाद और सिद्धांत-विरुद्ध है ।
* शक्तिधर शर्मा
- संपादक
गत दिनों में 'ब्रिटेन एस्ट्रोनोमिकल सोसाइटी' द्वारा भारतीय फलित ज्योतिष पर आक्षेप किया गया था । ऐसे ही आक्षेप पिछली १२ वीं, १३ वीं तथा १७ वीं खीस्त शताब्दियों में भी अरब तथा यूरोपीय ज्योतिषियों ने किये, उत्तर यही था और है कि नागधारी मण्डल के तारे मन्द हैं । यदि इन नागधारी (ophinchus ) एवं वृश्चिक दोनों आकृतियों से बने तारा - विन्यासों को राशि मान लिया जाए तो भी यह राशि दो आकृतियों (वृश्चिक एवं नागधारी) वाली एक ही राशि होगी न कि ये दो राशि मानी जाएगी ! क्योंकि राशि की परिभाषा ३०° या सिद्धांततः लगभग ३० दिनों में सूर्य द्वारा भुक्त क्रांतिवृत खण्ड ही है । अतः इससे राशि संख्या नहीं बढ़ेगी। नागधारी एवं वृश्चिक राशि दोनों ही लगभग एक ही भोगांशों (या विषुवांशों) के आयाम में है । वृश्चिक एवं नागधारी १६ से १७h तक के विषुवांश आयाम में है, अन्तर केवल इतना है कि वृश्चिक का अधिक भाग क्रांति-वृत्त से दक्षिण की ओर तथा नागधारी का अधिकांश भाग क्रांतिवृत्त से उत्तर की ओर ( वृश्चिक के सापेक्ष उत्तर में ) नाड़ी बृत से आगे तक स्थित है । अतः ८वीं राशि दो आकृतियों से युक्त एक ही राशि है । तेरहवीं राशि नहीं । हमारे विचार में तो यह आपत्ति ही गलत है - आक्षेप करने वाले के ध्यान मैं यह नहीं है कि राशि संख्या सदैव १२ होगी और प्रत्येक का मान ३० ही है । यह बात नीचे स्पष्ट की जाती है । राशि विभाग ३० से कम ज्यादा सम्भवतः कभी नहीं माना गया। इस बात को स्पष्ट करने की पद्धति से परिचय आवश्यक है । आक्षेपकर्ता ब्रिटेन ज्योतिषज्ञों का इस पद्धति पर ध्यान नहीं गया। क्योंकि आज से कई हजार वर्ष
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पूर्व अपनाई गई पद्धति आज हम सब के लिये ओझल हो गई । ज्योतिष के प्राचीनतम इतिहास में आज के विद्वान प्रयत्न ही नहीं करते -- उन्हें तो यह ज्ञान विरासत में प्राप्त है।
भ्राता प्रियव्रतजी ने दीप्ति स्थिरांक (Magnitudes)लेकर इसका विवेचन किया जो कि तर्कसंगत सर्वप्रथम प्रशस्य प्रयास है । उन्होंने राशियों के १५०,३०,४५°विभागों का (सम एवं विषम विभागों का) उल्लेख भी किया है । इस संदर्भ में मुझसे भी बहुत से विद्वानों ने प्रश्न किये । नक्षत्रों के अर्ध, सम तथा अध्यर्ध (१५ मुहूर्त ३० मुहूर्त तथा ४५ मुहूर्त) विभागों की तरह ये विभाग रहे होंगे । यह सोचना भी स्वाभाविक है। परन्तु वस्तुस्थिति यह नहीं है । इस प्रकरण में वस्तुस्थिति का स्पष्टीकरण राशिज्ञान की प्रायोगिक पद्धति (Practical Methodology) से होगा। मासों की परिभाषा
प्राचीन काल से ही मात्र चन्द्रमा की कलाओं से मास परिभाषित हुए । चन्द्रमा की कलाएं अमावस से पूर्णिमा तक बढ़ती हैं और पूर्णिमा से अमावस तक कलाएं क्षीण होती हैं । इस वृद्धिक्षय में २९.५३ दिन यानी लगभग ३० दिन लगते हैं। अत: मास ३० दिन का माना गया। यहां यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि चन्द्रमा ही मास बनाने वाला है (चन्द्रो व मासकृत्) न कि सूर्य । सूर्य की गति मास परिभाषित नहीं करती, उससे तो वर्ष परिभाषित हुआ । मनुष्य ने पहिले चन्द्रमा की कलाओं से मास-परिभाषा अन्तिम रूप से लगभग ३० दिन की स्वीकार कर ली। इसी कालावधि में सूर्य की गति का अध्ययन शुरू हुआ।
सूर्य चाकचाक्य से युक्त देदीप्यमान पिण्ड है । अतः इसके वेध से प्राचीन काल में मनुष्य इस की गति के मार्ग का अध्ययन नहीं कर सकता था । इसकी चौन्ध में मनुष्य किसी भी तारे को नहीं देख सकता। अतः यह स्पष्ट है कि जिस प्रकार से चन्द्रमा की नक्षत्रों में गति का अध्ययन किया गया वह पद्धति सूर्य की गति के अध्ययन में बिलकुल उपयोगी नहीं । चन्द्रमा के योगतारा जो कि चन्द्रमा के साथ योग (युति) करने वाले तारे हैं, उनके साथ सूर्य की युति प्रत्यक्ष दृश्य नहीं लगती। इसलिए सूर्य की गति के अध्ययन के लिये सूर्यास्त के समय से सूर्योदय तक के काल (अर्थात् रात्रि) का उपयोग किया गया होगा । रात्रि के समय सूर्य की राशि से १८० अन्तर वाली राशि से पीछे की पांच या छः राशि ही दिखाई देती है ।
जब सूर्य अस्त होता है तो उसकी राशि से सप्तम राशि पूर्व में उदित हो रही होती है। जब सूर्य मेष के प्रारम्भ में हो तो सूर्यास्त समय पूर्व में तुला राशि दृष्टिगत होगी। १ मास तक प्रति रात्रि देखने से ३० के अन्दर की आकृति की पहिचान कर ली गई जो कि तुला राशि कहलाई। अगले मास सूर्य वृष राशि में होने पर वृश्चिक राशि से परिचय होगा । इस प्रकार सभी राशियों का ज्ञान हुआ होगा। यहां यह स्पष्ट कर देना उचित है कि एक या क्रमशः अधिक राशियों से परिचय होने पर एक ही रात में कई राशि दृश्य होंगी । इस प्रकार राशि-चक्र के काफी भाग की पहिचान
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हो जाएगी। पूरे वर्ष देखने से पूरे राशि चक्र से परिचय संभव है ।
राशि की आकृतियों की पहिचान, क्रांति-वृत के सापेक्ष, निर्धारित की जाती है । राशियों की आकृतियां परिभाषित करने के लिये उन तारों को लिया गया जो नीचे लिखी शर्तें पूरी करें ।
(१) तारे चमकदार हों । वेधकर्ता के लिये यह आवश्यक था आकृति में चमक वाले तारे लिये जाए क्योंकि उन्हें देखना, होगा ।
(२) कुछ तारे क्रांतिवृत पर हों क्योंकि आकाश में वृक्ष, मकान आदि की पृष्ठभूमि ( Back ground) नहीं है अतः सूर्य के भ्रमण के मार्ग (क्रांतिवृत) की पहिचान उस पर पड़ने वाले तारों से ही होगी ।
कि राशि की पहिचानना सरल
ऊपर दी गई स्थितियों में से नं. (१) स्थिति तो सरलता से ही आलापित (satisfied) की जा सकती है । परन्तु सूर्य की कक्षा पर कौन कौन से तारे हैं ? यह नंगी आंख द्वारा वेध करना असंभव है । सूर्य के चाक- चाक्य के तारे देखे नहीं जा सकते। देखने की जिद्द करेंगे तो देखने वाले ही है। सूर्य के मार्ग का दर्शन केवल सूर्य ग्रहण के समय ही राशि के क्रांतिवृत अथवा उसके आसन्न तारों को जानने की लिये वर्षो तक की प्रतीक्षाएं करनी पड़ेंगी। इन सभी अध्ययनों के पिछले रिकार्ड सुरक्षित और राशिचक्र जानने में सैकड़ों वर्ष लगे होंगे ।
कारण उसकी कक्षा के का अन्धा होना निश्चित संभव है । अत: प्रत्येक
सूर्य ग्रहणों रखने होंगे
ऐसी स्थिति में प्रश्न हो सकता है कि क्या राशियों के कभी विषम विभाजन भी रहे हैं ? इस तथ्य की पड़ताल करने के लिये पहिले यह आवश्यक है कि चन्द्रमा के मार्ग ( नक्षत्र - चक्र) के विभाजन एवं अंकन पर विचार किया जाए ।
चन्द्रमा के मार्ग का विभाजन व अंकन
आजकल विषुववृत्त (नाड़ी वृत ) का अंकन पृथ्वी के अक्ष भ्रमण से किया गया है । इसके बराबर विभाजन हुए क्योंकि पृथ्वी की अक्ष भ्रमणगति समरूप है । उसे आजकल घण्टा, मिनट में अंकित किया गया है। इसके लिये प्रारम्भ बिंदु वसन्तसम्मात बिंदु ( वह बिंदु जहां सूर्य २१ मार्च को होता है) लिया गया है । ध्यान रहे ज्यॉग्राफी ने पृथ्वी के विषुववृत ( Eduator) को ग्रीन्विच से समरूप विभागों में अंकित किया जाता है और ज्योतिष में खगोलीय विषुववृत ( जो कि पृथ्वी के नाड़ी वृत का आकाश में विस्तारित रूप ही है) का अंकन ग्रीन्विच से नहीं अपितु ज्योतिषीय शून्य बिंदु (वसंतसंपात ) से किया जाता है ।
भारतीय परम्परा में चन्द्रमा की कक्षा को अंकित करने की परिपाटी रही है । चन्द्रमा की कक्षा पतली लीह की तरह नहीं, अपितु एक पहिये की तरह है । चन्द्रमा राहु के भगणकाल १८ वर्ष में इस लीह के अन्तर्गत तारों से योग (युति) करता रहता है क्योंकि चन्द्रमा की कक्षा धीरे-धीरे क्रांतिवृत्त से ५ उत्तर व दक्षिण की ओर खिसकती रहती है । चन्द्रमा की गति भी उच्च की स्थिति के अनुसार घटती-बढ़ती रहती है । इसकी गति अधिकतम १५ अल्पतम गति ११० के करीब है । अतः चन्द्रमा
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की गति के अध्ययन में निम्न स्थितियां प्राप्त हो सकती हैं
(क) एक दिन कि चन्द्रमा की यात्रा में एक योग तारा मिल जाए जो कि नक्षत्र चक्र में लिया जा सके। ऐसे नक्षत्र ३० मुहूर्त के माने गए क्योंकि एक दिन ( ३० मुहूर्त ) में कम से कम एक तारा चन्द्रमा के मार्ग का परिचायक पाया गया । इस विभाग का नाम इसी तारे के नाम से होगा। प्राचीन काल से ऐसी ही परम्परा रही । अथवा
(ख) यह भी संभव है कि चन्द्रमा की अल्पतम गति से भी दिन में ही एक योगतारा प्राप्त हो जाय । यह विभाग गया क्योंकि आधे दिन में ही इस नक्षत्र का परिचायक योग
एक
दिन से कम आधा १५ मुहूर्त का माना तारा मिल गया ।
अथवा
(ग) यह भी संभव है कि चंद्रमा की अधिकतम गति से भी एक दिन तक योगतारा प्राप्त न हो। ऐसी स्थिति में डेढ़ दिन में तो एक योगतारा अवश्य ही प्राप्त हो जाता है । इस नक्षत्र विभाग को ४५ मुहूर्त का (यानी डेढ़ दिन का ) कहा जाता है ।
इस प्रकार तीन प्रकार के नक्षत्र हुए। इन सभी के मुहूर्ती का जोड़ चंद्रमा का नक्षत्रमास बनता है । इससे अभिजित् नक्षत्र सबसे अलग ४° के लगभग है । इस प्रकार प्राचीनकाल में नक्षत्रों के विषय विभाजन रहे और बाद में सुविधा के लिये सभी विभाग सम कर दिये गये ।
राशियों के विभाग
क्या चंद्रमा की कक्षा में नक्षत्रों के विभाजन की तरह सूर्य की कक्षा के सम्बद्ध राशियों के विषम विभाग भी संभव है या नहीं ? यहां ध्यान देने योग्य है
(अ) सूर्य की गति में परिवर्तन बहुत ही कम होता है, जबकि चंद्रमा की गति में परिवर्तन बहुत अधिक है। सूर्य की गति समरूप मानी जा सकती है ।
( आ ) सूर्य की एक मास की यात्रा में उससे १८० पर एक राशि आकृति (जिसकी पहचान सरलता से की जा सकती है ) ३० के भीतर अवश्य ही प्राप्त हो जाती है ।
(इ) इन प्रत्येक विभागों में क्रांतिवृत की परिधि पर या इसके पास के परिचित तारे प्राप्त हो ही जाते हैं। यदि आप राशि चक्र के चित्र देखें तो सहज ही यह जान सकेंगे कि प्रत्येक राशि ३० के अन्दर ही आ
जाती है ।
चंद्रमा की कक्षा ५ तक फैली हुई है और इसके सूक्ष्म परिधि है और इसकी गति समरूप है । इसके लिए लिया गया जो कि प्रयोग में पर्याप्त सिद्ध हुआ । इस प्रकार सभी राशियां ३०° की ही बनीं। अतः राशियों के विषम विभाग प्रयोग में अनिवार्य रूपेण प्राप्त नहीं हुए । लगभग ३० दिन की इकाई (मास) से ३०° के अंकन ही सहज स्वीकृत हो गए । अतः प्राचीन काल में राशियों के विषम विभाग संभवतः कभी प्रयोग में नहीं आए । इस प्रकार सिद्धांत परिप्रेक्ष्य में भी ब्रिटेन ज्योतिषज्ञों के अक्षेप आधारहीन हैं भले ही वे फलित परिप्रेक्ष्य में किए गए हों ।
विपरीत सूर्य की कक्षा एक
१ मास का इकाई समय
--डॉ० शक्तिधर शर्मा प्रोफेसर (भौतिकी).
पंजाबी यूनिवर्सिटी, पटियाला ( पंजाब )
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नव कुरुक्षेत्र निर्माण-प्रशस्ति
परमेश्वर सोलंकी
श्री आर. सी. मजूमदार ने बम्बई ब्रांच ऑफ रॉयल एशियाटिक सोसाइटी के जर्नल (वोल्यूम ३४.३५) में एक प्रशस्ति प्रकाशित की थी। उस प्रशस्ति में नव कुरूक्षेत्र निर्माण का उल्लेख है । यह प्रशस्ति कोति-स्तम्भ के रूप में है और 'वट लोंग काउ' (Vat Luog Kau) नामक स्थान पर है जो कम्बोडिया के उत्तर में स्थित लाओस देश में है । वहां अनेकों मंदिर, देव प्रतिमाएं और शिलालेख भी बताए गए
__ प्रशस्ति पर कोई संवत्सर उत्कीर्ण नहीं है किंतु महाराजाधिराज श्री देवानीक का नाम उत्कीर्ण है जो संभवतः वहां गये किसी कुरूवंश का प्रतापी राजा है। प्रशस्ति में उसे युधिष्ठिर, इन्द्र, धनञ्जय और इन्द्रद्युम्न के सदृश यशस्वो बताया गया है । उसने अनेकों यज्ञ किए और यह सोच कर कि कुरूक्षेत्र में रहने वाले, वहां स्नान करने वाले और वहीं मृत्यु को प्राप्त होने वाले पुण्यभाक् होते हैं, उसने घट लौंग काउ में, मेकांग नदी के पर्वतीव आंचल में, नव कुरूक्षेत्र का निर्माण कराया और उसकी प्रशस्ति में लिखवाया कि मैं कुरुक्षेत्र जाऊंगा, मैं कुरूक्षेत्र में बसता हूं। कुरुक्षेत्र का माहात्म्य
कुरुक्षेत्र का निर्माण सोमवंशी राजा कुरू ने किया था जो महाराजा युधिष्ठिर से सोलह पीढ़ी पूर्व हुआ । महाभारत-युद्ध के बाद इस क्षेत्र का पुण्य क्षीण होने लगा और यह शनैः शनैः महिमा-गरिमाहीन होता रहा। वामन पुराण (२२.५९) में इसका इतिहास दिया है
आद्यैषा ब्रह्मणो वेदिस्ततो रामहृदः स्मृतः ।
कुरूणा च यतः कृष्टं कुरूक्षेत्रं ततः स्मृतम् ।। कि पहले यह ब्रह्मवेदि था। जैसे पुष्कर ब्रह्मवेदि था। बाद में द्रुमकुल्य समुद्र के सूखने पर यहां रामहृद (समन्तपंचक) बना और कालान्तर में कुरू ने इसे आवास योग्य बनाया तो यह कुरूक्षेत्र कहा गया। शतपथ ब्राह्मण और जाबालोपनिषद् में इसे देवयजन का स्थान कहा गया है । शंख स्मृति १४.२९) में वाराणसी, महालय और कुरुक्षेत्र को एक समान बताया गया है-वाराणस्यां कुरुक्षेत्रे भृगतुंगे महालये। किंतु पद्मपुराण (स. खं. ११.१४) के उल्लेख से यह कम प्रभावशील बन गया लगता है
कुरूक्षेत्र महापुण्यं यत्र मार्गोऽपि लक्ष्यते । अद्यापि पितृतीर्थ तत्सर्व काम फल प्रदम् ॥
पण २२, बंक ४
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महाभारत-महाकाव्य में कुरूक्षेत्र की अनेक प्रशस्तियां हैं । वहां लिखा है
पृथिव्यां नैमिषं तीर्थमन्तरिक्षे च पुष्करम् ।
त्रयाणामपि लोकानां कुरूक्षेत्रं विशिष्यते ॥ कि पृथिवी पर नैमिष, अन्तरिक्ष में पुष्कर और त्रिविष्टप (तीनों लोक-पृथिवी, अन्तरिक्ष और दिव) में कुरूक्षेत्र सर्वश्रेष्ठ है । महाभारत के वन पर्व (अध्याय-८३) में कुरूक्षेत्र का माहात्म्य भी दिया गया है
ततो गच्छेत् राजेन्द्र ! कुरूक्षेत्रमभिस्टुतम् । पापेम्यो यत्र मुच्यन्ते दर्शनात्सर्वजन्तवः ।। कुरूक्षेत्रं गमिष्यामि कुरूक्षेत्रे वसाम्यहम् । य एवं सततं ब्रूयात्सर्व पापैः प्रमुच्यते ।। पांसबोपि कुरूक्षेत्रे वायुना समुदीरिता । अपि दुष्कृतकर्माणं नयन्ति परमांगतिम् ।। दक्षिणेन सरस्वत्या दृषद्वत्युत्तरेण च । ये वसन्ति कुरूक्षेत्रे ते वसन्ति त्रिविष्टपे । तत्र मासं वसेद्वीरः सरस्वत्यां युधिष्ठिरः । यत्र ब्रह्मादयो देवा ऋषयः सिद्ध चारणाः ॥ गन्धर्वाप्सरसो यक्षाः पन्नगाश्च महीतले । ब्रह्मक्षेत्रं महापुण्यमभिगच्छन्ति भारत ।। मनसाप्यभिकामस्य कुरूक्षेत्र युधिष्ठिरः । पापानि विप्रणश्यन्ति ब्रह्मलोकं च गच्छति ॥ गत्बाहि श्रद्धयायुक्तः कुरुक्षेत्रं कुरूद्वह ।
फलं प्राप्नोति च तदा राज सूर्याश्वमेधयोः ।। इसी प्रकार नारदीय पुराण (११.६४.२३-२४) में भी कुरुक्षेत्र का माहात्म्य लिखा है । इसी पुराण के उत्तरार्द्ध (अध्याय-६५) में, कुरूक्षेत्र क्षेत्र में लगभग सौ तीर्थ गिनाए गए हैं। कुरूक्षेत्र का वर्चस्व
___शतपथ ब्राह्मण की एक कथा में अथर्वा के पुत्र दधीचि द्वारा इन्द्र को गुप्त विद्या सिखाने का उल्लेख है । इन्द्र ने विद्या सीखने के वाद दधीचि को सावचेत किया कि वह यह विद्या अब और किसी को न सिखाये नहीं तो वह, उसका सिर काट देगा। अश्विनीकुमारों ने उनकी यह वार्ता सुन ली और दधीचि को कहा कि वह उन्हें गुप्त विद्या सीखादे । वे उसकी इन्द्र से रक्षा करेंगे। तदनुसार अश्विनीकुमारों ने दधीचि का सिर अलग करके उसके घोड़े का सिर लगा दिया और उससे गुप्त विद्या सीख ली। इन्द्र को जब यह मालूम हुआ तो उसने दधीचि का सिर-छेदन कर दिया किंतु अश्विनी कुमारों ने उसका मूल सिर वापस लगा दिया ।
_ इस प्रकार दधीचि का घोड़े का सिर कट कर जहां गिरा उस स्थान को 'शर्याणावत्' कहा गया। बाद में इसे प्लक्षसर अथवा प्लक्ष प्रासवण कहा गया। शतपथ
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ब्राह्मण में दी एक अन्य कथा में पुरूरवा को दिन में नग्न देखकर उर्वशी तिरोहित हो गई तो पुरूरवा ने उसे ढूढते हुए कमलों से आच्छादित कुरूक्षेत्र के प्लक्षसर पर पाया। इस प्लक्षसर का उल्लेख अनेकों प्राचीन ग्रन्थों में भी मिलता है ।।
प्लक्षसर से सरस्वती पश्चिम को मुड़ती है और ४४ आश्वीनानीति (आश्विनं अथवा आश्वीनं-घुड़सवार की एक दिन की यात्रा-देखे : सहस्राश्वीने वा इतः स्वर्गोलोक :-ऐतरेय ब्राह्मण) दूरी पर विनशन में अन्तसंलिला हो जाती है ।
अतः प्लक्षसर सरस्वती का मध्यवर्ती आवर्त (भंवर) है जो शर्यणावर्त, प्लक्ष, ब्रह्मसर आदि विभिन्न नामों से अभिहित है । ताण्ड्य ब्राह्मण, वामन पुराण, नारद पुराण, महाभारत आदि में इसका विवरण है।
तैत्तिरीय आरण्यक में कुरूक्षेत्र की सीमा दी गई है-तेषां कुरुक्षेत्रं वेदिरासीत् । तस्य खाण्डवो दक्षिणार्ध आसीत् । तुनमुत्तरार्धः । परीणजघनार्धः मरवः उत्करः।अर्थात् कुरूक्षेत्र ब्रह्मवेदि था। उसके दक्षिण में खाण्डव वन, उत्तर में तूर्ध्न प्रदेश तथा उसका जघन परीण और ऊंचा उठा हुआ मरुप्रदेश था। इन में खांडव वन को जला कर पाण्डवों ने इन्द्रप्रस्थ बसाया था । तू प्रदेश, तक्षशिला और पाटलिपुत्र को जोड़ने वाले मार्ग पर स्थित था। पंतजलि ने उसकी राजधानी सुघ्न को मथुरा की तरह प्रसिद्ध बताया है और उसके प्राकार और प्रासादों को दर्शनीय कहा है।' परीण और परिणह कुरूक्षेत्र का पश्चिमी भाग है, जहां ताण्ड्य ब्राह्मण के अनुसार अग्नि प्रज्वलित करने का विधान है--संवत्सरे परीण ह्यग्नीना वधीत (२५.१३.१) । परीण से लगा मरूप्रदेश था । ___मनुस्मृति के अनुसार कुरूक्षेत्र से लगता प्रदेश मत्स्य था और उससे सटा पांचाल और शूरसेनक । यह ब्रह्मावर्त के बाद ब्रह्मर्षिदेश कहा जाता था ।' अभिधान चितामणि के अनुसार ब्रह्मावर्त सरस्वती और दृषद्वती नदियों के मध्य का भाग था । जो महाभारतकाल में सिमट कर वर्तमान हरियाणा प्रदेश जैसा हो गया ।१ कुरूक्षेत्र का ऐतिह्य
कृष्ण यजु : संहिता में आये विवरण के अनुसार कुरूक्षेत्र की भूमि पर ब्राह्मणों का राज्य था- ये देवा देवसुवः स्थ त इममामुष्यायणमनमित्राय सुवध्वं महते क्षत्राय महत आधिपत्याय महते जनराज्यायष नो भरता राजा सोमोऽस्माकं ब्राह्मणानां राजा । -जिसका राजा सोम था । उसके पूर्वजों में देवदत्त, यज्ञदत्त, आममित्र---इन तीन राजाओं के नाम मिलते हैं ।१२ कृष्ण यजु : संहिता के अनुसार इस ब्राह्मण राज्य में प्रति वर्ष १२ दिनों का रत्नि होम कार्य होता था जिसमें प्रथम दिन ब्राह्मण गृह में जाकर राजा बृहस्पति चरू से यज्ञ करता और श्वेत रंग का वृषभ (बैल) दक्षिणा में दान करता । दूसरे दिन क्षत्रिय के घर में, तीसरे दिन राजपहिषी (महारानी) के घर, चौथे दिन वावाता (प्रिय रानी) के घर, पांचवें दिन परिवृक्ता (अप्रिय रानी) के घर, छठे दिन सेनापति के, सातवें दिन सारथी के, आठवें दिन अन्तःपुराध्यक्ष के, नवमें दिन ग्रामणी के, दशवें दिन संग्रहीता (कोषाध्यक्ष) के, ग्यारहवें दिन भागदुध (राजस्व संग्रहकर्ता) के तथा बारहवें दिन द्यूतकार (जूआ कराने वाले) के घर जाकर "खण्ड २२, अंक ४
ममम
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श्रुति अनुसार यज्ञ कर्म कराता और देवता यजन होता था । संभवत: इसीलिये कुरुक्षेत्र को देवयजन का स्थान कहा जाता था। १३
महाभारत युद्ध पश्चात् बहुत समय तक यहां पाण्डव वंशजों का राज्य रहा। बौद्ध जातकों के अनुसार यहां युधिष्ठिर गोत्रीय कौरव्यों का राज्य था। भविष्य पुराण के अनुसार कलियुग के दो हजार वर्ष बीतने तक सारस्वत क्षेत्र में म्लेच्छों का प्रवेश नहीं हो पाया था ।१५ वट लौंग काउ प्रशस्ति का लेखापयिता राजा देवानीक भी यहां के कौरव्य राजा धनंजय, इन्द्रद्युम्न आदि को अपना आदर्श मानता है। मनु ने भी कुरूक्षेत्र, मत्स्य, पांचाल और शूरसेनक क्षेत्रों के छोटे-बड़े सभी क्षत्रियों को लडाकू होने से सेना के अग्रभाग में रखने की व्यवस्था दी है। प्रशस्ति का मूल पाठ
पंक्ति (१)-- पंक्ति (२)
(पाठ अस्पष्ट पंक्ति (३)--
हो गया है।) पंक्ति (४)----- पंक्ति (५) ये वसन्ति महातीर्थे, तत्र च ये मृताः नराः ।
स्तवनं ये च कुर्वन्ति, तत् फलं प्राप्नुवन्ति ते ।। (६) यत्तत् पुण्योपमफलं, प्रभासादिपुराकृतेः ।
देवानीकाख्य देवात्र, भवतु धृतमद्य मे ॥ " (७) ये देवा यज्ञमात्रार्थभागतारोहिता दिवि ।
ब्रह्मोपेन्द्रेश्वराद्यास्ते तन्नाम प्रदशिन्तु वै ।। इत्येवमादि प्रणिधी, राज्ञश्चिन्तयतस्तदा ।
नामगतं कुरूक्षेत्र, (पुण्यप्रा) प्यफलैस्समम् । (९) यत् पूर्वाभिहितं स्वयं, फल देवर्षिकीतितं ।
कुरूक्षेत्र तदेवास्तु, कुरूक्षेत्र नवोथ्थित्ते ।। " (१०) ऋषिणा कुरूणापूर्व, (कष्ट) क्षेत्रीकृतं सतां ।
तस्मादिति कुरूक्षेत्रं, ख्यातं तीर्थ महाफलम् ।। " (११) तत्रैवापि कुरूक्षेत्रे, वासुना समुदीरिताः ।
महादुष्कृतकणिं, नयन्ति परमां गतिम् ।। " (१२) कुरूक्षेत्रं गमिष्यामि, कुरूक्षेत्रे व्यासाम्यहम् ।
ये वसन्ति कुरूक्षेत्रे , ते वसन्ति त्रिविष्टपे । " (१३) पृथिव्यां नैमिषं पुण्यमन्तरीक्षे तु पुष्करम् ।
नृपानामपिलोकानां, कुरूक्षेत्रं विशिष्यते ।। " (१४) तन्नाम कीर्तनेनापि, केन ह्यासण्वतं कुलम् ।
किं पुनर्येतु सेवन्ते, मनुजा धर्म बुद्धयः ।। " (१५) अश्वमेधसहस्रस्य, वाजपेय शतस्य च ।
गवां शत सहस्रस्य, सम्यग्दत्तस्य यत्फलम् ॥
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" (१६) तत्फलं तु कुरुक्षेत्रे, कुर्वन्ति स्तवनादि ये ।
___तत्राप्य हेतु दुष्प्रापं, लभन्ते ते ध्रुवं फलम् ।। " (१७) इत्येवमादिकुशलं, पूर्वमुक्तं श्रुतर्षिभिः ।
तदेवात्र कुरूक्षेत्रे, लभन्तु बहवो जनाः ।। " (१८) यानि तीर्थसहस्राणां, कुरूक्षेत्रे फलानि च ।
अत्र निश्शेषास्तानि, सन्तु सन्निहितानि च । " (१९) अर्द्धयोजनमायाममस्य तीर्थस्य कीतितम् ।
यं यं प्रदेशमागम्य, स महापाप पावनः ॥ (२०) ये शरीर परित्यागं, कुर्वन्ति स्ववनं च ये ।
ते तृष्णया च सेवन्ते, पिवन्ति च समाहिताः॥ " (२१) येषामग्निमरवादीनां, दानानां नैक सम्पदाम् ।
फलानि यान्यशेषाणि, प्राप्यन्तां तानि ते जनाः ॥ " (२२) पापिष्ठाखिल पुरूषा, मुच्यन्तां बहुपापतः ।
किं पुनर्धर्म निरता, महातीर्थ निषेवनात् ।। उक्त प्रशस्ति चौकोर पत्थर स्तंभ (कीत्तिमुख स्तंभ) पर चारों ओर उत्कीर्ण है जिसमें प्रथम भाग (एक पाव) के अधिकांश अक्षर अस्पष्ट हो गए हैं, किन्तु उस भाग में ब्रह्मा, विष्णु और शिव की स्तुति के बाद महाराजाधिराज श्री देवानीक को महाराजा युधिष्ठिर, इन्द्र, धनंजय, इन्द्रद्युम्न आदि के सदृश अनेकों यज्ञ कार्यकर्ता और यशस्वी बताया गया है।
प्रशस्ति के श्लोक संख्या १०, ११, १२, १३, १४ आदि प्रायः ज्यों के त्यों महाभारत-महाकाव्य, वामन-सरोवर, मत्स्यपुराण, अग्निपुराण, पद्मपुराण आदि में समुपलब्ध होते हैं । इन श्लोकों में प्रथम दो श्लोक, ऋषि कुरू और वासुदेवकृष्ण का कुरुक्षेत्र से संबंध बताते हैं।
प्रशस्ति का छठा श्लोक बहुत महत्त्वपूर्ण सूचना देता है। प्रभासादि में पुण्योपम कार्य करने की बात कह कर इस श्लोक में राजा देवानीक के प्रशस्ति लेखक ने सरस्वती नदी का प्रभास क्षेत्र से संबंध बताया है जो सरस्वती नदी के सीधे रण ऑफ कच्छ में जाने की ओर इंगित करता है ।
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संदर्भ :
१. कुरुवंश में कुरू के बाद क्षेमकं तक ४८ राजाओं के नाम मिलते हैं । दक्षिणभारत के ताम्रपत्रों में क्षेमक के बाद नरवाहन, शतानीक और उदयन के नाम हैं और ५९ उत्तराधिकारियों के बाद १६ और राजाओं के नाम लिखे गए हैं । तदुपरांत राजा जयसिंह के प्रपोत्र, रणराग के पौत्र, पुलकेशीपुत्र श्री कीर्तिवर्मा का काल शक संवत् ४८९ लिखा है । ३२ वर्ष प्रति पीढ़ी के हिसाब से यह सही है और भारतीय कालगणना के अनुरूप है । कुरू राजा युधिष्ठिर से १६ पीढ़ी पूर्व हुआ जिससे १३० पीढ़ी के ४१६० वर्ष अथवा कुरू से राजा युधिष्ठिर तक ५०० वर्ष + ३१७९+४८९=४१६८ वर्ष ही होते हैं ।
इसी प्रकार उत्तर कुरूओं का कालक्रम और बंशावली शोधी जानी चाहिए । महाभारत में उत्तर - कुरूओं का उल्लेख है --
उत्तरे कुरुभिः सार्धं दक्षिणाः कुरवस्तथा । विस्पर्धमाना व्यचरंस्तथा देवर्षि चारणः ॥
स्वयं
( आदि पर्व १०८.१० ) ऐतरेय ब्राह्मण (८.१४) में उत्तरकुरुओं के अभिषिक्त राजा कहे गए हैं'उदीच्यां दिशि ये के च परेण हिमवन्तं जनपदा उत्तर कुरूव उत्तर भद्रा इति वे राज्या यं व तेऽभिषिच्यन्ते ।' ऐसे ही और भी अनेक उल्लेख हैं । प्रस्तुत वट लौंग काउ - प्रशस्ति में कौरव्य राजा धनंजय का नाम है और प्रभासादि क्षेत्रों में राजा देवानीक द्वारा पुण्य कर्म करने का उल्लेख है | २. देखें
जाबा
- शतपथ ब्राह्मण के प्रवर्ग्य काण्ड में उल्लिखित वाक्य - ' तेषां कुरूक्षेत्रं देवयजनमास । तस्मादाहु कुरूक्षेत्रं देवानांदेवयजनम्" इसी प्रकार लोपनिषद् में भी - ' यदनु कुरूक्षेत्रं देवानां देवयजनं सर्वेषां भूतानां ब्रह्मसदनम् ।'
संभवत: पुष्कर और कुरूक्षेत्र में बनीं इन वेदियों पर निरन्तर यज्ञ-याग होते. रहते थे । मैत्रायणी संहिता में यहां देवताओं द्वारा आहुति देने का उल्लेख है । तैत्तिरीय संहिता के अनुसार भी यहां देवों ने आहुतियां दी थीं ।
1
३. पंचविंश ब्राह्मण (२५.१३.३ ) के अनुसार पुष्कर से कुरूक्षेत्र तक ब्रह्मवेदियों की
सीमा थी
१२
प्रजापतेर्वे दिय्यावत् कुरूक्षेत्रमिति
- किन्तु वामन पुराण (२३.१८ - २० ) के काल में पांच बेदियां बन चुकीं थीं
वेदयो लोकनाथस्य पंच धर्मस्य सेतवः । प्रयाग मध्यमावेदिः पूर्वावेदिगया शिरः ॥ विरजा दक्षिणावेदिरनन्त फलदायिनी । प्रतीची पुष्करावेदिस्त्रिभिः कुण्डेरलंकृता । समन्तपंचका चोक्ता वेदिरेवोत्तराख्यया ॥
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इसी प्रकार महाभारत युद्ध पूर्व की, कुरूक्षेत्र की सीमा तैत्तिरीय आरण्यक (५.१.१) में दी गई है-'तेषांकुरूक्षेत्रं वेदिरासीत् । तस्यै खाण्डवो दक्षिणार्ध आसीत् । तून मुत्तरार्धः । परीणज्जधनार्ध: मरवः उत्करः।' तून प्रदेश का प्रमुख नगर स्रुघ्न था जिसका उल्लेख महाभाष्य और काशिका में मिलता है । देखें-महाभाष्य, द्वितीय आह्निक और काशिका में १.३.२५, २.३.४ और
४.३.३९ के उदाहरण । ४. इस कथा का मूल ऋग्वेद (१.८५.१४) में माना जाता है - इच्छन्नश्वस्यच्छिरः पर्वतेब्वपश्वितं । तद् विदर्छयणावति ॥ सायण और मैम्समूलर ने इसे कुरूक्षेत्र का ब्रह्मसर माना है । कई विद्वान् इसे डल झील से जोड़ते हैं। किन्तु जैमिनीय ब्राह्मण (३.६४) में इसे कुरुक्षेत्र का ब्रह्मसर ही बताया गया है-- 'शर्यणावद् धनामैतत् कुक्षेरुत्रस्य जघनार्धे सरस्कम् । तद् एतद् अनुविद्याजह्नः । ५. पंचविश ब्राह्मण (२५.१०.२६.२२), जैमिनीय ब्राह्मण (४.२६.१२) कात्यायन
श्रौतसूत्र (२४.६.७), लाट्यायन श्रौतसूत्र (१०.१७.११.१४), ता.बा. (२५.१०.
६) और महाभारत, भागवत इत्यादि । ६. (i) सरस्वत्या विनशने दीक्षन्ते ।
___ चतुश्चत्वारिंशदाश्वीनानीति सरस्वत्या विनशनात् प्लक्षः प्रास्रवणः ।।
ता०ब्रा० २५.१०.१,६ (ii) तस्मिन् प्लक्षे स्थितां दृष्ट्वामार्कण्डयो महामुनि । प्रणिपात्य तदा मूर्ना तुष्टावथ सरस्वतीम् ।।
-वामन पुराण ३२.५ (iii) सर संनिहितं प्लाव्य पश्चिमां प्रस्थिता दिशम् ।
-~-नारद पुराण ७१.६४.१९ ७. देखें-महाभारत, आदिपर्व के अध्याय २०९ और २२६ । ८. (i) न ह्य को देवदत्तो युगपत्सुघ्ने च भवति न मथुरायां च ।
--महाभाष्ये द्वितीयाह्निके (ii) अयं पन्था सुध्नमुपतिष्ठते ।
सुघ्नाः प्रासादाः सौना प्राकारा इति ।। अन्तरा तक्षशिलां पाटलिपुत्रं च सुघ्नस्य प्राकारा।
--काशिका में ९. कुरूक्षेत्रं च मत्स्याश्च पांचाला शूरसेनकाः। एष ब्रह्मर्षि देशो वै ब्रह्मावर्तादनन्तरम् ।।
-मनु० २।१८ १०. ब्रह्मावर्त सरस्वत्या दृषद्वत्याश्च मध्यतः ।।
-श्लोक ९४९ ११. तरन्तुकारन्तुकयो र्यदन्तरम्, रामहृदानामचक्रकस्य च । एतत्कुरूक्षेत्र समन्त पंचकं पितामहस्योत्तर वेदिरूच्यते ॥
-वन पर्व, ८३.२०८ संर २२, अंक ४
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१२. कृष्ण यजुर्वेद संहिता, प्रथम काण्ड, अष्टम प्रपाठक, दशम अनुवाक । १३. वही, प्रथम काण्ड द्वितीय प्रपाठक, नवम अनुवाक । १४. 'कुरूरठे इन्द्रपत्तन नगरे, युधिट्ठिल गोत्रे धनंजयो नाम कौरव्य राजा रज्ज कारेति ।'
-विधुर पण्डित जातक (५४५) १५. भविष्य पुराण, प्रतिसर्गपर्व-१.६.१-२ १६. कौरक्षेत्रांश्च मत्स्यांश्च पंचालान् शूरसेनकान् । दीर्घाल्लघूश्चैव नरानग्रानीकेषु योजयेत् ॥
-मनु० ७.१९३
-परमेश्वर सोलंकी
संपादक, तुलसी प्रज्ञा जै. वि. भा. संस्थान, लाडनूं
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'जैन मेघदूतम्' के रचनाकार : आचार्य मेरुतु ग नीलम जैन
जैन समाज में मेरुतुंग नाम के तीन आचार्य हुए हैं। उनमें काव्य-प्रणेता के रूप में केवल दो ही विद्वान् प्रसिद्ध हैं । प्रथम मेरुतुंग नगेन्द्रगच्छ के आचार्य चन्द्रप्रभसूरि के शिष्य हैं जो वैक्रम चतुर्दश शतक में वर्तमान माने जाते रहे हैं । उन्होंने " प्रबन्ध चिन्तामणि", विचार श्रेणी, धर्मोपदेश, थेरावली, षड्दर्शन- विचार आदि ग्रन्थ लिखे हैं । जिनमें प्रबन्ध - चिन्तामणि नामक अर्ध ऐतिहासिक ग्रन्थ विशेष प्रसिद्ध है । इसकी रचना वि० सं० १३६१ ( ई० सन् १३०४) में हुई है ।' जैन साहित्य में यह विद्वान् आचार्य मेरुतुंग के नाम से विख्यात हैं !
दूसरे मेरुतुंग अंचलगच्छीय महेन्द्रप्रभसूरि के शिष्य हैं । यह दूसरे मेरुतुंग ही जैन - मेघदूत काव्य के रचयिता हैं । महाकवि कालिदासवत् 'जैनमेघदूतम्' की रचना करने वाले श्री मेरुतुंगाचार्य का कार्यकाल विक्रमी संवत्सर का पंचदश शतक है । इनका जन्म मारवाड़ के माणी ग्राम हुआ था । इस ग्राम में पोरबालवंशीय बहोरा वीरसिंह रहते थे, जिनकी पत्नी का नाम नालदेवी था। इस नालदेवी के गर्भ से वि० सं० १४०३ में कवि मेरुतुंग का जन्म हुआ । बचपन में इनका नाम वस्तिक, वस्तो या वस्तपाल था । अंचलगच्छ के प्रसिद्ध आचार्य श्री महेन्द्रप्रभसूरि ने उन्हें दीक्षा देकर मेरुतुंग नाम प्रदान किया। अपने समय की शिक्षा-प्रणाली अनुसार इन्होंने संस्कृत, प्राकृत तथा अन्य शास्त्रीय विधाओं का ज्ञान प्राप्त किया है । कालक्रम से गुरु ने उनको वि० सं० १४२६ में पाटन में सूरिपद प्रदान किया। इसके बाद वि० सं० १४५५ में गच्छनायक की पदवी फाल्गुन बदी एकादशी को दी गई । वि० सं० १४७१ में मार्गशीर्ष सुदी पूर्णिमा के दिन पाटन में इस विद्वान् मनीषी का देहावसान हुआ । ६८ वर्षीय जीवन काल में ये सर्वदा अपने और समाज के विकास में संलग्न रहें । इनकी प्रमुख रचनाएं इस प्रकार हैं
१. जैन मेघदूतम्
२. सप्ततिका भाष्य टीका
३. लघुशतपदी
१. त्रयोदशस्वब्दशतेषु चैकषष्ट्यधिकेषु क्रमतो गतेषु ।
वैशाखमासस्य च पूर्णिमायां ग्रन्थः समाप्ति गमितो मितोऽयम् ॥
-- प्रब० चि० प्रशस्ति पद्य ॥ ५॥
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४. धातु पारायण ५. षड्दर्शन समुच्चय ६. बाल बोध व्याकरण ७. बाल बोध व्याकरण की वृत्ति तथा ८. सूरिमन्त्र सारोद्धार
आचार्य मेरुतुंग द्वारा रचित मेघदूत तत्कालीन संस्कृति का स्पष्ट दर्पण है। इसमें भगवान् श्रीकृष्ण के भाई नेमिनाथ, जो कि जैन धर्म के २२वें तीर्थंकर हैं, की जीवन गाथा है जिसमें उस समय की राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक और पारिवारिक स्थिति के दर्शन होते हैं। उपलब्ध दूत या सन्देश काव्य साहित्य में सबसे प्राचीन ग्रंथ कालिदास का मेघदूत है। यह मेघदूत जहां शृंगार रस से परिपूर्ण है वहीं प्रथम जैन संदेश काव्य जैन मेघदूतम् में कवि ने अपनी प्रतिभा के बल पर शृंगार रस के वातावरण को शान्तरस में मोड़कर एक नई काव्य-परम्परा का स्रजन किया है । अपने संदेश काव्य में आचार्य मेरुतुंग ने कल्पना के घोड़े नहीं दौड़ाये हैं अपितु संदेश प्रेषण का कार्य भारत की मर्यादामयी नारी के माध्यम से सम्पन्न कराया गया है । जैनमेघदूत की राजीमति एक आदर्श भारतीय ललना है जो विवाह से पूर्व ही विरह दुःख की अनुभूति करती है और अन्ततः तप एवं त्याग की ओर उन्मुख होकर साध्वी बन जाती है। पाणिग्रहण के लिए जाते हुए नायक नेमिनाथ का चित्त भी त्रस्त पशुओं के मर्मबेधी चीत्कार को सुनकर कराह उठता है, वे संसार की दशा पर शान्त भाव से विचार करते हुए परमार्थ पथ के पथिक बन जाते हैं। ४ सर्गों में विभक्त इस १९६ पद्ययुक्त रचना में प्रिय वियोग से व्यथित राजीमति मेघ के द्वारा प्राणाधिक नेमिनाथ के पास अपना संदेश पहुंचाने के विचार से अपना मर्मस्पर्शी सन्देश गिरनार पर्वत पर स्थित समाधिस्थ नेमिनाथ के पास भेजती है। घोर श्रृंगार की धारा को वैराग्य की ओर मोड़ देना साधारण प्रतिभा का कार्य नहीं है इस सन्देश काव्य में अभिव्यंजित शान्तरस की सुधा धारा रागद्वेष से ग्रस्त मानव को शाश्वत् सन्देश, (आनन्दानुभूति) प्रदान करने की क्षमता रखती है।
- मेघदूत और जैनमेघदूत दोनों काव्य ग्रंथों को आमने-सामने रखकर देखा जाय तो स्पष्टतः दोनों के वर्ण्य विषय, उद्देश्य आदि में बहुत अन्तर प्रतीत होता है । एक ओर भोग-विलास ही जीवन का चरम काव्य है तो दूसरी ओर तप और त्याग के समान कुछ स्पृहणीय नहीं । एक ओर प्रेम और सौन्दर्य का मादक स्वरूप मानव हृदय को सम्मोहित करने में समर्थ है तो दूसरी ओर विरति और क्षणभंगुरता जीवन के सत्य का भान कराती है। एक ओर प्रकृति के मनोरम चित्रों का अक्षय भण्डार है तो दूसरी ओर प्रकृति पर छिटकता हुआ दृष्टिपात । एक ओर शृंगार का परम अभिराम रूप नेत्रों में इन्द्रधनुषी रंगों को उत्पन्न करता है तो दूसरा उन्हें शान्तरस की पावन सरिता में निमज्जित कर एक लोकोत्तर विश्राम की अनुभूति कराता है। एक ओर विरह की मार्मिक व्यंजना है तो दूसरी ओर विरह के संयत रूप में दर्शन होते हैं। राजीमति मेघ से प्रार्थना करती है कि वह उसका सन्देश उचित अवसर देखकर नेमि
- तुलसी प्रज्ञा
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नाथ को सुनाये। यदि स्वामी नेमिनाथ समाधि को लगाये हुए हों तो तुम एकदम उनको यह समाचार मत सुनाना क्योंकि ऐसा करने से उनकी समाधि भंग हो जाएगी इसलिए कुछ समय ठहरकर प्रतीक्षा करना और फिर कहना तुम जो पशु-पक्षियों की पीड़ा को भी नहीं सहन कर सकते तब तुमने अपनी जीवन संगिनी राजीमति का परित्याग कैसे कर दिया ? क्या तुम इस तरह बीच में छोड़ी गई प्रिया को पुनः स्वीकार नहीं कर सकते ? जनमेघदूत में कवि की धार्मिक भावना का प्राबल्य है। मन्दाक्रान्ता छन्दोबद्ध यह मनोरम रचना मानव जाति के लिए भी शुभ सन्देश संवाहक
जैन साध्वी राजीमति द्वारा मेघ को दूत बनाने तथा उसके माध्यम से अपने स्वामी के पास विरह-संदेश भेजने के कारण ही इसका नाम जैन मेघदूत पड़ा है। इसमें भावव्यंजना एवं पाण्डित्य का अपूर्व समन्वय बन पड़ा है। यह समस्या पूर्तात्मक न होकर एक मौलिक काव्यकृति है।
---डॉ. नीलम जैन द्वारा श्री यू०के० जैन
सैण्ट्रल बैंक ऑफ इण्डिया कोर्ट रोड़ सहारनपुर-२४७००१
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शैव जैन तीर्थः बटेश्वर
सन्दीप कुमार चतुर्वेदी
जैन महापुराण और हरिवंशपुराण के अनुसार प्रारम्भ में सम्राट् ऋषभदेव ने जनपदों की स्थापना की थी, उनमें एक शूरसेन जनपद था। कालान्तर में शत्रुघ्न के प्रतापी पुत्र शूरसेन के कारण यह जनपद और भी प्रसिद्ध हो गया। कृष्ण साहित्य में भी चौरासी वनों का उल्लेख आया है । उनमें एक “अग्रवन" था और जो दूर-दूर तक यमुना के तट पर फैला हुआ था। इसके एक और मथुरा नगरी थी और दूसरी ओर शौरीपुर । महा भारत काल में इन दोनों पर यदुवंशियों का अधिकार था।
"वटेश्वर" मुख्यतया शैव तीर्थ है जो यमुना किनारे टीलों पर बसा हुआ है । यह आगरा जिला केन्द्र से ७० किलोमीटर दूर तहसील बाह में स्थित है। यहां बटेश्वर नाथ महादेव का प्रसिद्ध मन्दिर है। इस स्थान का महत्व भदावर नरेश बदनसिंह के समय से अधिक हो गया जो १७ वीं शताब्दी के मध्य (१६४६) में यहां निवास करते थे। उन्होंने बटेश्वर के नाम से महादेव जी के मंदिर का नूतन निर्माण कराया। शिवलिंग के अतिरिक्त इस मंदिर में कार्तिकेय और गौरा पार्वती की दर्शनीय प्रतिमायें हैं और यमुना के किनारे-किनारे कई किलोमीटर लम्बा पक्का घाट बना हुआ है । घाट पर कतार बढ शिवजी के एक सौ एक मंदिर है। ठाकुर बिहार मंदिर में कृष्ण की मूर्ति है, जिसे राजा भदावर के दीवान बख्त सिंह ने १६७३ ई० में बनवाया था। निकुंज बिहारी का मंदिर राजा बदनसिंह ने १६८२ में बनवाया।
प्रमुख मंदिर महाराज बटेश्वरनाथ का है। इसके अन्दर स्थापित शिवलिंग दो हजार वर्ष प्राचीन माना जाता है । यह शिवलिंग लाल पत्थर का बना है, शिवलिंग के चारों ओर का घेरा पीतल का है, जो कि अष्टकोणीय है। इसकी मोटाई लगभग ३ इंच है, पास में पीतल के शेषनाग स्थापित्त है तथा समीप संगमरमर का श्वेत वर्णी नन्दी बैल की लम्बाई ३८ से०मी० और चौड़ाई २२ से०मी० है। शेषनाग की लम्बाई १.२० मी० है तथा अन्त में तीन बैल है। मंदिर की पश्चिमी तरफ बरगद का वृक्ष है । यहां का दृश्य बड़ा ही मनोरम है ।
यहां पर १०८ मंदिरों में एक पाटलेश्वर मंदिर है जिसे पानीपत की तीसरी लड़ाई के बाद मराठा अधिपति ने युद्ध में शहीद लोगों की याद में एक स्मारक के रूप में बनवाया था। यह भी एक शिव मंदिर के रूप में है। जिसके एक तरफ ९ मीटर ऊंचा स्तम्भ है जिसमें एक हजार छोटे-छोटे उभार पीप रखने के लिए है इसी वजह से इसका नाम सहस्रदीप स्तम्भ है।
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एक अन्य मंदिर में राजपूत शैली में निर्मित शंकर, पार्वती तथा गणेश की पत्थर से निर्मित मूर्तियां हैं । इसमें शंकर की मूंछे उत्कीर्ण की गयी हैं । गले में नरमुण्ड की माला है, एक हाथ में माला है, दोनों हाथों में सर्प लिपटे हैं। यहां पर भी पत्थर की नन्दी मूर्ति है, तथा गणेश मूर्ति पर शिलालेख है जिसमें संवत् १०८६ खुदा है ।
बटेश्वर के दिगम्बर जैन मंदिर के सम्बन्ध में कहा जाता है कि जब शौरीपुर मूल संघाम्नायी भट्टारकों का स्थान था। तो भट्टारक जगतभूषण और विश्वभूषण की परम्परा में १८वीं शताब्दी में हुए जिनेन्द्रभूषण भट्टारक ने बटेश्वर में इस विशाल मंदिर का निर्माण कराया और धर्मशाला बनवाई। यह मंदिर महाराज बदनसिंह द्वारा निर्मित घाट के ऊपर वि० सं० १८३८ में तीन मंजिलों का बनवाया गया था। इस मंदिर की दो मंजिलें यमुना तल के नीचे और दो ऊपर हैं। इस मंदिर के सम्बन्ध में एक किंवदन्ती है कि एक बार भदावर महाराज ने भटटारक जिनेन्द्र भूषण से तिथि पूछी तो वे अमावस्या को पूर्णिमा कह गये। जब उन्हें अपनी गलती का एहसास हुआ तो अपनी बात को रखने के लिए उन्होंने एक कांसी की थाली मंत्रित करके आकाश में चढ़ा दी, जोकि बोहर कोस तक चन्द्रमा की भांति चमकने लगी। महाराजा उनसे खुश हुए और कुछ मांगने का आग्रह किया तब भटटाकर जी ने मंदिर बनवाने की अनुमति मांगी।
बटेश्वर में भगवान श्री अजितनाथ को कृष्ण पाषाण निर्मित पद्मासनस्थ साढे पांच फुट की महामनोश प्रतिमा विराजमान है, जोकि मनियादेव के नाम से प्रसिद्ध है । प्रकाश रश्मि पड़ने पर उसकी नाभि मणि शिखा की भांति चमकती है और दूर से दर्शन करने पर मूर्ति के वक्ष में एक और मूर्ति के दर्शन होते हैं। इसकी प्रतिष्ठा महोबा के परिमाल चन्देल वंश के प्रसिद्ध सेनानी आल्हा ऊदल के पिता जल्हण द्वारा वैशाख वदी सप्तमी संवत् १२२४ (ई० ११६६) में हुई थी। इसके आस-पास धातु की बनी बाइस प्रतिमायें हैं और मंदिर में एक अति कलापूर्ण शान्तिनाथ शिलापट्ट है जिस पर संवत् ११२५ (सन् १०६८) अकिंत है। प्रतिवर्ष यहां कार्तिक शुक्ल पूर्णिमा को उत्तर भारत का विख्यात मेला बड़ी धूमधाम से लगता है जो उसी महिने की पंचमी से शुरू होता है। यहां का मेला हिन्दुस्तान के सबसे बड़े और प्रसिद्ध पशु मेलों में से एक होता है।
__ शौरीपूर उत्तर भारत का एक पावन प्राचीन दिगम्बर जैन सिद्धक्षेत्र है। बाईसवें तीर्थकर भगवान् नेमिनाथ के जन्म कल्याणक तथा सुप्रतिष्ठित मुनियों की केवल ज्ञान भूमि होने के कारण यह पावन सिद्ध क्षेत्र है। १९वीं सदी के प्रारम्भ में कर्नल टॉड ने एक लेख में लिखा है कि "एक बार में प्राचीन नगरों के सम्बन्ध में ग्वालियर के एक प्रख्यात जैन भटटारक के एक शिष्य से बात कर रहा था तो उन्होंने मुझे ४५ वर्ष पूर्व की एक घटना सुनायी कि शौरीपुर में एक व्यक्ति को अवशेषों के बीच में शीशे का टुकड़ा मिला जिसे उसने एक रूपया देकर खरीद लिया, यह हीरा था। बाद में उसने इसे आगरा आकर पांच हजार में बेच दिया। जब गरीब को पता चला तब उसने उस सुनार से आधा पैसा मांगा, जब उसने उसे पैसा न दिया तो उसका खून कर दिया, २०
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बाद में उस व्यक्ति पर मुकदमा चला । यह कहानी सुनकर मैंने अपने एक मुद्रा संग्राहक को शौरीपुर भेजा कुछ समय के बाद उसने मुझे अपोलोडोटस और पाथियन राजाओं के सिक्के लाकर दिये।" इस विवरण से ज्ञात होता है कि शौरीपुर ई० पू० शताब्दी में व्यापारिक केन्द्र था क्योंकि अपोलोडोटस का काल ई० पू० दूसरी-तीसरी शताब्दी माना जाता है।
जनरल कनिंघम के सहकारी ए०सी० कार्लाइल" की एक रिपोर्ट से ज्ञात होता है कि उन्हें शौरीपुर के एक गडढे में एक पदमासन जैन प्रतिमा मिली थी, उसके दोनों ओर सेवक थे और शीर्ष पर दोनों ओर गज थे। मूर्ति पर कोई लेख नहीं था, मूर्ति दो फुट की बलुआ पत्थर की भूरे रंग की थी। एक मंदिर की दीवार पर उन्हें एक शिलालेख मिला था जिसे वे पढ़ नहीं सके थे। मंदिर के निचले भाग में उन्हें तीन पद्मासन जैन मूर्तियां मिलीं जोकि मिट्टी में गरदन तक दबी हुई थी। इनमें दो ठीक थी, किन्तु एक का सिर खण्डित था। ये मूर्तियां उन्होंने बाहर निकलवायी। बड़ी मूर्ति पर वि० सं० १०८२ या ९२ पढ़ा गया था यह आदिनाथ की प्रतिमा थी शेष दोनों प्रतिमायें भी इसी के समकालीन रही होंगी।
एक नाले में और आस-पास खुदाई करने पर उन्हें प्राचीन मंदिरों के अवशेष प्राप्त हुए। मंदिरों के पीछे १२ मीटर लम्बी चौड़ी पुरानी नींव भरी है। इसमें जिन ईटों का प्रयोग हुआ है उसकी लम्बाई १४ से १५ इंच तक है। इस प्रकार कार्लाइल को १.६० मीटर मोटी प्राचीन दीवार सुरंग, गोद में बच्चा लिए पद्मावती की मूर्ति, दो फुट तीन इंच ऊंची बादामी रंग की भगवान् पार्श्वनाथ की प्रतिमा तथा अन्य सामग्री मिली जोकि अधिकांशतः जैन है। इससे सिद्ध होता है कि प्राचीन काल में यह नगरी अत्यन्त ही समृद्ध थी। मध्यकाल में १६ वीं शताब्दी तक यहां दिगम्बर भट्टारक की गद्दी रही।
__शौरीपुर में कई प्राचील दिगम्बर जैन मंदिर हैं। इस क्षेत्र का जो दो मंजिला मुख्य मंदिर है, वह सन् १६६७ में भट्टारक विश्वभूषण द्वारा निर्मित एवं प्रतिष्ठापित कराया गया था। दूसरा मंदिर बरूआमठ नामक कुछ सीढ़ियां चढ़कर हैं जो कि सबसे प्राचीन हैं। तीसरा मंदिर मंजिल पर शंखध्वज नाम का है। उसमें चार बेदियां हैं मूलनायक भगवान् नेमिनाथ मध्य की बेदी पर विराजमान हैं, बायीं ओर गर्भगृह में पार्श्वनाथ, श्रेयांसनाथ और चन्द्रप्रभु भगवान की प्रतिमायें विराजमान हैं। दांयी ओर के गर्भगृह की एक प्रतिमा सन् १२५१ की है। यहां पर कई शिलाफलक भी हैं।
शौरीपुर का अस्तित्व महाभारत काल में था। यह २२ वें तीर्थंकर भगवान नेमीनाथ की कर्मभूमि थी। हरिवंश के अनुसार प्राचीन क्षत्री राजा हरि के वंशज वसु थे। उनकी संतति में यदुवंश के संस्थापक राजा यदु हुए। उनके पुत्र नरपति थे। नरपति पुत्र सूर थे। उन्हीं के नाम पर इस महाजनपद का नाम सूरसेन पड़ा और यह शौरीपुर उसी का मुख्य नगर था। सूर के पुत्र अन्धक-वृष्टि के बड़े पुत्र महाराजा समुद्र विजय की महारानी शिवादेवी से नेमिनाथ का जन्म हुआ था। तब यह नगर
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बड़ा ही समृद्ध था। लेकिन राजगृह के अधिपति जरासंध के आक्रमणों से त्रस्त होकर यादवों द्वारा शौरीपुर का परित्याग कर द्वारिका नगरी में जा बसने पर यहां की प्राचीन बस्ती धीरे धीरे उजड़ती गई । यहाँ की जो समृद्धि ईसा पूर्व तीसरी सदी तक अक्षुण्ण रही आयी थी। वह आज इन खण्डहरों में दबी पड़ी है।
पुरातत्व विभाग के सर्वेक्षण के दौरान इस क्षेत्र में पुरा कालीन मिट्टी के बर्तनों के अवशेष प्राप्त हुए । ये टुकड़े चाक मिट्टी के बने हुए सिलेटी रंग के हल्के और चिकने हैं। इनका काल १००० ई० पू० अनुमानित है। बर्तनों के दूसरे अवशेष मौर्यकालीन (६००ई०पू० से २०० ई० पू० तक) इन पर सुनहरी पालिश है । इस काल में यह नगर अत्यन्त समृद्ध था। नगर का प्राचीन वैभव और उसकी सांस्कृतिक समृद्धि टीलों के नीचे दबी पड़ी है।
एक बार क्षेत्र कमेटी ने मंदिर के दक्षिण की ओर एक टीले की खुदाई कराई यी । फलतः अनेक सांगोपांग जैन प्रतिमायें निकली थीं। इसी प्रकार एक बार आदि मंदिर का जीर्णोद्धार करते समय किसी प्राचीन मंदिर का प्रस्तर युक्त नीचे का भाग मिला था। उसमें मिले एक शिला लेख बि० सं० १२२४ में इस मंदिर के जीर्णोद्धार का उल्लेख है। संदर्भ १. उत्तर प्रदेश जिला आगरा गजेटियर (श्रीमती इशाबंसती जोशी संपादिका)
पृ० १७५। २. रायल एसियाटिक सोसायटी जर्नल पहला भाग पृ० ३१४ है. ए. सी० एल कार्लाइल-आकलाजिकल सर्वे आफ इण्डिया रिपोर्ट १८७१ भाग ४
पृ० २० । ४. अमर उजला १९८५ . पं० झमन लालजी लम्मैचू जैन इतिहास । ६. चन्द्रवार का इतिहास ७. पद्मपुराण । ८. हरिवंश पुराण ९. नेमिनाथ पुराण ।
-सन्दीपकुमार चतुर्वेदी
शोधछात्र कानपुर विश्व विद्यालय
कानपुर
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प्रकीर्णकम्
१. बीस विहरमाण
-मुनि गुलाबचन्द्र निर्मोही २. किं नाग्न्य-परीषहः ?
प्रस्तो०-परमेश्वर सोलंकी ३. जैन-बौद्ध संघों में प्रवज्या-ग्रहण के हेतु
-निर्मला चोरडिया ४. बन्यो भवेत् स कालूरामः
प्रस्तो०-परमेश्वर सोलंकी ५. गणित-प्रतिभा के धनी-मुनिश्री हनुमानमलजी (सरदारशहर)
-मुनिश्री श्रीचन्द 'कमल'
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बीस विहरमाण
मुनि गुलाबचन्द्र निर्मोही'
वर्तमान में विद्यमान तीर्थंकर को विहरमाण कहा जाता है । अढाई द्वीप (मनुष्य क्षेत्र) में कम से कम २० तीर्थकर हर समय निश्चित रूप से मौजूद रहते हैं। उनकी अधिकतम संख्या १७० तक हो सकती है। वर्तमान २० तीर्थंकरों में से ४ जम्बूद्वीपवर्ती महाविदेह क्षेत्र में, ८ धातकी खंडवर्ती दो महाविदेह क्षेत्रों में तथा ८ अर्द्ध पुष्करवर्ती दो महाविदेह क्षेत्रों में विचरण करते हैं। महाविदेह क्षेत्र जम्बूद्वीप के मध्य भाग में अवस्थित है। यह पूर्व से पश्चिम एक लाख योजन लम्बा तथा उत्तर-दक्षिण में ३३६८४ योजन चौड़ा है। इसके बीच में मेरु पर्वत होने से यह पूर्वमहाविदेह और पश्चिम महाविदेह-इन दो भागों में विभक्त हो गया है। पूर्व महाविदेह में सीता नदी और पश्चिम महाविदेह में सीतोदा नदी होने से उनके भी दोदो भाग हो जाते हैं।
इस प्रकार महाविदेह के चार भागों में से प्रत्येक की आठ-आठ विजय (संभाग) होती हैं अर्थात् एक महाविदेह की बत्तीस विजय होती है। जम्बूद्वीप का एक महाविदेह, धातकी खंड के दो महाविदेह तथा अर्धपुष्कर के दो महाविदेह—इस प्रकार पांच महाविदेह होते हैं । सबकी संरचना एक समान होने से उनके कुल २० भाग और १६० विजय होती है। एक भाग में कम से कम एक तीर्थंकर अवश्य होने से २० तथा प्रत्येक विजय में एक-एक तीर्थंकर होने से अधिकतम १६० तीर्थकर हो जाते हैं। जम्बूद्वीप, धातकीखंड तथा अर्धपुष्कर में कुल पांच भरत क्षेत्र और पांच ऐरवत क्षेत्र हैं। उनमें प्रत्येक में एक-एक तीर्थकर होने से १० तीर्थकर हो जाते हैं। इस प्रकार भरत, ऐरवत और महाविदेह के तीर्थकरों की अधिकतम संख्या एक साथ १७० तक हो सकती है। दूसरे तीर्थंकर अजित प्रभु के समय में तीर्थंकरों की यह उत्कृष्टतम संख्या हुई थी किन्तु २० तीर्थकर तो शाश्वत रूप से मनुज्य क्षेत्र में विचरण करते ही हैं । उनके नाम हैं१. श्री सीमन्धर प्रभु
६. श्री स्वयंप्रभ प्रभु २. श्री युगमन्धर प्रभु
७. श्री ऋषभानन प्रभु ३. श्री बाहु प्रभु
८. श्री अनन्तवीर्य प्रभु ४. श्री सुबाहु प्रभु
९. श्री सूरप्रभ प्रभु ५. श्री सुजाति प्रभु
१०. श्री विशालधर प्रभु
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११. श्री वज्रधर प्रभु १२. श्री चन्द्रानन प्रभु १३. श्री चन्द्रबाहु प्रभु
१४. श्री भुजंग प्रभु १५. श्री ईश्वर प्रभु
विहरमाण विषयक काल और संख्या
के
बीस विहरमाण अर्थात् विद्यमान तीर्थंकरों का जन्म जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में सतरहवें तीर्थंकर श्री कुन्यु प्रभु के निर्वाण होने पश्चात् एक ही समय में हुआ था । बीसवें तीर्थंकर श्री मुनि सुव्रत प्रभु के निर्वाण होने के पश्चात् सबने एक ही समय में दीक्षा स्वीकार की । ये बीसों तीर्थंकर जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र की चौबसी के सातवें तीर्थंकर श्री उदय प्रभु के निर्वाण होने के पश्चात् एक साथ ही निर्वाण प्राप्त करेंगे । इन बीसों तीर्थंकरों का देहमान ५०० धनुष का तथा आयु ८४ लाख पूर्व की है । ये ८३ लाख पूर्व गृहस्थावस्था में रहे और एक लाख 5 संयम का पालन कर मुक्त होंगे । इन सब वर्तमान तीर्थंकरों में प्रत्येक के ८४ गणधर, प्रत्येक के दस लाख केवलज्ञानी और प्रत्येक के एक अरब साधु हैं तथा इतनी ही साध्वियां हैं। बीसों तीर्थंकरों के कुल दो करोड़ केवलज्ञानी, दो हजार करोड़ साधु तथा दो हजार करोड़ साध्वियां हैं । ये तीर्थंकर जब मुक्त होंगे तब दूसरी विजय में जो तीर्थंकर उत्पन्न हुए हैं वे दीक्षित होकर तीर्थंकर पद को प्राप्त करेंगे । यह क्रम अनादि काल से चलता आ रहा है और आगे भी चलता रहेगा ।
१६. श्री नेमिप्रभ प्रभु १७. श्री वीरसेन प्रभु
१८. श्री महाभद्र प्रभु
१९. श्री देवयश प्रभु २०. श्री अजितवीर्य प्रभु
तीर्थंकरों की न्यूनतम संख्या बीस है । इससे कम कभी नहीं होती अतः वर्तमानकाल के बीसों तीर्थंकरों के मुक्त हो जाने पर उसी समय दूसरे बीस तीर्थंकर हो जाते हैं । इस दृष्टि से जब एक तीर्थंकर गृहस्थावास में एक लाख पूर्व के हों तब दूसरे क्षेत्र में दूसरे तीर्थंकर का जन्म हो जाता है । जब वह एक लाख पूर्व के हों तब अन्य क्षेत्र में तीसरे तीर्थंकर का जन्म होता है । इस प्रकार एक लाख पूर्व के अन्तर से प्रत्येक तीर्थंकर के पीछे ८३ तीर्थंकर गृहस्थावस्था में होते हैं और सिर्फ चौरासीवें तीर्थंकर ही तीर्थंकर के रूप में विचरण करते हैं । जब चौरासीवें जाते हैं तब तेरासीवें क्रम वाले तीर्थंकर पद को प्राप्त कर लेते हैं क्षेत्र में एक तीर्थंकर का जन्म हो जाता है | इस प्रकार बीसों तीर्थंकरों में से प्रत्येक के पीछे ८३ तीर्थंकर होने से १६६० तीर्थंकर गृहस्थावस्था में होते हैं और २० तीर्थंकर के रूप में विचरण करते हैं अर्थात् एक समय में १६६० द्रव्य तीर्थंकर और २० भाव तीर्थंकर कुल १६८० तीर्थंकर होते हैं । यह पारम्परिक क्रम अतीत में चलता रहा है, वर्तमान में चल रहा है और भविष्य में चलता रहेगा ।
तीर्थंकर मुक्त हो
और किसी अन्य
४
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खण्ड २२, अंक
क्र.सं. नाम १. श्री सीमन्धर प्रभु
विहरमाण परिचय पिता माता जन्मस्थल चिह्न श्रेयांस सात्यिकी पुंडरीकिणी वृषभ
२. श्री युगमन्धर प्रभु
सुसढ
सुतारा
विजया
बकरा
३. श्री बाहु प्रभु
सुग्रीव विजया
सुसीमा
मृग
| | । | । | । | ।
४. श्री सुबाहु प्रभु
निषढ
विजया
वीतशोका
वानर
५. श्री सुजात प्रभु
देवसेन
देवसेना
पुंडरीकिणी
सूर्य
विजय जम्बूद्वीप के सुदर्शन मेरु से पूर्व महाविदेह की आठवीं पुष्कलावती विजय जम्बूद्वीप के सुदर्शन मेरु से पश्चिम महाविदेह की पचीसवीं वप्रा विजय जम्बूद्वीप के सुदर्शन मेरु से पूर्व महाविदेह की नौवीं वत्स विजय जम्बूद्वीप के सुदर्शन मेरु से पश्चिम महाविदेह की चौबीसवीं नलिनावती विजय पूर्वधातकी खंड के विजय मेरु से पूर्व महाविदेह की आठवीं पुष्कलावती विजय पूर्वधातकी खंड के विजय मेरु से पश्चिम महाविदेह की पचीसवीं वप्रा विजय । पूर्वधातकी खंड के विजय मेरु से पूर्व महाविदेह की नौवीं वत्स विजय पूर्वधातकी खंड के विजय मेरु से पश्चिम महाविदेह की चौबीसवीं नलिनावती विजय पश्चिम घातकी खंड के अचल मेरु से पूर्व महाविदेह की आठवीं पुष्कलावती विजय
६. श्री स्वयंप्रभ प्रभु
मित्र भुवन सुमंगला
विजया
चन्द्रमा
।
७. श्री ऋषभानन प्रभु कीर्ति
वीरसेना
सुसीमा
सिंह
८. श्री अनंतवीर्य प्रभु मेघ
मंगला
वीतशोका
बकरा
। | । | ।
९. श्री सूरप्रभ प्रभु
नाग
भद्रा
पुंडरीकिणी
सूर्य
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१०. श्री विशालधर प्रभु विजय
विजया
विजया
चन्द्रमा
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११. श्री वज्रधर प्रभु
पद्मस्थ
सरस्वती
सुसीमा
वृषभ
१२. श्री चन्द्रानन प्रभु वाल्मिक पद्मावती
वीतशोका
वृषभ
। | । ।
१३. श्री चन्द्रबाहु प्रभु
देवकर
यशोज्ज्वलरेणू पुंडरीकिणी
कमल
पश्चिम धातकी खंड के अचल मेरु से पश्चिम महाविदेह की पचीसवीं वप्रा विजय पश्चिम धातकी खंड के अचल मेरु पूर्व महाविदेह की नौवीं वत्स विजय पश्चिम धातकी खंड के अचल मेरु से पश्चिम महाविदेह की चौबीसवीं नलिनावती विजय पूर्व अर्धपुष्कर के मन्दिर मेरु से पूर्व महाविदेह की आठवीं पुष्कलावती विजय पूर्व अर्ध पुष्कर के मन्दिर मेरु से पश्चिम महाविदेह की पचीसवीं वप्रा विजय पूर्व अर्धपुष्कर के मन्दिर मेरु से पूर्व महाविदेह की नौवीं वत्स विजय पूर्व अर्ध पुष्कर के मंदिर मेरु से पश्चिम महाविदेह की चौबीसवीं नलिनावती
१४. श्री भुजंग प्रभु
कुलसेन
यशोज्ज्वला विजया
। | । । | । |
चन्द्रमा
१५. श्री ईश्वर प्रभु
महाबल
महिमावती सुसीमा
कमल
कमल
१६. श्री नेमिप्रभ प्रभु वीरसेना
सेना
वीतशोका
सूर्य
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विजय
१७. श्री वीरसेन प्रभु
तुलसी प्रज्ञा
भूमिपाल भानुमती
पुंडरीकिणी
वृषभ
। । |
पश्चिम अर्धपुष्कर के विद्युन्माली मेरु से पूर्व महाविदेह की आठवीं पुष्कलावती विजय
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१८. श्री महाभद्र प्रभु
देवसेन
उमा
विजया
गज
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१९. श्री देवयश प्रभु सर्वानुभूति गंगा
सुसीमा
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२०. श्री अजितवीर्य प्रभु राजपाल
कननी
वीतशोका
चन्द्रमा ।
। स्वस्तिक ।
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पश्चिम अर्ध पुष्कर के विद्युन्माली मेरु से पश्चिम महाविदेह की पचीसवीं वप्रा विजय पश्चिम अर्धपुष्कर के विद्युन्माली मेरु से पूर्व महाविदेह की नौवीं वत्स विजय पश्चिम अर्ध पुष्कर के विद्युन्माली मेरु से पश्चिम महाविदेह की चौबीसवीं नलिनावती विजय
– मुनि गुलाबचंद्र ‘निर्मोही'
अग्रगण्य मुनि (श्री श्वेताम्बर जैन तेरापंथ महासंघ में गणाधिपति तुलसी एवं
आचार्य श्री महाप्रज्ञ के आज्ञानुवर्ती शिष्य)
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किं नाग्न्य - परीषहः ?
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नाग्न्यपरीषहस्तु न निरुपकरणतैव दिगम्बरभौतादिवत् । किं तर्हि ? (प्रवचनोक्तविधानेन नाग्न्यम् । प्रवचने तु द्विप्रकारः कल्पः – जिनकल्पः स्थविरकल्पश्च । तत्र स्थविरकल्प परिनिष्पन्नः क्रमेण धर्मश्रवणसमनन्तरं प्रव्रज्याप्रतिपत्तिः । ततो द्वादश वर्षाणि सूत्रग्रहणं पश्चात् द्वादश वर्षाण्यर्थग्रहणं ततो द्वादशवर्षाण्यनियतवासी देशदर्शनं कुरुते । कुर्वन्नेव च देशदर्शनं निष्पादयति शिव्यान् । शिष्यनिष्पत्तेरनन्तरं प्रतिपद्यते अभ्युद्यतविहारम् ।
स च त्रिविध:-- जनकल्पः शुद्धः परिहारो यथालन्दश्च । तत्र जिनकल्पप्रतिपत्तियोग्य एव जिनकल्पं प्रतिपत्तुकामः प्रथममेव तपः सत्त्वादिभावनाभिरात्मानं भावयति । भावितात्मा च द्विविधे परिकर्मणि प्रवर्तते । यदि पाणिपात्रलब्धिरस्ति ततस्त
दनुरूपमेव परिकर्माचेष्टते । अथ पाणिपात्रलब्धिर्नास्ति ततः प्रतिग्रहारित्वपरिकर्मणि तत्रः य पाणिपात्रलब्धिसम्पन्नस्तस्योपधिरवश्यंतया रजोहरणं मुखवस्त्रिका
प्रवर्तते । च ।
कल्पग्रहणात् त्रिविधश्चतुर्विधः पञ्चविधो वा । प्रतिग्रहधारिणस्तु नवप्रकारोऽवश्यं तथा, कल्प ग्रहणाद् दशविध एकादशविधो ( द्वादशविधो) वा उपधिरागमाभिहितः । एवंविधं नाग्न्यमिष्टम् । दशविधसामाचार्यां चेमाः पञ्च तेषां सामाचार्य : आप्रच्छन्नं मिथ्यादुष्कृतमावश्यका निशीथि (षेधि ? ) का गृहस्थोपसम्पच्च । उपरितनी ar त्रिप्रकारा सामाचारी आवश्यकादिका । श्रुतसम्पदपि तेषामाचारवस्तु नवमस्य पूर्वस्य जघन्यतः । तत्र हि कालपरिज्ञानं न्यक्षेण, उत्कर्षेण दश पूर्वाणि भिन्नानि, न सम्पूर्णानि । वज्रर्षभनाराचसंहननाश्च ते वज्र कुडयकल्पधृतयः । स्थितिरपि तेषां क्षेत्रादिका अनेकभेदा । क्षेत्रतस्तावद् जन्मना सद्भावेन च सर्वास्वेव कर्मभूमिषु, संहरणतः कदाचित् कर्मभूमावकर्मभूगौ वा, अवसर्पियां कालतः तृतीयचतुर्थयोः समयोजन्मतः त्रिचतुर्थपञ्चमीषु सद्भावः । चतुर्थ्यां लब्धजन्मा पञ्चम्यां प्रव्रजति । उत्सर्पिण्या दुष्षमादिषु त्रिषु कालविभागेषु जन्म, द्वयोस्तु सद्भाव: । सामायिकच्छेदोपस्थाप्ययोजिनकल्पप्रतिपत्तिश्चरणयोः । एवं तीर्थ पर्यायागमवेदादिकाऽपि स्थितिरुपपुज्यागमानुसारेण वाच्या |
ननु चाचेलक्यादिर्दशविधः कल्पः । तत्राचेलक्यं स्फुटमेवोक्तम् । तत्र च मध्यमतीर्थवर्तिनां सामायिकसंयतानां चतुर्विधः कल्पोऽवस्थितोऽवश्यं तथा करणीयः ।
यथाऽऽह
शय्यातरपिण्डत्यागः कृतिकर्म च तथा व्रतादेशः । पुरुषज्येष्ठत्वं हि चत्वारोऽवस्थिताः कल्पाः ॥
षड्विधश्चानवस्थितः कल्पः ।
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यथोक्तम्
आचेलक्यौद्देशिक-नृपपिण्डत्याग-मासकल्पाश्च ।
वर्षाविधिः प्रतिक्रमणविधानं वाऽनवस्थिता: कल्पाः ॥ आद्यचरमतीर्थङ्करतीर्थ तिनां तु दशविधो व्यवस्थितः कल्पः ।
अस्य तु पुनर्भगवतस्तीर्थे श्रीवर्धमानचन्द्रस्य ।
स्थित एवेष्ट: कल्पः स्थानेषु दशस्वपि यथावत् ।। किं पुनः कारणमेतदेवं तीर्थकृतां विषममुपदेशनम् ?
आर्जव-जडा अनार्जव-जडा वृषभ-वीरतीर्थकालभवाः ।
मनुजा यस्मात् तस्मात्, कल्पः स्थित एव स प्रोक्तः ।। सत्यमुक्तमाचेलक्यम् । तत् तु यथोक्त तथा कर्त्तव्यम् । तीर्थकरकल्पस्तावदन्य एव, मति-श्रुता-ऽवधिज्ञानिनः प्रतिपन्नचारित्रास्तु चतुर्जा निन इति युक्तमेव तेषां पाणिपात्रभोजित्वमेकदेवदूष्यपरिग्रहाश्च । साधवस्तु तदुपदिष्ठाचारानुष्ठायिनो जीर्णखण्डितासर्वतनुप्रावरणाः श्रुतोपदेशेन विद्यमानैवंविधवाससोऽप्यचेलका एव । यथाऽऽपगोत्तरणे शाटकपरिवेष्टितशिराः पुरुषो नग्न उच्यते सवस्त्रकोऽपि, तथाऽत्र गुह्यप्रदेशस्थगनाय गृहीतचोलपट्टकोऽपि नग्न एवेति । योषिच्च काचिद् परिजूर्ण शाटिकापिधाना तन्तुवायमाह-नग्नाऽहं, देहि मे शाटिकामिति । एवं साधवोऽप्यमहाधनमूल्यानि खण्डितानि जीर्णानि च बिभ्रतः श्रुतोपदेशाद् धर्मबुद्धया नाग्न्यभाज एवेति । चारित्रसूत्रे शुद्धपारिहारिकान् वक्ष्यामः ॥
. यथालन्दिकास्तु भण्यन्ते । लन्दमिति कालस्याख्या । तच्च पञ्चरात्रं, तेषां हि पञ्चको गच्छः, सामाचारी तु तेषां जिनकल्पिकैस्तुल्या, सूत्रप्रमाणभिक्षाचर्याकल्पान विहाय, तत्रापरिसमाप्ताल्पसूत्रार्थास्तु गच्छप्रतिबद्धाः। परिसमाप्तास्त्विप्रतिबद्धाः । तत्र केचित् जिनकल्पिकाः केचित् स्थविरकल्पिका यथालन्दिनः। तत्र जिनकल्पिकाः निष्प्रतिकर्मशरीराः समुत्पन्नरोगाश्चिकित्सायां न प्रवर्तन्ते, नेत्रमलाद्यपि नापनयन्ति स्थविरकल्पिकास्तुत्पन्नरोगं गच्छे प्रक्षिपन्ति । गच्छोऽपि प्रासुकैषणीयेन परिकर्म करोति भैषजादिना । स्थविरकल्पिकास्त्वेकैकप्रतिग्रहधारिणः सप्रावरणाः । जिनकल्पिकानां तु वस्त्रपात्राणि भाज्यानि । एकत्र पञ्चपञ्चरात्रचारिण एते। गणप्रमाणं जघन्यतस्त्रयो गणाः, शतश उत्कृष्टाः । भिक्षाचर्या तु तेषां पञ्चैव, एकैकवीथौ चरन्तः पञ्चभिः षट्कर्मासकल्पं परिसमापयन्ति । स्थितास्थितकल्पयोश्च द्वयोरपि ते भवन्ति। एवमेते जिनकल्पिकादयो गच्छनिर्गतास्तत्र यद्येवंविधं नाग्न्यमिष्यते तदा नागमोपरोधः । अथ परिधानकपरित्यागमानं ततस्तदप्रमाणकं न मनांसि प्रीणयति जैनेन्द्रशासनानुसारिणामिति । स्थविरकल्पिकास्तु चतुर्दशविधोपधयः उत्सर्गापवादव्यवहारिणः औपग्रहिकोपधिधारिणश्च । प्रव्रज्यादिद्वारसमधिगम्याः आचार्यो-पाध्याय-स्थविर-भिक्षु-क्षुल्लकविभागाः मासकल्पविहारिणः परितनुकमूल्यवसनस्थगिताग्रिमभागाः वर्षाकल्पादिपारिभोगकारिणः दशविधसामाचार्यनुष्ठायिनः उद्गमोत्पादनषणादिशुद्धाहारोपधिशय्यासेविनश्चेति । एवं जिनकल्पिकादीनां गच्छवासिनां च पारमर्षप्रवचनानुसारिणां नाग्न्यपरीषहजयः सम्भवतीति, नान्येषाम् ।
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'तुलसी प्रशा
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नग्नता क्या है ?
__ दिगम्बर एवं अवधूत आदि की भांति उपकरण न रखना ही नाग्न्य परीषह नहीं है। प्रवचनोक्त नाग्न्य क्या है ? इस प्रश्न के उत्तर में कहते हैं। प्रवचन में दो प्रकार के कल्प बताए गए हैं--(१) जिनकल्प और (२) स्थविर कल्प । स्थिवर कल्प में परिपक्व अवस्था पाकर व्यक्ति क्रमशः धर्म-श्रवण करते हुए प्रव्रज्या ग्रहण करता है। प्रव्रज्या में बारह वर्ष तक सूत्र-ग्रहण करने के पश्चात् बारह वर्ष तक अर्थ-ग्रहण करता है । फिर अनियतवासी बनकर बारह वर्षों तक देशाटन करता है। इस देशाटन के दौरान ही वह अपने शिष्यों को तैयार करता है। शिष्य-सम्पदा की निष्पत्ति के अनन्तर वह अभ्युद्यत-विहार (उग्र विहार) में प्रवृत्त होता है और तीन प्रकार से आत्मोन्नति कर सकता है -- (१) जिनकल्प, (२) शुद्ध परिहार और (३) यथालन्द । इनमें जिनकल्प प्रतिपत्ति योग्य व्यक्ति पहले तपः सत्त्व आदि भावनाओं से अपनी आत्मा को भावित करता है और भावितात्मा होकर वह दो प्रकार से परिकर्म करता है। प्रथम, यदि करपात्र बनने की क्षमता आ जाती है तो वह उसके अनुरूप प्रवृत्ति करता है । अर्थात् करपात्री हो जाता है। द्वितीय, यदि करपात्र होने की क्षमता नहीं होती तो वह प्रतिग्रहधारी परिकर्म करता है। करपात्री के लिये रजोहरण और मुख वस्त्रिका की उपधि आवश्यक है।
इस प्रकार इष्ट नाग्न्य में कल्पग्रहण से तीन प्रकार, चार प्रकार अथवा पांच प्रकार और प्रतिग्रहधारी के नौ प्रकार आवश्यक हैं और कल्पग्रहण से दस प्रकार, ग्यारह प्रकार अथवा बारह प्रकार की उपधि आगम अभिहित है। दस प्रकार की समाचारी में आप्रच्छन, मिथ्यादुष्कृत, आवश्यकी, निशीथिका और गृहस्थ-उपसम्पदा -ये पांच परिपालनीय हैं। उपरितनी में आवश्यक आदि तीन प्रकार की समाचारी हैं। श्रुत सम्पदा में नौवें पूर्व की आचार वस्तु जघन्यतः पालनीय है। काल-परिज्ञान सम्पूर्णतया और असम्पूर्णतया दस पूर्वो का ज्ञान उत्कर्ष पूर्वक किया जाता है।
वे कल्पधृत वज्रकुड्य, वज्रर्षभ और नाराच संहनन वाले होते हैं और क्षेत्र आदि अनेक भेद से उनकी स्थिति होती है। उनका जन्म और अस्तित्व सभी कर्म भूमियों में होता है। संहरण के कारण वे कर्मभूमि और अकर्मभूमि- दोनों में हो सकते हैं। अवसर्पिणी काल के तीसरे-चौथे आरे में जन्म तथा तीसरे, चौथे, पांचवें आरे में उनका अस्तित्व रहता है । चौथे में जन्म और पांचवें में प्रव्रजन भी होता है । उत्सर्पिणी काल में दुःषम आदि तीनों कालों में जन्म और दो में अस्तित्व हो सकता है । इसीलिये सामायिक और छेदोपस्थापनीय चारित्र में जिनकल्प प्रतिपत्ति होती है ।
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इस प्रकार तीर्थ, दीक्षा पर्याय, आगमिक ज्ञान आदि की उपयुज्य मर्यादा आगम के अनुसार वक्तव्य है ।
वस्तुतः अचेलकत्व आदि कल्प दस प्रकार का है। उनमें अचेलक कल्प तो स्पष्ट ही है किन्तु मध्यम तीर्थवर्तियों भी सामायिक संयत चार प्रकार का कल्प होता है जो सर्वथा धारण योग्य है । कहा भी गया है कि शय्यातर पिण्ड का परित्याग, कृतिकर्म, व्रतादेश और पुरुष ज्येष्ठत्व – ये चार प्रकार का अवस्थित कल्प है तथा अवस्थित कल्प छह प्रकार का है- आचेलक्य, औद्देशिक, राजपिण्डत्याग, मासकल्प, वर्षाविधिः और प्रतिक्रमण विधान - ये विकल्प सहित कल्प हैं ।
आदिम और चरम तीर्थंकरों के तीर्थ में व्यवस्थित कल्प दस प्रकार का होता है । भगवान् श्री वर्धमान चन्द्र के तीर्थ में भी यथावत् दस प्रकार का इष्ट कल्प है । तीर्थकृत विषम उपदेश का यह पुनर्कथन इसलिए है कि भगवान् ऋषभ के तीर्थभव में मनुष्य आर्जवजड़ होते थे और भगवान् महावीर के तीर्थभव में वे अनार्जवजड़ हैं । इसलिए स्थित कल्प कहा गया है ।
आलक्य तो सत्य है और वह जैसा कहा गया है वैसा ही परिपालनीय है किन्तु तीर्थंकर कल्प विशिष्ट है । जन्मजात मति श्रुत-अवधि ज्ञानी और प्रतिपन्न चारित्र से चतुर्थ ज्ञान को पाने वाले तीर्थंकरों के लिये पाणिपात्र भोजित्व और केवल एक देव दृष्य परिग्रह सर्वथा उचित है किन्तु उनके द्वारा उपदिष्ठ आचार को पालन करने वाले साधु तो जीर्ण, खण्डित और सर्वतनुप्रावरण होने से श्रुत उपदेश के कारण इस प्रकार वस्त्रधारी होकर भी अचेलक ही हैं । जैसे नदी को पार करते समय शाटक- परिवेष्टितशिर पुरुष सवस्त्र होने पर भी नग्न कहलाता है वैसे ही गुह्य प्रदेश को चोल पट्ट से ढंकने वाला मुनि भी नग्न ही है । जीर्ण-शीर्ण साड़ी पहनी महिला जैसे बुनकर से कहती है- मैं नग्न हूं, मुझे साड़ी दो वैसे ही साधु भी महाधन मूल्यरूपी साधना को खंडित और जीर्ण अवस्था में आचरण करते हुए श्रुतोपदेश से धर्म बुद्धियों द्वारा नग्न ही कहा जाएगा ।
चारित्रसूत्र में शुद्धपारिहारिक क्या है ? सो कहते हैं । जैसे लन्दिक । लन्द एक निश्चित समय है । यह पांच रात्रि का होता है । यह साधना पांच लन्दों का गच्छ बनाकर की जाती है। सूत्र प्रमाण और भिक्षाचर्या के कल्पों को छोड़कर यह समाचारी जिनकल्पिकों के तुल्य है क्योंकि जिन्होंने अनिवार्य सूत्रार्थ हृदयंगम नहीं किए वे तो गच्छ प्रतिबद्ध ही होते हैं । जिन्होंने अनिवार्य सूत्रार्थ हृदयंगम कर लिए वे अप्रतिबद्ध हैं । इसीलिए यथालन्दिनों में कुछ जिनकल्पिक और कुछ स्थविर -कल्पिक होते हैं । जिनकल्पिक अपने शरीर का प्रतिकर्म नहीं करते । रोग उत्पन्न होने पर चिकित्सा नहीं करते । नेत्र - मल आदि को भी साफ नहीं करते किन्तु स्थिवरकल्पिक रोग उत्पन्न होने पर गच्छ को सूचित कर देते हैं । संघ ( गच्छ ) प्राक, एषणीय परिकर्म द्वारा उनकी परिचर्या कराता है । स्थविरकल्पिक एक-एक प्रतिग्रह धारी और सवस्त्र होते हैं । जिनकल्पिकों के लिए वे पांच, पांच रात्रि एकत्र रहते है और जघन्यतः
वस्त्र और पात्र वांछनीय नहीं है । तीन गण और उत्कृष्टः सौ गण
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प्रमाण होते हैं। उनकी भिक्षाचर्या भी पांच, पांच के अन्तर से होती है। एक-एक वीथी में पांच, पांच दिनों के अन्तर के भिक्षाचरण के पांच फेरों से उनका मास कल्प पूरा होता है। वे स्थित और अस्थित दोनों प्रकार के कल्पों में होते हैं। इस प्रकार ये जिनकल्पिक आदि गच्छ (संघ) नियमों से मुक्त होते हैं और इसी प्रकार की नग्नता इष्ट हो तो इसमें आगम की कोई बाधा नहीं है।
__ अब यदि वस्त्र-परित्याग मात्र को ही नग्नता माना जाए तो वह न प्रामाणिक है और न ही जैन शासन अनुयायियों के मन को तृप्त करने वाली है। स्थविरकल्पिक मुनि चौदह प्रकार की उपधि को धारण करने वाले और उत्सर्ग-अपवाद का व्यवहार करने व औपग्रहिक उपधि वाले होते हैं। उन्हें प्रवज्यादि द्वारा पहचाना जा सकता है। वे आचार्य, उपाध्याय, स्थविर, भिक्षु, क्षुल्लक आदि विभिन्न श्रेणियों में मासकल्पविहारी, अल्प मूल्य वस्त्रों के द्वारा अपने शरीर के अग्र भागों को आच्छादित करने वाले, वर्षाकल्प आदि पालने वाले, दस प्रकार की समाचारी का अनुष्ठान करने वाले और उद्गम, उत्पादन और एषणा आदि दोषों से रहित शुद्ध आहार, उपधि और स्थान का सेवन करने वाले होते हैं।
इस प्रकार पारमर्ष (आईत) प्रवचन अनुसार जिनकल्पिक और गच्छवासी ही नाग्न्य परीषहः को जीत सकते हैं, अन्य कोई नहीं।
प्रस्तुति-परमेश्वर सोलंकी
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जैन-बौद्ध संघों में--प्रवज्या-ग्रहण के हेतु
निर्मला चौरडिया
भारतीय संस्कृति की श्रमण-परम्परा सन्यास मार्ग की समर्थक है। गृह-त्याग कर संन्यास धर्म का पालन करना श्रमण-परम्परा की मुख्य विशेषता रही है। जैन एवं बौद्ध धर्म श्रमण-परम्परा के मुख्य निर्वाहक रहे हैं। संन्यास के क्षेत्र में प्रवेश करने का पुरुषों के समान स्त्रियों को भी अधिकार दिया गया है। यद्यपि वैदिक परम्परा में, कलिकाल में स्त्री के लिए संन्यास को वर्ण्य कहकर उसे प्रवजित होने से रोका गया किन्तु प्राचीनतम ग्रन्थों-वेद, उपनिषद् आदि में संन्यासिनियों के यत्र-तत्र सन्दर्भ अवश्य उपलध हैं। भगवान् बुद्ध नारी जाति को संघ में ससंकोच ही प्रवेश दे पाये जबकि जैन परम्परा में भगवान् पार्श्व और भगवान् महावीर ने नारी जाति को उन्मुक्त भाव से संघ में प्रवेश दिया।
प्रव्रज्या-ग्रहण में वैराग्य भाव तथा आध्यात्मिक चिन्तन की प्रमुखता तो रहती ही है साथ ही अनेक सामाजिक, पारिवारिक एवं आर्थिक कारण भी निमित्तभूत होते हैं । प्रस्तुत निबन्ध में इन्हीं कारणों पर विचार किया गया है।
स्थानांग तथा उसकी टीका में ऐसे सामान्य कारणों का उल्लेख है, जिनसे लोग दीक्षा-ग्रहण करते थे.-- . .
१. छन्दा-अपनी या दूसरों की इच्छा से ली जाने वाली। २. रोषा- क्रोध से ली जाने वाली । ३. परिघूना-दरिद्रता से ली जाने वाली। ४. स्वप्ना- स्वप्न के निमित्त से ली जाने वाली या स्वप्न में ली जाने
वाली। ५. प्रतिश्रुता-पहले की हुई प्रतिज्ञा के कारण ली जाने वाली । ६. स्मारणिका-जन्मान्तरों की स्मृति होने पर ली जाने वाली। ७. रोगिणिका-रोग का निमित्त मिलने पर ली जाने वाली। ८. अनाहता-अनादर होने पर ली जाने वाली। ९. देवसंज्ञप्ति - देव के द्वारा प्रतिबुद्ध होकर ली जाने वाली । १०. वत्सानुबन्धिका-दीक्षित होते हुए पुत्र के निमित्त से ली जाने वाली। ११. इहलोक प्रतिबद्धा--ऐहलौकिक सुखों की प्राप्ति के लिए ली जाने
वाली।
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१२. परलोकप्रतिबद्धा पारलौकिक सुखों की प्राप्ति के लिए ली जाने वाली ।
१३. उभयतः प्रतिबद्धा - दोनों के सुखों की प्राप्ति के लिए ली जाने वाली । १४. अप्रतिबद्धा - इहलोक आदि के प्रतिबंध से रहित ।
१५. पुरतः प्रतिबद्धा - शिष्य, आहार आदि की कामना से ली जाने वाली । १६. तोदयित्वा - कष्ट देकर दी जाने वाली ।
१७. प्लावयित्वा — दूसरे स्थान में ले जाकर दी जाने वाली ।
१८. वाचयित्वा - बातचीत करके दी जाने वाली ।
१९. स्निग्ध - सुमधुर भोजन करवाकर दी जाने वाली ।
२०. अवपात प्रव्रज्या - गुरु सेवा से प्राप्त की जाने वाली । २१. आख्यात प्रव्रज्या--- उपदेश से प्राप्त |
२२. संगर प्रव्रज्या - परस्पर प्रतिबद्ध होकर ली जाने वाली ।
२३. विहगगति प्रव्रज्या - परिवार से विमुक्त होकर देशांतर में जाकर ली जाने वाली ।
इन सामान्य कारणों के अतिरिक्त भी कुछ ऐसे कारण थे जिनसे प्रव्रज्या ग्रहण की जाती थी । सामान्यतया पति की मृत्यु अथवा उसके प्रव्रज्या ग्रहण कर लेने पर पत्नियां भी प्रव्रजित हो जाती थीं ।
उत्तराध्ययन सूत्र में राजीमती' और वाशिष्ठी के उदाहरण द्रष्टव्य हैं । राजीती ने यह समाचार पाकर कि उसके भावी पति भिक्षु हो गए हैं, भिक्षुणी बनने का निश्चय कर लिया । वाशिष्ठी ने भी अपने पति और पुत्रों को प्रव्रज्या ग्रहण करते हुए देखकर संसार का त्याग किया था। कुछ नारियां पति की मृत्यु या पति की हत्या कर दिये जाने के पश्चात् प्रव्रज्या ग्रहण करती थीं क्योंकि उस सामाजिक परिवेश में उन्हें उतनी सुरक्षा नहीं प्राप्त हो पाती थी, जितनी अपेक्षित थी। यही कारण था कि गर्भावस्था में भी वे संघ - प्रवेश हेतु प्रार्थना करती थी । मदनरेखा के पति को उसके सहोदर भ्राता ने मार डाला । उस समय वह गर्भवती थी परन्तु भयभीत होकर जंगल में भाग गई और मिथिला में जाकार संन्यास ग्रहण कर लिया। इसी प्रकार का उदाहरण यशभद्रा' का है, जिसके पति के ऊपर उसके ज्येष्ठ भ्राता ने आक्रमण किया था । वह भी भयभीत होकर श्रावस्ती के जंगल में भाग गई और वहीं उसने संघ में दीक्षा ग्रहण की। बाद में उसका पुत्र क्षुल्लककुमार उत्पन्न हुआ, जो भिक्षु बना । करकण्डु जो रानी पद्मावती का पुत्र था, पद्मावती के प्रव्रज्या ग्रहण करने के पश्चात् पैदा हुआ था । जैन अनुश्रुति के अनुसार बाद में हुआ 1
वह कलिंग का राजा
इसी प्रकार भाई के साथ बहनों के प्रव्रज्या ग्रहण करने का उल्लेख प्राप्त होता है। भिक्षुणी उत्तरा ने जो आचार्य शिवभूति की बहन थी, भाई का अनुसरण करते हुए प्रव्रज्या ग्रहण की थी । बाल विधवा धनश्री ' ने भी अपने भाई के साथ ही प्रव्रज्या ग्रहण की थी । भिक्षु स्थूलभद्र की सात बहनें थी - यक्षा, यक्षदता, भूता,
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तुलसी प्रचा
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भूतदत्ता, सेणा, रेणा । सातों बहनों ने अपने भाई को प्रव्रज्या ग्रहण करते हुए देखकर जैन भिक्षुणी संघ में प्रवेश लिया था। ज्ञाताधर्मकथा में पोट्टिला" तथा सुकुमालिका" का उदाहरण मिलता है। जिन्होंने अपने प्रति पति के प्रेम में कमी होने के कारण प्रव्रज्या ग्रहण की थी।
उपर्युक्त उदाहरणों से यह स्पष्ट है कि सामान्यतया नारियां अपने संरक्षक (पति, पुत्र, भाई अथवा अन्य कोई) की मृत्यु या उसके प्रव्रज्या ग्रहण कर लेने के उपरान्त स्वयं भी प्रवजित हो जाती थीं। अन्तकृतदशांग में उल्लिखित कालीसुकाली आदि के उदाहरण द्रष्टव्य हैं।
इसके अतिरिक्त बहुत-सी स्त्रियां विद्वान् साधुओं के धर्मोपदेश को सुनकर संन्यास-जीवन का आश्रय ग्रहण करती थीं। अंतकृतदशांग में जम्बूकुमार की पत्नियों तथा कृष्ण-वासुदेव की पत्नियों" का उल्लेख मिलता है, जिन्होंने अरिष्टनेमि के उपदेश से प्रभावित होकर प्रवज्या ग्रहण की थी। केवल धनी तथा उच्च वर्ग स्त्रियों ने ही नहीं बल्कि नर्तकियों तथा वेश्याओं ने भी भिक्षुणियों के कठोर जीवन का आदर्श ग्रहण किया था। उत्तराध्ययन टीका" में गणिका कोशा का नाम मिलता है, जिसने स्थूलभद्र नामक विद्वान् भिक्षु के सम्पर्क में आकर भिक्षुणी संघ में प्रवेश लिया था। इसी प्रकार अत्यधिक सुन्दरता के कारण मल्लिकुमारी वीतराग बनीं, जिन्हें श्वेताम्बर परंपरा के अनुसार १९वां तीर्थकर माना गया है, उनसे विवाह के लिए अनेक राजा लालायित हो उठे थे । इस प्रकार कभी परिस्थितिवश और कभी उपदेश या स्वप्रेरित वैराग्य से प्रव्रज्या ग्रहण की जाती थी। बौद्ध संघ
जैन संघ में प्रवजित होने के जो कारण मिलते हैं लगभग वैसे ही कारण बौद्ध संघ के सन्दर्भ में भी कहे जा सकते हैं। थेरी गाथा में उल्लेख है कि पटाचारा के उद्योग से ५०० स्त्रियों ने भिक्षुणी बनकर उसका शिष्यत्व ग्रहण किया था। इन सभी को सन्तान वियोग का दुःख सहन करना पड़ा था। इसी प्रकार वाशिष्ठी तथा कृशा गौतमी को" पुत्र-वियोग के कारण तथा सुन्दरी को अपने छोटे भाई की मृत्यु के कारण संसार से वैराग्य उत्पन्न हुआ था और इन सभी ने बौद्ध संघ में प्रवेश लिया था। कुछ स्त्रियों ने अपनी प्रिय सखियों की मृत्यु से दुःखी होकर प्रव्रज्या ग्रहण की थी। श्यामा कौशाम्बी नरेश उदयन की पत्नी श्यामावती की प्रिय सखी थी। श्यामावती की मृत्यु के बाद श्यामा ने बौद्ध-संघ में प्रवज्या ग्रहण कर ली। उब्बिरी" ने जो अपनी एकमात्र कन्या की मृत्यु हो जाने से दु:खी थी, बुद्ध के उपदेश को सुनकर बौद्ध-संघ में प्रव्रज्या ग्रहण की थी।
स्त्रियां पति के प्रश्नज्या ग्रहण कर लेने पर स्वयं भी प्रवजित हो जाती थीं। धम्मदिन्ना" ऐसी ही भिक्षुणी थी, जिसने पति के प्रव्रज्या ग्रहण कर लेने पर भिक्षुणीसंघ में प्रवेश लिया था। सुदिन्निका ने पति की मृत्यु के बाद देवर के कलुषित विचारों को समझकर प्रव्रज्या ग्रहण की थी।
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....कुछ ने प्रेम में असफल होने पर बौद्ध-संघ में प्रवेश लिया था। कुण्डलकेशा" राजगृह के सेठ की लड़की थी, जिसने अपने प्रेमी से धोखा खाने पर सर्वप्रथम जैन भिक्षुणी संघ में तत्पश्चात् बौद्ध भिक्षुणी संघ में प्रवेश लिया था। पटाचारा ने, जो अपने नौकर के प्रेम में फंसकर भाग गई थी, माता-पिता, भाई आदि की मृत्यु के पश्चात् प्रव्रज्या ग्रहण की थी।
___अत्यधिक सुन्दरता अथवा अत्यधिक कुरूपता के कारण जिन स्त्रियों का विवाह नहीं हो पाता था, वे भिक्षुणी बनने का प्रयत्न करती थीं। सुन्दर कन्या को प्राप्त करने के लिए अनेक पुरुष इच्छुक होते थे, अतः लड़की के माता-पिता को इस परिस्थिति में यह निर्णय करना कठिन हो जाता था कि लड़की को किसे दें। विवश होकर अन्त में माता-पिता कन्या को भिक्षुणी बनने का आदेश दे देते थे। सुन्दरी उत्पलवर्णा श्रावस्ती के कोषाध्यक्ष की कन्या थी। उससे विवाह करने के लिए अनेक राजकुमार तथा श्रेष्ठि पुत्र लालायित थे ! अतः विवाह करने के लिए सबको संतुष्ट करने में अपने को असमर्थ पाकर उसके पिता ने उत्पलवर्णा को भिक्षुणी बनने का आदेश दिया था। अम्बपाली को अतिशय सुन्दरी होने के कारण ही नगर सुन्दरी बनना पड़ा था और अपने अन्तिम दिनों में बुद्ध को भोजन का निमन्त्रण देकर तथा अपने पुत्र विमल कौण्डन्य के उपदेश से प्रभावित होकर उसने भिक्षुणी संघ में प्रव्रज्या ग्रहण की थी। अभिरूपा नन्दा२५ कपिलवस्तु की ऐसी ही क्षत्रिय कन्या थी जिसको अपने रूप पर अत्यधिक गर्व था परन्तु विवाह के पूर्व ही भावी पति की मृत्यु हो जाने के कारण उसके माता-पिता ने उसे भिक्षुणी बनने हेतु उपदेश दिया था।
___ बहुत-सी स्त्रियां किसी भिक्षु या भिक्षुणी के उपदेश से प्रभावित होकर अथवा किसी प्रतीकात्मक घटना का आध्यात्मिक अर्थ लगाकर संघ में प्रवजित होती थीं। थेरी गाथा में एक अज्ञातनामा भिक्षुणी का ऐसा ही उल्लेख है।
बौद्ध संघ में गणिकाएं भी प्रवेश लेती थीं। अड्ढकाशी२७ वाराणसी की गणिका थी, जिसने बुद्ध के उपदेश से प्रभावित होकर अन्य गणिकाओं द्वारा अवरोध उपस्थित किए जाने पर भी प्रवजित होने के अपने दृढ़ निश्चय का परित्याग नहीं किया था और दूती भेजकर भिक्षु-संघ से उपसम्पदा की अनुमति प्राप्त की थी ।२८
दासी पुत्रियों के भी संघ में प्रवेश करने के उल्लेख प्राप्त होते हैं। पूर्णिका श्रावस्ती के सेठ अनाथपिण्डक के घर की दासी-पुत्री थी। पूर्णिका की बौद्ध धर्म में श्रद्धा देखकर सेठ ने उसे दासत्व के भार से मुक्त कर दिया और सेठ की अनुमति लेकर वह संघ में प्रविष्ट हो गई। इसके अतिरिक्त कुछ नितान्त व्यक्तिगत कारण भी होते थे, जिनके फलस्वरूप प्रव्रज्या ग्रहण की जाती थी। सोखा ने अपने पुत्र एवं बहुओं द्वारा निरादर होने पर गृह-त्याग कर बौद्ध-संघ में शरण ली थी। ऋषिदाषी" को अपने पति के घर से निकाल दिया गया था, जिससे विवश होकर उसने बौद्ध-संघ में प्रवेश लिया था। मुक्ता ने कुबड़े पति के कारण गुह-त्याग किया था क्योंकि पति
तुलसी प्रज्ञा.
१८
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की शारीरिक रचना से उसका मन कुढ़ता था।
___ इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन एवं बौद्ध दोनों ही संघों में प्रवजित होने के लगभग समान कारण थे। पति, पुत्र, पुत्री, भाई अथवा स्नेही जनों की मृत्यु के कारण उनमें संसार के प्रति वैराग्य की भावना उतपन्न हो जाती थी और ज्ञानप्राप्ति तथा आध्यातिमक भावना से प्रेरित होकर भी प्रवज्या ग्रहण की जाती थी।
संदर्भ:
१. स्थानांक १०/७१२, ३/१५७, टीका, भाग पांच, पृ. ३६५-६६ २. उत्तराध्ययन, २२वां अध्ययन ३. वही, १४वां अध्ययन ४. उत्तराध्ययन नियुक्ति, पृ. १३६-४० ५. आवश्यक नियुक्ति १२८३, बृहत्कल्प भाष्य, पंचम भाग ५०९९ ६. आवश्यक चूणि, द्वितीय भाग, २०४-०७ ७. उत्तराध्ययन नियुक्ति, पृ. १८१ ८. आवश्यक चूर्णि, प्रथम भाग, पृ. ५२६-२७ ९. आवश्यक चूणि, द्वितीय भाग, पृ. १८३, कल्पसूत्र २०८ १०. ज्ञाताधर्मकथा १/१४ ११. वही १/१६ १२. अन्तकृतदशांग, आठवां वर्ग १३. वही, पंचम वर्ग १४. उत्तराध्ययन टीका, द्वितीय भाग, पृ. २९-३० १५. थेरीगाथा, परमात्थदीपनी टीका, ५१ १६. वही, ६३ १७. वही, २८,२९ १८. वही, ३३ १९. वही, १२ २०. भिक्षुणी विनय, १५८ २१. थेरीगाथा, परमात्थदीपनी टीका, ४६ २२. वही, ४७ २३. थेरी गाथा, परमात्थदीपनी टीका, ६४
२४. वही, ६६ पण २२, अंक ४
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२५. वही, १९ २६. वही, १ २७. वही, २२ २८. चुल्लवग्ग, पृ. ३९७-९९ २९. थेरी गाथा, परमात्थदीपनी टीका, ६५ ३०. वही, ४५ ३१. वही ३२. वही, ७७
-(निर्मला चोरडिया)
शोध अधिकारी प्राकृत भाषा एवं साहित्य विभाग जन विश्व भारती संस्थान लाडनूं-३४१३०६
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बन्यो भवेत् स कालूरामः
विलिख्यते पूर्वमयं प्रकारो बन्यो भवेद्येन स कालुरामः । श्लोकैस्तु विशद्गणितैः प्रवक्ष्यः पठन्तु भक्ता धृतभक्तिभावाः ॥
कालूराम पूजितं सभ्यवर्यैः जैने धम् नीत विद्याप्रचारम् । शान्तेर्मूतिम्पूज्यवयं सदाऽहं वन्देऽनेक स्थापिताग्यप्रकारम् ।।
[२] वारम्वारं मत्प्रणामा भवन्तु स्वच्छोवासः सर्वदा कार्य एव । कालूराम मिकेऽस्मिन् शरीरे सेवांकुर्वे चेतसा सर्वतोऽहम् ।।
मन्दोऽल्पज्ञो नैव जानामि सेवां त्वं पूर्णात्मा पूतचेतादयालुः । कालूरामे सर्वदाऽसौ मदीयः श्रद्धोल्लासः पूर्णताम्पूर्णभक्त्या ।।
[४] त्यक्त्वा हं त्वां कुत्रगच्छामि धीमन् कालूराम त्वंमहारक्षकोऽस्ति । त्रायस्वेमं दासवयंत्वरैव दासानष्टा: स्वामि रक्षां विना तु ॥
हे सर्वात्मन् सर्ववासिन् दयालो ? सांसारं त्वं पारमार्गम्वदाशु । तापाभीतिक्षुब्धमस्मच्छरीरं नान्यः कोपिप्रेक्ष्यते भूर्युपायैः ।।
कालूरामं सर्वशास्त्रार्थबोध ज्ञानध्यानातीतकालं महान्तम् । वन्देभूयश्चेतसा प्रार्थितन्तं तुच्छो दासो विद्यके केवलाशः ।।
आशीर्वाद किन्नदद्यात्समह्यतस्याहं सच्चेतसा दासवृत्तिः । वारम्वारं तस्यपादाऽरविन्दे भृङ्गीभूतं चेत एतद्रमेत ।।
देशे देशे भ्रामितोऽहं स्वमत्या मार्ग शुद्धन्नाप्तवान् हा कथञ्चित् । कालूरामं प्राप्य देवावतारं नष्टा सर्वा कालिमा हार्दिकी तु ।।
नेदानीन्त्वां त्यक्तुर्हामि साधो भक्तिम्मे त्वं शीघ्रतः संग्रहाण । हस्ताभ्यामबद्धबन्धप्रकारः किन्नाऽहंस्यां धारितानन्त से वः ॥
पण २२, अंक
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[१०] आदित्यं त्वां शुभ्रकान्ति विलोक्य प्राफुल्लन्मे सर्वतो तहृदञ्जम् । नष्टं सर्व तत्तमानाशकारि ज्ञेयं वृत्तं पूतं तं मदीयम् ॥
[११] कालूरामं साधुवय्यें निवन्धं सत्य ज्ञाने दत्तचित्ताच्छवृत्तिम् । वारम्वारं वन्दितं चाद्यवन्दे धारं धारं तद् गुणालङ्कतिन्तु ।
[१२] कालूरामः साधु पूज्योऽद्वितीयो भूयो भूयो वन्दनीयो महद्भिः । सेवां पूर्णां शीघ्रतः सु प्रसन्नो गृह्णात्वेतां दासव-पितान्तु ।।
[१३] श्रुत्वा श्रुत्वा कीतिमस्यात्रलोके विश्वासो मे चेतसीह प्रवद्धः । मान्यो मान्यः सेवनीयः सदैवं पूज्यः पूज्योलोक मुक्ति प्रकारः।।
__ [१४] धर्माचार्या धर्ममा प्रापयन्तो दृष्टाएते नापरे धौवं भाजः । कालेकाले काल कालोप्यकालः कालूरामः प्रार्थनीयो मयाद्य ।।
[१५] धर्मावाप्तिजायते यत्रसाधौ पापं छिन्नं जायते यत्र साधौ। लोकः कृत्स्नोयं पुराणं ववन्दे वन्देऽद्याहं तं मुनीशं सुभक्त्या ॥
[१६] लोके लोके दश्यते पापपंक्तिः साधौ साधौ दृश्यते धर्मलब्धिः । अस्माद्हेतो सर्वदासर्वदान्तपर्यन्तंतामाभजे तस्य सेवाम् ॥
[१७] भुक्त्या भुक्त्या तापतापं महान्तं छिन्नाबुद्धिर्मे महन् सर्ववासिन् । ज्ञात्वा ज्ञात्वा ते गुणं सद्वचोभिर्भक्ति कुर्वे सात्विकों तावकीनाम् ॥
[१८] कालूरामं पूज्यगण्यं महेशं तत्वज्ञेयं भक्तिवेतारमेनम् । वन्देनित्यं नित्यधर्मकृपालुं दीनोऽनाथो नाथवयं सनाथम् ।।
भक्तप्रीतिं धारयन्तं गुरून्तं मोहाच्छन्नां संसृति कारयन्ति । शिक्षाभावा यस्यबोधाग्रगण्यां वन्दे भूयो भूमियातेन मुद्धर्ना ।।
[२०] पूर्णारौति धर्मजातास्ति यत्र वे विद्यन्ते यत्रकाम न मोहाः । कालूराम पूज्यवयं सदा तं वन्दे बन्धं पूर्ण: भक्त्याऽधुनाहम ।।
-पं० रघुनन्दन शर्मा
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आचार्य कालूगणि को वंदन !
यहां भक्त पुरुष पूर्ण भक्तिभाव से पढ़े इसलिए पूज्य कालूगणि की बन्दना में बीस श्लोक कहे जा रहे हैं :
१. जो योग्य पुरुषों से पूजित हैं, जिन्होंने जैन धर्म में विद्या का प्रचार किया है और उन्नति के अच्छे-अच्छे प्रकार बताए हैं; उन शान्ति की मूर्ति, पूज्य श्री कालूगणि की मैं वन्दना करता हूं ।
२. गुरुदेव कालूगणि को मैं बारम्बार प्रणाम करता हूं और सर्व प्रकार मन से उनकी सेवा करता हूं; इसलिये पूज्य गुरुदेव मेरे शरीर में सदा भले प्रकार से विराजित रहें ।
३. मैं मन्द और अल्पज्ञ हूं । सेवा करने किन्तु भगवन् ! आप पूर्ण हैं, पवित्र हैं और कालूगणि में मेरी श्रद्धा-भक्ति सदैव पूर्ण उल्लास प्रार्थना है ।
४. हे भगवन् ! यह सत्य है कि बिना स्वामी की रक्षा के दास नष्ट हो जाते हैं। मैं आपका दासानुदास हूं और आप महान् रक्षक हैं । इसलिए मैं आपको छोड़ कर कहां जाऊं ? पूज्य कालूगणि! आप ही मेरी रक्षा कीजिए ।
५. हे सर्वात्मन् ! सर्ववासिन् ! कोई मार्ग बताइये । ताप के बहुत से उपाय कर लिए किन्तु दीखता है ।
का भी मुझे कोई ज्ञान नहीं है दयालु हैं । इसलिए पूज्य
के साथ बनी रहे - यही
दयालु प्रभु ! इस संसार से पार होने का भय से मेरा शरीर व्याकुल हो रहा है । मुझे आपके सिवा दूसरा कोई रक्षक नहीं
६. मैं केवल आशा करने वाला तुच्छ सेवक हूं इसलिए सम्पूर्ण शास्त्रों के ज्ञाता और निरन्तर ज्ञान-ध्यान में लगे रहने वाले महात्मा कालूगणि की बारंबार वन्दना करता हूं |
७. मैंने चित्त से उनकी दासवृत्ति स्वीकार की है और मेरा मन निरन्तर भौंरे के रूप में उनके चरण कमलों की वन्दना कर रहा है । फिर मुझे पूज्य कालुगण ! क्यों आशीर्वाद न देंगे ?
८. देश-देश में घूमकर मैंने अपनी बुद्धि से सत्पथ का अन्वेषण किया है किन्तु मुझे कहीं कोई शुद्ध मार्ग नजर नहीं आया । पूज्य कालूगणि को पाकर मेरे हृदय की कालुष नष्ट हो गई । निस्संदेह यह देवावतार हैं ।
खण्ड २२, अंक ४
२३
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९. हे साधो ! मैं दोनों हाथ जोड़कर आपकी अनन्त भक्ति करता हूं । मेरी भक्ति को स्वीकार कीजिए । मैं अब आपको छोड़ना नहीं चाहता
१०. आपकी कृपा से शुद्ध हुआ मेरा यह वृत्त है कि सूर्य रूपी आपकी शुभ्रकान्ति से मेरा हृदय कमल खिल गया है और वह सब अन्धकार नष्ट हो गया है। जो अनिष्ट करता है ।
११. इसलिए सत्य ज्ञान में दत्तचित्त और साधुओं द्वारा सदा वन्दित हो रहे गुणालंकारों को धारण करने के लिए मैं बारंबार उनकी
पूज्य कालूगणि वन्दना करता हूं ।
१२. पूज्य कालूगणि ! आप अद्वितीय साधु हैं और महान् पुरुषों द्वारा बारंबार वन्दनीय हैं । कृपया मेरे पर प्रसन्न होकर इस दासानुदास की सेवा को भी ग्रहण करने की कृपा कीजिए ।
१३. हे भगवन् ! लोक में आपकी कीर्तिगाथा को सुनकर मेरे चित्त में यह विश्वास जम गया है कि आप मान्य हैं, सदा सेवनीय हैं, परम पूज्य हैं और संसार- मुक्ति के सेतु हैं ।
१४. हे भगवन् ! आप जैसे
आप काल के भी काल,
करता हूं। जिस साधु
१५.
से धर्म की प्राप्ति होती है और पाप कालुष मिटता है । जिसको समस्त लोक वंदना करता है ऐसे मुनीश्वर को मैं भक्ति भावना से वन्दना करता हूं ।
१६. संसार में सर्वत्र पाप दीखता है और साधु में सर्वत्र धर्म्म की उपलब्धि होता है । इसलिए मैं चाहता हूं कि सब कुछ देने वाली साधु की भक्ति में, मैं सदा रमा रहूं ।
१७. हे भगवन् ! संसार-ताप को भोग भोग कर मेरी बुद्धि भ्रष्ट हो गई है किंतु आपके सद्वचनों से वह पुनः सात्विकी बन रही है इसलिए मैं आपकी वंदना करता हूं ।
१८. मैं दीन अनाथ हूं और आप पूज्यगण्य, महेश, तत्त्वज्ञ, सनाथ और कृपालु हैं इसलिए पूज्य कालूगणि मैं आपकी वन्दना करता हूं ।
१९. भक्तों में प्रीति रखने वाले और मोह-माया को विनष्ट कर अपने शिक्षा करने वाले गुरुओं को सदा भूमि पर शिर
भाव से संसार को ज्ञान प्रदान रख कर बारंबार प्रणाम हैं । २०. जिनमें धर्म की पूर्ण रीति है और जिनमें काम और मोह का अभाव है ऐसे पूज्य कालूगणि को पूर्ण भक्ति से मैं सदा वन्दना करता हूं ।
प्रस्तुति - परमेश्वर सोलंकी
धर्म्म धुरीण धर्माचार्य कहीं दृष्टिगत नहीं हैं । अकाल कालूराम हैं; इसलिए मैं आपकी वंदना
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गणित - प्रतिभा के धनीमुनिश्री हनुमानमलजी ( सरदारशहर )
मुनि श्रीचंद 'कमल'
सत्य तक पहुंचने के अनेक साधन हैं। उनमें एक साधन है गणित । पदार्थ और जीवों की गति, संचालन, व्यवस्था आदि गणित के द्वारा जानी जाती हैं । ब्रह्माण्ड में ग्रहों पर उपग्रह ( स्पूतनीक आदि ) उतारना और वापस बुलाना बिना गणित के संभव नहीं है । रेल व वायुयानों की दूरी पार करने व परस्पर न टकराने सहायक होती है । वस्तु के क्रय-विक्रय में भी गणित का उपयोग होता है। प्रबंध में भी गणित होता है । जैन आगमों में एक गणितानुयोग है ।
गणित के तीन प्रकार हैं- अंक गणित, बीजगणित और रेखागणित । मुनिश्री हनुमानमलजी ( सरदारशहर ) के हस्तलिखित पत्रों में अंकगणित की अनेक विधाओं के प्रयोग हैं । उनमें से एक 'विक्रम संवत्सर में न्यूनाधिकमास', तुलसी प्रज्ञा के पूर्णांक ९७ में छप चुका है । यहां कुछ अन्य प्रयोगों की जानकारी दी जा रही है१. रूढ़ संख्या
जो संख्या किसी अन्य संख्या से विभाजित न हो, उसे रूढ़ संख्या कहते हैं । मुनि हनुमानमल ने १ से २५०० तक की रूढ़ संख्या खोज निकाली हैं जो शतकों में निम्न प्रकार हैं
१ से १०० तक की संख्याओं में २६ संख्याएं रूढ़ हैं - १, ३, ५, ७, ११, १३, १७, १९,२३,२९,३१,३७,४१,४३,४७, ५३, ५९,६१,६७,७१,७३,७९, ८३, ८९,९७
१०१ से २०० तक की संख्याओं में २२ संख्याएं रूढ़ हैं - १०१, १०३,१०७, १०९,११३,११७, १२७, १३१, १३७, १३९, १४९, १५१, १५७, १६३, १६७,१७३,१७९, १८१,१९१,१९३, १९७,१९९
२०१ से ३०० तक की संख्याओं में १६ संख्याएं रूढ़ हैं - २११,२२३, २२७, २२९,२३३,२३९,२४१,२५१,२५७, २६३, २६९,२७१, २७७, २८३,२८८, २९३
३०१ से ४०० तक की संख्याओं में १६ संख्याएं रूढ़ हैं – ३०७,३११,३१३, ३१७,३३१,३३७, ३४७, ३४९, ३५३, ३५९, ३६७, ३७३, ३७९, ३८३,३८९, ३९७
४०१ से ५०० तक की संख्याओं में १७ संख्याएं रूढ़ हैं – ४०१,४०९,४१९, ४२१,४३१,४३३,४३९,४४३,४४९, ४५७, ४६१, ४६३, ४६७, ४७९, ४८७,४९१,४९९
५०१ से ६०० तक की संख्याओं में १५ संख्याएं रूढ़ हैं- ५०३, ५०९, ५२१, ५२३,५४१,५४७, ५५७, ५६३, ५६९, ५७१, ५७७,५८७,५९३,५९७,५९९
खण्ड २२, अंक ४
में गणित
समय के
२५
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६०१ से ७०० तक की संख्याओं में १६ संख्याएं रूढ़ हैं-६०१,६०७,६१३, ६१७,६१९,६३१,६४१,६४३,६४७,६५३,६५९,६६१,६७३,६७७,६८३,६९१
७०१ से ८०० तक की संख्याओं में १४ संख्याएं रूढ़ हैं-७०१,७०९,७१९, ७२७,७३३,७३९,७४३,७५१,७५७,७६१,७६९,७७३,७८७,७९७
८०१ से ९०० तक की संख्याओं में १५ संख्याएं रूढ़ हैं-८०९,८११,८२१, ८२३,८२७,८२९,८३९,८५३,८५७,८५९,८६३,८७७,८८१,८८३,८८७
९०१ से १००० तक की संख्याओं में १४ संख्याएं रूढ़ हैं-९०७,९११,९१९, ९२९, ९३७,९४१,९४७,९५३,९६७,९७१,९७७,९८३,९९१,९९७
१००१ से ११०० तक की संख्याओं में १६ संख्याएं रूढ़ हैं-१००९,१०१३, १०१९,१०२१,१०३१,१०३३,१०३९,१०४९,१०५१, १०६१, १०६३,१०६९,१०८७, १०९१,१०९३,१०९७
११०१ से १२०० तक की संख्याओं में १२ संख्याएं रूढ़ हैं-११०३,११०९, १११७,११२३,११२९,११५१,११५३,११६३,११७१,११५१,११८७,११९३
१२०१ से १३०० तक की संख्याओं में १५ संख्याएं रूढ़ हैं.-१२०१,१२१३, १२१७,१२२३,१२२९,१२३१,१२३७, १२४९,१२५९,१२७७,१२७९, १२८३,१२८९, १२९१, १२९७
१३०१ से १४०० तक की संख्याओं में ११ संख्याएं रूढ़ हैं—१३०१,१३०३, १३०७,१३१७,१३१९,१३२१,१३२७,१३६१,१३६७,१३८१,१३९९
१४०१ से १५०० तक की संख्याओं में १८ संख्याएं रूढ़ हैं--१४०९,१४११, १४२३,१४२७,१४२९,१४३३, १४३९, १४५१,१४५३,१४५७, १४५९,१४७१,१४८१, १४८३,१४८७,१४८९,१४९३,१४९९
१५०१ से १६०० तक की संख्याओं में १२ संख्याएं रूढ़ हैं-१५११,१५१३, १५२३,१५३१,१५४३,१५४९,१५५३,१५५९,१५७१,१५७९,१५८३,१५९७
१६०१ से १७०० तक की संख्याओं में १४ संख्याएं रूढ़ हैं-१६०१,१६०७, १६०९,१६१३,१६१९,१६२१,१६२७, १६३७,१६५७,१५६३, १५६७,१५६९,१५९३, १५९७
१७०१ से १८०० तक की संख्याओं में ११ संख्याएं रूढ़ हैं-१७०९,१७२१, १७२३,१७४१,१७४७,१७५३,१७५९,१७७७,१७८३,१७८७,१७८९
१८०१ से १९०० तक की संख्याओं में १२ संख्याएं रूढ़ हैं--१८०१,१८११, १८२३,१८३१,१८४७,१८६१,१८६७,१८७१,१८७३,१८७७,१८७९,१८८९
१९०१ से २००० तक की संख्याओं में १३ संख्याएं रूढ़ हैं-१९०१,१९०७, १९१३,१९३१,१९३३,१९४९,१९५१,१९७३,१९७९,१९८७,१९९३,१९९७,१९९९
२००१ से २१०० तक की संख्याओं में १४ संख्याएं रूत हैं-२००३,२०११, २०१७,२०२७,२०२९,२०३९,२०५३,२०६३,२०६९, २०८१, २०८३,२०८७,२०८९, २०९९ २१०१ से २२०० तक की संख्याओं में १० संख्याएं रूढ़ हैं-२१११,२११३,
तुलसी प्रज्ञा
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२१२९,२१३१,२१३७,२१४१,२१४३,२१५३,२१६१,२१७९
२२०१ से २३०० तक की संख्याओं में १६ संख्याएं रूढ़ हैं - २२०१,२२०३, २२०७,२२१३,२२२१,२२३७,२२३९,२२४३, २२५१,२२६७, २२६९,२२७३,२२८१,
२२८७,२२९३,२२९७
२३०१ से २४०० तक की संख्याओं में १५ संख्याएं रूढ़ हैं- २३०९,२३११, २३३३,२३३९,२३४१,२३४७,२३५१,२३५७, २३७१, २३७७,२३८१, २३८३,२३८९,
२३९३,२३९९
२४०१ से २५०० तक की संख्याओं में १० संख्याएं रूढ़ हैं - २४११,२४१७, २४२३,२४३७,३४४१,२४४७, २४५९,२४६७, २४७३, २४७७
इस प्रकार कुल ३७० संख्याएं रूढ़ हैं ।
२. गुणा
प्रचीनकाल में पहाडे सिखाए जाते थे उनके माध्यम से विद्यार्थी मौखिक गुणा कर लेते थे । आज के विद्यार्थी लिखकर भी बडे गुणा नहीं कर पाते। मुनि हनुमानमल ने ७६ अंकों का गुणनफल निकाला है और ३८-३८ अंकों की संख्याओं को गुणा किया है । ३८-३८ अंकों की दोनों संख्याएं और गुणनफल इस प्रकार है-८५०७०५९१७३०२३४६१५८६५८४३६५१८५७९४२०५२८६४× ८५०७०५९१७३०२३४६१
५८६५८४३६५१८५७९४२०५२८६४ = ७२३७००५५७७३३२२६२२१३९७३१८६५६३०४२९९४२४०८२९३७४०४१६०२५३५२५२४६६०९९०००४९४५७०६०२४९६
यह ७६ अंकों का गुणनफल मौखिक गुणा करके निकाला गया है । इसका प्रमाण उस पत्रक पर अंकित है जिस पर यह गणित किया गया है। दोनों गुणन संख्याओं की साईड में गुफनफल के प्रत्येक अंक की हाथपाई लिखी हुई है और प्रत्येक १० अंकों की हाथपाई के लिए संकेत दिया हुआ है ।
मैसूर में मैंने भी एक अवधान का प्रयोग किया था जिसमें नौ अंकों को नौ अंकों से गुणा करना था । एक प्रश्नकर्ता के प्रश्न के उत्तर में ऐसा प्रयोग किया था । उस अवधान प्रयोग में प्रत्येक अंक को प्रत्येक अंक से गुणा कर उनकी हाथ पाई को याद रखकर १८ अंकों का गुणनफल बताया था। वह स्मृति
और
गणित का संयुक्त
चमत्कार था ।
३. वर्ष मास तिथि वार परिवर्तन
प्रयोग किया था ।
अवधान प्रयोग से किसी भी ईसवी सन् मास और तारीख के आधार पर वार बताया जा सकता है। मुनि हनुमानमलजी ने भी अवधान का इसलिए वार बताना उनके लिए सरल था । तेरापंथ धर्मसंघ के इतिहास में जो जो घटनाएं घटीं उनका विक्रम संवत्, मास और तिथि के रूप में उल्लेख मिलता है । मुनिश्री ने उनके विक्रम संवत्, मास और तिथि को ईसवी सन् मास और तारीख में परिवर्तित किया है ! इस प्रकार तेरापंथ धर्म महासंघ के इतिहास की बनेकों घटनाओं का मुनिश्री ने वैक्रम संवत्सर से ईसवी संवत्सर में परिवर्तन कर
खण्ड - २२, अंक ४
२७
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दिया है। ४. सर्वतोभद्र यंत्र
इस यंत्र में केवल संख्याएं भरी जाती हैं। एक लाइन में जितने कोष्ठक होते हैं उतनी ही लाइनें होती हैं। एक लाइन की संख्याओं का जितना जोड़ होता है उतना ही योग सब लाइनों की संख्याओं का होता है। ऊपर से नीचे, दाएं से बाएं प्रत्येक लाइन की संख्याओं का योग समान होता है। तिरछी लाइन के कोणों की संख्याओं का योग भी उतना ही होता है। ऐसे यंत्रों को सर्वतोभद्र यंत्र कहा जाता है। मुनिश्री के हस्त लिखित पत्रों में ऐसे अनेकों सर्वतोभद्र यंत्र हैं उनके द्वारा भरे हुए सर्वतोभद्र यंत्रों का चार्ट इस प्रकार है
एक लाइन में कोष्ठक
कुल कोष्ठक
एक लाइन की संख्या
का योग
१५
*
ror
"
२६०
३६९
M
१२१ १६९ ३६१ १५२१ २४०१
११०५ ३४३९ २९६७९ ५८८४९
उदाहरण के रूप में १२१ कोष्ठकों का सर्वतोभद्र यंत्र नीचे दिया जा रहा है । जिसकी प्रत्येक लाईन का सर्वतोभद्र योग ६७१ है । ___६२ | ७४ | ८६ / ९८ | ११० । १११ । २ | १४ | २६ । ३८ | ५० ११२ । ३ | १५ | २७ । ३९ । ५१ । ६३ । ७५ | ८७ | ९९ १००
५२ | ६४ | ७६ | ८८ | ८९ | १०१ ११३ | ४ । १६ । २८ । ४० । १०२११४ | ५ | १७ | २९ ४१ । ५३ | ६५ ७७ । ७८ । ९०
४२ । ५४ । ६६ । ६७ । ७९ । ९१ १०३ ११५ । ६ । १८ । ३० ____१ | १३ | २५ । ३७ | ४९ । ६१ | ७३ | ८५ | ९७ १०९ |१२१ ___ ८२ | ९४ १०६ ११८ । ९ । २१ | ३३ । ३४ | ४६ | ५८ | ७०
३२ । ४४ । ४५ | ५७ ६९ ८१ । ९३ | १०५ | ११७८ | २०
९२ १०४ १०६ । ७ | १९ । ३१ | ४३ | ५५ ५६ | ६८ | ८० ___ २२ | २३ | ३५ | ४७ ५९ | ७१ | ८३ । ९५ | १०७ ११९ . १० । ७२ | ८४ | ९६ /१०८ | १२०/११..| १२ | १२४ । ३६ | ४८६०
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. तुलसी.प्रज्ञा
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दूसरा सर्वतोभद्र यंत्र-खाने ६४ योग-२६०
| १५ | ४९ | ५६ | १० | ५४ | १२ | १३ | ५१ | | २ | ६४ | ५७ | ७ | ५९ | ५ ४ । ६२ । | ५८ ८ १ । ६३ | ३ | ६१ / ६० | ६ | | ५५ | ९ | १६ | ५० | १४ | ५२ । ५३ | ११ | | ४२ | २४ | १७ | ४७ / १९ | ४५ | ४४ | २२ । । ३९ | २५ । ३२ | ३४ | ३० | १६ | ३७ | २७ । | ३१ | ३३ | ४० | २६ | ३८ | २८ | २९ | ३५ | | १८ | ४८ | ४१ | २३ | ४३ । २१ | २० | ४६ ।
मैंने भी सीतापुर (उत्तर प्रदेश) में एक अवधान का प्रयोग किया था। वहां एक लाईन में १०१ कोष्ठक और १०१ लाईनों में १०१x१०१-१०२०१ दस हजार दो सौ एक कोष्ठकों का सर्वतोभद्र यंत्र भराया था। ५. कुछ चमत्कारी संख्याएं
(१) कुछ गणित संबंधी प्रश्न उन्होंने गणितज्ञों के सामने खड़े किये हैं और उनका उत्तर भी प्रस्तुत किया है
प्रश्न-तीन अंकों की ऐसी संख्या बताओ जिसके प्रत्येक अंक के घनफल का योग वहीं संख्या आती हो।
उत्तर-१५३ की संख्या । यथा१ का घनफल १x१४१=१ ५४५४५-१२५ ३४३४३-२७ कुल योग १+१२५+२७=१५३ दूसरा उदाहरण-३७० संख्या है। ३४३४३-२७ ७४७४७-३४३ .xoxo=0 कुलयोग २७+३४३+=३७० तीसरा उदाहरण-३७१ संख्या है। ३४३४३-२७ ७४७४७-३४३ १४१४१-१ कुलयोग २७+३४३+१-३७१ चौथा उदाहरण-४०७ संख्या है।
खण्ड २२, अंक ४
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४४४४४=६४ ७४७४७-३४३ oXoXoco कुलयोग ४०७
(२) प्रश्न-किसी एक ही अंक को पांच बार लिखें ताकि कुल योग १०० ही हो । संख्या ५ बार ही आनी चाहिए कम या अधिक बार नहीं।
पहला उदाहरण-३३४३+३=१०० दूसरा " -५४५४५--(५४५)=१०० तीसरा " -(५+५+५+५)=२०४५=१००
प्रश्न-एक ही अंक का चार बार प्रयोग करो। उत्तर १०० आना चाहिए । जैसे
उत्तर-९९+ १००
इसी प्रकार एक ही अंक का पांच बार, छः बार, सात बार, आठ बार, नव बार और दस बार प्रयोग हो सकता है।
(३) प्रश्न-९,८,७,६,५,४,३,२,१,० इन दस अंकों का एक-एक बार प्रयोग हो और उत्तर १ आवे । जैसे
४+ ३+१=१
(४) प्रश्न-९,८,७,६,५,४,३,२,१,० इन दस अंकों को एक-एक बार प्रयोग करें और उत्तर १०० लाएं।
उत्तर-१+२+३+४+५+६+७+(८४९)= १०० (२) ७०+२४६+५=१००
(५) प्रश्न-गुण्य गुणक और गुणनफल में १ से लेकर ९ तक की सभी संख्याएं आनी चाहिए किन्तु एक संख्या दो बार नहीं आनी चाहिए।
इस प्रश्न के उत्तर में ९ उत्तर हैं। (१) १२४४८३=५७९६ (२) ४२४१३८-५७९६ (३) १८४२८७=५३४६ (४) २७४१९८=५३४६ (५) ३९x१८६७२५४ (६) ४८४१५९-७६३२ (७) २८४१५७=४३९६ (८) ४४१७३८-६९५२ (९) ४४१९६३=७८५२ (६) कुछ संख्याएं ऐसी हैं जो गुणा करने पर वही संख्या उल्टे क्रम से आती
१०८९४९-९८०१
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२१७८४४=८७१२ २२१४३१२-६८९५२
इस संख्या को उल्टे रखकर गुणा करने पर गुफनफल भी वही संख्या उल्टे क्रम से आती है।
१२२४२१३-२५९८६
२२१ की उल्टी संख्या १२२, ३१२ की उल्टी संख्या २१३, गुणनफल ६८९२५ का उल्टा २५९८६ है।
(७) तीन अंकों की कोई संख्या लें और वही संख्या उसके आगे लिख दें। फिर उसमें ७ का भाग दें। भाग पूरा जाएगा। जो भागफल हो उसमें ११ का भाग दें, भाग पूरा जाएगा। अब जो भागफल आए उसमें १३ का भाग दें। भागफल वही आएगा जो आपने प्रारंभ में तीन संख्या ली थी। यह गणित का चमत्कार है।
(८) किस संख्या को किस संख्या से गुणा करने पर १२ एका (११११११११११११) आते हैं ? प्रश्न के उत्तर में मुनिश्री ने चार संख्याएं दी हैं
(१) १००९९९८९९४९९०१-११११११११११११ (२) ११२२२२११४९९०१-११११११११११११ (३) ३७४०७३७४२९७०३=११११११११११११ (४) १०९९०११४१०११०१-११११११११११११
किस संख्या को किस संख्या से गुणा करने पर १६ वार नव (९) की संख्या आती है । मुनिश्री ने तीन उदाहरण प्रस्तुत किए हैं
(१) ५८८२३५२९४११७६४७४१७-९९९९९९९९९९९९९९९९ (२) ३२२५८००६४५१६१२९४३१=१६ बार ९ की संख्या (३) ३५८४२२२९३९०६८१४२७९=१६ बार ९ की संख्या इसी प्रकार १८ नव की संख्या के लिए गुणा दिया हुआ है५२६३१५७८९४७३६८४२१४१९=१८ बार नव की संख्या । (९) प्रश्न-किस संख्या को किस संख्या से गुणा करने पर १०१०१ आते
उत्तर-इसके लिए मुनिश्री ने ६ गुणा प्रस्तुत किये हैं(१) ४८१४२१ (२) १४४३४७ (३) ७७७४१३ (४) २७३४३७ (५) १११४९१ (६) ३३६७४३
१०१०१ के बाद १०४०१, १०७०१, १०८०१, १०९०१, ११००१ से लेकर २०००१ तक के गुणा दिए हुए हैं।
खण्ड २२, अंक ४
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(१०) दो हजार से अधिक पर छोटी से छोटी संख्या कौनसी है जिसमें १७ का भाग देने पर ३ शेष रहे और और १९ का भाग देने पर १० शेष रहे । उत्तर-२०४३
(११) ३ और ६ संख्या के बीच में ५ का अंक और तीन से पहले ४ का अंक जितनी बार लिखेंगे उस संख्या का वर्गमूल उतने ही ६ में आएगा । जैसे
४३५६ =वर्गमूल ६६ ४४३५५६=वर्गमूल ६६६
ऊपर की संख्या में एक बार ४ और एक बार ५ है। दूसरी संख्या में दो बार ४ और दो बार ५ है । वर्गमूल में ६ की संख्या बढ़ गई है।
--मुनि श्रीचंद 'कमल' द्वारा/आचार्यश्री महाप्रज्ञ आवास प्रबन्ध समिति
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English Section
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CULTURAL STRATEGIES FOR
POLLUTION CONTROL
Suresh C. Jain
Culture, a product of the interaction of man and environment, consists of inherited artificies, goods, technical proce-ses, ideas, habits and values. It is an expression of its people's ideals, temperament, religion, climate and outlook of life, Love, respect and even worship of life is the basic socio-cultural aspect of our cultures. Ahimsā is a way of life and attitude towards all forms of living beings as towards ones ownsolf. It requires one to be alert in thought, speech and action and helps in enhancing ethical moral, social, spiritual evolution of all forms of life including human. Man should have a discriminatory power in utilising energy for promoting human values. Constant alertness and thoughtful practice of Ahimsa is the highest code of conduct and does not require any label of religion or ism For practicing a Ahimsak (non-violent) way of life the feeling of 'me' has to the eliminated, which is responsible for generating vices like lust, anger, greed, attachment and ego. Our national, social and personal life has to be planned in such a way so as to minimise the disturbances in the life of other livings, called Sravkācåra method of living in Jain religion. The present day emphasis on appropriate environmental ethics from dominance to respect for all living creatures & things in our teacbing is a similar move.
The movement of man away from established values under the influence of technology and mechanical automation is generating animality in which the violence is the law. The uncontrolled technological development in the modern age is a serious threat to ecological balance including acid rain and violence in society. It has been further enhanced by heavy killing of animals for human consumption, deforestation and unnatural technological developments including exploitation of natural resources.
It is therefore necessary to establish a triangular relationship among man, animal and plants based on Indian cultures, so as to establish a New World Order of Peace, Purity and Prosperity.
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Health Hazard (s) :
A QUANDARY FOR THE SOCIOLOGY OF HEALTH
Anand Kashyap
For the past few decades, a gamut of loaded words, quite interconnected with each other and carrying a common philosophy of consumeristic utilitarianism, has been doled out by the economically advanced countries in the developing Third World. Such words are : poverty and development, tradition and modernity, health and disease, and many other ideologically charged concepts that have been used as leyers and motivators of socio-economic transformation in the developing world. It has become amply clear by now that this developmentalistic' ideology, emanating from the metropolitan west, is not merely a philanthropic or an altruistic gesture towards the Third World but provides a new cloak or mystique to hegemonize and colonize them by inculcating an unceasing techno-economic and, to a great extent, even a cultural dependence upon them. In fact, to quote Berger (1973), it is a planned development of the under-development and in Ivan Illich's (1980) words a 'planned poverty' against which he calls for the celebration of awareness'. It is this 'celebration of awareness' that has provoked me to look the problem of health and disease in this perspective and try to understand their latent meanings, for a country like ours which may be lagging behind economically but culturally it is not so poor.
To my mind, it is a responsibility of the Indian intellectual in general and a social scientist or a social anthropologist in particular to demystify such ideological packages and examine them critically with reference to our socio-cultural requirements and priorities.
A definition of health' and specially that of mental health' mostly depends upon the concept of man and the concept of 'normalcy' prevailing in a particular culture and society.
lofluence of Renaissant-Enlightenment Europe, progress theories and evolutionary doctrines is quite vivid on the concept of man obtaining in the modern western thought and society. All these doctrines are primarily based on the assumption that it is 'abundance' and not the 'frugality' that brings happiness in life and abundance could be procured only through the power of science and technology. This rational-empirical view has evoked a bio-social or
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rather a naturalistic concept of man which accepts man as healthy or normal, who could stand the Darwinian test of being fit and victorious in the struggle for existence and be functional to the aggregate or the collectivity from which he derives his existence as a social being. Both biologically and socially, thus, capacity to adapt with the environment is the main criterion constituting the definition of health and its failure that of a disease. This is a mechanomorphic view of man which segmentalizes the totality of his existence into many fragments or roles and role sets where efficiency to discharge economic functions becomes key to define health and normality. While working out the concept of the 'pathology of normalcy', according to which not merely an individual but the entire society could be sick and unhealthy. Fromm (1963) observes that mental bealth cannot be defined in terms of the 'adjustment' of man to society, but on the contrary it must be defined in terms of the adjustment of society to the needs of man. Fromm, thus, seeks to define health and normalcy not merely in terms of the adaptive capacity of man but in terms of his basic nature as a human being and his intriasic needs.
As a reaction to the excessive rationalistic-utilitarianism and its mechanomorphic view of man, Freud, in his work, Civilization and Its Discontents, tried to liberate man from the strangleholds of this mechanical ethics. His man was a man with natural instincts whose existential unity he tried to locate in his most primitive impulsive being or rather in the libidinal being. According to him, the main cause of psychic pathology of man is civilization and its normative control which mars the free and uninhibited libidinal gratification, which, in turn, results into personality disorders and social maladjustments. As a remedy to these disorders Freud devised the therapy of psycho-apalysis. Psycho-analysis provided an outlet to ventilate the repressed desires and restored back the homeostatic of a disordered personality. Through his theoretical formulations and the therapeutic technique of psychoanalysis, Freud in fact had tried to subordinate the normative order of the society or the super ego and surrendered the conscious in man to his subconscious. In terms of the deeper understanding of human nature and the authentic health of his being, this therapeutic technique and the view of man seems to be based on very perverted theoretical understanding. Not only Freud had given a major blow to the crumbling traditional value ethics in the wake of marching industrial civilization, he also paved the way for the complete reversal of what Arendt (1958) argues as the 'Teversal of the hierarchy of vita-contemplativa and vitaactiva', so as
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to relegate the value seeking contemplative life of man a very inferior status and make the active adaptational life as the supreme value. (With the contributions of Karl Marx this process of reversal of the order between contemplative and active life became complete). As Sorokin (19 has observed about this Freudian notion of man: “...this conception and this technique concentrate on man as a perverted animal, on his subconscious as the basic driving force, on an 'adjustment' of his 'ego' and 'super ego' to the 'id', rather than on an adjustment of the 'id' to the norms of a rational 'ego' and a sociocultural 'super ego'. “Sorokin rightly observes that instead of "lifting man and society to the higher levels of the consciousness and superconsciousness; instead of sanctifying parenthood and childhood, Freudiapism degrades them to the level of perverted animalism.” Just as Freud believed that freeing man from the unnatural and overstrict sex-taboos would automatically lead him to mental health, Marx also believed that the emancipation from exploitation would automatically produce free and cooperative beings. Like Freud, Marx too did not give the moral factor in man' its due importance and assumed that the goodness in man would automatically assert and take care of itself when the economic changes had taken place (Fromm, 1963). Marx could not visualize that a better or healthy society could not be manufactured merely through structural transformation of the society, a psycho-moral change from within the being of man is imperative. Without an appropriate ethico-spiritual self-awareness, social systems are always prone to barbaric authoritarianism and a variety of terrorism including that of the state. Abundance automatically brings happiness and liberates man from miseries and social maladies is a great myth of progress theories. Contrary evidence to this assumption could easily be witnessed in our daily life experiences. For example, the United States and other affluent countries at the international level. Punjab in India, and Ganganagar in Rajasthan-the three levels of high affluence-probably present the maximum incidence of crime rates. How abnormal the definition of normalcy in the modern sensate society is could be guessed by Sorokin's (1958) remarks that if an individual 'can get along somehow' with others, without committing a criminal offense; if he becomes capable of finding a means of subsistence, of doing a job, of satisfying his bunger, his sexual instincts, and his other biological needs without criminal violation of the law, he is regarded as a normal 'adjusted', 'educated' and 'integrated' person. If he can do these things by defeating his competitors in sex and business, sport and politics, money making and social clim
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bing, he is regarded as an outstanding leader, a huge success.
Though smothered in the dust winds of the modern industrial civilization, alternatives to such a concept or model of man and the notion of health and social normalcy are available in the traditional cultures of the so-called under-developed or the Third World. In these cultures, especially in Indian tradition, man is not conceived to be merely a bio-social or a thinking animal, i.e., just merely a jump from the state of homo erectus to that of homo sapience, but qualitatively a unique species who has been gifted with the potentiality of realizing divinity within himself. He is not merely a mechanomorphic behavioural personality system but an open ended being-a possibility-whose unquenched thirst, as Chandogya Upanishad puts, could only be satisfied by the infinity (Pande. 1972). In the great Chain of Being it is man only who is bestowed with the capacity of going beyond space and time and transcend the limits of his own self so as to encompass the entire humanity into his compassionate and adwaitic fold. In contrast to the modern scientific psychotherapy of putting the conscious and the super-conscious to the command and service of the unconscious, Indian traditional thought and techniques elevate the whole man to the level of the conscious and super-conscious, i.e., from his animalistic egocentrism' to humanistic 'altruism'. Parallel to the famous tripartite division of conscious, sub-conscious and unconscious, the ancient 'science of wisdom', as Schumacher (1978) calls it, hierarchizes human consciousness into four levels, viz, jagrit (conscious), swapna (state of dream), sushupti (deep sleep), and turiya (state of super-conscious or transcendence).
As regards personality disorders, the basic assumption in Indian thought system has been that mostly such diseases are caused due to the egocentric and myopic perceptions of the realities of the world and if the egoistic consciousness transfigures and is united into the strainless blissful state of the super-consciousness then the myopia is cured and the integration of personality automatically results. Acquaintance with the state of super-consciousness and finding entry into it is a matter of disciplined learning; in the classical as well as folk traditions, there are many ways, such as yoga, meditation, vedantic self-enquiry, Buddhist vipasyana, satsang, kirtan, etc. The turiya state of super-consciousness to use Lannoy's phrase is the state of 'coincidentia oppositorum' where the pairs of opposites like good and bad, affirmation and negation do not exist for it is taken to be the state of great Zero' or transcendence or samadhi (awakening sleep) where contradictions and dilemmas are automatically dissol,
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ved. It is this state of super-consciousness where man gets an opportunity to experience the depth of pure love, peace of being and the autonomous bliss of the sclf. This state of super-consciousness is considered to be the value of values in life. Krishnamurty (1977) calls this state of transcendence the state of 'creative awareness' or 'creative reality' where the creativity of man in general and specially the moral and spiritual is most pronounced. It is this state for which most of the Indian philosophical thought, both classical and folk, in exhorts to aspire for and is idealized as the state of perfect health and normalcy Thus, fundamentally, 'health' is not the adaptive power but rather an intrinsic happiness; and higher is the degree of tbis autonomous peace and happiness heal-their and normal a man is.
As Sorokin remarks, "these traditional systems contain in them. selves nearly all the sound techniques of modern psycbo-analysis, psychotherapy, psychodrama, moral education, and education of character” and above all, do not include the 'violent' naturalistic methods (Kothari and Mehta, 1988) of modern psychiatry like electric-shock therapy, surgical operations, torturing of animals, and so on.
In fact today, when the world has already ushered into the epochs of post-modernity and fast reaching the logical edge of the consumeristic and hedonistic industrial civilization, a holistic concept of health and normalcy has become a great necessity. The conventional fragmentation of the totality of being into the multiple adaptational demands and the utilitarian segmentalization of the social and ecological systems have become too hazardous for the healthy growth of humanity. Instead of understanding our own existential predicaments through autological dialectics, today, we have made man overdependent upon a variety of experts, which in itself has put him to a different kind of insecurity feelings and hazards.
In short, what is needed now is first to emancipate the very notion of health itself from its traditional narrow confines and from the common negative meaning that the absence of disease is the measure of health". The concept of health along with the concept of man should be so broad based and positively-oriented that it may include the entire range of human life and the related ecological systems into a one integral fold. In order to attain such a notion of human development and health perspective, a radical alteration in our perception of man and human needs is a prime requisite and this calls forth the different disciplines of social sciences to review
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their basic postulates and understanding about human nature and its existential dimensions. For example, the assumption of conventional economics that maximization of wants and their commensu. rate satisfaction brings in happiness does not seem to be founded on a very correct perspective. Similar is the case with sociology and anthropology who conceive of man simply as a bundle of social roles and a socialized animal.
The comprehensive and integral concept of human health and development could best be summed up in Sri Aurobindo's (1971) thought that development should be:
(i) according to the general law of nature;
(ii) according to the general law of one's type, i.e., society; and (iii) according to the individual law of one's being.
And all these laws or definitions should correspond with each
other.
But all this is not possible unless conceptually we first uplift man from the sub-human status that has been assigned to him during the past few centuries in our thought and disciplines and this requires a radical reconstruction of our social scientific thought, approach and perspective.
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References:
Arendt, Hannah, 1958, The Human Condition, Chicago, University of Chicago Press, pp. 289-94.
Berger, Peter L., Berger B. and Kellner Hansfried, 1973, The Homeless Mind: Modernization and Consciousness, Harmondsworth, England, Penguin Books Ltd., p. 14.
Fromm, Erich, 1963, The Sane Society, London, Routledge and Kegan Paul Ltd., pp. 12-22.
Illich, Ivan, 1980, Celebration of Awareness: A Call for Institutional Revolution, Harmondsworth, England, Penguin Books Ltd., pp. 129-43.
Kothari, Manu L. and Mehta, Lopa A., "Violence in Modern Medicine" in Science, Hegemony and Violence; A Requiem for Modernity (ed.), Ashis Nandy, 1988, Bombay, Oxford University Press, pp. 167-210.
Krishnamurti, J., 1977, The First and the Last Freedom, London,
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Victor Gollanex Ltd., pp. 14-18.
Pande, G.C., 1972, Meaning and Process of Culture, Agra, Shivlal Agarwal and Co., pp. 112-14.
Schumacher, E.F., 1978, A Guide to the Perplexed, London, Jonathan
Cape, p. 64.
Sorokin, Pitrim A., 1950, Reconstruction of Humanity, Bombay, Bhartiya Vidya Bhavan, 1958, p. 173.
Sri Aurobindo, 1971, The Human Cycle, Pondicherry, Sri Aurobindo Ashram, p. 59.
-Dr. Anand Kashyap Head, Dept. of Anthropology University of Rajasthan
2 K I., Jawaharnagar, Jaipur-4
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JAINA AND BRAHMAŅICAL ART : A STUDY
IN MUTUALITY
Maruti Nandan Pd. Tiwari
The core of the Jaina pantheon and so also the visual manifestations representing the concretization of thoughts and myths into figurative and pictorial art, was the 24 Jinas or the Tirthankaras who were venerated as the Devādhideva, the invincible supreme deities, The Jainas further developed their pantheon by assimilating and transforming different Brāhmanical legendary characters and deities in Jaina pantheon. It is to be remembered that while embracing Brāhmaṇical deities, the Jainas have never compromised with their basic tenets of meditation and bodily abandonment represented best by the vītarāgi Jinas who were free from passions and desires and who could aeither favour nor frown at any body. It is for this reason that the Jinas were never shown as safety-bestowing or boonconferring deities as was the case with Buddha, Siva, Višnu, Ganesa and others. But at the same time religion can thrive only with the active support of the masses and this fact was very much in the winds of the Jaina ācāryas. The majority of the worshippers aspire for worldly and material possessions from the deities they worship which, however, could not be obtained from the worship of the vītarāgi Jinas and hence several other deities were conceived and incorporated in Jaina pantheon to cater to the need of the common worshippers. It was done through the induction of the śåsanadevatás or the yakşas and yakşīs, joining the Jinas on two flanks as guardian deities. They bestow upon the worshippers the desired boons. This socio-religious requirement paved the way for assimilation and mutual understanding between the Brāhmaṇical and Jaina sects. The present paper endeavours to make a succinct study of such assimilations on the basis of literature and art examples.
If we look at the ancient map of India we come across several such sites which have yielded temples and gamut of sculptures related to both the Brāhmanical and Jaina sects, the most important of them being-Mathurā (U.P.), Osiāñ (Rajasthan), Ellorā (Maharăstra), Khajuraho (M.P.), Aihole, Halebiñ and Badāmi (Karnataka). Besides, Deogarh (U.P.), the Vimalvasāhi and Lüņavasābi (Rajasthan) Tarangā (Ajitanatha temple) and Kumbbāriā (Gujarat) and Śravaņabelagola (Karnatak) were the Jaina sites of great consequence which
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TULSI-PRAJNA had yielded profuse amount of Jaina icons. The iconic data at these sites bear testimony to the multidimensional mutual influences. The Parsvanātha Jaina temple at Khajuraho (C. 950-70 A.D.), containing all around its facade the figures of Brābmaņical deities like Śiva, Višnu, Brahma, Rāma, Balarāma, Kāma, Agni and Kubera alongwith their respective Saktis in alingana-pose, is a remarkable example of coherence and mutuality between the two sects. Such figures in ålingana pose are indeed the violation of accepted norms of the Jaina tradition and were actually carved under the influence of Brābmanical sculptures at Khajurāho. On the north and south śikhara and also on the garbhagsha facade of the Pārsvanatha temple, there are three sculptures showing amorous couples. 1
The instances of erotic figures in Jaina context, datable between 10th and 12th century A.D., are also known from Deogarh (Doorway, Temple 18), Sāntinatha temple at Nārlai (Pali, Rajasthan) Ajita nátha temple at Tāranga and Neminātha temple at Kumbhāriā. The presence of erotic figures at Jaina sites is the gross violation of the Jaina tradition which does not even conceive of any Jaina god alongwith his sakti in alingana-pose. The rendering of erotic figures on Jaina temples was due to the Tāntaric influence in Jainism during the early mediaeval times (
C7th to 10th century A.D.). However, the Jaina Harivarśapurāna (783 A.D.) makes the point more clear by referring to the construction of a Jina temple by a śreşthi Kabadatta, who, for the general attraction of the people, also caused the installation of the figures of Kāmadeva and Rati in the temple. It also alludes to the worship of Rati and Kamadeva alongwith the Jina images. It may also be noted here that the Tāntaric influence was accepted in Jainism but with certain restraints. Overt eroticism was gevor so pronounced in Jaina literature and sculptural manifestations as was the case with Brāhmaṇical and Buddhist religions, which is evident from the sculptural examples carved on the temples at Modhera, Khajuraho, Koņārk, Bhubanesvara and many other places, The erotic figures from Jaina temples as compared to Brāhmanical ones are neither so profuse in number nor so obscene in details.
The Jipas also find representation in some of the Brahmaņical temples at Khajurābo (Kandariyā Mabadeva and Visvanātha temples -11th century A.D.), Osiāñ (Sürya and Harihara temples 8th-9th centuries A.D.) and Bhubaneśvara (Mukteśvara temple-10th century A.D.).
The Jainas in their list of 63 salakāpurusas (great men), finalised during the Kushāņa-Gupta period, include a number of Brahmanical deities and legendary characters, the most important of which are Bharata Cakravartin, Rāma and Balarama as Baladevas (Or Bal.
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bhadras), Lakşmaņa or Nārāyaṇa and Kļşņa as Vāsudevas (Or Narayaņas), and Ašvagriva, Tāraka, Nisumbha, Madhu, Kaitabha, Bali, Prahalāda, Rāvana and Jarāsandha as Prativasudevas (Or Pratinārāyanas). It may be noted that independent texts were also composed on Rāma and Kệşpa, they are the Paumacariya of Vimalasüri (A.D. 473), Padmapuräna of Ravişeņa (A.D. 678), Uttarapurāņa of Gunabhadra (9th-10th century A.D.). Harivarśapurăņa of Jinasena (A.D. 783) and Trișașsisalākāpuruşacaritra of Hemacandra (mid 12th century A.D). Of all the deities borrowed from Brāhmaṇical tradition, Rāma and Kļşņa, the two great epical characters, undoubtedly occupy the most exalted position in Jaina worship and religious art. They were incorporated in about first-second century A.D. Tho rendering of Kșşņa alongwith Balarama begins as early as in Kushāņa period. Balarama and Krşņa were associated with the 22nd Jina Aristanemi or Neminātha as his cousin brothers and as a consequence they find representation in the images of Neminātha from Mathura, belonging to the Kushāna period. In one instance (State Museum, Lucknow, J 47), the seated figure of Neminātha is flanked by the figures of four-armed Balarama and Kļşņa-Vasudeva. Balarama holds mūsala, hala while Kțşņa bears mace. Another image of late Kushāna period shows Krsna with mace and cakra. This association distinctly explains the process of adoption and transformation of Brāhmanical deities in Jaina worship. The subsequent examples of such images are known from Bateśvara (Agra, U.P.) and Deogarh (Temple No. 2, Lalitpur, U.P.). Owing to the explained kinship of the two, Balarama and Kțşņa were also carved in different narrative panels at Kumbhāriã and Vimalavasahi (11th12th century A.D.) showing the life of Neminātha. These scenes include the watersport and trial of strength between Neminātha and Krsna (Vimalavasāhi-ceiling of cell no. 10). According to the Jaina tradition and so also in visual expression Neminātha is portrayed as victor in a trial of strength with Krsna which was intended to establish the superiority of Jainism. The relief in the Vimalavasabr shows in the second circular band the demonstration of strength of Neminātha in the ayudhaśālā (armoury) of Kļşņa. In the scene Kțşņa sits on a throne when Neminátha enters. The hands of both are folded in greeting each other. A head is the scence of trial of strength wherein the outstretched hand of Krsna is bent by Nemi. natba to suggest his victory over Kțşņa.5
Vimalavasāhs and Lūnavasābi (C. 1150-1250 A.D.) exhibit some very interesting renderings of Krşnalıla and other Vaisnava themes which include Kaliyadamana (Vimalvasabi cell 33), Kţşņa playing boli with Kanakaśpigakośa (as found in Harşacarita) with gopasi and
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gopikās, the episode of Bali and Vamana, samudramanthana and vivid carvings pertaining to Kṛṣṇa janma and his bālalīlās. The scene of Holi is carved in the bhramikä (corridor) ceiling of the devakulikā 41 of the Vimalavasahi (c A. D. 1150). This is a singular instance of the rendering of Holi (play of sprinkling of colourful water on each other) in plastic art. It becomes all the more important in view of its Jaina context on the one hand and its total absence in plastic art at Brahmaṇical sites on the other. It is somewhat surprising to note that the Jaina works such as Harivamsapurāṇa (of Jinasena of Punnata-gana-A.D. 783), the Mahāpurāṇa of Gunabhadra-cA.D. 897) and the Triṣaśṭiśalākāpuruṣacaritra (of Hemacandra Sūri-latter half of the 12th century A.D.) dealing at length with Kṛṣṇacarita, however, do not refer to the holi of Kṛṣṇa. The present instance of the rendering of holi thus appears to have been inspired by Brahmanical works wherein this festival is variously known as suvasantaka and vasantotsava and kāmadevānuvarti. The ceiling accommodates nine figures of gopas and gopikās including Kṛṣṇa. Kṛṣṇa in the centre with small Kiriṭamukuța and long fluttering uttarīya (mana) is playing the sport of holi in gayful mood. Kṛṣṇa with two kanakaśṛngakośas (cowhorn-shaped golden sprinklers) in his hands is sprinkling the coloured water on gopas and gopikas smartly and pleasingly. All other figures lean towards Kṛṣṇa in rhythmic postures. The Lūṇavasāhi (1250 A.D.) contains the elaborate renderings of the birth of Kṛṣṇa under close vigil alongwith his childhood episodes (ara-den) including the killing of demons by Kṛṣṇa.
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The second ceiling no. 49 of Vimalavasahi exihibits a remarkable figure of 16-armed sthauņa Narasimha (man-lion incarnation of Viśņu) killing the demon Hiranyakasipu. The entire representation is so forceful and dynamic that it makes the figure undoubtedly one of the best representation of Narasimha in Indian Art.
As compared to Kṛṣṇa, the rendering of Rama was not so popular in Jaina art and the sculptural examples are found only on the Pārsvanatha temple (c 954 A.D.) at Khajuraho where at the figures of Rama-Sitä-Hanumāna and Sitā sitting in aśoka-vāṭikā and receiving the message and the ring of Rama from Hanumana are carved."
Apart from the above epical characters, several other deities were assimilated directly in Jaina worship with identical iconographic features. The concept and names of such deities are found in the early Jaina works datable between the third and the seventh century A.D. but their detailed iconographic features are enunciated mainly in the works assignable between the eighth and the 14th century A.D. The list of such deities comprises Ganesa (Jaina devakulikās at
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Osiāõ and Neminatha temple at Kumbharia 11th-12th century A.D.), Kșetrapāla (Deogarh and Khajuraho), Lakşmi, Sarasvati (Mathura Deogarh, Khajuraho, Pallű, Vimalvasābi, Lūņavasahi, Kumbbāriā, Huncha-Kushāņa to 12th century A.D.), Aşțadik pālas (sometimes their number being ten including Nāgarāja Dharanendra and Brahma), Navagrahas, Aştavasus (carved in the Jaina temples of Khajuraho). 64 yoginis (enunciated in the Acăradinakara of 1412 A.D.), Jadra and several other deities. In Concurrence with the Brāhmaṇical tradition, the aştadikpalas and the navagrahes were carved respectively on the cardinal point and door-lintels of almost all the Jaina temples.
Ganeša, as the remover of the obstacles and bestower of success, was incorporated into Jaina pantheon during the early medacval times, According to the Acaradinakara of Vardhamanasūri 1412 A.D.), Ganeša is adored even by the gods in order to obtain desirable worldly things. On the basis of the available instances showing Ganega with rat mount and as carrying lotus goad, tusk, axe, spear and modaka or modakapātra, the bearing of Brāhmanical iconography is distinct, Jaina Sarasvats also has distinct bearing of Brahmanic Sarasvati Their proximity could be ascertained on account of their identical vähana (Swan or Peacock) and attributes namely, manuscript, vīņā, rosary, water-vessal, goad and noose.8 In one of the images carved in the ceiling of Vimalavasābi (A.D. 1150), Sarasvati is joined by the figures of sūtradhāra Loyana and Kela, the chief architect and sculptor of the temple. She is thus visualized here as the goddess of fine arts as well.
There are few such Jaioa deities who were borrowed but with some changes either in respect of their names or the iconographic features or even both to suit the requirement of Jaina creed. The Brahmaśānti and Kaparddi Yakşas are the foremost among such deities who occupied important position in visual representations at Svetambara Jaina temples in western India, Damely Delvāda and Kumbhāria. They distinctly reveal the bearing respectively of Brabma and Siva. Likewise, several yaksas and yaksis associated with the Jipas show such features which suggest that they are the transformations of Vişnu, Siva, Brahmā, Karttikeya, Kali. Gaur and Vaisnavi. In some cases only the names like Garuda and Kumāra yaksas and Kali, Mahakali yaksis have been borrowed. The fåsanadevatas of Rşabbanatha, the first Jina, are Gomukha (bull face and parasu in band) and Cakreśvari (riding a garuda and carrying disc, mace, conch) appareatly represent Siva and Vaişnavi. In one of the ceilings of Santinātha temple at Kumbharia, the figure of Cakresvary is labelled as Vaisnavi.
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The figures of Saptamātýkās finding no mention in Jaina works were also carved in some of the examples known from Mathurā, Gyaraspur, Vimalvasābi and Khaņdagiri. These figures are carved usually in the parikara of Ambikā images (Mathura Museum) while at Khapdagiri (Navamuni Gumpha -11th Century A.D.), they are carved with the Jinas as yakṣīs, albeit with features of Indrāņi, Kaumari and other Mātrkās. We also encounter the figures of several such deities, mainly the female ones, at the prolific Jaina sites like Vimalavasāhī, Lūnavasabi and Kumbharia which could not be identified on the testimony of the available Jaina texts. Most of the deities in such cases show the influence of Brahmanical goddesses. Vimalavasahi alone has 16 such goddesses, some of which with bull as mount and holding either trisula or sarpa in both the hands have distinct Saivite stamp.
The conception of dvitirthi and tritirthi Jina images, depicting two or three Jinas together was perhaps inspired by the syncretic icons of Brāhmaṇical tradition. The Haribara pilãmaha images from Ellorā, Ābaneri, Khajurāho and elsewhere show the figures of Brahmā, Vişnu and Siva either standing or sitting on single pedestals. The Pala Jina images from Rājagir (Bihár) in some examples show the five or seven-hooded snake canopy (representing Supärsvanātha and Pārsvanatha) but the cognizances on the pedestal are either conch (of Neminātha) or bull (of Rşabhanātha) or elephant (of Ajitapātha) which suggest that inspired by the Brāhmapical syncretic icons the Jainas also attempted at such innovatory forms which have never been referred to in any of the Jaina works. The above examples thus represent the syncretic images of respectively SupārsvanāthaNeminātha, Pārsvanātha Ajitanātha and Pārsvadātba Mahāvīra,
Besides the rich repository of Jaina images from the ambience of various sites we have numerous literary references as well which connote Brāhmaṇical influence The two Jaina epical works namely Mahāpurāna and Trisasțisalākāpurusacaritra, are of epduring impor. tance from this standpoint. These works have several references to the worship of Siva and other Brahmanical deities, besides the episodes of Nala-Damayanti, Ahilya, Bhagiratha and descent of Gangā. Rşabbanátha, bearing close semblance with Śiva, has been eulogized in the Adipurāna of Jinasena (C. 9th Century A.D.) with 1008 appellations which distinctly illustrate how liberally different Brāhmaṇical deities have been imbibed. These names include Svayambhu, Sambhu, Śarkara, Sadyojāta, Trinetra, Jitamanmatha, Tripurari, Trilocana, Siva. Išāda; Bhutanátha, Mộtyunjaya, Maheśvara, Mabādeva, Kāmári, Jagannātha, Lakşmīpati, Dhātā, Brahmā, Hira
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nyagarbha, Viśvamürti, Vidhātā, Pitämaha, Caturanana, Indra, Mahendra, Surya, Aditya, Kubera, Vamanadeva, Rāma and Kṛṣṇa.10 References:
1. Consult Tripathi, L.K., 'The erotic Sculptures of Khajuraho and their Probable Explanation' Bharati (B H.U.), No. 3, 1959 60 p.p. 82-104; Tiwari, Maruti Nandan, Khajuraho kā Jain Puratattva, Khajuraho, 1987.
2. There are about 50 erotic couples showing in some cases shavenheaded Jaina munis with elongated ears who are engaged in different sexual activities.
3. Atraiva Kamadevasya Ratesca
Jināgāre
Samasṭāyāḥ
Prajāyāḥ
Pratimaṁvyadhāt / Kautukāya Saḥ //
4. Harivamsapurāṇa 29.1-10.
5. The earliest list of 63 salakāpuruṣas is found in the Paūmacariya and some Agamic texts while the detailed anecdotes of these great men are enunciated in the Mahāpurāna and Triṣaṣṭiśalākāpuruşacaritra.
6. Consult, Maruti Nandan Prasad Tiwari & Kamal Giri, Vaiṣṇava Themes in Dilwara Jaina Temples, Vajpeya-Prof. K.D BajpaiFelicitation Volume. (Ed. A.M. Shastri etc.) New Delhi, 1987, p.p. 195-202.
7. Maruti Nandan Prasad Tiwari, Elements of Jaina Iconography Varanasi, 1983 p.p. 115-16.
8. Maruti Nandan Prasad Tiwari & Kamal Giri, 'Images of Gaṇeśa in Jainism, Ganesh-Studies of An Asian God. (Ed. Robert L. Brown), New York, 1991, p p. 101-14, 'Sarasvati in Jaina Tantric worship. Archaeology & Art-Krishnadeva Felicitation Volume (Ed. C.R.P. Sinha), Pt. II, Delhi, 1990, p.p. 311-25.
9. U.P. Shah Jaina Rupamaṇḍan, Delhi, 1987, Maruti Nandan Prasad Tiwari, Jaina Pratimavijñāna, Varanasi, 1981. 10. Adipurāṇa 25. 100-217.
Harivamsa Purāņa 29.9.
-Dr. Maruti Nandan Pd. Tiwari Head, Department of History of Art, Faculty of Arts. Banaras Hindu University Varanasi-221005 (U.P.)
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The Jain Cultural Heritage:
THE ROLE OF JAIN LADIES
Manikamma. S. Kabadagi
True to the spirit of the Jain approach to the rational interpretation of human life, the Jainas have displayed a rare, an almost unexpected breadth of vision and catholicity outlook in accommodating the enlightened women to play a constructive role in the preservation and popularisation of Jain culture and thought.
The purpose of my paper is to focus my attention on the magnificent role played by Jain ladies who have played the most courageous, crucial and decisive role in bringing out the essential thought of Jainism in its multifarious channel, for example, to distribute the Jain idols, not only of metals but of precious stones also to the various corners of Karnataka and to build temples to instal therein. Some ladies used to distribute the copies of Jain works to the saints so that they could preach Jainism. Some ladies used to get constructed number of temples and made provisions by donating lands, placing worshippers in those newly-constructed temples.
The role played by Jain ladies is blessed by the saints and patronised by their kings and their husbands, without any fear of contradiction and exaggeration. I can boldly assert that Karnataka Jain culture is unthinkable without the creative role of Jain ladies.
From the general remarks we can analyse the role played by several ladies towards the enrichment of Jain culture. We have an instance of a noble lady of Nirgunda family who championed the spread of Jain Dharma,-her name was Kandachi, the wife of Paramgula. She took interest in Jainism. She caused to be constructed the Jain temple named Lok Tilak at the time of Ganga Dynasty. But in contrast to this simple, pious, gentle lady, there was a very robust administrator and at the same time brilliant champion of Jainismher name is Jakkiyabbe. She was an administrator and warrior too and was assigned the area-the present Ingleshwar, Sindagi, Basavan bagewadi. Her name is very famous as a lady of administrative talent, bravery and at the same time supremely religious, not only in individual capacity, but making Jainism more popular by getting temples constructed. She was practically amazonian in every aspect, ofcourse, in the right sense of the term. This noble
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Jakkiyabbe ruled a territory during the reign of Rastrakūta monarch Kṛṣṇa the III 911 in A.D. She was appointed as administrator of Nagarkhanda; one inscription describes Jakkiyabbe as the most skilled in ability for good Government, faithful to the Jinendragasan, and rejoicing in her beauty. The same inscription describes further that though a woman in the pride of her own heroic bravery, she committed an act which won for her still greater fame in the eyes of the Jains. while she was ruling her principality, she boldly dicided that worldly enjoyments were insipid. She sent for her daughter, made over to her posterity and giving up all bonds of affection and desires, performed religious rituals, took to sallekhana and died in the temple of that city-Bandanike.
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But the most celebrated name amongst Jain women in the history of Karnataka is Attimbbe. Attimbbe stands out in the forefront of the Jain cultural history. She was the daughter of general Mallappa, a higher officer in the service of the later Chalukyas; she was given in marrige alongwith her younger sister Gundamabbe to general Nagadeva. After the premature death of her husband she had to discharge the obligation of bringing up her son Annigadeva; her sister committed the rite of sati. She was an ideal devotee. She had one thousand copies of Ponna's Santipurana made on her own expense, besides 1500 images of gold and jewels. She engaged her. self in the austerities and followed the Jain vratas and spent all her time, energy and resources for the promotion of the faith. She encouraged the famous Kannada poet Ranna to compose the Ajitnathpurana. She got constructed 1500 Jain temples and donated for installation therein as many excellent Jain idols of Jain tirthankaras, she could bestow gifts voluntarily and generously. Hence she earned the name Dhanacintamani. Her name became an example and a proverb for piety, purity of character and saintliness. Attimbbe lived in the early decades of the 11th century. Similarly, there was another lady Akkadevi, the elder sister of Jayasimha II of the later Chalukyas. Similarly Chandaddevi, the senior queen of Chalukya vikramaditya II took keen interest in the public administration.
Concomitant to the age of Hoyasalas we notice a commendable advancement among the women in general and princely order in particular. Many of the Hoyasala queens were well educated not only in letters and arts but also in administrative matters. The name of Santaladevi is most prominent in the Hoyagala history. She was the queen of the Hoyaśala king Visnuvardhanadeva. She was highly drilled in music and dance, but at the same time, used to help her husaband in day-to-day administration. A Sravanabelgola inscription admires her beauty, piety, skill and devo
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tion. She was the eldest daughter of a senior officer Marisingayya who was staunch saivaite, but Santaladevi was ardent Jain. An inscription dated 1123 A.D. praises her beauty in a very descriptive way. Her guru was Prabhacandra Siddhantadeva of the Pustak gachha of Desiyagaņa. Queen şantaladevi took interest in giving gifts of food, shelter, medicine and learning. She had the image of śāatijinendra at șravanabelgola made in 1123 A.D. la the same year in tho same place she built a Jain temple Savatigandavaran basadi and sho granted the village to her Guru for the maintenance of ascetic life. Similarly she made the gift of several villages to the temples. Hence her name earned famous praise “Crest jewel of perfect faith and a rampart to the faith". Like all other Jain ladies she died by the orthodox manner of sallekhan in 1131 A.D. at the holy place of sivaganga. On her death, her parents too died Her mother was so much grieved over the death of her daughter śāntaladevi, that she came to Bela gola, became a lady ascetic, and died śāntaladevi's mother Machikabbe fasted for a month and died in the presence of her Guru Prabhacandrasiddhantadeva Vardhamanadeva and Ravicandradeva. The contribution made by queen Santaladevi and her mother Machikabbe had profound effect on the women of the times. Royal ladies followed jinadharma King Visnuvardhana deva's daug Hariyabbarasi was a devotee of Jainism. She was disciple of Gunadavimukta Siddhantadeva. She caused to be erected in 1129 A.D. a lofty Caityalaya with Gopuras surmounted by rounded pinnacles which were set with all types of jewels.
Similary another notable name of a Jain devotee who fegures in the beginning of Ilth century A.D. is Devaki Demiyakka wbo earns our gratitude. But for her help, the Digambar jain canonical works would not have been there; she got the copies of manuscripts of the digambara cononical works known as Şatkhandagama Kaşaya pahuda Mahabandha made. The commentaries on these works were written by Virasena and Jinasena. The works Dhavala and Jayadhavala are the profound possessions of Digambara Jainas Devaki got the copies of Dhavala Jayadbavala and Mabadhavala made on palm leaves and presented to her Guru Subhachandradeva in 1121 AD. These manuscripts were preserved in Müdabidri, Siddhānth basadi which were brought to light just before 70 years are so. No one knew the existence of these conopical works for about 900 years. Devaki had done an immortal service to the preservation of this previous literature.
...Apother Jain lady Padmavatiyakka, a disciple of the priest Abbayachandra got a temple constructed in 1078 A.D. duriøg the
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period of later Kadambas. One Kadamb queen Malladevi whose husband was Kirtideva built temple in the name of Parsvanath in 1077 A.D. This was consecreated at the hands of Padmanandi Siddhantadeva. Two families of a small ruling areas had done a lot for the cause of jainism. The santharasas of present karwar district were devotee of Jainas. The queen Chattaladevi, the wife of Pallava king Kaduvetti, after the death of her husband and son loved the sons of her sister and built temple in Pombucchapura, present Humach famous for Padmavati temple. She constructed tanks, wells, watersheds, sacred bathing places and distributed food, medicine etc., to others Her Guru was Srivijayabhattaraka. He belonged to Nandigaņa. The ladies of the Gangaraya family were also noted for their liberal endowments for the cause of Jaindharma. Gangamahadevi of Bujabhalganga Hemmadi Mandhatbuta was great Anekantamata and her husband constructed in Bannikere beautiful Jain temple. She was disciple of subhachandradeva of Desiyagana. King Hemmadi himself was a Jain, his Guru was Prabhachandra Siddhanthdev; one of his sons built a Gangajinalaya in Kurulitirth. Another Santaras princes named Pampadevi built temples. She gave away gifts like her bracelets, necklaces and several o naments to the Jain temples. Her desire was the performance of the Aşṭavidharachana Mahabhişekam and Chaturbakti. Her daughter Bhachaladevi was equally religious, pious and generous. Both mother and daughter are mentioned in an inscription dated 1147 A.D. as the disciples of the illustrious Vadibhasimha Ajitsenapandita.
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Another famous name of Jain lady is Lakmimati, the wife of the celebrated Jain General Gangaraja, the disciple of Subhachandra. She is described in the record of 1118 A.D. as lady of victory in battle. She built in Sravanabelgola a temple. An inscription dated 1121 AD states about Lakmimati like this "can other women in the world equal Lakmiyambike" wife of Gangaraja in skill, beauty and deep devotion to God? In the same year she took to sallekhana and died in Sravanbelagola. Her husband set up an epitaph at Śravanabelagola and consecrated it with great gifts and worship of the same family. Another lady who did lot for Jainism was Jakkanabbe. She was disciple of Sivachandradeva. She was the mother of general Boppa.
Besides these names, others names like Jakkavve Machiyakke Siriyadevi Harihardevi, Achaladevi Somaladevi Santiyakka, Chandravallabbe the daughter of Amoghavarsa, Kanchibbe of the Rastrakūta dynasty contributed profusely, generously and they are
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remembered today for their munificent contributions for the spread and preservation of Jainism. In conclusion I can say, one wonders, whether others could have done what these ladies did selflessly for the cause of Jain dharma or Anekāntamata. The names of these pious ladies are part of Jain culture itself.
-Dr. Manikamma. S. Kabadagi
Clo Ratnadeep Vishva-Bharati Housing Society,
Sivagiri, Dharwad-580007
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RELEVANCE OF ANEKANTA TO THE
MODERN TIMES
Anil Dhar
Religion & philosophy have been with us--mankind since times immemorial. This world has had different religions & philosophies, during the course of development. Religion gives ethics, morality, and philosophy together with logic and reasoning.
In India, we have seen the rise and development of Vedic, Jain & Buddhist religions and their allied philosophies, in a complementary co-existing state of simultaneous existence. Indian schools of philosophy are broadly divided into 2 schools of thoughts :
(i) Vedic & (ii) Non-Vedic.
Vedic Philosophy is further divided into 6 schools viz. (a) Sān. khya (1) Yoga (c) Nyāya (d) Vaiseşik a (e) Mimāns & (f) Vedanta, and three non-Vedic philosophies are Jain, Buddha and Chārvāka. All have their own characteristics. Similarly Jain philosophy has its own speciality i.c. Anekanta. Historical Background
Prior to Bhagavān Mabāvīra, it was a period of philosophic disputes. Sometimes it would touch illogical limits. Jain scriptures& Buddhist scriptures put the number of religious schools prevalent at that stage of time at 363 & 63 respectively.
Jain traditions have divided these 363 schools of Philosophy into 4 broad classes, i.e. 1. (Kriyāvādi)-Action-oriented-wbo considered the soul to be
the doer of actions and enjoyed its good and/or bad results. 2. (Akriyāvādi)-Non-Action-oriented--who considered the soul as
non-doer of action. 3. (Ajñānavādi)-Ignorance-oriented-who believed that knowledge
brings in disputes in its wake-so not to go in for theoretical/
philosophical discussions & considered ignorance to be bliss. 4. (Vipayavādi)-who would pay more attention to good moral bebaviour. 8
In this period of theoretical confusion, two great persons came on the scene-Bhagavān Mabāvīra & Mahatma Buddha Gautam Buddha was in favour of foregoing debates & discussions as a solution to rise above fanatic & fundamentalist perceptions. But this way
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the human curiosity would not be satisfied, whereas the man of the period was in search of an acceptable explanation of the mystery of life & death, the universe & all else. In fact the man wanted to know the truth-the enlightenment, as it may be called, amongst all the existing "isms", because all the schools at that time were busy in trying to cut down each other & judged each other's wisdom accordingly.
Bhagavan Mahavira put forward a broad vision and an all-embracing philosophy. He said that any fundamentalism and fanaticism, or considering one school as the only and final truth cannot be true. 4
It is laid down in Sutrakṛtānga that to praise one's belief and degrading the other's faith leads that absolutistic person (Ekāntavādī) to the continuous and unending circle of life and death. Bhagavān Mahavira has said that insisting on a single faith and belief as the only true faith and belief is the biggest hindrance in the path of the search for truth. A fixation of belief is attachment and where Whole truth there is attachment, the whole truth cannot be seen. can be seen only by a detached person-A person with attachment, even if he is able to see the truth, contaminates the truth, because of his attached vision. The defect of believing in singleness of his own faith, makes the vision untrue, and if that fixation be absent, the same truth will be visible to him as truth. One cannot arrive at truth, by disowning others' truth, simply because they are other people's truth. Truth cannot be approached through disputes.
Philosophic Background
Anekāntavāda is basic to structure of Jain metaphysics. It seeks to reorient our logical attitude and asks us to accept the unification of contradictions as the true measure of reality. It is easy to unlock the mystery of the paradoxical Reality.
The law of Anekanta affirms that there is no opposition between the unity of being and plurality of aspects. The identity of a real is not contradicted by the possession of varying attributes. No one can deny that light, for instance, produces multiple effecte, viz., the expulsion of darkness, the illumination of the field of perception, radiation of heat and energy and so on. If a plurality of the energies can be possessed by a self-identical entity without offence to logic, why should the spectre of logical incompatibility be raised in the case of a permanent course possessing diverse powers. The law of Anekanta affirms the possibility of diverse and even contradictory attributes in a unitary entity. A thing is neither an absolute unity nor a split-up into irreconcilable plurality. A thing is one and many
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at the same time a unity and a plurality rolled into ono.
Anekāntavāda also asserts that there is no contradiction between identity and otherness, as they are not absolute characteristics. The contradiction would be insurmountable if the two opposites were affirmed to be identical in an absolutes reference. But the identity and otherness asserted by the law of Anekānta are only partial and limited, and not complete and unqualified.
Thus Anekāntavāda-non-absolutism is the law of the multiple nature of reality. It corrects the partiality of philosophers of supplementing the other side of Reality which escaped them. Non. absolutism pleads for soberness and insists that the nature of Reality is to be determined in conformity with the evidence of experience undererred by the considerations of abstract logic. Loyalty to experience and to fundamental concept of philosophy alike make the conclusion in evitable that absolutism is to be surrendered. A thing is neither eternal nor non-eternal, neither permanent nor perishable in the absolute sense but partakes of both the characteristics, and this does not mean any offence to the canons of logic. 8
Complete knowledge has always been a complicated problem for man, with his limitation of capacities. Trying to know "complete" with incomplete tools, can never proceed beyond the incomplete truth. And when this incomplete truth is given the place and credepse of the whole truth that gives rise to disputes and struggles. Truth is not only what we know as truth. It is one whole indivisible all-prevailing knowledge. It cannot be measured by the instruments of logic, thinking, wisdom or language."
Devāgama Astsati Kārikā, elucidates that truth of falsehood. permanancy or temporariness, are the different facets of the same truth, and so the truth itself having many facets is called Anckanta. The doctrine of Anckāntavāda or the manifoldness of truth is a form of realism which not only assert a plurality of determinate truths but also takes each truth to be an indetermination of alternative truths.
The differences in the views regarding the nature of reality presented by different schools of thought are based on their basic outlook of and their approaches of looking at reality. Some take the synthetic point of view and present the picture of reality in a tic sense. They seek unity and diversity, and posit that the reality is one. It includes the consciousness and the unconsciousness as aspects of reality. Some other schools of thought look at reality from the empirical point of view. They seek to emphasise diversity as presented in the universe. Reality, for them, is not one nor a unity, but it is many and diverse. Some other schools of thought
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TULSI-PRAJNA have said that reality is incomprehensible. In this way, there is intellectual chaos in the study of the metaphysical problems.
Anekāntavāda seeks to find out a solution out of this intellectual chaos. It seeks to find meaning in the diversity of Opinions and tries to establish that these diverse views are neither completely false nor completely true. They present partial truths from differet points of view The Anekānta seeks to determine the extent of reality, present different schools of thought and gives a synoptic picture of reality. The eminent Ācāryas, like Samantabhadra, Siddhasena, Akalark and Haribhadra have presented the subtle logical distinctions and the metaphysical thought involving unity and diversity, th oneness and duality and other forms of philosophy on the basis of Anekānta.10 A comprehensive picture of reality is sought to be presented by the theory of Anekānta.
The theory of Anekānta has become foundational for Jaina thought In fact, the Apekānta outlook is the basis for other schools of Indian thought. The Jaina Ācāryas have presented a synoptic outlook in understanding the problems of philosophy on the basis of Anekānta. They say that Ekānta or dogmatism or one-sided approach to the problems of reality is not inherent in reality (vastugatadharma), but it is due to working of the intellect. It is the product of intellectual discrimination. If the intellect is pure in its essence then Ekānta will disappear. The pure exercise of intellect will give rise to a synoptic view point expressed in the Anekānta and the different partial view-points get merged in the Anekānta, just as the different rivers get merged in the sea.
Upādhyāya Yasovijaya says that one who has developed the Anekānta outlook does not dislike other view-points. He looks at other view-points with understanding and sympathy just as a father looks at the activities of his son. One who believes in the Anekanta outlook, looks at the conflicting and diverse theories of realities with equal respect. He does not look at the diverse theories of realities as one superior to the other. He has the spirit of equanimity in approaching for the understanding of the problems of other theories. In the absence of the spirit of equanimity, all knowledge would be fruitless, and any amount of reading the sacred texts would not lead to any fruitful results. 11
Haribhadra Süri says, that one who develops the ekānta attitude and insists on his point of view is one-sided in his approach. But the one who develops the synoptic outlook based on the anekānta attitude is always guided by objective and rational considerations in evaluating the theories of reality.
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Anekānta states that the nature of reality should be considered and studied purely from the rational point of view while ekānta attitude is compelling and it drives us to accept its point of view and discourages us to accept the other's point of view. 13
A milk.maid churns the butter milk, and while churning the buttermilk, she pulls the string on one side and loosens the string on the other. The consequence is the butter extracted from the buttermilk. Similarly, if we look at the different points of view of knowing reality in their proper perspective, considering the primary points of view as important and the secondary poiats of view with their due consideration, truth can be understood in the true perspective and in a comprehensive way. The intellectual confusion is created by ekānta while the welter of confusion is cleared by Anekanta. The synoptic outlook of Syâdvāda gives a comprehensive and true picture of reality. The Philosopbie Impact of Anekānta
Some of the systems of Indian thought have expressed their opposition to Anekānta, Yet their theories do not disregard the Anekanta theory, as it is rational and objective in its outlook.
In the Tšāvāsya Upanişad Atman has been described as a substance which moves and does not move, which is near and far, which is inside and outside. This is the expression 13 of the Syādvāda point of view.
Sankarācāryā and Rāmānujācārya have argued against the validity of Syadváda on the ground that contradictory attributes cannot co-exist at the same time. But in trying to refute the validity of Syādvāda they seem to have adopted the Syâdvāda outlook only. The description of the Brahman as 'para and apara' and the analysis of the degrees of reality as expressed in the paramarthika, vyávahărika and pratibhāsika satya, does express the spirit of Anekāota and Syādvāda. Sankara mentions that there is nothing in the world which is purely without faults and without attributes- Iştam kimapi loke asmin na nirdoşam na nirgūņam'. This would mean that every. thing has its good qualities and also its faults. Nothing is purely perfect and purely attributeless. This is the expression of the Anekānta.
The Buddhist conception of the Vibhajyavāda and Madhyama Märga express the Anekānta spirit. The Sankhya conception of praksti as having the three attributes of sattva, rajas and tamas in the state of equilibrium in the original state of praksti and as expresscd in varied degrees in the process of evolution expressess the spirit of Anekanta.
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When we turn to Western philosophy, instances of the ideas similar to the doctrine of Anekāntavāda can be multiplied. In Greek philosophy, first of all, in trying to solve the riddle of permanence and change. Empedocles, the Atomists and Anaxagoras declared that absolute change is impossible. So far the Eleatics are right. But at the same time we see things growing and changing. Thus stating that "the original bits of reality cannot be created or destroyed or change their nature, but they can change their relation in respect to cach other" they concluded in favour of relative change. When we read the dialogues of plato we find that every thing which we originally suppose to be one is described as many and under many names; and when we speak of something, we speak pot of something opposed to being, but only different.16
The first modern philosopher, Hegel expounded that contradiction is the root of all life and movement, that everything is contradiction, that the principle of contradiction rules the world. To do a thing justice, we must tell the whole truth about it, predicate all the contradictions of it, and show how they are reconciled and preserved, 16 Bradley has also described similar ideas. According to him everything is essential and everything worthless in comparison with others. Nowhere is there even a single fact so fragmentary and so poor that there is truth in every idea however false, there is reality in every existence however slight.26 Joachim expresses the same idea when he says that no judgement is true in itself and by itself. Every judgement as a piece of concrote thinking is informed, conditioned to some extent, constituted by the apprecepient character of the mind. 17 Such and similar ideas are expressed by Prof. Perry,18 William James, 19 John Caird, 20 Joseph,21 Edmond Holmsas and many others.
Anekant means not Ekānta. Anta literally means end or extreme. Thus 'being' is one extreme and ‘non being' is the other extreme of prediction. This also holds good of eternal and non-eternal and so on, which are given in formal logic as contradictories. According to pure logic these opposites are exclusive of one another and they cannot be combined in any one substratum. The opposition is absolute and unconditional. This may be called the absolutistic logic. The Jaina is non-absolutistic, as they believe, opposition is understandable only in the light of experience. We know that light and darkness are opposed because we do not see them together. No apriori knowledge of such opposition is possible. Accordingly the non-absolutist contends that if being and non-being are found together, and this finding is not contradicted by subsequent experionce, we must conclude that there is no opposition between them.
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In other words, one is not exclusive of the other. We see a jar existing in its place and not existing in another. Existence and nonexistence are thus both predicable of the jar. The concept of change or becoming involves that a thing continues and maintains its identity inspite of its diversity of qualities. The unbaked jar is black. It becomes red when baked and yet remains a jar. The Jaina thus maintains, in strict conformity with experience, that all reals are possessed of a nature which is not determinable in the light of formal logic. Everything is eternal as substance, but perishable quâmodes. The Jaina does not consider the position of the Naiyāyika to be sound logically when he makes substance and modes different entities which however are somehow brought together by a relation called samavaya inherence). But inherence as an independent relation is only a logical makeshift which will not work,23 Nayavāda
Anekāntāvad as a theory of reality, according to which reality is infinitely manifold, or relativistic in its determinations, has been observed to be inherent in the co-ordinate conception of identity in difference. It has also been pointed out that the nayavāda, or the method of standpoints, and sydvåda, or the method of dialectical predications, are the two main wings of anekāntvād.
A naya is defined" as a particular opinion or (abhiprāya or abhimata) or a viewpoint (apeksă) a viewpoint which does n out other different viewpoints and is, thereby, expressive of a partial truth (vastu samgrāhi) about an object (vastu)- as entertained by a knowing agent (jñāts).25 A naya is a particular viewpoint about an object or an event, there being many other viewpoints which do not enter into, or interfere with, the particular viewpoint under discussion. Although the other viewpoints do not enter into the perspective36 of the particular viewpoints under discussion they constantly, as it were, attack its frontiers, and await its reconciliation with them in the sphere of a fuller and more valid knowledge which is the sphere of pramāņa.27
Theoretically the viewpoints from which an object or an event could be perceived are not merely numerous28 (anekavikalpa) but infinites' in number (anantaprakāram) because even the humblest fact of existence is infinitely manifold and therefore can be an object of various modes of analysis. But this way of looking at the subject is too broad (vistāra)30 or gross (sthūla) and, therefore, does not vouchsafe to us a compact view of reality on the basis of which we can develop a practicable analytical method by means of which we may tackle reality piecemeal and obtain partial glimpses of its truth, The view of reality, conceived under the great division consisting of two
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inclusive categories, viz., dravyārthikanaya or the substantive view, and paryayarthikanaya or the modal (modificational) view, is, however, considered to be an answer to the demand.81 The categories are also called, briefly as dravyanaya and paryayanaya respectively. The view of reality conceived under the division is described as the concise (sankşe pa or samāsa)34 one in contrast to the other (the broad) one.
By a process of further analysis the Jaina thinkers have been led to the formulation of the methodological scheme consisting of seven ways of looking at reality. They are enumerated in the following order of decreasing denotation 33, nalgama (figurative standpoint), sangraha (synthetic approach), vyavahára (analytic approach), rjusūtra (straight viewpoint), sabda (verbal standpoint), samabhtrüdha (conventional standpoint) and evambhūta (specific standpoint). 34 Generally among these the first three are considered to be drayyanayas or substantive standpoints and the other four paryāyanayas or modal standpoints. 35 Reserving to a later stage 86 the consideration of the question whether the number of these seven ways of viewpoints can be reduced to six, or five, or even less, either by elimination of any of them, or by subsumption of some of them under the one or the other of the seven viewpoints, we may now proceed to point out, with illustrations, the nature and function of these seven viewpoints.
Naigamanaya-The meaning of the term naigama is analysed as 'not' (na) 'one' (eko) 'understanding' (gamah), that is, not understanding or distingrishing either the generic element alone, or the specific elements along, but taking the object in its concrete unity. Naiga. manaya relates to the purpose (sankalpa) or the end of a certain continuous series of actions which are represented by one or a few of their number. 37
Sangrahanaya—This standpoint concerns itself with the general or the class character of a factual situation, unlike the paigama standpoint which includes the specific character as well. 38 Just as naigamanaya is not hostile to the intermingled character of concre existence, so also sangrahanaya is not repugnant.39
Vyavahāranaya-This standpoint specialise itself with the specific features of the object concerned. They cannot stand by themselves without the support of the generic properties in the larger setting of concrete reality. For example, when a person is asked to bring a mango fruit he attempts to bring, but not any other fruit, although be is aware of the fact that mango is only a species in the genus of fruita
Rjusutranaya-The Rjusutra standpoint relates to the momentary nature of a thing. It is narrower than the vyavahāra standpoint,
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It looks at a particular thing as the things appears at a particular movement.48 This standpoint is operative when, for instance, we treat an actor, enacting the role of a king on the stage, as the king for the moment.
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Sabdanaya-Among the remaining three paryayanayas or the model standpoints śabdanaya is the first verbal viewpoint. Besides referring to this specific viewpoint the term 'sabdanaya'44 is involved as a collective designation for all the three viewpoints, including the present one, because of the fact that all the three are mainly concerned with verbal problems. In order to distinguish the present verbal standpoint from the other two similar viewpoints, we may specifically designate the present one as the viewpoint of synonyms since it is largely concerned with synonymous words.45
Samabhirudhanaya-This etymological standpoint moves advance upon the standpoint of synonyms although it is narrower in its scope. Its advance consists in the fact that it distinguishes the meanings of synonymous words purely on their etymological grounds.46 This naya goes one step further in the process of specification by identifying the etymological meaning (vyutpattinimitta) with the real meaning (pravrttinimitta). Each word has got a distinctive connotation of its own. So there can be no synonyms in the true sense of the term.47
Evambhutanaya-This specific or the 'such-like' standpoint, is a further specialised form of the application of the verbal method. It calls for a different designation for each of the different attitudes which the same object assumes under different conditions. It is even more rigorous than the etymological view-point as it treats the different attitudes of the object denoted by different designations as numerically different entities.48 This naya affirms that only the actulized meaning of the word is the real meaning The word signifies an action and the fact which actually exercises the action should be regarded as the real meaning."9
Syādvāda
Syadvāda is a special contribution of the Jainas to the philosophical word. It is the unique contribution that the Jainas have made to the logic and epistemology. It is the foundational principle for philosophical position of the Jainas. Anekanta is the basic attitude of mind which expresses the fundamental principle that reality is complex and it can be looked at from different points of view. The points of view are the nayas and this is the psychological expression of the basic principle of anekānta. Syādvāda is the logical expression of nayavāda in predication form.50 It has the
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significance of expression and communication in the logical and predicational pattern.
Syadvāda' is formed of the two words 'syāt' and 'vāda'. Syāt' very often supposed to suggest the meaning of doubt' or 'perhaps' but 'syāt' does not express doubt or uncertainity. It refers to a point of view or in a particular context, or in a particular sense,51 Vada' presents a theory of logic and metaphysics. Syādvāda means a theory of predication of the description of reality from different points of view, in different contexts or from different "universe of discourse." Syadváda is the expression of the pictures of reality obtained from different points of view in definite and determinate logical predication. 52
The Jaina acāryas have made syādvāda the foundation of Jaina philosophy. Syādvāda promotes catholic outlook of many sided approach to the problem of knowledge of reality. It is antidogmatic and it presents a synoptic picture of reality from different points of view. Syādvāda expresses a protest against one-sided, narrow, dogmatic and anatical approach to the problem of reality. It affirms that there are different facets of Reality and they have to be understood from various points of view by the predictions of affirmation, negation and indescribability. The thinker having one sided view in his mind can see only one face of Reality, such thinker cannot realise reality in full. For this reason, Acārya Samantabhadra says that the word syāt is a symbol of truth.53 And therefore, the Jaina Ācāryas say that in some cases of predications, even if the term the syat is not used, it is to be considered as implict in the predication."
Syādvāda presents a comprehensive and synoptic picture of reality which expresses presence and co-existence with particular points of view, of the different characteristics like the permanence and impermanence, similarity and difference, expressibility and inexpressibility, reality and appearance.56
Syādvāda is that conditional method in which the modes, or predictions (bhangāb), affirm (vidhi), negate (neşedha) or both affirm and negate, severally (prthagbbūta) or jointly (samudita), in seven different ways, a certain attribute (dharma) of a thing (vastu) without incompatibility (avirodhana) in a certain context (prasgavaśāt).66 That is, no model assertion, or proposition,--simple or complex, affirmative, negative or both,-can, at once, express anything other than aspect (prakāra) of the truth of a thing. The full truth, or rather the synthesis of truths, can result only from a well-ordered scheme of propositions (vacanaviayāsa). Each proposition is, therefore, relative to, or alternative with the other propositions which in
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their totality, presenr the full of thing with respect of the particular attribute predicted of it. 57
Generally syadváda is identified with Anekāntavāda, but considered from the logical distinctions inherent in two theories, we can say that Anekānta is the basic principle of the complexity of reality and the possibility of looking at reality from different points of view. Syādvāda is the expression of the Anekāntavāda in logical and predicational form.58 In this sease, Anekāntavāda is the foundational principle and syadváda is the logical expression of the foundational principle.
Acārya Samantabhadra says that syadvāda and Kevalajñāna (ominiscient knowledge) are the foundational facts of knowledge. 59 The difference between the two is that kevalajñāna expresses the comprehensible knowledge of reality while syadvāda expresses the predicational propositions of the experience of reality presented in kevalajñāna. The former, is a direct experience, syadvāda is the indirect expression of the direct experience.60 Relevance of Anekānt
Anekânt purifies the thinking. It invites to do away evil thoughts and to cultivate good thoughts. It says that matter has no limitation. Because of matter differential, it has various contra qualities and all those characteristics are relative to each other and are contained in the same matter without any contra indications.
The importance of this comprehensive synthesis of 'Syādvāda' and 'Anekanta-naya' in day to day life is immense in as much as these doctrines supply a reational unification and synthesis of the manifold and rejects the assertions of bare absolutes.
Mr. Stephen Hay, an American Scholar-historian, refers to Mahatma Gandhi's views about the Jaina theory of Anekanta as under :
It has been my experience, wrote Gandhi in 1926, “that I am always truc (correct) from my point of view, and often wrong from the point of view of my critics. I know that we are both (myself and my critics) right from our respective points of view."
He further quotes Gandhiji's saying as under:
"I very much like this doctirne of the manyness of reality. It is this doctrine that has taught me to judge a Mussulman from his standpoint and a Christian from his... From the platform of the Jainas, I prove the non-creative aspect of God, and from that of Ramanuja the croative aspect. As a matter of fact we are all thin. king of the unthinkable, describing the indescribable, seeking to know the unknown, and that is why our speech falters, is inadequate
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and been often contradictory."
History of all conflicts and confrontations in the world is the history of intolerance born out of ignorance. Difficulty with the man is his egocentric existence. If only the man become conscious of his own limitations, Anekanta or Syadvāda tries to make the man conscious of his limitation by pointing to his narrow vision and limited knowledge of the manifold aspects of things, and asks him not to be hasty in forming absolute judgements before examining various other aspects-both positive and negative. Obviously, much of the bloodshed, and much of tribulations of mankind would have been saved if the man had shown the wisdom of understanding the contrary view points.
Modern Science and Anekānt
Syadvāda means, accepting all possibilities. Modern scientists have given it to mean-possibility and have confirmed it through their researchs. Science has proved that the matter which apparently looks in a solid and stable state is in effect composed of ever in movement particles, in fact not only in movement, but ever changing also. Even the scientist of today does not claim to have unravelled all the mysteries of universe and matter. Albert Einstein has said that we can only know the relative truth-the absolute truth can be seen and known to only complete visionary. So we find that under both disciplines, scientific or philosophic, an average man is That is what Anekant not capable of knowing the absolute truth. teaches us that, even the apparently opposing facts can be the parts of the same truth.
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What Mahavira" found by the process of intuition and reasoning, Einstein proved in his physical theory of Space and Time in the year 1905 A.D Development of optics and Electrodynamics led to the rejection of the concept of absolute time, absolute, simultaneity and absolute space. If time and space are relative to other factors, everything that happens in time and space would naturally be relative to other factors. Therefore Einstein was convinced that there is causal interdependence of all processes in nature. As a result, the revelations made by him and other theories of Quantum Mechanics, the field of relativity was enlarged, so as to take into considration the fact that Reality is much dependent upon the subjective reaction of the individual who observes the event.
Jaina theory of relativity in the field of thoughts and metaphysics thus gets sufficient support from these scientific revelations in the field of physics. Theocrates world over have tried to emphazise that the truth revealed to them is absolute, eternal and immutable.
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Theory of relativity as embodied in Syadvada or Anekantavada is happily an exception to this. Lenin' unknowingly endorsed this theory when he said : "Human though by its nature is capable of giving, and does give, absolute truth, which is compounded of sum total of relative truths. Each step in the development of science adds new grains of absolute truth, but the limits of the truth of each scientific proposition are relative, now expanding, now shrinking with the growth of knowledge." If only Lenin knew how to apply this principle in the evolution of social and economic theories propounded by Marx, the fate of socialism would have been quito different today.
Anekānta and Abiṁsā
More important aspect of Syādvāda is, however, the subtlety with which it introduces the practice of Ahiņsā (non-violence) even in the realm of thought. The moment one begins to consider the angle from which a contrary view-point is put forward, one begins to develop tolerance, which is the basic requirement of the practice of Ahirsa'. origin of all bloody war fought on the surface of this earth can be traced to the war of ideas and beliefs. Sayādvāda puts a healing ti uch at the root of human psyche and tries to stop the war of bloodshed. It makes all absolutes in the field of the thought quite irrelevant and naive, imparts maturity to the thought process and supplies flexibility and originality to human mind. If the mankind will properly understand and adopt this doctrine of syadvāda, it will realize that real revolution was not the French or the Russian; the real revolution was the one which taught the man to develop his power of understanding from all possible aspects.
Application of Adekānt in family life
Family is an important upit in social set up. Anekant can be useful in sorting out family feuds. Its utility is in creating peacefull atmosphere between family to family and between the various members of same family. Usualy there are two centres of family dispute. Between father and son and between mother and daughter in-law, The underlying cause of dispute is the difference in view point. The father wants to mould his son's life in the value system he has been brought in, because he thinks that he has experience, where as the son has logic on his side. Similar is the condition between mother and daughter in law. In addition the daughter in law has the drag of the value system of her parental home excluded in her psyche. She also wants to live a life as free and without restraints, as she had In her parental home, against which her in law home expects certain
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restraints from her. All this leads to conflict unless there is a fealing of tolerance and understanding on both sides.
Tolerance means control on one's emotions. He or she who has that control will be powerfull of to have an effective control, in exercise of tolerance is essential. To tolerate othe view point and not to insist on the acceptance of one's own view point only is the basic requirement needed such as:
(i) controlling our excessive emotions, (ii) understanding view point of others, (iii) Not to dwell to much on self ego only.
An important factor of non-violence in family life is adjustment. It is possible to reconcile different ideas and interests. For this, training in the philosophy of Anekānt can prove very useful. Anekānt recognises freedom, but not freedom divorced from the all relationship and interdependence. Co-existence is recognised, but not co-existence which excludes the power to forestall injustice. Equality is recognised, but not equality which takes no account of differing capabilities of various individuals. The foundation-pillar of peace should not be so weak as to tumble down at the first whiff of variety in talent. In the philosophy of Anekant, difference of capacity) are not inadmissible, provided one also acknowledges the common identity of mankind The consciousness of identity and that of dissimilarity together marks a new step towards the creation of a non-violent society. 68
Anekānt in rcligious field
Anekāat can be utilized beneficialy in the field of religious tolerance also, to create communal Harmony which is the real secularism.
Different teachers of different religions developed different methods all around the world, during different periods of time. But due to previous mental build up and psyche, towards their teachers and their own egos compelled the followers of new 'ism", to consider their new faith and belief as the last and final and complete truth, which resulted in the unneeded communal enmity between different sects. History is the witness that this religious intolerance has been the cause of unlimited cruelty and bloodsheds Below mentioned are some reasons creating and developiog communal outlook, religious intolerance and porrow mindedness: (1) jealousy (2) desire of fame (3) so called ideological differences (4) difference
ption of behaviour pattern (5) humiliation or degradation inflicted by some previous sect or person. 86
Anekaot does not advocate unification of all sects by destroying
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or amalgamating them all, because in viow of different levels of human perceptions and mental development the existance of different thinking and different religions is unavoidable. Anekāat is an effort to organise all in complete fairness and total unison, with each other, without encroaching on any one. But to achieve it, religious tolerance and a feeling of Sarvadharma Sambhāv is a basic requirement. Anekānt in Political field
Today's political world also is full of narrow mindedness in thinking. There being so many social & political systems existing simalta neously, such as capitalism, socialism, communism, fascism etc.-as well as monarchy, democracy, Autocracy, dictatorship etc. Not only are they existing side by side, they are also trying to destroy each other. Nations of the world are divided into various camps and every camp has its own leader, nation, which tries to spread its own sphere of influence.
In present day political world, there are two qualities of Anekāot, which can be useful viz., tolerance and co-operation, in theory and in practice. Mankind has travelled a long way in politics from monarchy to democracy and its savings is in owing the Apekānt and to know one's shortcoming, by being tolerant to the critisism of your opponents and learning thereby. And to remove those short comings. This is the need of the hour. This is practising Anekānt.
There can be clements of truth in what your opponent says and the best place to find your short commings is, in the sayings of your opponent. Acknowledging it is in the best interest of democracy. Parliamentry democracy is practically Anekānt in politics. India is not only father of Anekānt in politics but is also a symphatiser in parliamentry democracy-so the responsibility of using Anekānt practically rests fully on indian political leaders. Summary
The theoritical side of Anekāpt coupled with the derivatives from scientific experimentation, makes us accept the principal of co-existance, as also does it accept this (Anekānt) as the vary basis of life. This realization can establish the principals of co-operation, co-existance, tolerance, communal non-differentiation etc. etc. To win over the thinking of die hards the utility of Anekānt is self apparent, so that it can end the attitude of all knowingness and develop the attitude of learping from any source, with equal openmindedness.
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p-291 20. John Caird, An Introduction to Philosophy of Religion, p-219 21. Joseph, Introduction to logic, pp 172-173 22. Edmond Holms, In the Quest of Ideal, p-21 23. Acharya Tulsi, Illuminator of Jaina Tenets, pp 188-89 24. Y.T, Padamarajiah, A comperative study of the Jaina theories
and knowledge, p-310 25. Samantabhadra, Apta. Mimāṁsā 1.47 26. Abhidhānarajendra, p 1853 27. Vadidevasdri, Syādvād-Ratanakara, pp 1044-7 28. Siddhasena Divakara, Sanmati-tarka-prakarana, III 47, Jina
bhadra Gani Ksamasramana, ga 2265 29. Syadvādamañjari, ed, by A.B. Dhruva, p-161 .30. Vadidevasűri, comm, on pramāṇanayatattva loka atankara, VII, 4
31. Ibid, VII. 46-52 32. Ibid, VII. 4 33. Nayavivarana, Kärika, 98 34. Tattvårthadhigamasutra Umānavāti
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189 35. A comm. on Tattvārthadhigamasútra by Umāsvāti, ed. by
Manoharlal Sastry, p-268 36. Y.T. Padamarajiah, A comperative study of the Jaina Theories
and knowledge, p 313 37. R. Nagaraja Sharma, Reign of Realism in Indian Philosophy
p. 1053
38. Vadidevasūri, comm. on pramāṇanayattvā loka ālapkara, VII. 13 39. Vinaya vijaya, Naya-Karnika, Kārikā 6 40. Ibid, Karika, 8 41. Ibid, Karikas 9 and 10 42. Amrtacandrasuri, Tattvarthasarah, Sri Digambara Grantha
Bhandara, Kasi, Vir Sam 2451 43. Nyayavatara (P.L. Vaidyn’sedn), p 77 44. Tattvarthasara, Karika 42 45. Nyayavatara (P.L. Vaidya's edo), p 80 46. Vadidevasuri, comm. on pramananayatattva-loklālaikara,
VII. 36 47. Dr. N. Tatia, Nayas-ways and Approach and observation, p 79 48. Vinaya vijaya, Naya-karņikā, Kārikās, 17-18 49 Acharya Tulsi, Illuminator of Jaina Tenets, p. 187 50. Devendra Muni Shastri, A Source Book in Jaina Philosophy,
P-239
51. Sri Amstacandra, Pañcāstikāyatika 52 Devendra Muni Shastri, A Source Book in Jaina Philosophy,
p-239 53. Ibid, p-240 54. Laghiyastraya, Si. 22 55. Acārya Hemacandra, Anyayogavyavacched Dvátrimśikā, Si. 25 56. Syadvadamañjarī, ed. by A,B, Dhruva, pp 142-3 57. Y.T. Padamarajiah, The Jaina Theories of Reality and Know
ledge, pp 336-37 58. Akalanka, Lagbryastryaya. SI. 62 59. Devendra Muni Shastri, A Source Book in Jaina Philosophy,
pp 240-41 60. Aptamnamsa, 105 61. Jaina influences on Gandhi's Early Thought an article pub
lished in The path of Arbat' by T.U. Mehta, p-140 62. D.P. Gribanov, Einstein's Philosophical worldview, quoted in
Einstein and the philosophical problems of 20th century physics, p-30
coprible mor lavinis quoted in
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63, T.U. Mehta, The Path of Arhat : A Religious Democracy, p-142 64. Collected works of Lenin, Vol. 14, p 135 65. Acharya Mabaprajna, Democracy : Social Revolution through
Individual Transformation, p. 87 66. Saubhagymal Sagarmal Jain, Anekant Ki Jeevan Drashti, p. 25.
-Anil Dhar
Asstt. Professor Non-Violence-Peace, Research Jain Vishva-Bharti Institute
Ladpun-341 306
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SOCIAL WORK TRADITIONS IN INDIA-I
Rajaram Shastri
The development of the concept of social work is generally traced 'from charity to modern social work'. But in a civilization as ancient as that of India, one can easily suspect the existance of an age before the age in which the concept of charity took its modern shape in Europe. Even in Europe, we notice a difference between the two senses in which Christian Theologists on the one hand and social workers on the other use the word. There is reason to believe that the logists use the word in the spiritual sense of a generous, humane feeling which is a necessary ingredient of all help given to any needy person. But social workers use the term in a specialized sense which characterises individual conscience aroused at the sight of misery, and help rendered to alleviate suffering, without any thought about the total and final outcome of help given. The 'lady bountiful' just could not bear the sight of suffering and went out to alleviate it as far as possible on the spot and at the moment; without bothering as to whether her help would contribute to eradication of the root causes of suffering or just be a palliative for the time being. The main inspiration in this behaviour was sentiment and this sentiment was called charity. Now this sort of charity belongs to a period of history when the institution of private property had already arisen. Before this period when life was communitarian, property was common all help was mutual and there was no question of charity in this sense. In the most ancient period of Indian history we can have a glimpse of this type of communitarian life and society.
The most ancient form of Yajna is the Satra and Kratu. Satras and Kratus existed in full bloom when the Gods did the Yajnas. It was the sum total of the day to day activities of the community for the sustenance of its life and reproduction. And because of this, the word Satra came to signify in the Sanskrit language the sense of 'Simultaneity' Togetherness', 'Collectivity'.
The most outstanding characteristic of the Satra is that all the participants in it are Ritvijas and Yajmanas. It was a collective functioning in the pristine manner in which all participated in the collective labour without distinction or division of labour. The second
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characteristic of Satra, unlike the later Yajnas, is that the Yajnaphal i.e. the proceeds of labour, is a joint or collective Product to be distributed collectively and equally and consumed collectively, the procedure being symbolised in the equal of Somakhya, i.e. drinking Soma-juice from one and the same pot.
The Brahman or Gana Community in its peacetime economy elected functionaries called the Adhwaryu, the Hotă etc., and its chief of war, called Brahmanaspati, Brihaspati, or Ganapati, In the Gaṇa they were not a priviledged, irremovable, standing paid executive like that of the modern state or the executives of the exploiting classes, directing the production of profit for the exploiters. They were themselves producers elected to do the work of direction of communal labour and receiviug, before differentiation of property came in, as much as the others from the social fund,
Thus, it seems that in the pre-vedic period, which the vedas depict from memory only, the Aryans lived in small primitive communities held together in a bond of kinship whether actual or imagined. All that they did by way of economic or religious activity was done collectively. The division of labour, such as it was, was casual and not permanent. Leaders were chosen on special occassions for special functions, for their skill and capacity to do the needful as occasion demanded. Once this ad hoc assignment was fulfilled they sank back into the community, The peace leaders or war leaders had hardly any fixed identity. Everybody more or less performed all the tasks of life without any particular job being fixed for a particular person. In this communitarian society which functioned like an extended family, everybody's needs were catered to by everybody. Theirs was a life of complete mutuality and reciprocal assistance whether the needs were basic or special, generic or arising out of vulnerable situations like disease and external danger. In knowledge and skill people differed only in quantity and everybody did for others in need what others did for him in similar circumstances. The whole business of helping people in need was everybody's business mainly handled in a collective way. Thus everybody was client and agent both at different occasions or for different purposes. The professional social worker was not yet born as no other professional was. This mutual help function of this collective society was termed Yajna which in Sanskrit means going together for production.
Although things changed in course of time and the society of mutual help for all purposes gave way gradually to a class society, the process was long-drawn and the elements of the co-operative
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community lingered in memory and life throughout the course of Indian history down to the present age. The Yajna took a ceremonial and occasional shape instead of the way of living which prevaded the whole existence of the community in a continuous fashion. Even so, when the Yajnas were performed, they revived the communitarian aspect of living in all respects Every body contributed his mite to the organisation of the Yajna and everybody received the benefits thereof.
Later Yajna ritual, the performing people are divided into various categories of Ritvijas who are then engaged by a private householder, called the Yajmāna, who pays for the Yajna ceremony. lo the Aryan society now there was a division of lobour in the seventeen categories of Ritvijas. But the Satras' persist even at this stage, in the form of 'sacrificial sessions', lasting for a year or longer, where the entire post of officiating priests are themselves the sacrificers.
When common property broke down, when war became the function of the king and his class of kshatras, when wealth accumu. lated in private households of these kshatras, when proceeds of war, instead of being considered communal as of old, began to be considered the property of the king and the ruling class, then Däna-distribution of the common-conquered wealth, instead of being a compulsory social-function and duty of the warchief, Ganapati, became a private duty of the king and the ruling class. If they did it, it was virtue. In people's minds it was so much attached with the warchiet that if the king in later periods did not do Dāna, he was considered a bad king. But if he failed, there was no communal right and force to compel him to do it because the commonalty had been disarmed and suppressed; it was now a class rule. Dåna became now a voluntary virtue and charity of the kings and kshatras. It also lost the character of an equal and general distribution. It remained within the discretion of the private donor to select his donee. Hence arose differences of good Däna and bad Dāna, and followed the moral discussions (viz. Geeta) regarding the Desh, Kala, Pátra for a Dāna (Place, time and object of Dāna decide as to whether it is good or bad type of charity and would bring virtue or sin to the donor). Such a discussion or question just had no place in the old days. Dāna then was a protection, as of right, against starvation, for the sick, the aged, the maimed and the weak, who had the first claim on social property. But when private property and class rule arose, Däna was converted from an instrument of social insurance to a privilege of the ruling class.
The Gana distribution of the Hutashesha also underwent the samo
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transformation. Whatever food was there, was for all to consume without distinction. The Satra law enjoined it. There was no question of a private householder cooking his own food' on his own Agni, for himself separately, since he and his own' did not exit. When property and households came, the Yajna law persisted to claim a share, but now only by the propertyless and houseless, who hounded the private householders. Thus arose the moral code that those who cooked only for themselves without a thought of other beings around in need of food were denounced as 'eaters of sin' (अघं स केवलं भुंक्ते य पचति आत्मकारणात् । --मनुस्मृति)
Thus the production relations of the community produced their own ideology and forms, but when the community and the natural constitutional forms, of its property broke down, the remnants of the old ideology and moral values, which still continued to struggle for existence, were seized and wielded by the new classes in their own way.
In the later part of the Rigvedic period, the purohit was installed as the skilled social worker remunerated by his fee, the 'dakshiana' when he performed his supervisory duties for his client 'the Hotā' or the 'Yaiman' who was the common house holder (grihastha) who previded the financing for the ceremony. It may be noted that as every body contributed his mite to the organization of the Yajna and everybody received, the benefits thereof, the real client is the whole community represented by an individual at a time. The Yajmän probably provided an occasion for collective labour now at one place after another and for one man after another so as to the encompass the whole community. People worked together in the field for agricultural operations on the basis of mutual help, and when they got together for this purpose, they stayed together as members of the host family for days and weeks. This hospitality was considered a right of the guests and a duty of the host. Many colour collective feasts are the degenerate forms of this system of collective labour for mutual help. In this context it may also be noted that people in need of land used to get from others plots of land for cultivation and continued to enjoy this privilege till the need persisted.
But in course of time, this system of social security in the small community became inconsistent with the growing needs of the people and deteriorated into excessive formalism around holy fires when conditions of life no longer responded to its content. The excessive ritualism of the Brahmanas produced a natural reaction. The Aranyakas (Forest-texts) which form the concluding portions of the Brahmanas and are meant for the daily study of the forest-hermits,
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are themselves virtually an admission that the correct performance of a comsulsory ritual, that had developed to enormous proportions in the Brähmana period, could not be expected from all, yound and old, from residents of villages and towns as well as from those who resided in the forests. There were again some parts of the sacrificial lore which were of an occult and mystical nature and which could be imparted to the initiated only in the privacy of the forest. The Aranyakas do not lay down rules for the performance of sacrifices, por do they comment on the ceremonial in the Brāhmana style. They are mainly devoted to an exposition of the mysticism and symbolism of the sacritice and priestly philosophy. Meditation, rather than performance, is the spirit of their teaching, and they naturally substitute simpler ceremonial for the complicated one of the Brāhmanas.
Important service was rendered by the Aranyakas when they stressed the efficacy of the inner or mental sacrifice, symbolised by of oblations of rice, barley or milk. They thus helped to bridge the gulf between the 'way of works' (karma-mărga), which was the sole concern of the Brāhmanas, and the 'way of knowledge' (jnana-mārga) which the upnishads advocated. The Aranyakas further lay down upāsanās (or courses of meditation) upon certain symbols and austerities for the realization of the Absolute, which by now had superseded the 'heaven' of the Brāhmana works, as the highest goal or the devout. These symbois form the link between the Brāhmanas and the Upanishads as they are borrowed from the sacrifices. Finally the compromise between the two ways' of karma and jnāna was consummated when karma was made subsidiary to, and a preparatory stage for, jnāna in the Aranyakas and Upanishads.
Not only in the Upanishads but also in the Brāhmanas, there is clear evidence of the fact that kings and warriors share the honours, if not the monopoly, of the intellectual and literary harvest of these days with the Brāhmanas who had to go to them very often for instruction. Nay, even women and people of doubtful parentage took part in this intellectual life and very often possessed the highest knowledge. It was probably these non-priestly circles opposed to the Brāhmanic way of works (karmamärg) that formed the chief recruiting ground for forest hermits and wandering ascetics, who kept aloof from the sacrificial ceremonial of the Brāhmanas by renouncing the world and followed the "way of knowledge” (Jnāna mārg). Budhism which came later represents, very probably, one fruit of such protestant activity.
It is also evident that the Kshatriyas took a leading part in this new line of enquiry. They had now secured a firm footing in the land by defeating the pop Aryans and obtained a high status and pre
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eminent position in society as ruling chiefs and high administrative officials We can easily guess how the intelligent Kshatriyas with their restless mentality had grown jealous of the Brahmanas and attempted to gain a tactical superiority over them by assigning a deeper significance and meaning to the very sacrificial rites which were elaborately developed by them as the principal element in their religion.
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The Upanishads enjoined the path of knowledge (Jnana-Yajna) against the path of performance and sacrifice in the form of renunciation (sanyās) and non violence (ahimsa) for spiritual ends, deliverance from pains and bondage of birth and death (Moksha or Nirvana) against the sacrifice of animals in the vedic Yajnas for material goods.
Shraut Yajnas were denounced, substituting for them, the 'PanchMahā Yajnas' conceived as expiation of sins (pryashchitta) against nature and society, and Ishtapurta was enjoined as repayment of social debts (rina-mochana) owed to gods and men (the 'deva-rina' and 'manushys-rina'). These ishtas ie. individual goods or desirabilities were suplemented (literally 'filled up') with apurtas, i.e. social goods or expectancies. The apurtas are purely social services (pious works). Philonthropic and well-to-do persons individually and whole communities collectively contributed for the general good. Voluntary social institutions were created for relief Public works were undertaken for public use. All charity, collective or individual was exercised under the influence of preaching of the Sanyasies. Family purohits, as individuals, were the spiritual advisers and guides of the families which were specially attached to them, and, collectively, in groups, of the local public. They were also expert advisers of them in all matters of 'ishta' sacrifices, and 'apurta', pious works. Works of public utility, public works of all kinds, were then called 'pious' works, because of the elevating spiritual sentiment, religious emotion, piety, inspiring them.
Dan dharma is either Ishta or Apurta. Ishta' is 'Yajna-yag adi', ritualistic offerings in the fire; also litanies, incantations, etc.; and 'Apurta' is Vapi-kupa-taḍag-ādi, construction of wells, tanks, reservoirs, canals, plantations of trees, afforestations, building of temples, almshouses, rest-houses, schools, hospitals, laying out of roads, parks, public-gardens making of bathing ghats, bridges, etc., all formally and ceremonialy dedicated to the service of people, as worship of God. These were done sometimes as a matter of nishkāma karma, pure duty, with only the motive of paying off the congential debts, often with the wish for (1) either mundane reward, such as progeny, or
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prosperity in business or victory over rivals, or (2) happiness in heaven.
Many kinds of Yajna in accordance with its philosophical meaning, i.e., 'doing anything for the helping of others by selfdenial, are described in Gita.
Apararka quotes the Mahabharata for defining Ishta and Apurta. Whatever is offered on the single fire (i.e. grihya fire) and what is offered in the three srauta fires and the gifts made inside the vedi (in srauta sacrifices) are called Ishta, while dedication of deep wells. oblong large wells and tanks, temples, distribution of food and maintaining public gardens- these are called Apurta. at 9 amha agatuaarfa a/ 277 919191 gafacufatga || Apararka again quotes Närada Also honouring a guest and performance of vais vadeva constitute Ishata while the dedication of tanks, wells, temples, places for public distribution of food and gardens is called Apurta and also gifts made at the time of eclipses, or on the sun's passage in a zodiacal sign or on the 12th day of a month. Hemadri quotes Sankha that nursing of those who are ill constitutes Apurta. One should always assiduously perform ishta and apurta, which when done with shraddha and with wealth justly acquired become inexhaustible. One should over resort to danadharma (that mode of dharma which consists in gifts) which is either ishta or Apurta.
Apararka quotes a long passage from the Nandipurana about the founding of hospitals (arogyashala) where medicines were supplied free to patients. Since the four purush-arthas (goals of life) viz. dharma, artha kama and moksha, depend upon health, he who provides for securing this may be said to have made gifts of everything, The passage further states that a competent physician should be appointed Hemadri quotes the same passage and another from the Skandapurana to the same effect.
Family purohitas, as individuals, were the spiritual advisers and guides of the families which were specially attached to them, and, collectively, in groups of the local public. They were also expert advisers of them in all matters of 'ishta' and 'apurta'.
It may be noted here that although the 'apurtas' were supplementary to 'ishtas' forming a combination (Ishta purta) the distinction involved in the wording already suggests the dichotomy of the individual and the society. The individual in contrast and contradiction to society has already emerged. It was in this context that helping the needy took the form of individual charity (Dāna). The individual client emerged as the recipient. Charity was excercised
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under the principal ideology of repayment of social debts with the ultimate aim of deliverance from the cycle of births and deaths and social approval continued to be the main motivation The professional social worker now was the Sanyast and the common man, the house holder, (grihastha) continued to be the donor.
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Today it has further dwindled into an institution serving mostly the aims of education. Social services in India are mainly concerned with education, medicine, problems of the handicapped, pilgrimage and recreational activities. The highest emphasis is on education of the traditional type. Sanskrit education is so organised that any student can get it without himself or his family having to pay for tuition, board or lodging. The satra often mispronounced as kshetra is an institution designed to achieve this objective.
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Origin of Untouchability (v)
BRAHMAŅAS' CONTEMPT & OTHER GROUNDS
Upendranath Roy
Dr Ambedkar believes Brāhmanas' contempt for the Buddhists was the main root of untouchability. His arguments for the thesis are as follows:
1. In 1910 A.D. the Census Commissioner decided to separate
untouchables and tribals from the rest of the Hindus. Tests for the separation revealed that the untouchables were not served by good Brähmaņa priests at all, that they did not receive the 'mantra' from a Brāhmaṇa and that they had their own priests reared from themselves. The census authorities did not bother about the reasons behind it. Generally these facts are explained by pointing to the fact that the Brahmanas hate the untouchables and regard them as 'impure'. But people who have observed and examined the social customs of the untouchables have discovered that the untouchables do pot like a Brābmana's entry into their houses or his passing through their huts. It can therefore be said that the untou. chables too look upon the Brāhmapas as impure persons and hate them. That raises the question : what is the basis of
this antipathy? 2. This antipathy can be explained on the hypothesis that the
Broken Men had become Buddhists at the time when Buddhism prevailed in the country. They did not revere the Brāhmaṇas nor did they employ Brāhmaṇas as priests because they were Buddhists. Subsequently, Brahmapism gained supremacy but the Broken Men did not give up their faith easily in favour of Brāhmanism. So they were degraded and
made untouchable. 3. The Smstis bear testimony to the malicious propaganda
against the Buddhist. Not only entry into a Buddhist temple but even contact with a Buddhist through sight, touch and conversation is declared sinful in the Smrtis and atonement
is prescribed for such sinful activity. 4. How widespread the hatred for Buddhists was can be obser
ved from the Mfchchhakatikam.
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Mrchchakatikam
That the Brahmaņas hated the Buddhists requires no proof at all. Even if it were needed, the attempt to find that in the Sanskrta dramas would be futile. Only the Prabodhachandrodaya of Kṛṣṇa Mishra is openly against the Jainas, the Kāpālikas and the Bauddhas. But it was composed around 1065 A.D. during the reign of the Chandala King Kirtivarmā. Among the old dramas thirteen works All but three of them are based of Bhasa must be mentioned first. Bhasa was on the stories from the Rāmāyaṇa and the Mahābhārata. a devotee of Kṛṣṇa and Balarama but no trace of ill-will against the Buddbists is found in his works. Kalidasa supports sacrifices and slaughter of animals for religious purposes in his dramas but does not express hatred against the Buddhists. In the Mudrārākṣasa both Bhavathe contending parties are fair to the Jainas and Buddhists. to the extent of bhūti supports Vedic rituals staunchly and goes showing Vasistha taking beaf but he too refrains from expressing anything against the Buddhists otherwise. Mṛchchakatikam is the only drama where hatred for Buddhists is apparently revealed but a careful study of the circumstances reveals that, that is not indicative of the real situation of the time.
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Dr. Ambedkar quotes twice from the drama to establish his thesis. The first quotation from the Mrchchakatikam is taken from the Seventh Act of the drama. The Buddhist monk there is seen approaching by the hero Charudatta who considers it as a bad omen and leaves the place through a different route. The second quotation is taken from the Eighth Act of the drama. The monk is washing his clothes in a pool. King's brother-in-law, Shakara That accompanied by Vita turns up, abuses and even beats him. quotation is followed by the following comment :
"Here is a Buddhist monk in the midst of the Hindu crowd. He is shunned and avoided. The feeling of disgust against him is so great that the people even shun the road the monk is travelling... A Brahmana is immune from death penalty. He is even free from corporal punishment. But the Buddhist monk is beaten and assaulted without remorse, without compunction as though there was nothing wrong in it".
That the hero changes his route as soon as he sees the Buddhist monk does not prove hatred for the Buddhists definitely. Sight of the naked, diseased, monks as well as that of persons with heads shaved or hair scattered are regarded as bad omen traditionally.2 Vişņu Dharmasūtra says, one should go back to his house and restart if one notices a drunkard, insane, lame, dwarf, shabby clothed
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person or some one whose head is completely shaved, who has vomited or evacuated bowels several times. The same advice is given to the person who notices an ascetic with matted hair, a monk or an orange-robed. On the other hand the sight of a Brāhmaṇa, a courtesan, a pitcher full of water, mirror, flag, umbrella, palace, fan erc. is recommended as auspicious at the beginning of a journey. That the Buddhist monks were treated as inauspicious sight is hardly surprising because they were monks and they had their heads shaved. If treating a courtesan as auspicious does not prove reverence for her, treating the Buddhist monk as inauspicious cannot prove hatred for him either. There is nothing in the drama to show that Chārudatta hated the Buddhists. He was not a bigot. So we have to explain bis conduct in this case as based on superstition only.
The incident of Act VIII has to be judged in the context of the character of the king's brother-in-law and his entire deeds. He is foolish, vain, intoxicated with power and ill-behaved by nature. As Vasantasenā. the heroine of the drama hates him and loves Chărudatta, be does not hesitate to strangle her. Taking her for dead he goes away and accuses Charudutta of murdering her. Vasantasenā is eventually saved by the Buddhist monk Samvāhaka in the meantime. The judges despite doubts about the statements of Shakära and despite the fact that the Brāhmaṇas are exempted are so afraid of the fellow that they cannot but pronounce death sentences against Charudatta. He is saved simply because Palaka is overthrown in the meantime and Aryaka replaces him as king. The new king favours the Brāhmana Chārudatta as well as the Buddhist monk Samvāhaka. Such a conclusion of the drama demolishes the contention that the Buddhists were hated by all the Hindus in those days as a result of the Brahmapas' propaganda. Even the misbehaviour of Shakāra issues not from hatred for Buddhism That is clear from the passage quoted by Ambedkar himself. There Shakāra's companjon, Vita explajns his misbehaviour as follows:
Because some monk has offended him, he now beats up any monk he happens to meet".
True, nobody comes to the rescue of the monk but that too is explained by fear. Even Vita who accompanies Shakāra does not support his misdeeds but tries to dissuade him with the following plea :
“Friend, it is not proper to beat a monk who has put on the saffron robes, being disgusted with the world".5
The Mfchchakațikam was composed by borrowing the story of Daridra Chārudattam and adding the story of Aryaka's revolt to that. The revolt was not directed against a Buddhist or Jaina ruler.
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It was directed against a Hindu ruler who was spending his days in pleasure leaving all power in hands of his brother-in-law who was notorious for his slackness of character and tyranny. Obviously the dramatist had a message ! a king like that must go. As the dramatist was instigating and supporting revolt against a ruler of his own times, he had to hide his own identity and create the confusion that the drama was composed by some king named Sbūdraka of antiquity. According to the prologue of the drama, Shudraka was a devotee of Shiva and learned in the Vedas and Shastras, he lived a hundred years and ten days, he performed Horse Sacrifice and entered into fire after handing over his kingdom to his son. Use of 'kila' and 'babhūva' in this connection is remarkable. Nobody uses them for himself. their use is reserved for describing what is too old and not based on personal knowledge. So the identity of the author remains unknown and that is concealed deliberately.
Brāhmanas' batred for Buddhists
It is true, nevertheless, that the hatred for Buddhists was propagated through the Purānas and Dharmashāstras. According to the Vişnupurāņa, the gods defeated by the demons in war pleased Vişņu by penance. Vişņu created Māyāmoha who converted part of the demons to Jainism and part of them to Buddhism. Thus removed from the Vedic creed they were defeated easily by gods. 6 King Shatadhanu was born several times as dog, wolf, vulture, crow, stork and peacock respectively due to his sin of talking to a heretic. His queen remembered it all along, was able to recognise him in each birth and tried her ut inost to save him. As a result of her efforts he was born again a man after passing through the process of life and death for six times. So one should avoid contact and conversation with the heretics as extremely sinful ?
The twenty-first chapter of the Jñānasaṁhitā of the Shivapurāņa says Visnu propagated heresies in order to destroy the three cities of the demons. Even Nārada became converted to Jainism to mislead the demons. The demon king. Vidyupmāli too became a Jain at last. Thus the demons of the three cities renounced the Vedic creed and were destroyed by the gods. Then the preachers of Jainism took their abode in the land of desert (i.e. in Rajasthan) and propagated there heresy again in the Kali age.
The Padmapurāņa brands all the followers of non-Vedic and non-Vaisnava faiths as heretics and forbids contact with them. Vişņu advised Shiva propagation of heresies and composition of misleading Shastras and Purānas as a means of confusing the demons.9 So Shiva himself caused ten sages to preach heresies10.
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The creed of the Pashupatas was propagated by Shiva himself, Kaņāda preached Vaishesika, Gautama Nyaya, Kapila Sankhya, Bphaspati Chārvāka and Vişņu bimself incarnated as Buddha preached Buddhism. Shiva preached the doctrine of Māya in the guise of a Brāhmana (i c. Shankarāchārya) which was but a disguised form of Buddhism. Jaimini composed Mimānsăan atheist system 11 Six of the Purāņas (Matsya, Kūrma, Linga, Shiva, Skanda and Agni) lead people astray and so do six of the Smrtis (Gautam, Brhaspati, Samvarta, Yama, Shankha and Ushanā). As reading and listening to these Purāņas and Smptis leads to hell, a wise man should ever shun them 12
Even if it is granted that such propaganda led to untouchability, it remains to be explained why the Buddhists alone were affected. Brābmanas had no less hatred for the Jainas, Chārvakas and Păshupatas, why did they not become untouchable then ? Moreover, despite such attack, the Purāņas (including the Vaişņava oncs) adopted the Sankhya system with slight modifications and it became respectable on the part of the Brahmanas to learn and teach the heretic philosophies mentioned above. Shankarācbarya was branded a Buddhist in disguise but came to be revered by the Hindus despite that. Nor were the Purānas and Smstis denounced in the Padmapurāņa thrown a way by the Hindus, why did the Buddhist alone become untouchables then ? If á section of the Buddbists ate beef and that was the reason of their degradation, the Kāpālikas were far worse than them, why were they not degreaded then ? Untouchability by untouchables
That the contempt for the Brahmanas led to untouchability cannot be accepted also because it does not agree with what we know about the untouchables. That the untouchables do not receive Mantra from a Brāhmana that they do not have Brāhmaņa priests, that they keep the Brāhmanas far from their houses and localities is simply the negative aspect of the social reality. But if the untouchables are really descendants of a section of Buddhists, we expect something positive as well to show that. Despite oppression and degradation they should bave preserved at least some of the essentials of Buddhism. It is not too much to expect that as followers of the egalitarian creed of Buddhism do not harbour ill-will against their own brethren or practise discrimination against them. The attack of the triumphant enemy should have cemented differences if any. among them and strengthened their solidarity. Nothing of the kind is seen in reality.
Gods and goodesses of the untouchables are different from those
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TULSI-PRAJNA highly praised in the Hindu Scriptures, in some cases they include the despised ones too. But worship of mound and tomb of the ancestors, of spirits, of the goddesses Mārt and Bhuiyan, of trees, of Rābu, Munakhadeva, Chhatavādi, Jhakbia and Mekhăsura etc. has nothing to do with Buddhism. Asuras and Yakşas were worshipped in India even before Buddha. Buddhism was not intolerant of it, but emphatically preached the uselessness of such cult, How could the persons devoted to the teachings of Buddha and unwilling to forsake them even in the days of the triumph of Brāhmanism continue such practices ever ?
Most of the occupations of the untouchables are inconsistent with the letter and spirit of Buddhism. Hunting, fishing, sale of meat and fish and liquors, catching soakes and monkeys and using them for entertainment ctc. are the occupations a follower of Buddhism could not retain. So is the occupation of executioner. Even if we accept the plea that a section of the Buddhists had no alternative and had to continue them for the sake survival, it is difficult to believe that they were orthodox Buddhists but had to take liquors too. That shows the untouchables are a section of society least influenced by Buddhism.
Rules regarding marriage current among the untouchables too prove the same. Națas, for example, marry women belonging to the castes of Kabāra, Murão, Khāgi, Dhuniya, Gaderia, Kumbbāra etc, by purchase or abduction but do not take women belonging to the castes of Chamāra, Kanjara, Bhangi etc. There are several untouchable castes like Karawāla that do not accept women of other castes at all. Rules current among several untouchable castes remind us of the Brāhmaṇical measures against inter-caste marriages. For example, a child whose one of the parents belongs to a different caste is known as Lendrā among the Aheriyas and cannot enjoy full rights of the caste. Dusādhs grant full rights to the child if the mother belongs to a higher caste but deny the same if the mother belongs to a caste lower than Dusādhs, what relationship such discrimination can possibly have with Buddhism ?
That holds good about food too. Dusādbs accept coocked food from Brāhmaṇas, Ksatriyas and Vaishyas but do not take food touched by a doma. Karawāls accepted even the refuse of other castes but avoid food touched by chamāra, Dhobi, Bhangi. Doma, Kort and Dhanuka. Aherias accept even the kachchi rasol (food not fried in ghee) of Abira, Carpenter, Gata and Kabāra but object to that of others. How monstrous the untouchability practised by the untouchables has been is evident from the following incident described by Kșitimohan Sen :
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"Some poor Mochis asked for food at my house. Those were the days of terrible famine. I found that though we had ordered for feeding those Mochis, my servants belonging to castes like Hari and doma etc. would not allow them to enter. But my wonder knew no bounds when the servants belonging to castes Hārī and doma ate nothing that day on the ground that all the food of the kitchen had become polluted".18
Now, how can we define the phenomena testified by events like that? Is that too rooted in contempt? Some of the untouchables treat other untouchable castes as their hereditary enemies. That is precisely the attitude of the Domas in relation to the Dhobis. Why Brāhmaṇas hate untouchables and untouchables hate the Brahmaņas is answered by the thesis of Ambedkar. That may well be explained as a product of the Brahmana-Buddhist conflict, but when we find one section of untouchables hating the other and treating them as hereditary enemies it becomes impossible to explain the phenomenon with a thesis like that.
Primitive Superstition.
Not only the hostile and contemptuous attitude of one section of untouchables against the other is inexplicable by Ambedkar's theory. It fails to explain the attitude of the untouchables to the Brahmaņas and other 'higher' castes also if one observes carefully. That the forebears of the untouchables were Buddhists and therefore shunned Brahmaņas and the untouchables today are simply continuing that practice, make sense. But it is simply inconceivable that the non-violent creed of Buddhism taught them to abuse, assault and beat a Brahmana if the latter passed through their locality. I have not come across a single instance in the Buddhist literature that the Buddhists treated people of other faiths that way or even condoned such a behaviour.
Ambedkar cites the following evidence to prove that the untouchables too hate the Brahmanas and regard them impure :
1. The Pariahs "will under no circumstances, allow a Brahmin to pass through their paracherries (collection of Pariah huts) as they firmly believe it will lead to their ruin"14.
2. Parayan and Pallan or Chakkiliyan castes of Tanjore district "strongly object to the entrance of a Brahmin into their quarters believing that harm will result to them therefrom" 15 3. Holeyas or Holiars of Hasan district of Mysore are untouchables "and yet the Brahmins consider great luck will wait upon them if they can manage to pass through a Holigiri without being molested. To this Holiars have strong objection, and
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should a Brahmin attempt to enter their quarters, they turn out in a body and slipper him...". It is said they would kill him for the entry in former times. "Members of the others castes may come so far as the door, but they must not enter house, for that would bring the Holiar bad luck." And what do they do when some body gets in by chance ? The owner of the house "takes care to tear the intruder's cloth, tie up some salt in one corner of it, and turn him out" and that is "supposed to...avert any evil which ought to have befallen the
owner of the house''16.
The belief that the entry of the Brāhmaṇas and other castes will bring bad luck to them and the means adopted to avert the evil reminds us of the superstitions of the primitive societies. That the entry of and contact with strangers may cause trouble is a primitive belief mentioned by Ambedkar himself in the first chapter of his book. The evidence cited by Ambedkar as given above indicates fear rather than hatred towards the Brāhmapas on the part of the untouchables. It has got well-known parallels in the primitive societies. Ambedkar himself has recorded that:
"...there were certain classes of men who were sacred. For a person to touch them was to cause pollution. Among the Polynesians thc tabu character of a chief is violated by the touch of an inferior, although in this case the danger falls upon the inferior...... On the other hand, the chief and his belongings are very often regarded as sacred and, therefore, as dangerous to others of an inferior rank. In the Tonga island, anyone who touched a Chief contacted tabu, it was removed by touching the sole of the foot of a superior Chief. The sacred quality of the Chief in the Malay Pepinsula also resided in the Royal Regalia and anyone touching it was invited with serious illness or death".17
Obliviously, Dr. Ambedkar missed the significance of the evidence he himself cited and the mistake lies in his method. It was stated earlier that the Brāhmaṇas shunned the untouchables because they regarded them as impure. Ambedkar responded as if by reflex action and simply reversed the statement. Such method fails to take note of the fact that persons and things deemed to be sacred were also avoided. But once that fact is recognised, the question arises : were the Brāhmanas too sacred or impure in the eyes or the forebears of the untouchables ? Whatever the answer, the fear of bad luck from the Brahmanas' entry and measures adopted to avert the evil have undoubtedly nothing to do with the logic and ethics of Buddhism.
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Were untouchability a product of Brāhmaṇas' contempt for Buddhists we should not find any trace of it during the life of Buddha nor during the days Buddhism dominated the scene in India. But we have seen in the third chapter that Praksti, Suppiya and Sopaka were untouchables who became the disciples of Buddha. The thesis that a section of the Buddhists were degraded and made untouchables subsequentty fails to explain the behaviour of the untouchables too. Ambedkar does not tell us when and how Buddhism taught a section of its followers to keep the Brāhmaṇas away from their locality and to molest them if they attempted to intrude, what we know about Buddhism shows it did not preach caste hatred Ambedkar does not explain when and how Buddhism taught a section of its followers to hate the other and yet we find a section of untouchables hating the other. That demolishes the theory of Ambedkar beyond hope.
Untouchability in Japan and Arabia
Ambedkar proceeds with the assumption that untouchability was not current anywhere else at any time. That makes it easy for him to suggest that tbe Brāhmaṇas' contempt for the Buddhists caused the mischief, But there are other instances of untouchability where that explanation would not do.
In South Arabia there are two classes of Pariahs. One class, comprising of the artisans, was regarded as the subordinate menials of the dominant class. Its members were required to live on the outskirts of the town, and though admitted into the mosques were not allowed to visit Arab houses. The other class of Pariabs was regarded as still inferior, and its members were not allowed to enter even the mosque, though they were devout Muslims":18. There are no Brāhmanas and no Buddhists in Arabja. There is no question of their mutual hostility and contempt. How did then untouchability come about in Arabia ?
Two classes of untouchables are recorded in Japan since the 12th century called Eta and Hinin They were regarded as the fifth class of society up to the nineteenth century. “Every occupation that brought a map into contact with unclean things, such as the corpses of human beings, the carcasses of animals, and offal of all descriptions, were degraded. Occupations that catered for the sensuous side of man as well as those that did not carry a fixed scale of remuneration were regarded as low. The degrading calling, and some others like stone-cutting and casting of metal, were relegated to the outcastes". To this day they catch fish, sell meat and live outside villages and towns, whenever they come in, they warn people
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of their presence by raising four of their fingers which is supposed to mean that they are hardly better than quadruples.
"Untouchability in Japan can hardly be regarded as quite independent of the Indian ideas on the subject" says Jhurye. What he means in not clear to me. That Japan adopted untouchabily from India is simply incredible and raises the question why China, Burma, Cambodia, Thailand etc. did not follow suit. So it is more sensible to say that untouchability in Japan developed independently. Japan is not dominated by the Brahmaņas, it never was. Majority of the Japanese are Buddhists. That the social divisions in Japan were not influenced by Indian ideas on the subject, is borne out sufficiently by the fact that soldiers (Samurai) and not the priests were the highest class of society in Japan, So the contempt for Buddhists could not have given birth to untouchability in Japan.
The rivalry of the Buddhists and Brahmaņas is totally absent it both the cases noted above. The Brahmaņas did not dominate there during the centuries the untouchability is known to have been practised there. They are not dominating in Japan or Arabia to day either. So the roots of untouchability practised there must be sought somewhere else than in the Brahmanas contempt for the Buddhists.
Antyajas Vs. Untouchables
An other objection against Ambedkar is that despite claims to the contrary, it fails to explain the rise in the number of the untouchables. People called Antya, Antyaja, Antyavasin etc. in the Dharmashastras were 'Impure', not 'Untouchables' according to him. The 'Impure' were Broken Men, some of whom took beef and became untouchables subsequently. He contrasts the list of the socalled Impure class with the government list of the untouchables (1935) and concludes that Charmakara is the only caste which is included in both lists and regarded as untouchable throughout India. The number seems to have risen mysteriously. We cannot explain the presence of hundreds of untouchable castes otherwise, Dr. Ambedkar fails to explain how and why the number went up suddenly. Nobody can explain it with the theory of Ambedkar.
The next and greatest objection against Ambedkar's theory is that it fails to explain why separate settlements did not disappear in India the way they did in Ireland, Wales etc. Non-tribesmen in other countries married in the tribe for generations and became absorbed in the village community which led to disappearance of their separate quarters. That should have happened in India too, but did not, why? The answer is that the notion of untouchability
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supervened and perpetuated difference between kindred and nonkindred, tribesmen and non-tribesmen in another form; namely, between Touchables and Untouchables. It is this new factor which prevented the amalgamation taking place in the way in which it took place in Ireland and Wales, with the result that the system of separate quarters has become a perpetual and a permanent feature of the Indian village.
It is relevant here to know when nomadic tribes began to settle, when settled communities clashed with the wandering groups and when Broken Men were allowed to live outside the villages in India. Though Ambedkar did not bother about them, we cannot dismiss the questions. It is beyond doubt that the Rgveda belongs to a period when people lived in villages and big cities flourished during the days of Buddha. We will not be ante-dating it if we assign the dato of 1500 B.C. to the Rgveda. So we can safely conclude that the Broken Man had settled outside the villages some time during the period 1500 B. C. to 600 B.C. They were placed in the category of the 'Impure' from that date to 400 A.D. and became untouchables only later according to Ambedkar. But at least 1900 years passed since the days of the Rgveda to 400 A.D. and one thousand years passed since the days of Buddha too. Untouchability had not come about during the period and yet the separate quarters of the Broken Man remained. We wonder what the reason was. There was no untouchability and yet separate quarters remained for a thousand or two thousand years that is a proposition that makes no sense. That is impossible and incredible.
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There is another problem the theory of Ambedkar creates. He writes, "...a rule similar to that which existed in Ireland and Wales also existed in India. It is referred to by Manu. In Chap. X, verses 64-67, he says that a Shudra can be a Brahmin if he marries for seven generations within the Brahmin Community. The ordinary rule of chaturvarnya was that a Shudra could never become a Brahmin. But this rule of antiquity was so strong that Manu had to apply it to the Shudra. It is obvious that if this rule had continued to operat in India, the Broken Man of India would have been absorbed in the village Community and their separate quarters would have ceased to exist."
The trouble with the above statement is the rule laid down by Manu is meant for the Shudras, it does not refer to the Broken Man. The Shudras lived at the exterior part of the village but not outside the village, while the untouchables had to live outside. How could the promotion of the Shūdras to a higher varpa lead to disappearance of the separate quarters of those who lived outside ? Ambedkar
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himself makes a distinction between the Shadras and the Broken Man. How could then the rules laid down for the Shudras benefit the Broken Man ? Ambedkar does not answer the questions.
The Smstis of Manu, Yājnavalk ya etc, and the Dharmasūtras of Gautam, Bodbāyana, Apastamba mention the rule of prom demotion for four Varņas only. We can explain it in two ways. If we assume with Ambedkar that the Shüdras and Antyajas were two distinct categories, the rule can only mean there was no provision for absorbing the Antyajas (or Broken Man) in the four varņas ultimately and allowing them to live inside. Secondly, we can assume the Antyajas were included in the broad category of the Shūdras and the rules formulated for the Shûdras applied to the Antyajas as well, In that case, we can say that initially it was not impossible on the part of the Broken Man to get promoted to a higher varna and live inside the village.
The first proposition would mean the Broken Men were not only kept outside the villages from the very beginning, but arrangements were made to segregate them permanently. What the reason was is a different question. To segregate a group permanently, it is necessary to ban dining. contact and marriage etc. with it If something like that was done quite early and continued ever what can we call it if not untouchability ? Viewed from that angle what seems logical and probable is that development in India was rather different from that in Ireland, Wales etc. Here the Broken Men were kept a part and the way to their absorption in the village community was closed from the very beginning and that is what led to the origin of untouchability.
The second proposition raises more questions than it solves. Once it is admitted that the Antyajas were included in the category of the Shüdras and the rules formulated for the Shüdras applied to them, other questions arise. Obviously more than one thousand years passed since date when the Broken Men began living outside the villages to the period untouchability came about according to Ambedkar. All that is supposed to have existed in the intervening period is the division of society in four venas, What could have prevented the free mixing of the Broken Man with the village community in the meantime? What could have perpetuated the separate settlements for such a long time? Ambedkar docs; not s there was no difference between the Shudras and Broken Man ioiti. ally. But if he said that, he would face a new question. When the practice of promoting the Shudras to higher varpas became inope rative, the rest of the shūdras remained Shūdras but a section of them became untouchable. That is a phenomenon that remains to be
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explained. Suffice it to say for the present that the theory put forth by Ambedkar fails to explain it. Basbam's views
Prof. A.L. Basham supports the view in a way with the remark that "certain classes of outcastes and untouchables seemed to have gained their unenviable position through the growth of the sentiment of non-violence.” The examples are the Nişāda, the Kaivarta and the Karavar who were hunters, fishermen and leather-workers respectively. The Pukkasa appear as sweepers in the Buddhist literature. They were degraded according to Basham because they made and sold alcoholic liquor. It is also notable that Basham concludes from the Buddhist literature and early Dharmasūtras that untouchability had come about several centuries before Christ. 19
We can accept the view if it is established that: 1. All the occupations of the untouchables are evil according to
Buddhism and Jainism. 2. The Buddhists and Jainas bad denied access to their fold to
people who pursued those occupations. 3. Untouchability was born during the period Buddhism and
Jainism held sway, neither before nor after that.
The third point has been discussed earlier and it has been found that untouchability was born before Buddha and Mabāvira. That strikes at the root of Basbam's views. We now proceed to discuss the first two points. Forbidden Occupations
Occupations deemed evil by Buddhism are mentioned in the Angu Harapikāya. Five kinds of occupations are forbidden there, namely, trade in weapons, trade in living beings, trade in meat, trade in liquors and trade in poisons. They are forbidden because they arc opposed to the five rules every Buddhist has to observe. The Lakkhaṇasutta of the Dighanikāya denounces theft, robbery, cheating, killing, tying, amputating etc, as evil deeds. Pursuit of palmistry and astrology to earn a living is also not allowed to a Buddhist.
Nobody was, however, hated for such occupations and denied admission to Buddhism. Anyone could give up evil occupations and become a Buddhist. As a matter of fact, many gave up occupations and become Buddhist monks and nuns. Works of some of the persons were held in bigh esteem and collected in the Therigātha and Theragatha. Satı (fisherman), Sunsta (Pukkasat) and Champa (daughter of a hunter) are instances to the point. Wanting to con.
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vert them and sanctioning due respect to them when they joined the order, Buddhism could not permit its followers to despise them for their hereditary occupations. Monks and nuns did accept food and water from the untouchables, Ananda, the Chandala girl Prakriti.
We can consider the matter otherwise too. Were untouchability a product of the likes and dislikes of the Buddhists, had Buddhism shut its doors in the face of the persons belonging to evil occupations, the outcome would have been some thing like the following.
?. All the traders in weapons would have become untouchables. 2. All traders in animals and birds would have become untoucha.
bles. 3. All who sold fish and meat would have become untouchables. 4. All who sold wine and other alcoholic liquors would have
become untouchables. 5. Traders in poison would have become untouchables. 6. Thieves, robbers, cheats, forgerers and perjurers etc. would
have all become untouchables. 7. All astrologers and palmists would have become untouchables.
In reality, only two categories of the above are untouchables today, namely, no. 3 and no.4 There is no definite relationship.. therefore, between untouchability and occupations involving violence. Harmless Jobs
How hasty and ill-considered it is to blame the Buddhists and Jainas for untouchability is best shown by the fact that Basham regards the occupation of the Kārävar as something opposed to the doctrine of non-violence. The caste has been ever engaged in making shoes etc. of the skin of the dead animal. To use the skin of a dead animal is as much non-violent as using the dung of a living animal. Even the staunchest believers in non-violence do not hesitate to bear the shoes made of the skin of the dead animal and that is why such shoes were so much in vogue in Indian villages, How could then one call the occupation violent ? For Basham's information, the Buddhists did not think so.
Still, Basham is compelled to adinit that blaming the doctrine of non-violence does not explain the phenomena in all cases. The caste called Vena, for example, is basket-maker and Basham fails to explain why they became untouchables. There are other occupations associated with untouchability that cannot be called violent by any stretch of imagination. Carrying dead bodies, leather-work, washing,
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dyeing. digging, stone-work, sweeping, making looms, preparing brushes etc are instances to the point.
Of the occupations considered evil by Buddhists, only a few are associated with the untouchables; e.g, hunting, catching and selling fish, snake charming, executioner's job etc. Why people belonging to other occupations became untouchables, is not and can not be answered by Basham and his followers. Time and Place
Before we accept something as correct we have to test if it agrees with the facts known to us in respect of time and place. To single out the doctrine of non-violence as the factor responsible for the rise of untouchability we must establish two propositions. First, that untouchability was born precisely during the period when Buddhism and Jainism prevailed. Second, that the worst features of untouchability are visible today precisely in those regions where Jainism and Buddhism prevailed earlier.
However, we have seen that untouchability was born before the advent of Buddhism and Jainism. Even though Buddhism spread far and wide, it did not have sway in the south of Andhra Pradesh so far as the Indian sub continent is concerned. All the big centres of the Buddhists were situated in the north. Cominunications were not easy and the south was sparsely populated before the Seventh century after Christ. So Tamilnadu, Karnataka and Kerala are the regions least influenced by Buddhism. The worst features of untouchability were seen precisely in these regions.
The creed of non-violence is practised more rigorously by the Jainas. So one could expect that Jainism might explain the growth of untouchability where Buddhism fails. But the Jainas, unlike the Buddhists, were never a dominating force in India and it was beyond their power to cause such a social change all over the country. Rajasthan and Gujarat have remained the citadels of Jainism. Were untouchability born under the impact of Jainism, it could not have spread far beyond the borders of Rajasthan and Gujarat.
But if neither Buddhism nor Jainism was responsible for the birth of untouchability, what other creed could have caused it ? The Sankhya and Yoga systems of philosophy were protagonists of nonviolence but there is little possibility that they ever reached the masses and influenced them. Even their names are unfamiliar to average reader of Indian history. Different sects of Shaivas apd the cult of Shakti are known to us but they were far from non-violence. That leaves the Vaisnava faith which discards animal sacrifices and introduces devotion and worship of Visnu instead. Non-violence,
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cow worship and avoidance of alcoholic liquors are the essentials of Vaişņavism. So if one intends to blame the creed of non-violence, Vaisnavism is the most likely candidate.
But the Vaişpavas came to the foreground not before the ninth
tury A.C. Untouchability was a well-known institution long before that. Though the northern part of India was deeply influcoced by the Vaişpava Bhakti movement from the south, the Vaisnavas were never able to sweep South clean of the Shaivite influence. Vaisnavism reached Bengal in the sixteenth century and even then it had to remain satisfied with a position second to the cult of the goddesses, Durgā and Kalı. As a matter of fact, never did Bengal accept the creed of non-violence fully. Vaisnavism was thus weak in South India and Bengal and it is precisely in these regions that untouchability was seen in its worst form to the end of the nineteenth century.
Jainism, Buddhism and Vaişpavism thus did not lead to untouchability which appeared earlier. We can, therefore, logically conclude that untouchability was in no way associated with the growth of the creeds of non-violence. One may or may not subscribe to such a creed, but no body can blame the creed of non-violence for the origin of untouchability without resorting to falsehood. Non-Aryan Influence
Dr. Ambedkar has rejected the theory of racial differences as the root of untouchability with fine arguments. Attempts have however, been, made to establish the theory in a different way. Weakness of the mechanical theory of Rice is easy to grasp and refute, while the other theory is deceptive.
'That is based on the extreme form of Untouchability practised in South India. Quite remarkable in this respeot is the following information given by a distinguished writer :
"The Nair in south must stay at a distance of 12 steps from Tiyan. The Pulayans cannot even move near them. The Brāhmaņas etc cannot bathe in the reserviours within the boundary of a Shūdra's house. Ilavans or Shanars must stay at 24 paces. A Brāhmaṇa has to bathe with clothes on his body if a Pulayan touches him...
The prejudice is too sharp in lower castes to be described. If a Pulayan is touched by a Paria, he bathes five times and bleeds his finger to get rid of polution. Even more rigorous is the provision for purification if a Kurichchan is touched by a person of some other low caste. Every where we find it is much more rigorous in case of lower castes than in the casc of higher castes.
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Not to speak of a Brāhmaṇa, even a Shadra becomes polluted if Ulladan approaches within 40 hands. Nāyadi approaching within 200 hands pollutes everyone. If somecome intends to give them alms it is placed on the ground and the giver goes away. Then they approach with fear and collect it."'20
The attitude of the untouchables towards the Brāhmaṇas is described in the same work:
"The Brāhmanas are untouchables to the Parias the same way the Parias are untouchables to the Brāhmanas. A Brāhmana passing through the quarters of the Parias or Holeyas is beaten, formerly it is said he was killed sometimes. Then after the Brāhmaṇa has left, they purify their locality with cowdung "21
"The Holeyas are regarded as a very low caste Their residence becomes totally impure by the contact of a Brāhmaṇa. Only a little earlier they would kill the Brāhmanas entering their village. The
ipateeyās of Orissa can eat the refuse of all but Brahmaņas, king, barbers and washermen are untouchable to them. There are other low castes like these who regard the food touched by a Brāhmaṇa as impure."22 Other Grounds
Other arguments are advanced to establish that caste system and untouchability were borrowed from non-Aryans namely,
"1. The Aryans had no caste-system in fact when they came to India, if they had it was not significant. Its rigours increased gradually.''21
2. "The Aryans in Ancient Greece, Rome and Germany had the pride of nobility but nothing like caste-system. The caste-system of the type is not seen in the fire-worshippers of Iran either. The Parsis do not believe in the caste-distinctions".24
3. "It is not sharp in predominantly Aryan regions of Punjab etc. It is sharp only in predominantly non-Aryan South,"25
The conclusion drawn from the above is "...the Aryans did not bring this institution with them. They found this monstrous discrimination prevailing in the non-Aryans and could not overcome it. Probably they tried to discard it for a long time but had to submit to the majority subsequently."26 Basic Errors
The theory is open to following objections :
1. To mark out caste-system and untouchability as something borrowed from non-Aryans implies a conviction in the impossibility of its appearance in the Aryan society in any case. But the develop. ment of a society does not depend on the virtues and vices of a
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group. Defferences we witness among different races are mainly the result of the variances in environment. That certain races are more
advanced than others does not necessarily mean they are wiser or stronger. All the races did not have the favourable conditions for cultivation and taming animals. Metals were not equally accessible to all of them. Such factors played a decisive role in creating cultural differences among the races. Differences in the shape and size of nose and skull, in the colour of eyes etc. are the traits that distinguish one ethnic group from the other. But there is nothing to prove that they have any co-relation to the type of social organisation a particular group evolves.
2. That the Aryans had no caste-distinctions or little if at all when they came to India, does not conclusively prove an alien influence. What it really shows is that the caste distinctions in India appeared independently of other Aryan people.
3. Less rigidity of caste rules and untouchability in the so-called predominantly Aryan regions like Punjab does not prove non-Aryan influence either. People in the regions like Punjab use more Arabic and Persian words while the popular speech in the "non-Aryan” Bengal and South is more Sanskritised. Are we to conclude, therefore, that the Indo-Aryans spoke Arabic and Persian and Sanskrit was borrowed from the non-Aryans ? It is the non-Aryan South which has preserved the tradition of teaching and learning to this. day-something unknown in Punjab etc. It is Bengal and the South that resisted the Arabic script so forcefully. The reason is Punjab and other predominantly Aryan regions were affected by recurring foreign invasions. So the absence of caste rigidities in Punjab etc. is not explained by the preservation of Aryan heritage in its pure form. Rather it is explained by the social upheaval caused by foreign invasions. It is admitted in the same book by the same author:
"The Sikhs were always at war with the Muslims, but they learned how to worship from them. The Sikhs introduced the worship of the Grantha Sahab instead of the worship of Koran... The Muslims do not keep their heads uncovered while praying to God, the Sikhs learned to cover their heads at the time from them while fighting against them. Nobody can enter into a gurudwara today with his head uncovered."27
"Rajputs too fought against the Muslim emperors ever but adopted the system of purdah as a mark of nobility and learned to take opium from them" 28
Both the instances refer to the period of the Muslim rule but the
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Greeks, Iranians, Shakas and Hủņas came to Panjab and Rajasthan long before. It cannot be argued they did not influence the regions, Social distinctions
Social distinctions in India were not a product of the evil genius of the non-Aryans. Evolution of society to a certain extent produces some Sort of distinctions in every country. That applies to all cases in history.
The Iranian society in 700 BC. was divided in three main classes, namely, priests, warrior sand husbandsmen. There was also a fourth class, of artisans. Origin of the system is attributed to Zarathustra or to Yima. References to this division of society became more frequent in the Sassanian period (226-651 A.C.) and positions well-defined. The four classes are likened to the heads, hands stomach and feet of a man. Priesthood was, it seems, hereditary from the beginning. By the Sassapian period, other occupations too had become hereditary. Intermarriage between people belonging to different social classes was estricted later. The priestly class could marry girls of the laity even then, but did not give theirs in marriage with the laity youth.29
Egypt had three principal classes in the Pyramid age, namely, landowners, serfs and slaves. During the rule of the Eighteenth Dynasty, there were four classes in the society, namely, soldiers, priests, craftsman and serfs. The first two clases were united by common interest. Clergy, however, were superior in actual influence and possession of wealth. Artisans were not allowed to change their class or occupation while priests, warriors and scribes could interchange occupation and so could their sons. A general in army could marry the daughter of a priest, and his children could be scribes, priests or public functionaries. By the early Ptolemies priesthood had become hereditary and exempted from poll-tax, Craftsmen and agriculturalists were in high esteem in the Egyptian Society 30
There were three classes in Sumeria, Aristocracy included priests and officials, The landowner constituted the middle class and the slaves were the third and the lowest class. Laws were based on inequality and attached more value to the life of aristocracy. Despite that a slave could marry a free woman and the offspring of such a marriage, to which no disgrace seems to have been attached was regarded as free. 31
Ancient China had four classes in its society. State officials called gentlemen, constituted the first class. Agriculture was deemed a noble calling and agriculturists were the second class. Artisans and merchants were the other classes of society. Besides there were
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barber. They and their sons were reckoned among the pariah classes and debarred from competing for the civil service. Ranks were distinguished by head-dress, garments, badgos etc. Children of people engaged in degrading occupations (like menial service, playacting, brothel-keeping) could not compete for the civil service. All occupations except civil service were hereditary. Marriages between officials and actresses or singing girls were not allowed and resulted in degradation of the map belonging to the upper class. Play-actors, police men and boat men had to marry women of their own class. No slave could marry a free woman and officials were loathe to marry with merchant families.38
"The people of Borneo nearly always marry within their class, though persons of the middle class sometimes do marry fomales of the slave class. In the Carolinas, apart from the slaves, there are two classes, the lower of which is forbidden to touch the higher on pain of death. Further, they are not allowed to carry on fishing and seafaring, nor to marry their girls with members of the higher class."88
All the facts mentioned above are taken from Ghurye. He draws the following conclusions from the above :
1. “Social differentiation with its attendant demarcation of groups and status of individuals is a very widespread feature of human society." The visible marks of this differentiation are special right for some groups and disabilities of others in matter of dress, occupation and even food. Despite that, determination of the status of an individual is not a universal phenomenon. It is seen only in some communities.
2. The Indo-Aryans led the practice of determining status by birth to farther extent than any other peoples. This is observed in the large number of differentiated groups within the society as well as in the matter of their rights and disabilities. That is, the Hindu society differs from other societies in two respects only. The large number of castes is one of them, the other is untouchability.se
In the light of the above conclusions of the well-known sociologist, there seems to be no justification for seeking the origin of untouchability in alien influences. It appears to be rooted in the peculiar process of the developmont of Indian society. Exclusiveness
It is argued, however, that even though all the ancient civilisations bad class differences, "contact among these classes, inter-dining and mobility from one class to another was not impossible. That is found impossible in various uncivilised countries of the world. The
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more primitive the conditions in a country are, the more rigorous are the ideas regarding contact. What lies behind such ideas as the fear of losing one's special powers and receiving various misfortunes from others as a result of the touch, Exclusiveness is the only religion of the primitive stage. The savage peoples of the islands of the Pacific Ocean call it mana,"36
It means, mana is something confined to the uncivilised. The Aryans were civilised and therefore there could be no room for exclusiveness in their society. A number of facts are ignored in this logic and we must remind our readers about it.
1. All the civilised people in the world have passed through the state of saya gery at some time or other. Even when they reach civilisation, they do not get rid of all the traits of savagery and relics of the past remain, We have moved far from the state when stone implements were the only possessions of mankind and vessels could be prepared of earth or stone only. Still, use of pestle and quern, of stone and earthen vessels is favoured for religious purposes. Fire is lighted in kilns as well as during sacrifices not with matches but after the fashion of the primitive man Civilised man of the twentieth century still follows the mana on occasions like birth, death, marriage etc. That is true about all civilised societies.
2. Intellectual development in any society is highly uneven with the result that alongwith the enlightened we find backward sections in society. Malnutrition and diseases are the companions of the poor sections of society even in civilised societies. Mostly they remain illiterate to date. Even in the United States, there are many who believe in spirits, astrology, palmistry, magic etc. Intellectual development was far more slow and uneven in former times.
3. History and sociology do not use terms like "civilised' and "uncivilised' for praise or abuse. They are used for food producers and food gatherers respectively. So the statement, 'the Aryans were not uncivilised' can mean only that they had passed to the stage of food production from the stage of food gathering and learned the use of metals. It is utterly false and illogical to imply that no section of the Aryans was backward, no section had retained the implements, superstitions, beliefs, habits and practices of savagery.
So we bave to conclude that the Aryans too had a backward section in socicty and exclusiveness was not a vice found in the nonAryans only. That leaves no justification for laying the blame for untouchability at the door of the exclusiveness of the Aryans only. Neither one nor any non-Aryan peoples can be held responsible for untouchability.
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References :
1. The Untouchables, p. 78 2 Matsyapurāna, Chap. 243, Verses 3-4; Mänavagrhyasūtra, II, 4 3. Vasistha-dharma-sutra, LXIII. 26 4. The Untouchables, p. 77 5. Do, p. 77 6. Vişnupurāņa, III. 17-18 7. Do, III, 18. Verses 53-101 8. Padmapurāņa, Uttarakhanda Chapter 234, Verses 25-26 and
Chapter 235, Verses 2-6 9. Do, Chap. 235, Verses 23-35 10. Do, , 11. Do, Chap. 236, Verses 3-12 12. De, Chap. 236, Verses 18-27 13. Kșitimohan Sen, Bharatavarşa men Jatibheda, 1952, p. 103 14. Abbe Dubois, Hindu Manners and Customs (3rd edition), p. 61
f.n 15. Gazetteer of Tanjore District (1906). p. 80 16. The Untouchables, pp. 75-76 17. Do, pp. 5-6 18. G. S. Ghurya, Race And Caste In India, 1969, fifth edition, p. 150 19. A L. Basham, The Wonder That was India, New York, 1963, pp.
145-146. 20. Kșiti Mohan Sen, Bharatavarşa meņ Jatibheda, Allahabad, 1952,
pp. 99-100 21. Do, p. 100 22. Do, p. 101 23. Do, p. 102 24. Do, p. 102 25. Do, p. 102 26. Do, p. 103 27. Do, p. 79 28. Do, p. 79 29. Ghurye, Race and Caste in India, Bombay, 1969, p. 144 30. Do, p. 143 31. Do. pp. 143-144 32. Do, p. 146 33. Do, p. 149 34. Do, p. 162 35. K. Sen, B.M.J., pp. 1-2.
-Upendranath Roy Matoli (Jalpaiguri)
W. B.-735 223
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तुलसी प्रज्ञा (भाग २० से २२) पूर्णांक ९० से १०० की
त्रैवार्षिकी लेखसूची (१९९४-९५ से १९९६-९७)
(लेखक अनुक्रम)
१. अतुल कुमार सिंह- . अनुत्तरोपपातिक दशा की विषय वस्तु २२।४।२५७-६५ २. अनिल कुमार जैन- ० क्या अकाल मृत्यु संभव है ? २०१३।२०९-१५ ३. अनिल कुमार धर- ० अनेकान्तवाद व नयवाद का दार्शनिक स्वरूप
२०।४।२९९-३०७ • दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद विरोधी आन्दोलन
२१।११६५-७६ ४. अशोक कुमार जैन- ० सुदर्शनोदय महाकाव्य का आचार दर्शन
२०११-२।८९-९४ ५. अशोक कुमार 'सहजानंद' - ० जैन तंत्र साहित्य
२२।२१८९-९० ६. आर. के. ओझा-- ० दाम्पत्य जीवन और उत्तरदायित्व । २१।२।१८१-१८६ ७. आनन्द कुमार- ० ब्राह्मणों की दार्शनिक मान्यताएं २१।२।११५-११९ ८. आनन्द प्रकाश त्रिपाठी- . जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में पुरुषार्थ चतुष्टय
२०११-२॥३७-४५ • आचार्य महाप्रज्ञ के चिंतन में ईश्वर
२०१४।३०९-३१५ • उपनिषदों में कर्म का स्वरूप २२।४।२५१-५६ ९. आचार्यश्री महाप्रज्ञ- ० कर्मवाद क्या है ?
२१।४।०१-०८ ० आर्य भाषा : स्वरूप एवं विश्लेषण २२।११०१-१२ १०. आनंद प्रकाश श्रीवास्तव -- ० एलोरा की जैन मूर्तियों का
शिल्पशास्त्रीय वैशिष्ट्य | २२।४।२८७-९३ ११. उदयचंद जैन- ० आचार्य कुन्दकुन्द की काव्यकला २२।३.१९५-२०४ १२. उपेन्द्रनाथ राय- मगध में काण्व शासन और युग पुराण २१।३।२७३-२७९ ० साहित्य लहरी के दो पद
२२।२।१२७-१३६
खण्ड
बंक ४
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१३. कमला पंत - ० भर्तृहरि और उनका विज्ञान शतक १४. कुमुद सिन्हा - • गांधीजी की शिक्षा में मूल्यपरक तत्त्व १५. कुमुदनाथ झा - ० जैन दर्शन का अपरिग्रहवाद
१६. कमलेश कुमार छः चोकिया
१७. के. आर. चन्द्र
१८. जयचन्द्र शर्मा
१९. जयश्री रावल
२०. जिनेन्द्र जैन
णमोकार महामंत्र सांगीतिक चिन्तन ● 'आषाढ़ का एक दिन' का कालिदास • भगवती आराधना के संदर्भ में मरण का
०
• 'अविमारकम्' में प्रयुक्त प्राकृत अव्यय पद
● 'प्रवचनसार' में छन्द की दृष्टि से पाठों का संशोधन
--
२१. जे. एन. जोशी
२२. दिनेश चन्द्र चौबीसा
o
स्वरूप
कर्म बंध और जैन दर्शन
२३. दयानंद भार्गव -
----
भर्तृहरि और उनका विज्ञान शतक
• अभिज्ञान शाकुन्तल में गान्धर्व विवाह : एक समस्या
कर्म सिद्धान्त के कतिपय सर्वमान्य पहलू
o
o
जैन तथा सांख्य दर्शनों में संज्ञान
O
२७. परमेश्वर सोलंकी
२४. निर्मल कुमार तिवारी२५. निर्मला चोरड़िया२६. नंदलाल जैन
O
• कर्म और कर्मबन्ध
कुन्द कुन्द की दृष्टि में आगम का स्वरूप
जैन कर्मवाद : वैज्ञानिक मूल्यांकन
०
० जीव की परिभाषा और अकलंक
० स्थानांग - आगम
०
जैन साहित्य एवं इतिहास लेखन • ऋग्वेद की मन्त्र - संख्या
o
मनुस्मृति और उसका कर्मफल सिद्धान्त
• आदि शाब्दिक और पारंपरीय प्राकृत
• तुलसी प्रज्ञा के अद्यावधि प्रकाशित पूर्णांक
• त्रैवार्षिकी लेख सूची
मानतुंग : भक्तामर स्तोत्र
•
जैन दर्शन में लेश्या - एक विवेचन
२८. प्रकाशचन्द्र जैन --०
२९. प्रद्युम्न शाह सिंह
३०. प्रबोध बे. पंडित-० प्राकृत के प्राचीन बोली विभाग
२०११-२१६१-७३ २०।४।३३५-३४१
२०।३।१६५-१६९
२२।१।२९-३६
२२।३।२०५-२१०
२२।१।३७-४२
२२।२।१५५-१५८
२०११-२।२९-३५
२२।४।२४३-५०
२०११-२।६१-७३
२०११-२।५५-५९
२१।४।०९-१२
२१।१२७-३१
२०।४।२६१-२६४
२०११-२१०९-२०
२१1१1०१-१०
२१४।१३-२२
२२।४।२७५-८५
२०११-२।११५-१२८ २०।४।३२७-३३४
२१।४।३९-४२
२२।१।७९-८७
२०।१-२।१४९-१५२
२२/४/१-१३
२१२१२१-१२६
२०१४/२८९-२९८
२२।११४३-६०
तुलसी प्रचा
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३१. बच्छराज दूगड़-० पर्यावरण-एक आध्यात्मिक दृष्टिकोण २०११-२१४७.५४
० अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति और शांति शोध २०।३।२२५-२३० ० शांति शिक्षा का स्वरूप और विकास २११११५१-५८ ० संघर्ष-निराकरण
२१।२।१८७-२०१ ३२. बव्वी कुमारी- ० मृच्छकटिककालीन भारतीय संस्कृति २२।१।६१-६८ ३३. मागचन्द्र जैन 'भास्कर'-- • जैन-बौद्ध दर्शन के कर्मवाद की कतिपय विशेषताएं
२११४१५१-५६ ३४. मधुरिमा मिश्र- भवभूति की दृष्टि में परिवार का स्वरूप २२।१।६९-७२ ३५. मनोहर शर्मा-- ० राजस्थानी भाषा में खड़ी बोली का प्रयोग २२।३।२२७-२३० ३६. ममता कुमारी- वाल्मीकि रामायण की ऊर्मिला २२।४।३२५-२९ ३७. मुन्नी जोशी- ० मार्कण्डेय पुराण में देवीशक्ति का स्वरूप २०१३।२०३-२०८ ३८. मुरारी शर्मा- • जैन योग और संगीत
२०११-२।१४३-४७ ३९. मंगलाराम ---- ० अहिंसा की दार्शनिक पृष्ठभूमि । २२।३।१७९-१९० ४०. रघुवीर वेदालंकार--- ० वाक्पदीय में काल की अवधारणा २१।३।२६७-२७१ ४१. रामदीप राय – ० कविराज राजशेखर रचित 'कर्पूर मंजरी' २२।२।१२१-१२६ ४२. राजवीरसिंह शेखावत - कुन्दकुन्द के दर्शन में चारित्र __का स्वरूप
२०११-२०७५-८८ ० कुन्दकुन्द के दर्शन में उपयोग की अवधारणा
२०१३।१७१-१७६ • वैदिक साहित्य में तत्व विचार २२।२।१०१-११० ४३. राजीव कुमार- • ब्राह्मणों की दार्शनिक मान्यताएं २१।२।११५-११९ ४४. लोकेश्वर प्रसाद शर्मा -- ० रामस्नेही संत रामचरणजी पर भीखणजी का प्रभाव
२०॥३॥१५७-१६४ ४५. लज्जा पंत-- . सारस्वत व्याकरण में समास
२११२।१५१-१५७ . ० रत्नावली में अलंकार सौन्दर्य
२२।२।१४५-१५४ ४६. विजयरानी- तस्मान्न बध्यते--एक विवेचन
२११११४५-५० . वाल्मीकि रामायण के दार्शनिक तत्त्व । २२।३।२१७-२२६ ४७. विनोद कुमार पाण्डेय- . जैन दर्शन में संल्लेखना २१।३।२६१-२६६ ४८. शिव प्रसाव- • काम्यक गच्छ
२११३।२८१-२८४ ४९. सरस्वती सिंह-- • आख्यात एवं धातु का दार्शनिक स्वरूप २२।१।२५-२८ ५०. सुनीता जोशी---- उपमा अलंकार के स्वरूप लक्षण २२।४।३०३-३०९ ५१. सुबोध कुमार नंद • वैदिक क्रियापद : एक विवेचन
२२।१।१२-१४ ५२. सुभाष चन्द्र सचदेवा-० अनेकान्त की सार्वभौमिकता २२।२।९७-१००
खण्ड २२, अंक ४
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२११३०२५१-६० २२।२।१११-११६
२२।२।९१-९६ २१।३।२३५-२४३ २०।३।१५३-१५६
२२।११७३-७८
५३. सुरेन्द्र वर्मा- . जैन दर्शन में शांति की अवधारणा
• आयारो में हिंसा-अहिंसा विवेक ५४. सुरेश कुमार जैन- ० जैनधर्म और पर्यावरण ५५. सोहनलाल पटनी--- ० ॐ नमः सिद्धम् ५६. सोहनलाल पुरोहित- • जैन धर्म में रथयात्रा महोत्सव ५७. संजय कुमार - • बौद्ध दर्शन में स्मृति प्रस्थानों का महत्त्व ५८. हरिशंकर पाण्डेय-- ० श्री मज्जयाचार्य विरचित चौबीसी
___एक अनुशीलन ० श्री मद्भागवतीय आख्यानों का
विवेचन • महाकवि महाप्रज्ञ का जीवन दर्शन ० उपनिषद् और आचारांग • णायकुमारचरिउ का नायक • उपनिषदों और जैन दर्शन में
आत्म स्वरूप चिंतन
२०११-२।९५-१०६
२०१३।२१७-२२४ २०१४।२७३-२८७ २११२।१३५-१५० २२।३।२३१-२३६
२२।४।३१५-२३
| साधु-साध्वी-समणी वृन्द
५९. मुनि कामकुमार नन्वी- श्रुत परम्परा
२०१३।१९३-९६ ६०. मुनि गुलाब चन्द निर्मोही- तेरापन्थ में प्राकृत साहित्य का
उद्भव और विकास
२०१३।१७७-९२ • मनः पर्याय ज्ञान भी संभव है २२।३।१६१-१७०
• काव्य के तत्त्व और परिभाषाएं २२।४।२९५-३०२ ६१. मुनि धर्मश-० कर्मबंध-एक जैव मनोवैज्ञानिक विश्लेषण २४।२३-२८ ६२. मुनि महेन्द्रकुमार- जागतिक नियमों के संदर्भ में कर्मवाद २१।४।३३-३८ ६३. मुनि श्री चंद 'कमल'- पंच संधि की जोड़
२१।२।१५९-१८० • वनस्पतियों में जीवेन्द्रिय संज्ञान २२।३।११७-२० ६४. मुनि सुखलाल-० कर्म और जैनेटिक संरचना
२१।४।२९-३२ ० श्रुतज्ञान-एक मीमांसा
२२।३।१९१-९४ ६५. साध्वी श्री जतनकुमारी 'कनिष्ठा'-- • ओघनियुक्ति में उपधि २१:३।२४५-५० ६६. साध्वी मुक्ति यशा-- ० हां ! कर्म बदला जा सकता है। २११४।४३-५० ६७. साध्वी विश्रुत यशा-० जिनकल्प की समाचारी
२२।३।२११-१६
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६८. साध्वी संचित यशा
६९. समणी ऋजुप्रज्ञा
७०. समणी कुसुमप्रज्ञा७१. समणी चैतन्य प्रज्ञा
-0
स्तुति
तत्त्व
• दशवैकालिक और धम्म पद में भिक्षु
हरिकेशीय आख्यान
पंचमहाव्रत एक संक्षिप्त विवेचन
७२. समणी प्रसन्न प्रज्ञा
८२. प्रतापसिंह - • ८३. शक्तिधर शर्मा
• आत्म परिमाण
७६. समणी स्थित प्रज्ञा
२२, अंक ४
०
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७३. समणी मल्लिप्रज्ञा७४. समणी प्रतिमा प्रज्ञा-७५. समणी मंगल प्रज्ञा
०
०
निर्युक्ति के रचनाकार ध्यान द्वात्रिंशिका
• भगवती में सृष्टि तत्त्व
• भक्ति और आराध्य का स्वरूप
०
कर्पूरमंजरी का सौन्दर्य निकष • मनोविकास की भूमिकाएं
काल क्रम और इतिहास खण्ड
७७. गणपतिसिंह - ० सोलंकी राजवंश का यायावरी इतिहास गुलाबचंद निर्मोही - ० वेद और आगमकाल में पर्दा प्रथा ७९. चंद्रकांतबाली -- विक्रम संवत ३६ ईसवी पूर्व
७८.
८०. नीलम जैन - ० जैन मेघदूत के रचनाकार आचार्य मेरुतंग
८१. परमेश्वर सोलंकी - ० भाबरा की देवलियां
अनेकांत दृष्टि का व्यापक उपयोग ० सूत्रकृतांग में कर्म संबंधी चिन्तन • ज्ञान का स्वरूप विमर्श
• कर्म सिद्धांत और क्षयोपशमिक भाव
● 'संबोधि' के आगमिक स्रोत
O
प्रेक्षाध्यान की मनोवैज्ञानिकता
• 'संबोधि' में प्रयुक्त छन्द
० 'संबोधि' में कर्मवाद
८४. श्रीचंद कमल' ८५. संदीप कुमार - ० शैव जैन तीर्थं ८६. हनुमानमलजी ( सरदारशहर)
● भारत में ईशामसीह का आगमन
० नव कुरूक्षेत्र निर्माण - प्रशस्ति सृष्टि संवत्
• मास और राशियों का निर्धारण
• मानव और देवताओं का कालमान
वटेश्वर
• विक्रमण संवत्सर
न्यूनाधिक मास
२०।३।२३७-२४२
२१।१।३९-४४
२१।२।१२७-१३४
२१।३।२८५-९१
२२।३।२६७-७४
२०११ - २।१०७-११४
२०।३।१९७ - २०२
२१।१।३३-३८
२०/४/२६५-२७२
२२।३।१३७-४४
२२।४।३११-१४
२०११-२।२१-२८ २११४१७१-७८
२१।१।११-२६
२१।४।५७ - १४
२०११-२१२९-४२
२०१३।२३१-३६
२०।४।३१७-३२६ २१/४/६५-६७
२२/११०१-१४
२२।३।११-१६
२२।३।०५-१०
२२।४।१५-१८
२२।१।२९-३२
२२।३।०३-०४
२२/४१०७-१४
२२।१।३३-३८
२२/४/०३-०६
२२।१।१५-२०
२२।४।१९-२२
२२.१२१-२८
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प्रकोणकम् खण्ड
८७. गणपतिसिंह - ० मरुमण्डल की धारा नगरी भीनमाल २।२।२२९-२३० ८८. जयचंद शर्मा- ० तेरापंथ शब्द-वैज्ञानिक अध्ययन
२०१४/३४७-८ ० संगीत संबंधी एक रहस्यमय पद
२१॥३॥३४१-४३ ० णमो सिद्धाणं: नाद सौन्दर्य
२२।३।१९-२१ ८९. जीतेन्द्र वी शाह- ० श्री विनय विजयोपाध्यायविरचित
नयकणिका २११२।२०९-२१४ ९०. झूमरमल बैंगानी-० नक्षत्र भोजन के मांस परक
शब्दों का अर्थ २२।३।०७-१७ ९१. निर्मला चोरडिया- जैन बौद्धों में प्रव्रज्या के हेतु
२२।४।१५-२० ९२. परमेश्वर सोलंकी--- ० जयोदय महाकाव्य में प्रतिबिम्ब
अद्यतन इतिहास २१११।९७-१०१ • रोडेराव की राउरवेल का मूलपाठ २२।२।०९-२० ० ४५ जैनागमों का सुवर्णाक्षरी मूलपाठ । २२।२।५१-५३ • वृद्धि नवकार मंत्र कल्प
२२।३।०३-०५ ० किं नाग्न्यम् १
२२।४।०९-१३ ० बन्यो भवेत् स कालुरामः
२२।४।२१-२४ ९३. प्रबोध चंद बागची- ० बंगदेश में जैनधर्म का प्रारम्भ २१।१।१११-११४ ९४. प्रियका प्रियदशिनी-० कथानक रूढियों के आलोक
में संस्कृत प्राकृत के पद्य कथाकाव्य २१।२।२२३-२२८ ९५. फणीलाल चक्रवर्ती - ० नागौर इतिहास के झरोखे से २०१४१३४५-४६ ९६. महावीर शास्त्री-- ० प्राकृत बिना संस्कृत पंगु है । २१।१।१०७-१०९ ९७. मुनि गुलाबचन्द 'निर्मोही -• बीस विहरमान
२२।४।०३-०७ ९८. मुनि दुलहराज-- ० योगविशिका
२२२२।०१-०८ ९९. मुनि श्रीचंद 'कमल'-- ० वर्णमाला में जैन दर्शन
२१।३।२९५-३१६ ० नक्षत्र भोजन के मांस परक ___ शब्दों का अर्थ
२२।३।०७-१७ ० गणित प्रतिभा के धनी मुनिश्री
हनुमानमलजी २२।४।२५-३२ १००. मुनि जोशी- परम विदुषी मदालसा
२१।३।३१७-२१ १०१. मुनि हनुमानमलजी- ० राजस्थानी कहावतें
२२।२।२१-४४ १०२. रामजीसिंह- 0 मेरा जीवन दर्शन
२०११-२१०१-०८ १०३. विनीता पाठक- ० श्रीमद्भागवदनुस्यूत भक्ति में भारतीय दर्शनों का समन्वय
२१।३।३२३-२९
तुलसी प्रज्ञा
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२२१२१४५-५० २२११००१-१६
१०४. शक्तिधर शर्मा- प्रामाण्यवाद और क्वान्तम्धारणा १०५. समणी कुसुम प्रज्ञा- • दशकालिक नियुक्ति १०६. समणी सत्य प्रशा--- 'महाप्रज्ञ अतीत और वर्तमान'
में उपलब्ध सूक्तियां १०७. समणी स्थितप्रज्ञा- . संबोधि में अलंकर १०८. सोहनलाल पटनी- ऋतंच सत्यंच १०९. सुभाषचंद सचदेवा-- • जैन दर्शन नास्तिक नहीं है ११०. हरिशंकर पांडेय- ० तुलसी स्तोत्रम्-एक परिचय
० रत्नपाल चरित्र में अलंकार सौन्दर्य ० भागवतीय आख्यानों का विवेचन
२०१४१३४९-३५६ २११२।२१५-२२१ २१११११०३-१०५ २१।२।२०५.२०८ २०१४१३५७-३.६२
२१।११७९-९६ २११३३३३७-३४०
साहित्य सत्कार और ग्रन्थ चर्चा खण्ड १. भाग २० अंक ३ समीक्षक-परमेश्वर सोलंकी १. आचारांग भाष्यम्- (मूलपाठ, संस्कृत भाष्य, हिन्दी अनुवाद, तुलनात्मक टिप्पण,
सूत्र भाष्यानुसारी विषय विवरण, वर्गीकृत विषय सूची तथा विविध परिशिष्टों से समलंकृत)-आचार्य महाप्रज्ञ, जैन
विश्व भारती संस्थान, लाडनूं २. श्रीमद् भागवत की स्तुतियों
का समीक्षात्मक अध्ययन-डॉ. हरिशंकर पांडेय, जैन विश्व भारती संस्थान, लाडनूं ३. जयोदय-महाकाव्य (उत्तरांश) ---महाकवि भूरामल, ज्ञानोदय प्रकाशन, पिसनहरी ४. जयोदय महाकाव्य का शैली वैज्ञानिक अनुशीलन-डॉ. कु. आराधना जैन, श्री दिगम्बर जैन मुनि संघ चातुर्मास
सेवा समिति, गंजबासौदा ५. सप्तसंधान काव्य एक समीक्षात्मक अध्ययन-डॉ. श्रेयांस कुमार जैन, अरिहन्त इन्टरनेशनल बी. ५।२६३,
यमुना विहार, दिल्ली-५३ ६. जिनवाणी के मोती--- दुलीचन्द जैन, जैन विद्या अनुसंधान प्रतिष्ठान १८, रामानुज
अय्यर स्ट्रीट, साहुकारपेट, मद्रास-७२ ७. महामन्त्र णमोकार का मनोवैज्ञानिकअन्वेषण-डॉ. रवीन्द्रकुमार जैन, केलादेवी सुमति प्रसाद ट्रस्ट बी. २२६३, यमुना
विहार, दिल्ली-५३ ८. देव शास्त्र और गुरु--डॉ. सुदर्शन लाल जैन, अखिल भारतीय दिगम्बर जैन
परिषद्, १, सेन्ट्रल स्कूल कॉलोनी वाराणसी-५ ९. कर्मबंध और उसकी प्रक्रिया-पं. जगमोहनलाल शास्त्री, निजज्ञानसागर शिक्षाकोष
मेडीक्योर लेबोरेट्री बिल्डिंग, प्रेम नगर, सतना.. खण्ड २२, मंक४
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१०.बिन्दवारा के प्रकाशन-श्री दिगम्बर जैन समाज, छिन्दवाड़ा ११. शान्ता सुधारस-संस्कृत गेय काव्य-उपाध्याय श्री विनयविजयजी श्री जैन
श्वेतांबर मूर्तिपूजक संघ, पेढ़ी १२. स्वाध्याय शिक्षा-डॉ. धर्मचन्द जैन, सम्यक् ज्ञान प्रचारक मंडल, जयपुर १३. पाइय कहाओ-साध्वी कंचन कुमारी, आदर्श साहित्य संघ, चूरू १४. सरण मछम्बर गौरख बोले-मदनलाल शर्मा, श्रद्धा प्रकाशन, पिलानी १५. कायमखानी वंश का इतिहास-डॉ० रतनलाल मिश्र, कुटीर प्रकाशन, मण्डावा (II) भाग-२१ अंक-२ समीक्षक-परमेश्वर सोलंकी १६. रेस्टोरेशन ऑफ दी ओरिजिनल लेग्ज ऑफ महंमागधी टेक्टस् –डॉ. के. आर. चन्द्र, प्राकृत जैन विद्या विकास फण्ड,
अहमदाबाद १७. स्व. विमलप्रसाद जन स्मृति प्रकाशन-प्रकाशक विजयकुमार जैन (III) भाग-२१ अंक ३ समीक्षक-परमेश्वर सोलंकी १८. जैन मागम : वनस्पतिकोश-संपादक-मुनि श्री चंद 'कमल', जन विश्व भारती,
लाडनूं १९. जैन योग के सात प्रन्थ-अनुवादक-मुनिश्री दुलहराज, जैन विश्व भारती लाडनूं २०. योग की प्रथम किरण--साध्वीश्री राजीमती, प्रज्ञा प्रकाशन, २०५४ हल्दियों का
रास्ता, जौहरी बाजार, जयपुर-३ २१. सुगन्ध समय की, सरोवर की लहरें-मुनिश्री मोहनलाल 'शार्दूल', आदर्श साहित्य
___ संघ, चूरू २२. मानवता ना वीवा और जिनमक्ति-लक्ष्मीचंद छः सिंघवी, २, धुतपापेश्वर
बिल्डिग, मंगलकड़ी, २४० शंकर सेठ रोड़
मुम्बई-४ २३. न्यायवतार सूत्र-विवेचक पं. सुखलाल संघवी, शारदाबेन चीमनभाई एज्यूकेशनल
__ रिसर्च सेन्टर, शाहीबाग अहमदाबाद-४ २४. आत्म समीक्षण-संपादक-शांतिचन्द्र मेहता, अखिलभारतीय साधुमार्गी जैन संघ
समता भवन, बीकानेर २५. सागर मंथन-आचार्य विद्यासागर-प्रवचनसंग्रह-श्रीमती पुष्पादेवी पुत्रवधु श्री .
दर्शनमाला जैन, जैन गली, हिसार (IV) भाग-२२ अंक २ समीक्षक-परमेश्वर सोलंकी : सीताराम दाधीच २६. अमृतम् (पण काव्य)-मुनि सुखलाल, अखिल भारतीय तेरापंथ युवक परिषद्
लाडनूं २७. पाइय परिविबो-मुनि विमल कुमार, जैन विश्व भारती, लाडनूं २८. नवनीत (बन विज्ञान विचार संगोष्ठी)-ऋषि प्रकाशन, झांसी
तुलसी प्रज्ञा
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२९. जैन दर्शन । वैज्ञानिक दृष्टियो – मुनिश्री नंदीघोषविजयजी, श्री महावीर जैन विद्यालय, अगस्त क्रांति मार्ग, मुम्बई
३०. ग्लोसरी ऑफ जैन टर्मस – डॉ० नंदलाल जैन, जैन इन्टरनेशनल, २१, सौम्य, अहमदाबाद- १४
३१. हासियो तोड़ता शब्द - रवि पुरोहित, राष्ट्र भाषा हिन्दी प्रचार समिति, श्रीडूंगरगढ़
३२. पं० आशाधर : व्यक्तित्व और कर्तृत्व- पं० नेमचंद डोंणगांवकर अखिल भारतवर्षीय दिगम्बर जैन बघेरलाल संघ, कोटा ३३. पंचाल - संपादक, डॉ० ए. एल. श्रीवास्तव, पंचाल शोध संस्थान ४२/१६ सक्कर पट्टी, कानपुर-१
(v) भाग - २२ अं ३ समीक्षक -- परमेश्वर सोलंकी
३४. परम्परागत प्राकृत व्याकरण की समीक्षा
और अर्धमागधी - डॉ. के. आर. चन्द्र, प्राकृत जैन विद्या विकास फण्ड, अहमदाबाद ३५. शोध और स्वाध्याय -डॉ० हरिवल्लभ भायाणी, गुजरात साहित्य अकादमी, गांधीनगर
३६. निर्ग्रन्थ- संपादक डॉ० एम. ए. ढाकी एवं जितेन्द्र शाह, शारदा बेन चिमन भाई एन्यूनेशनल रिसर्च सेन्टर, शाहीबाग, अहमदाबाद- ४
३७. अड़बो - श्याम महर्षि की कवितावां, राजस्थानी विभाग, राष्ट्रभाषा हिन्दी प्रचार समिति, श्रीडूंगरगढ़
३८. मूकमाटी : चेतना के स्वर -डॉ. भागचन्द जैन 'भास्कर' जेजानी चेरिटेबल ट्रस्ट / आलोक प्रकाशन, सदर, नागपुर
(VI) भाग २२ अंक ४ : समीक्षक- परमेश्वर सोलंकी
३९. श्री हजारीमल बांठिया
अभिनन्दन ग्रन्थ- संपादक - डा० गिर्राज किशोर अग्रवाल, श्री हजारीमल बांठिया सम्मान समारोह समिति, साकेत कॉलोनी, अलीगढ़
४०. जिन स्तोत्र संग्रह - गणिनी आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी, दिगम्बर जैन त्रिलोक शोधसंस्थान, हस्तिनापुर
४१. द्रव्य संग्रह - ( आचार्य नेमिचन्द्र ) दोहानुवाद-मुनि समता सागर, विजयकुमार मनीषकुमार, पिण्डरई
४२. शीलमंजूषा - संकलन कर्तृ-आर्यिका विशालमती माताजी, जयंती प्रसाद जैन, ज्ञान गंगा प्रकाशन, दरियागंज, दिल्ली
४३. खामोश लम्हें सुषमाबंद, ३-४-३०८१७ परवरिश बाग, लिंगमपल्ली, कांचीगुड़ी, हैदराबाद-२७
४४. सपर्या - महाश्रमण मुदितकुमार, सुरेन्द्रकुमार सुखानी, सुखानी मोहल्ला:, बीकानेर
खण्ड २२, अंक ४
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संपादकीय खण्ड
४५. भाग-२० अंक १-२-संपादक-परमेश्वर सोलंकी
सदा वन्दनीयो महाप्रज्ञः ४६. भाग-२० अंक-३-गुरुदेव का आशीर्वाद
'महाप्रज्ञ हो महाप्रज्ञ जैसा' ४७. भाग-२१ अंक-३ : संपादक-परमेश्वर सोलंकी ___ॐकार की महिमा और संवृत 'अ' ध्वनि' ४८. भाग-२१ अंक-४ : संपादक-परमेश्वर सोलंकी
कर्म करना नियति है।' ४९. भाग-२२ अंक-१ : संपादक-परमेश्वर सोलंकी
'शौर सेनी' कहने का आग्रह क्यों ? ५०. भाग-२२ अंक-३ : संपादक-परमेश्वर सोलंकी ___ "ईसा-मूसा के समाधि-स्थल' ५१. भाग-२२ अंक-४ : संपादक-परमेश्वर सोलंकी 'जर्मन विद्वान् पीटर फुगेल का थीसिस,
English Section 1. Anand Kashyap- The Concept of development
and Man
A Quandary for the Sociology
of Health 2. Anil Datta Mishra- Religion and Science : A
Sociological Analysis Perils of Indian Education System Communalism and women Status of women and Girl.
Child 3. Anil Kumar Dhar Non-violence in Medical
Science Relevance of Anekant to the
Modern Times 4. A. Ekambaranatban New light on Epigraphs
from Chittamur 5. A.N Pandeya- Karma : Paradoxes and
Perspectives 6. Bamadev Senapaty- Members of syllogism 7.,B.B. Raymade- Doctrine of Karman
22/2/81-93 22/4/151-57 20/1-2/51-56
20/4/131-134
21/1/09-12
21/2/65-75
21/3/111-116
22/4/73-88
22/4/124-5
21/4/09-18 20/3/91-96 21/4/01-03
तुलसी प्रज्ञा
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8. Bhagchand 'Bhaskar'- Jain Conception of Reality Development of Studies in Prakrit Grammer and Linguistics
9. B.K. Chhajer- Temperature Biofeedback: An experimental Review and Research Some Guide Lines for Happy Meaningful and Successful Life found in the Uttaradyayan Sutra
The Nālaḍiyār
Jain Concept of Rebirth Man and Environment Science, Education and Spirituality
10. B.K. Khadabadi
The
11. Ch. Lalitha12. Chitralekha Jain - 13. Deepika Kothari
14. Devarat N. Pathak
Gandhi's Approach to Communalism Apahnuti Alankara Army Problem in Kautilyas Arthasastra
An Incomplete Ms. of Gopa-Leela Dharma Kathas in Pali and Prakrit
15. Dhananjaya Bhanja
16. Gourishankar Tripathy
17. G.V. Tagare
18. Hulaschand Golchha19. Himanshu Bowrai
20. Harishankar Pandey
Religion & Science Foundation of Gandhian Religious Thought
21. Jagatram Bhattacharya
Magadhi Passages in Prakrit Grammar
22. J.P.N. Mishra Temperature Biofeedback : An experimental Review & Research
23. Marutinandan Pd. Tiwari
25. Muni Dharmesh
खण्ड २२, अंक ४
24. Manikamma S. Kabadagi
Acharya Mahaprajna : The Truth of the Nomenclature
The Role of Jain Ladies
Jaina and Brahmanical Art: A study in Mutuality
Science Consciousness-A way to Harmony & Global Peace
21/1/13-31
22/1/25-39
20/3/77-85
20/4/107-110 21/3/117-119
21/4/39-41
21/4/11-16
22/1/03-06
21/1/03-08 21/3/105-110
22/2/95-98
22/2/43-45
20/3/87-90
22/3/107-110
20/4/151-154
21/3/95-98
21/2/61-64
20/3/77-85
22/4/159-65
22/4/167-71
22/3/111-116
23
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________________
26. Muni Mahendra Kumar, The Jaipa Doctrine of
Karman and the
Science of Genetics 21/4/31-36 27. N.K. Devaraja— Contemporary Relevance of
Traditional Indian Values 20/1-2/31-35 28. Nagendra Kr. Singh - Ancient Indian Polity as
depicted in Jain Canonical Literature
20/4/117-121 29. Narendra Kumar Dash- Jayanand: The Kash
mirian Tibetologist 20/4/123-130 Buddhist's view on Universal Love and Tolerance
22/1/15-21 Education in Ancient India as Known from Buddhist works
22/2/71-79 30. Nathamal Tatia- The Jaina Doctrine of Karman
& The Science of Genetics 21/4/31-36 31. N.L Jain- Theory of Relativity & Anekantvad
22/2/47-69 32. Parameshwar Solanki - A Treasury of Jain Tales' -Review
20/3/97-99 Violence & Non-violence 20/4/103-105 The Vital Force
21/1/33-38 Two Indian Traditions of Karma Theory
21/4/19-24 33. PB Desai - Jaina Epigraphy I
22/3/117-123 34. Rajaram Shastri Social Work Traditions in India I
22/4/189-198 35. Ratanlal Mishra- The Jain Stupa and its inspirational Source
21/3/99-101 36. Rajendra Prasad - Dr. S. Radhakrishnan
21/2/41-42 37. Rani Majumdar- Vidyas in the Vasudevahindi 22/1/7-14 38. Sagarmal Jain-- Religious harmony & Fellowship of Faiths
20/1-2/1-17 39. Sampooran Singh - Science and Spirituality on Global Governance
20/1-2/19-29 40. S.S. Barlingay- A Background Picture of Jainism & Buddhism
20/1-2/37-50 41. Sureshchandra Jain- Effects of Science teaching on Social Values
21/2/55-60 World Peace through Jaina's way of Living
21/3/103-104 Cultural strategies for Pollution Control
22/4/149-50
तुलसी प्रज्ञा
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________________
42. S.D. Sharma- Jain Theory & Quantum Mechapical Concepts
21/4/25-30 43. S. Krivov Computer Modeling of Karma
21/4/37-38 Jain Karma Theory
22/2/99-102 44. Sajjan Singh Lishk - Some Unique Features of the
Jain School of Astronomy 22/1/23-24 45. T.M. Dak Doctrine of Karma & Social development
21/4/05-08 46. Tatiana Blagova - Tolstoy & Gandhi
20/4/143-149 47. Upendranath Roy Origin of Untouchability I 20/1-2/57-67
20/4/135.41 III 21/3/79-94 IV 22/3/131-145
22/4/199-220 48. Vrashabh P. Jain- Some Merits of Katantra 21/2/47-53 49. V.P. Singh- Heart Disease : Cause & Prevention 22/3/127-129
-परमेश्वर सोलंकी
II
खड २२, बंक ४
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१. तुलसी प्रज्ञा २. त्रैमासिक
फार्म-४
(नियम ८ देखिए )
३-४-५. डॉ० परमेश्वर सोलंकी
भारतीय
जैन विश्वभारती संस्थान, लाडनूं - ३४१३०६
६. जैन विश्व भारती संस्थान, मान्य विश्वविद्यालय, तुलसी ग्राम, लाडनूं-३४१३०६
७. मैं परमेश्वर सोलंकी एतद् द्वारा घोषणा करता हूं कि मेरी अधिकतम जानकारी एवं विश्वास के अनुसार ऊपर दिये गये विवरण सत्य हैं ।
दिनांक २८, फरवरी, १९९७
परमेश्वर सोलंकी
प्रकाशक
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________________ Registration Nos. Postal Department : NUR-D Registrar of News Papers India : R.N.I. No. 28340/7 TULSI-PRAJNA 1996-97 Vol. XXII Annual Subs. Rs 60/- Rs 20/- Life Membership Rs. 600/प्रकाशक-संपादक : डॉ. परमेश्वर सोलंकी द्वारा जैन विश्व भारती प्रेस, लाडनूं (भारत)-३४१३०६ में मुद्रित कराके प्रकाशित किया गया।