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________________ अनुत्तरोपपातिकदशा का वर्तमान स्वरूप वर्तमान में जो अनुत्तरोपपातिकदशा उपलब्ध है वह देवद्धिगणिक्षमाश्रमण की अध्यक्षता में संपन्न बल्लभी की तृतीय वाचना (लगभग ५ वीं सदी) में संग्रहित है। इस संस्करण में तीन वर्गों में कुल ३३ अध्ययन हैं । प्रथम वर्ग में दस अध्ययन हैजालि, मयालि, उपयालि, पुरुषसेन, वारिषेण, दीर्घदन्त, लष्टदन्त, वेहल्ल, वेहायस और अभय । द्वितीय वर्ग में तेरह अध्ययन हैं - दीर्घदन्त, महासेन, लष्टदन्त, गूढ़दन्त, शुद्धदन्त, हल्ल, द्रुम, द्रमसेन, महाद्र मसेन, सिंह, सिंहसेन महासिंहसेन और पुण्यसेन । तृतीय वर्ग के दस अध्ययन हैं-धन्यकुमार, सुनक्षत्र, ऋषिदास, पेल्लक, सामपुत्र, चन्द्रिक, पृष्टिमातृक. पेढालपुत्र, पोष्टिल्ल तथा वेहल्ल । इसमें प्रथम और द्वितीय वर्ग के सभी तेईस अध्ययन मगध सम्राट् श्रेणिक के तेईस राजकुमारों से संबंधित हैं । इसमें प्रथम वर्ग में वेहल्ल और वेहायस की माता का नाम चेलना, अभयकुमार की माता का नाम नन्दा देवी तथा शेष बीस की माता का नाम धारिणी देवी है । तृतीय वर्ग के सभी दस अध्ययन भद्रा सार्थवाही के पुत्रों से संबंधित है । पर यहां उनके जन्म-नगरों में अन्तर है । धन्यकुमार और सुनक्षत्र का जन्मनगर काकन्दी, ऋषिदास, पेल्लक एवं वेहल्ल कुमार का राजगुह, रामपुत्र और चन्द्रिकुमार का साकेत, पृष्टिमातृक और पेढालपुत्र का वाणिज्यग्राम एवं पोष्टिल्ल का जन्मनगर हस्तिनापुर है। इससे यह ज्ञात होता है कि भद्रा एक महिला का नाम नहीं बल्कि इस नाम की कई महिलायें रही होंगी या फिर एक ही भद्रा सार्थवाही का कई नगरों में व्यवसाय रहा होगा, जहां वह बारी-बारी से रहती होंगी। समीक्षा :-स्थानांग में उल्लिखित दस नामों में से मात्र तीन माम ऋषिदास, धन्य और सुनक्षत्र वर्तमान में तृतीय वर्ग में हैं। ये तीनों नाम राजवातिक, धवला और अंगप्रज्ञप्ति में भी प्राप्त होते हैं। राजवातिक आदि दिगम्बर-परम्परा के ग्रन्थों में उपलब्ध दो और अध्ययन-वारिषेण और अभय वर्तमान में उपलब्ध अनुत्तरोपपातिकदशा के प्रथम वर्ग में उपलब्ध है। इससे यह स्पष्ट है कि स्थानांग की अपेक्षा वर्तमान में उपलब्ध अनुत्तरोपपातिकदशा का प्रथम एवं द्वितीय वर्ग पूरा एवं तृतीय वर्ग के सात अध्ययन प्रक्षिप्त हैं तथा दिगम्बर-परम्परा के ग्रंथों की अपेक्षा प्रथम वर्ग के अभय और वारिषेण नामक अध्ययन को छोड़कर शेष आठ अध्ययन, द्वितीय वर्ग संपूर्ण एवं तृतीय के ऋषिदास, सुनक्षत्र और धन्य, अध्ययन को छोड़कर शेष सात अध्ययन प्रक्षिप्त हैं। स्थानांग सूत्र के वृत्तिकार अभयदेवसूरि स्थानांग में वर्णित शेष नाम प्रस्तुत सूत्र की किसी अन्य वाचना में उपलब्ध होने की संभावना व्यक्त करते हैं, प्रस्तुत वाचना की अपेक्षा से नहीं । “तदेवमिहापि वाचनान्तरापेक्षया-अध्ययन विभाग उक्तो न पुनरुपलभ्यमान वाचनापेक्षयेति'१५ समवायांग और नन्दी-सूत्र में जहां अनुत्तरोपपातिक का परिचय है, वहां इस सूत्र की वाचना परिमित अर्थात्-- अनेक बतलायी गयी है । संभव है कि इसके पूर्व की आर्य स्कंदिल की माथुरी वाचना या नागार्जुन की बल्लभी वाचना के समय ये पाठ रहे हों, परन्तु कालान्तर में इनमें परिवर्तन हुआ।। जहां तक वल्लभी वाचना में उपलब्ध पाठ का प्रश्न है, यह नन्दी में प्राप्त होता खण्ड २२,बंक ४ २५९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524586
Book TitleTulsi Prajna 1996 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size10 MB
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