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है । परन्तु नन्दी में इस विषय में एक श्रुत-स्कन्ध, तीन वर्ग तथा तीन उद्देसणकाल तो कहा गया है, पर इसके अध्ययनों की संख्या व नाम का कोई उल्लेख नहीं है । इसी विषय में समवायांग सूत्र में प्रस्तुत बंग के एक श्रुतस्कन्ध, दस अध्ययन, तीन वर्ग तथा दस उद्देसणकाल कहा गया है । अध्ययन का नाम यहां भी नहीं है। समवायांग के वृत्तिकार इस संबंध में लिखते हैं "इह तु दश्यते दश-इति अत्र अभिप्रायो न ज्ञायते इति ।" अर्थात् इस भेद का हेतु ज्ञात नहीं है। ऐसा लगता है कि वल्लभी वाचना के पहले तक स्थानांग का ही पाठ उपलब्ध था और बाद में समवायांग में
धन कर इसका दस उहे सणकाल किया गया परन्त नन्दी की रचना तक इसका वर्तमान स्वरूप स्थिर हो गया था। नन्दी में उपलब्ध तीन वर्ग और तीन उद्देसणकाल से युक्त अनुत्तरोपपातिकदशा वल्लभी वाचका (देवद्धिगणि) के समय में अस्तित्व में आ गयी थी।
स्थानांग में उल्लिखित 'अतिमुक्तक' नामक अध्ययन वर्तमान में आठवें अंग अन्तकृद्दशा के षष्ठ वर्ग का पन्द्रहवां अध्ययन है। इसी प्रकार दिगम्बर-परम्परा के ग्रंथों में प्राप्त वारिषेण नामक अध्ययन वर्तमान में अन्तकृद्दशा के चौथे वर्ग का पांचवा अध्ययन है । वर्तमान में उपलब्ध अनुत्तरोपपातिकदशा के तृतीय वर्ग के पांचवे अध्ययन में रामपुत्र का उल्लेख है, जिसकी गणना स्थानांग एवं तत्वार्थराजवातिक में आठवें अंग अन्तकृद्दशा के चौथे अध्ययन के रूप में की गयी है । रामपुत्र का नाम निर्देश हमें सूत्रकृतांग ऋषिभाषित" एवं पालित्रिपिटक साहित्य में मिलता है। स्थानांग" के अनुसार द्विगृद्विदशा के एक अध्ययन का नाम भी रामपुत्र है । सूत्रकृतांग में रामपुत्र का उल्लेख अर्हत्-प्रवचन में एक सम्मानित अर्हत् ऋषि के रूप में किया गया है। यहां इनका उल्लेख असित देवल, नमि, नारायण, बाहुक, द्वैपायन, पाराशर आदि के साथ हुआ है और इन्हें निर्ग्रन्थ प्रवचन में मान्य (इहसम्मत्ता) कहा गया है और यह बताया गया है कि इन्होंने आहार आदि का सेवन करते हुए मुक्ति प्राप्त की। ऋषिभाषित में भी रामपुत्र का उल्लेख अहंत् ऋषि के रूप में किया गया है। पालि त्रिपिटक के अनुसार इनका पूरा नाम उद्दक रामपुत्र था । ये आयु में बुद्ध से बड़े थे। प्रारम्भ में बुद्ध ने इनसे ध्यान साधना की शिक्षा ली थी, किन्तु जब बुद्ध ज्ञान प्राप्त करने के बाद इनको उपदेश देने जाने को तत्पर हुए, तो उन्हें ज्ञात हुआ कि इनकी मृत्यु हो चुकी है । इस ग्रन्थ से यह भी पता चलता है कि इनकी योग-साधना की अपनी विशिष्ट पद्धति थी और पर्याप्त संख्या में इनकी शिष्य सम्पदा थी । बुद्ध का इनके प्रति समादर का भाव था । ऐसा लगता है कि अनुत्तरोपपातिक की रचना तक इनकी कथा प्रसिद्ध रहने के कारण इन्हें इसमें संकलित कर लिया गया ।
वर्तमान में उपलब्ध अनुत्तरोपपातिकदशा के प्रथम वर्ग के जालि, मयालि, उपयालि, पुरुषसेन और वारिषेण नामक अध्ययन भी अन्तकृद्दशा के चौथे वर्ग का पांचवां अध्ययन है । अन्तर सिर्फ इतना है कि अन्तकृद्दशा में इनके पिता वसुदेव, माता धारिणी, नगर, द्वारिका एवं दीक्षा गुरु के रूप में बाइसवें तीर्थकर अरिष्टनेमि का नाम उल्लिखित है । इसी प्रकार प्रथम वर्ग में वेहल्ल और द्वितीय वर्ग में हल्ल
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.. तुलसी प्रज्ञा
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